श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ब्रहमणह संगि उधरणं ब्रहम करम जि पूरणह ॥ आतम रतं संसार गहं ते नर नानक निहफलह ॥६५॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: संगि = साथ, संगति में। उधरणं = उद्धरणं, उद्धार। ब्रहम = परमातमा। ब्रहम करम = हरी नाम सिमरन का कर्म। जि = जो। आतम = अपना आप, अपना मन (आत्मन्)। रतं = रति हुआ। गहंते = (गच्छन्नि) चले जाते हैं, जीवन गुजार जाते हैं। नर = वे मनुष्य, वे लोग। निहफल = (निष्फल = fruitless) असफल।

अर्थ: जो मनुष्य हरी-सिमरन के काम में पूरा है वह है असल ब्राहमण, उसकी संगति में (औरों का भी) उद्धार हो सकता है।

(पर) हे नानक! जिन मनुष्यों का मन संसार में रति होया हुआ है वह (जगत से) निष्फल ही जाते हैं।65।

भाव: परमात्मा के नाम-सिमरन वाला मनुष्य ही उच्च जाति का है, उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं। माया के मोह में फसा हुआ (ऊँची जाति का भी) मनुष्य व्यर्थ जीवन गवा के जाता है।

पर दरब हिरणं बहु विघन करणं उचरणं सरब जीअ कह ॥ लउ लई त्रिसना अतिपति मन माए करम करत सि सूकरह ॥६६॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: पर = पराया। दरब = (द्रव्यं) धन। हिरणं = (हृ = to steal) चुराना। कह = वासते, की खातिर। सरब = सारे, कई किस्मों के बोल। लउ = मैं ले लूँ। लई = मैं ले लूँ। माऐ = माया। सूकरह = (सुकर) सूअर। जीअ कह = जिंद की खातिर, जिंद पालने के लिए, उपजीविका के लिए। अतिपति = (अ+तिपति), भूख, असंतोष। स = वे लोग।

अर्थ: जो मनुष्य अपनी उपजीविका के लिए पराया धन चुराते हैं, औरों के कामों में रोड़ा अटकाते हैं, कई किस्मों के बोल बोलते हैं, जिनके मन में (सदा) माया की भूख है, तृष्णा के अधीन हो के (और माया) ले लूँ ले लूँ (ही सोचते रहते हैं), वे लोग सूअरों वाले काम करते हैं (सूअर सदा गंदगी ही खाते हैं)।66।

भाव: अपनी जिंद की खातिर औरों का नुक्सान करके पराया धन बरतने वाले मनुष्य की जिंदगी सदा बुरें कामों के गंद में ही गुजरती है।

मते समेव चरणं उधरणं भै दुतरह ॥ अनेक पातिक हरणं नानक साध संगम न संसयह ॥६७॥४॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: समेव = लीन (सं+एव) साथ ही। समेव चरणं = चरणों के साथ ही। दुतरह = (दुस्तर) जिससे तैरना मुश्किल है। पातिक = पाप। (पातक = a sin)। संसयह = (संशय:) शक। साध संग = गुरमुखों की संगति। भै = डरावना, भयानक। मते = (मस्त)।

अर्थ: जो मनुष्य (प्रभू की याद में) मस्त हो के (प्रभू-चरणों में) लीन रहते हें, वे भयानक और दुस्तर (संसार) से पार लांघ जाते हें।

हे नानक! इसमें (रक्ती भर भी) शक नहीं कि ऐसे गुरमुखों की संगति अनेकों पाप दूर करने में समर्थ है।67।4।

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, वह विकारों से बच जाता है, उस की संगति करने वाले मनुष्य भी विकारों के पँजे में से निकल जाते हैं।

नोट: दूसरे अंक 4 का भाव यह है कि यह पहले चार सलोकों की गिनती है। सारे सहसक्रिती सलोकों का जोड़ 71 है।

गाथा महला ५ का भाव:

सलोक-वार:

इस शरीर का मान करना मूर्खता है जिसके अंदर मैला ही मैला है और जिसके साथ छू के सुगन्धियां भी दुर्गन्धियाँ बन जाती हैं।

यह मनुष्य शरीर तब ही सफल है जब मनुष्य गुरू का आसरा ले के परमात्मा का नाम जपे। बड़ी बड़ी सिद्धियां हासिल की हुई भी किसी काम की नहीं।

इस नाशवंत जगत में से मनुष्य के सदा साथ निभने वाली एक ही चीज़ है- परमात्मा की सिफत-सालाह जो साध-संगति में से मिलती है।

सुख भी इस सिफतसालाह में ही है, और, ये मिलती है गुरू की संगति में रहने से।

जो मनुष्य बाँस की तरह सदा अकड़ के रहता है उसको साध-संगति में से कुछ भी नहीं मिलता।

सिफतसालाह में बहुत ताकत है, इसकी बरकति से मनुष्य के अंदर के कामादिक पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।

परमात्मा की सिफतसालाह की बरकति से मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करता है, मनुष्य जनम-मरण के चक्करों वाले राह पर नहीं पड़ता।

नाम से वंचित मनुष्य दुख सहता है और जीवन व्यर्थ गवा जाता है।

साध-संगति के माध्यम से ही परमात्मा के नाम में श्रद्धा बनती है। मनुष्य की जिंदगी की बेड़ी संसार-समुंद्र में से सही-सलामत पार लांघ जाती है।

साध-संगति में टिक के कीर्तन करने से दुनिया की वासनाएं अपना जोर नहीं डाल सकतीं। सिफतसालाह की ताकत की किसी विरले को समझ पड़ती है।

गुरू के वचन करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं। इन वचनों पर चलके नाम सिमरन वाला मनुष्य अपने अनेकों साथियों का उद्धार कर लेता है।

जिस जगह परमात्मा की सिफतसालाह होती रहे, वह जगह ही सोहावनी हो जाती है। सिफतसालाह करने वाले बंदे भी दुनिया के बँधनों से मुक्त हो जाते हैं।

परमात्मा ही मनुष्य का असल साथी असल मित्र है।

परमात्मा का सिमरन मनुष्य को दुनिया के विकारों से बचा लेता है। यह सिमरन मिलता है गुरू की बाणी से।

परमात्मा की सिफतसालाह मनुष्य के लिए आत्मिक जीवन है, यह दाति साध-संगति में से मिलती है।

साध-संगति में टिकने से मनुष्य के सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं।

गुरू की संगति करने से ही परमात्मा से प्यार बनता है।

सिफतसालाह की बरकति से मनुष्य का जीवन सुखी हो जाता है।

साध-संगति में टिक के सिफतसालाह करने से विकारों से बचा जा सकता है।

धर्म-पुस्तकें पढ़ने से असल लाभ यही मिलना चाहिए कि मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरे।

परमात्मा के नाम की दाति साध-संगति में से मिलती है।

उस मनुष्य के भाग्य जाग उठे समझो जो साध-संगति में जाने लग जाता है। साध-संगति में नाम सिमरन से सारे विकार दूर हो जाते हैं।

साध-संगति के माध्यम से ही परमात्मा से प्यार बन सकता है।

माया के रंग-तमाशे कुसंभ के फूल जैसे ही हैं। इनमें फसे रहने पर सुख नहीं मिल सकता।

लड़ी-वार भाव:

(1 से 8) ये मानस शरीर तब ही सफल समझो जब मनुष्य गरीबी स्वभाव में रह के साध-संगति का आसरा ले के परमात्मा का नाम सिमरता है। सिमरन की बरकति से मनुष्य विकारों से बचा रहता है और सुखी जीवन व्यतीत करता है।

(9 से 24) सिमरन और सिफतसालाह की दाति सिर्फ साध-संगति में से मिलती है। साध-संगति में रहने से ही परमात्मा की श्रद्धा बनती है, फिर विकार अपना जोर नहीं डाल सकते, जीवन इतना ऊँचा बन जाता है कि कि उस मनुष्य की संगति में और भी अनेकों लोग विकारों से बच के जीवन-नईया को संसार-समुंद में से सही सलामत पार लंघा लेते हैं।

मुख्य भाव:

मनुष्य का शरीर तब ही सफल है अगर मनुष्य परमात्मा की सिफतसालाह करता रहे। और, यह दाति सिर्फ साध-संगति में से ही मिलती है।

महला ५ गाथा    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ करपूर पुहप सुगंधा परस मानुख्य देहं मलीणं ॥ मजा रुधिर द्रुगंधा नानक अथि गरबेण अग्यानणो ॥१॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: गाथा = एक प्राचीन प्राक्रित भाषा जिसमें संस्कृत पाली व अन्य बोलियों के शब्द लिखे हुए मिलते हैं। 'ललित विसतर' आदि बौध धर्म = ग्रंथ इसी भाषा में हैं।

करपूर = (कर्पूर) काफूर। पुहप = (पुष्प) फूल। परस = छूह के (स्पर्श = to touch)। देह = शरीर। मजा = मज्जा, शरीर की चिकनाई (मज्जन = marrow of the bones & flesh)। रुधिर = खून। द्रुगंध = दुर्गंध, बदबू। अथि = फिर भी, इसके ऊपर भी। अग्यानणो = अज्ञानी मनुष्य।

अर्थ: मुश्क कपूर, फूल व अन्य सुगंधियां मनुष्य के शरीर को छू के मैलियां हो जाती हैं। (मनुष्य के शरीर में) मज्जा लहू और और दुर्गंन्धियां हैं; फिर भी, हे नानक! अज्ञानी मनुष्य (इस शरीर का) माण करता है।1।

भाव: इस शरीर का माण करना मूर्खता है जिसके अंदर मैला ही मैला है और जिससे छू के सुगंधियां भी दुर्गन्धियां बन जाती हैं।

परमाणो परजंत आकासह दीप लोअ सिखंडणह ॥ गछेण नैण भारेण नानक बिना साधू न सिध्यते ॥२॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: परमाणो = (परमाणु = an atom) परम अणू, बहुत छोटा भाग, बारीक ज़ॅरा जिसका हिस्सा ना हो सके। परजंत = (पर्यन्त) आखिरी हद, अन्तिम सीमा। दीप = द्वीप (an island)। लोअ = लोक। सिखंडणह = (शिखरिन्) पहाड़। गछेण = चलने से। नैण भारेण = आँख की झपक में। नैण भार = आँख के झपकने जितना समय, निमख। न सिध्यते = सफल नहीं होता।

अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य अति-छोटा अणु बन के आकाशों तक सारे द्वीपों लोकों और पहाड़ों पर आँख की एक झपक में ही हो आए, (इतनी सिद्धि होते हुए भी) गुरू के बिना उसका जीवन सफल नहीं होता।2।

भाव: यह मनुष्य शरीर तब ही सफल है अगर मनुष्य गुरू का आसरा ले के परमात्मा का नाम जपे। बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ हासिल करनी भी किसी काम की नहीं।

जाणो सति होवंतो मरणो द्रिसटेण मिथिआ ॥ कीरति साथि चलंथो भणंति नानक साध संगेण ॥३॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: सति = सच, सत्य, अटल। मरणो = (मरणं) मौत। मिथिआ = नाशवंत, झूठ, मिथ्या। कीरति = कीर्ति, सिफतसालाह। चलंथो = जाती है (चलति, चलत:, चलन्ति)। द्रिसटेण = जो कुछ दिख रहा है, ये दिखाई देता जगत। साध संगेण = (साधु संगेन) साध-संगति से।

अर्थ: मौत का आना ही अटल समझो, ये दिखता जगत (अवश्य) नाश होने वाला है (इसमें से किसी ने साथ नहीं निभना)।

नानक कहता है-साध-संगति के आसरे की हुई परमात्मा की सिफतसालाह ही (मनुष्य) के साथ जाती है।3।

भाव: इस नाशवंत जगत में से मनुष्य के सदा साथ निभने वाली एक ही चीज है- परमात्मा की सिफतसालाह जो साध-संगति में से मिलती है।

माया चित भरमेण इसट मित्रेखु बांधवह ॥ लबध्यं साध संगेण नानक सुख असथानं गोपाल भजणं ॥४॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: इसट = (इष्ट) प्यारे। मित्रेखु = (मित्रेषु) मित्रों में। लबध्यं = ढूँढ सकता है, ढूँढने योग्य। सुख असथानं = (सुख स्थानं) सुख मिलने की जगह। चित = (चिक्तं)।

अर्थ: माया (मनुष्य के) मन को प्यारे मित्रों-संबन्धियों (के मोह) में भटकाती रहती है (और भटकना के कारण इसको सुख नहीं मिलता)।

हे नानक! सुख मिलने की जगह (केवल) परमात्मा का भजन ही है, जो साध-संगति के द्वारा मिल सकता है।

भाव: सुख भी इस सिफतसालाह में ही है, और, यह मिलती है गुरू की संगति में रहने से।

मैलागर संगेण निमु बिरख सि चंदनह ॥ निकटि बसंतो बांसो नानक अहं बुधि न बोहते ॥५॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: मैलागर = मलय पर्वत पर उगा हुआ पौधा, (मलयाग्र) चंदन। संगेण = (संगेन) संगत से। निकटि = (निकटे) नजदीक। अहंबुधि = (अहंबुद्धि) अहंकार वाली बुद्धि के कारण। बोहते = सुगंधित होता है। बिरख = (वृक्ष) पेड़।

अर्थ: चँदन की संगति से नीम का वृक्ष चंदन ही हो जाता है, पर, हे नानक! चँदन के नजदीक बसता बाँस अपनी अकड़ के कारण सुगन्धि वाला नहीं बनता।5।

भाव: जो मनुष्य बाँस की तरह सदा अकड़ के रहता है उसको साध-संगति में से कुछ भी नहीं मिलता।

गाथा गु्मफ गोपाल कथं मथं मान मरदनह ॥ हतं पंच सत्रेण नानक हरि बाणे प्रहारणह ॥६॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: गाथा = उस्तति, सिफतसालाह (गाथा = a religious verse, गै = to sing)। गुंफ = गूंदना, काव्य रचना करनी (गुंफ = to string together, to compose)। कथं = कथा। मथं = कुचल देना, नाम कर देना (मन्थ् = to crush, destroy)। मरदनह = (मर्दन) मला जाता है। हतं = नाश हो जाते हैं। बाण = तीर। प्रहारणह = चलाने से (प्रहरणं = striking, throwing)।

अर्थ: परमात्मा की सिफतसालाह की कहानियों का गुंदन मनुष्य के अहंकार को कुचल देता है।

हे नानक! परमात्मा (की सिफतसालाह) का तीर चलाने से (कामादिक) पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।6।

भाव: सिफतसालाह में बड़ी ताकत है, इसकी बरकति से मनुष्य के अंदर से कामादिक पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।

बचन साध सुख पंथा लहंथा बड करमणह ॥ रहंता जनम मरणेन रमणं नानक हरि कीरतनह ॥७॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: पंथा = रास्ता। साध = (साधु) गुरू, गुरमुख। लहंथा = ढूँढते हैं। रहंता = रह जाते हैं, समाप्त हो जाता है। रमणं = सिमरन।

अर्थ: गुरू के (परमात्मा की सिफतसालाह के) बचन सुख का रास्ता हैं, पर ये वचन सौभाग्य से मिलते हैं।

हे नानक! परमात्मा की सिफतसालाह करने से जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।7।

भाव: परमात्मा की सिफतसालाह की बरकति से मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करता है, मनुष्य जनम-मरण के चक्कर वाले रास्ते पर नहीं पड़ता।

पत्र भुरिजेण झड़ीयं नह जड़ीअं पेड स्मपता ॥ नाम बिहूण बिखमता नानक बहंति जोनि बासरो रैणी ॥८॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: भुरिजेण = भुर के। पेड = पेड़। संपता = (संपद् = ॅealth) संपत से। बिखमता = (विषमता) कठिनाई। बहंति = (वहन्तिावह् = to suffer experience) (दुख) सहते हैं, भटकते हैं। बासरो = (वासर:) दिन। रैणी = रात (रजनि, रजनी, रअणि, रैणि)। पेड संपता = वृक्ष की संपत से, वृक्ष की टहनियों से।

अर्थ: (जैसे वृक्ष के) पत्ते भुर-भुर के (वृक्ष से) झड़ जाते हैं, (और दोबारा) वृक्ष की शाखाओं के साथ जुड़ नहीं सकते, (वैसे ही) हे नानक! नाम से टूटे हुए मनुष्य दुख सहते हैं और, दिन-रात (और-और) जूनियों में पड़े भटकते हैं।8।

भाव: नाम से वंचित मनुष्य दुख सहता है और जीवन व्यर्थ गवा जाता है।

भावनी साध संगेण लभंतं बड भागणह ॥ हरि नाम गुण रमणं नानक संसार सागर नह बिआपणह ॥९॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: भावनी = श्रद्धा (भावनी = feeling of devotion, faith)। सागर = समुंद्र। बिआपणह = (व्याप् = to pervade) जोर डाल सकता। रमणं = सिमरन।

अर्थ: साध-संगति से (परमात्मा के नाम में) श्रद्धा बहुत भाग्यों से मिलती है। हे नानक! परमात्मा के नाम और गुणों की याद से संसार-समुंद्र (जीव पर) अपना जोर नहीं डाल सकता।9।

भाव: साध-संगति से ही परमात्मा के नाम में श्रद्धा बनती है, मनुष्य के जिंदगी की बेड़ी संसार-समुंद्र में से सही-सलामत पार लांघ जाती है।

गाथा गूड़ अपारं समझणं बिरला जनह ॥ संसार काम तजणं नानक गोबिंद रमणं साध संगमह ॥१०॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: गूढ़ = गहरी (गुह = hidden, concealed गुह = to conceal)। काम = वासना। गाथा = सिफतसालाह (a religious verse)। अपार = बेअंत (प्रभू)। तजणं = (त्जय् = to give up)। साध संगमह = (साधु संगम) सत्संग।

अर्थ: बेअंत परमात्मा की सिफतसालाह करनी एक गहरी (रम्ज़ वाला) काम है, इसको कोई विरला मनुष्य समझता है।

हे नानक! सत्संग में रह के परमात्मा का सिमरन करने से दुनिया की वासनाएं त्यागी जा सकती हैं।10।

भाव: साध-संगति में टिक के सिमरन करने से दुनिया की वासनाएं जोर नहीं डालतीं। पर सिफतसालाह की ताकत की किसी विरले को समझ पड़ती है।

सुमंत्र साध बचना कोटि दोख बिनासनह ॥ हरि चरण कमल ध्यानं नानक कुल समूह उधारणह ॥११॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: सुमंत्र = श्रेष्ठ मंत्र। कोटि = करोड़। समूह = ढेर। दोख = दोष, पाप। ध्यानं = ध्यान। साध = साधु, गुरू।

अर्थ: गुरू के वचन (ऐसे) श्रेष्ठ मंत्र हैं (जो) करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं।

हे नानक! (उन वचनों से) प्रभू के कमल फूलों जैसे सुंदर चरणों का ध्यान सारी कुलों का उद्धार कर देता है।11।

भाव: गुरू के वचन करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं। इन वचनों पर चल के नाम सिमरन वाला मनुष्य अपने अनेकों साथियों का उद्धार कर लेता है।

सुंदर मंदर सैणह जेण मध्य हरि कीरतनह ॥ मुकते रमण गोबिंदह नानक लबध्यं बड भागणह ॥१२॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: मंदर = घर (मन्दिर = a dwelling)। जेण मध्य = (येनां मध्ये) जिन के अंदर। सैणह = सोना, बसना (स्वप् = to lie down, to rest)। मुकते = स्वतंत्र, आजाद, मुक्त। रमण = सिमरन।

अर्थ: उन घरों में ही बसना सुहावना है जिनमें परमात्मा की सिफतसालाह होती हो। जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करते हैं वे (दुनिया के बँधनों से) मुक्त हो जाते हैं। पर, हे नानक! (यह सिमरन) बड़े भाग्यों से मिलता है।

भाव: जिस जगह परमात्मा की सिफतसालाह होती रहे वही जगह सुहावनी हो जाती है। सिफतसालाह करने वाले लोग भी दुनिया के बँधनों से मुक्त हो जाते हैं।

हरि लबधो मित्र सुमितो ॥ बिदारण कदे न चितो ॥ जा का असथलु तोलु अमितो ॥ सुोई नानक सखा जीअ संगि कितो ॥१३॥ {पन्ना 1360}

पद्अर्थ: सुमितो = (सुमि+त्र) श्रेष्ठ मित्र। बिदारण = (विदारण = breaking. वद् = to cut pieces) फाड़ना, तोड़ना। असथलु = (स्थ्लं = firmground)। अमितो = (अमित) अतोलवा, जो नापा ना जा सके। सुोई = (यहाँ असल पाठ 'सोइ' है, पर पढ़ना 'सुई' है)। कितो = (कृत:) किया है। चितो बिदारण = दिल को तोड़ना। लबधो = (लब्ध:) मिला है।

अर्थ: हे नानक! मैंने वह श्रेष्ठ मित्र परमात्मा पा लिया है, मैंने उस परमात्मा को अपनी जिंद (के साथ रहने वाला) साथी बनाया है जो कभी (मेरा) दिल नहीं तोड़ता, और जिसका ठिकाना असीम तोल वाला है।13।

भाव: परमात्मा ही मनुष्य का असल साथी असल मित्र है।

अपजसं मिटंत सत पुत्रह ॥ सिमरतब्य रिदै गुर मंत्रणह ॥ प्रीतम भगवान अचुत ॥ नानक संसार सागर तारणह ॥१४॥ {पन्ना 1360-1361}

पद्अर्थ: अपजस = बदनामी (अपयशस्)। सत पुत्रह = अच्छा पुत्र (सत्पुत्र)। सिमरतब्य = सिमरना चाहिए (स्मृ = to remember स्मरति = remembers)। मंत्रणह = उपदेश। रिदै = हृदय में। अचुत = (अच्युत) अविनाशी।

अर्थ: (जैसे) सपुत्र के पैदा होने पर सारी कुल की (पिछली कोई) बदनामी धुल जाती है, (वैसे ही) हे नानक! अविनाशी प्यारे परमात्मा (का सिमरन) संसार-समुंद्र (के विकारों) से बचा लेता है।

(इस वास्ते) गुरू का उपदेश हृदय में बसा के रखना चाहिए (और परमात्मा का सिमरन करना चाहिए)।14।

भाव: परमात्मा का सिमरन मनुष्य को दुनिया के विकारों से बचा लेता है। यह सिमरन मिलता है गुरू के द्वारा।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh