श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1359

गुसांई गरिस्ट रूपेण सिमरणं सरबत्र जीवणह ॥ लबध्यं संत संगेण नानक स्वछ मारग हरि भगतणह ॥५४॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: गरिस्ट = (गृष्ट) बहुत वजनदार, बहुत भारी। स्वछ = (स्वच्छ) साफ, निर्मल। मारग = (मार्ग) रास्ता। लबध्यं = मिल जाता है। जीवणह = (जीवन) जीवन, जीवात्मा, सहारा। सरबत्र = (सर्वत्र) हर जगह। सरबत्र जीवणह = सब जीवों का जीवन। हरि भगतणह = परमात्मा की भगती। गुसांई = (गोस्वामिन्) जगत का मालिक।

अर्थ: जगत का मालिक परमात्मा सबसे बड़ी हस्ती है, उसका सिमरन सब जीवों का जीवन (सहारा) है।

हे नानक! परमात्मा की भगती हर (इनसानी जिंदगी के सफर का) निर्मल रास्ता है, जो साध-संगति में मिलता है।

भाव: परमात्मा की भगती ही इन्सानी जिंदगी की यात्रा के लिए समतल राह है। ये दाति साध-संगति में से मिलती है।

मसकं भगनंत सैलं करदमं तरंत पपीलकह ॥ सागरं लंघंति पिंगं तम परगास अंधकह ॥ साध संगेणि सिमरंति गोबिंद सरणि नानक हरि हरि हरे ॥५५॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: मसकं = (मशक:) मच्छर (कमजोर जीव)। भगनंत = तोड़ देता है। सैलं = पहाड़, पत्थर (अहंकार) (शैल:)। करदमं = (कर्दम:) कीचड़ (मोह)। पपीलकह = (पीलक:, पीलुक: an ant) कीड़ी। पिंगं = पिंगला, लूला (शुभ कर्मों से वंचित)। तम = अंधेरा (तमस्)। अंध्कह = (अन्धक:) अंधा, (अज्ञानी)। तरंत = (तरति, तरत:, तरन्ति) पार लांघ जाती है। साध संगेणि = (साधुसंगेन) साध-संगति से।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य साध-संगति के माध्यम से परमात्मा की ओट ले के गोबिंद का सिमरन करता है, वह (पहले) मच्छर (की तरह निताणा होते हुए भी अब) पहाड़ (अहंकार) को तोड़ लेता है, वह (पहले) कीड़ी (की तरह कमजोर होते हुए भी) कीचड़ (मोह) पर से तैर जाता है, वह (पहले) पिंगले जैसा (निआसरा होते हुए भी अब संसार-) समुंद्र से पार लांघ जाता है, वह (पहले अज्ञानी) अंधे का अंधकार (अब) रौशनी बन जाता है।55।

भाव: जो मनुष्य साध-संगति से परमात्मा का आसरा ले के नाम सिमरता है वह मोह अहंकार आदि सारे बलवान विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है।

तिलक हीणं जथा बिप्रा अमर हीणं जथा राजनह ॥ आवध हीणं जथा सूरा नानक धरम हीणं तथा बैस्नवह ॥५६॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: जथा = (यथा) जैसे। बिप्रा = (विप्र:) ब्राहमण। अमर = हुकम। आवध = शस्त्र (आयुद्ध)। सूरा = (सुर:) सूरमा। बैस्नवह = विष्णू का भगत, परमात्मा का भगत (वैष्णव:)। हीण = (हीन) वंचित।

अर्थ: जैसे तिलक के बिना ब्राहमण, जैसे हुकम (की समर्थता) के बगैर राजा, जैसे शस्त्र के बिना शूरवीर (शोभा नहीं पाता), वैसे, हे नानक! धर्म से टूटा हुआ विष्णु-भगत (समझो)।56।

भाव: निरे धार्मिक चिन्ह धारण करके भगती से वंचित र हके अपने आप को धर्मी कहलवाने वाला मनुष्य धर्मी नहीं है।

न संखं न चक्रं न गदा न सिआमं ॥ अस्चरज रूपं रहंत जनमं ॥ नेत नेत कथंति बेदा ॥ ऊच मूच अपार गोबिंदह ॥ बसंति साध रिदयं अचुत बुझंति नानक बडभागीअह ॥५७॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: गदा = गुदगर। संखं = शंखं। सिआम = (श्याम:) काला। कथंति = (कथन्ति) कहते हैं। नेत = (न इति) ऐसा नहीं। मूच = बड़ा। अचुत = अविनाशी प्रभू।

(नोट: शब्द 'अचुत' का उच्चारण करते वक्त 'अच' पर जोर देना है 'अॅच' अच्युत)।

अर्थ: गोबिंद बेअंत है, (बहुत) ऊँचा है, (बहुत) बड़ा है, वेद कहते हैं कि उस जैसा और कोई नहीं है, वह जनम से रहित है, उसका रूप आश्चर्य है (जो बयान नहीं हो सकता), उसके हाथ में ना शंख है ना चक्र है ना गदा है, ना ही वह काले रंग वाला है। (भाव, ना ही वह विष्णू है ना ही कृष्ण है)।

वह अविनाशी प्रभू गुरमुखों के हृदय में बसता है। हे नानक! बड़े भाग्यों वाले लोग ही (ये बात) समझते हैं।57।

भाव: परमात्मा, भगती करने वाले लोगों के हृदय में बसता है।

उदिआन बसनं संसारं सनबंधी स्वान सिआल खरह ॥ बिखम सथान मन मोह मदिरं महां असाध पंच तसकरह ॥ हीत मोह भै भरम भ्रमणं अहं फांस तीख्यण कठिनह ॥ पावक तोअ असाध घोरं अगम तीर नह लंघनह ॥ भजु साधसंगि गुोपाल नानक हरि चरण सरण उधरण क्रिपा ॥५८॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: उदिआन = (उद्यान) जंगल। स्वान = (श्वन्) कुक्ता। सिआल = (शुगाल) गीदड़। खरह = (खर: = an ass) गधा, खर। बिखम = (विषम) कठिन, मुश्किल। मदिरं = (मदरा) शराब। असाध = (असाध्य) ना साधे जा सकने वाला। तसकरह = (तस्कर:) चोर। हीत = हित। अहं = अहंकार। तीख्यण = (तीक्ष्ण) तेज, तीखा। पावक = आग, तृष्णा। तोअ = (तोयं) पानी (सांसारिक पदार्थ)। तीर = किनारा। अगम = (अगम्य) अपहुँच। उधरण = (अद्धरणं) उद्धार।

अर्थ: जीव का वासा एक ऐसे संसार जंगल में है जहाँ कुत्ते, गीदड़, गधे इसके सम्बन्धी हैं (भाव, जीव का स्वभाव कुत्ते, गीदड़, गधे जैसा है)। जीव का मन बड़ी कठिन जगह (फसा हुआ) है, मोह की शराब (में मस्त है), बड़े ही अजेय पाँच (कामादिक) चोर (इस के पीछे पड़े हैं)।

हित, मोह, (अनेकों) सहम, भटकना (में जीव काबू आया हुआ है), अहंकार का कठिन तेज़ फंदा (इसके गले में पड़ा हुआ है)।

(जीव एक ऐेसे समुंद्र में गोते खा रहा है जहाँ) तृष्णा की आग लगी हुई है, भयानक असाध्य विषियों का पानी (लबालब भरा पड़ा है), (उस समुंद्र का) किनारा अपहुँच है अगम्य है, पार नहीं लांघा जा सकता।

हे नानक! साध-संगति में जाकर गोपाल का भजन कर, प्रभू के चरणों की ओट लेने से ही उसकी मेहर से (इस भयानक संसार-समुंद में से) बचाव हो सकता है।58।

भाव: मनुष्य इस संसार-समुंदर के अनेकों ही विकारों के घेरे में फसा रहता है। साध-संगति का आसरा ले के जो मनुष्य परमात्मा का भजन करता है वही इनसे बचता है। पर ये दाति मिलती है परमात्मा की अपनी मेहर से ही।

क्रिपा करंत गोबिंद गोपालह सगल्यं रोग खंडणह ॥ साध संगेणि गुण रमत नानक सरणि पूरन परमेसुरह ॥५९॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: सगल्यं = (सकल) सारे। संगेणि = (संगेन) संगति में, संगति से। रमत = (रमते) सिमरता है।

अर्थ: जब गोबिंद गोपाल (जीव पर) कृपा करता है तब (उसके) सारे रोग नाश कर देता है।

हे नानक! साध-संगति द्वारा ही परमात्मा की सिफत-सालाह की जा सकती है, और पूरन परमेश्वर का आसरा लिया जा सकता है।59।

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह साध-संगति में आ के उस का नाम सिमरता है।

सिआमलं मधुर मानुख्यं रिदयं भूमि वैरणह ॥ निवंति होवंति मिथिआ चेतनं संत स्वजनह ॥६०॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: सिआमलं = सुंदर, मनोहर। मधुर = मीठा। भूमि = (भुमि) धरती। रिदयं = (हृदय)। मथिआ = (मिथ्या) व्यर्थ, झूठ। स्वजनह = (सजजन: a good man) भले मनुष्य। चेतनं = सावधान, होशियार।

अर्थ: मनुष्य (देखने में) सुंदर हो, और बोल (उसके) मीठे हों, पर अगर उसके हृदय-धरती में वैर (-विरोध) (का बीज) हो, तो उसका (दूसरों के आगे) झुकना (सिर्फ) ठॅगी है।

भले मनुष्य संत जन (इस कमी से) सावधान रहते हैं।60।

भाव: भला मनुष्य वह है जो अंदर से भी भला है और बाहर से भी भला है। अंदर खोट रख के भलाई का दिखावा करने वाला मनुष्य भला नहीं है।

अचेत मूड़ा न जाणंत घटंत सासा नित प्रते ॥ छिजंत महा सुंदरी कांइआ काल कंनिआ ग्रासते ॥ रचंति पुरखह कुट्मब लीला अनित आसा बिखिआ बिनोद ॥ भ्रमंति भ्रमंति बहु जनम हारिओ सरणि नानक करुणा मयह ॥६१॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: अचेत = (अचेतस्, अचिक्त = बेसमझ) गाफल, बेसमझ। मूढ़ा = (मुढ:) मूर्ख। घटंत = (घट्ट = to shake) कम हो रहे हैं। सास = श्वास। नित प्रते = सदा। छिजंत = कमजोर हो रही है। कांइआ = (काय:) देह, शरीर। काल कंनिआ = मौत की बेटी (वृद्ध अवस्था) (कन्या)। ग्रासते = (ग्रस = to devour ग्रसते) खा रही है, ग्रस रही है। बिखिआ = माया। बिनोद = (विनोद) आनंद, खुशियां। भ्रमंति भ्रमंति = (भ्रम = to wander) भटकते भटकते। करुणामयह = करुणा+मयह, तरस रूप, दया-स्वरूप। अनित = नित्य ना रहने वाली। करुणा = तरस, दया।

अर्थ: बेसमझ मूर्ख मनुष्य यह नहीं जानता कि साँसें घटती जा रही हैं, बड़ा सुंदर शरीर (दिन-ब-दिन) कमजोर होता जाता है, वृद्ध-अवस्था अपना जोर डालती जा रही है।

(ऐसी हालत में भी) व्यक्ति अपने परिवार के कलोलों में मस्त रहता है, और नित्य ना रहने वाली माया की खुशियों की आशाएं (बनाए रखता है)।

(नतीजा ये निकलता है कि) अनेकों जूनियों में भटकता जीव थक जाता है।

हे नानक! (इस कलेष से बचने के लिए) दया-स्वरूप प्रभू का आसरा ले।61।

भाव: माया का मोह बहुत प्रबल है। बुढ़ापा आ के मौत सिर पर कूक रही होती है, फिर भी मनुष्य परिवार के मोह में फसा रहता है। इस मोह से परमात्मा की याद ही बचाती है।

हे जिहबे हे रसगे मधुर प्रिअ तुयं ॥ सत हतं परम बादं अवरत एथह सुध अछरणह ॥ गोबिंद दामोदर माधवे ॥६२॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: जिहबा = जीभ। रसगे = रसज्ञ, रसों को जानने वाली, स्वादों से सांझ डाले रखने वाली। तुयं = तुझे। अवरत ऐथह = (आवत्र्तयेथा:) (आवृत् = cause to repeat, recite) बार बार उच्चारण कर। मधुर = मीठे (पदार्थ)। प्रिअ = (प्रिया) प्यारे। अछरण = (अक्षर) शब्द। सुध = (शुद्ध) पवित्र। सत = (सत् = the really existent truth) सदा-स्थिर हरी नाम। हतं = मरी हुई। बादं = (वाद) झगड़े।

अर्थ: हे जीभ! हे (सब) रसों को जानने वाली! (हे चस्कों से सांझ डाल के रखने वाली! हे चस्कों में फसी हुई!) मीठे पदार्थ तुझे प्यारे लगते हैं। परमात्मा के नाम (-सिमरन) के प्रति तू मरी हुई है, और बड़े-बड़े झगड़े सहेड़ती है।

हे जीभ! गोबिंद दामोदर माधो! -ये पवित्र शबद तू बार-बार उच्चरण कर (तब ही तू जीभ कहलवाने के योग्य होगी)।62।

भाव: जीभ से परमात्मा का नाम जपना था, पर यह मनुष्य को चस्कों में ही फसाए रखती है।

गरबंति नारी मदोन मतं ॥ बलवंत बलात कारणह ॥ चरन कमल नह भजंत त्रिण समानि ध्रिगु जनमनह ॥ हे पपीलका ग्रसटे गोबिंद सिमरण तुयं धने ॥ नानक अनिक बार नमो नमह ॥६३॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: गरबंति = (गर्व = अहंकार) अहंकार करता है (गर्व् = to be proud)। मदोनमतं = मद+उन्मक्त, (उन्मक्त = intoxicated) काम वासना में मस्त। बलातकारणह = (बलात्कार: violence) ज्यादती करने वाला। त्रिण = तृणं, तीला। समानि = बराबर। ध्रिग = धिक्कार योग्य (धिक्)। पपीलका = (पीलक) कीड़ी। ग्रसट = (गरिष्ठ = most important) भारी, वजनदार। तुयं = (तव) तेरा।

अर्थ: (जो) मनुष्य स्त्री के मद में मस्ताया हुआ अपने आप को बलवान जान के अहंकार करता है, और (औरों पर) ज्यादती करता है, वह परमात्मा के सुंदर चरणों का ध्यान नहीं धरता, (इसके कारण उसकी हस्ती) तीले के बराबर है, उसका जीवन धिक्कारयोग्य है।

हे कीड़ी! (अगर) गोबिंद का सिमरन तेरा धन है, (तो तू छोटी सी होते हुए भी) भारी है (तेरे मुकाबले में वह बलवान मनुष्य हल्का तीले के समान है)।

हे नानक! अनेकों बार परमत्मा के आगे नमस्कार कर।63।

भाव: परमात्मा को भुला के दूसरों पर ज्यादतियाँ करने वाले अहंकारी मनुष्य से कहीं बेहतर प्रभू का नाम सिमरने वाला अति-गरीब मनुष्य है। अहंकारी का जीवन व्यर्थ जाता है। वह ऐसे कर्म ही सदा करता है कि उसको धिक्कारें ही पड़ती हैं।

त्रिणं त मेरं सहकं त हरीअं ॥ बूडं त तरीअं ऊणं त भरीअं ॥ अंधकार कोटि सूर उजारं ॥ बिनवंति नानक हरि गुर दयारं ॥६४॥ {पन्ना 1359}

पद्अर्थ: मेरं = (मेरु) सुमेर पर्वत। सहकं = (शुष्क) सूखा हुआ। बूडं = डूबता। ऊणं = वंचित। कोटि = करोड़। सूर = (सूर्य) सूरज। उजारं = (उज्वला) रौशनी। दयारं = (दयालु) दयालु।

अर्थ: नानक विनती करता है (जिस पर) गुरू परमात्मा दयाल हो जाए, वह तीले से सुमेर पर्वत बन जाता है, सूखे से हरा हो जाता है, (विचारों में) डूबता तैर जाता है, (गुणों से) वंचित (गुणों से) भर जाता है, (उसके लिए) अंधेरे से करोड़ों सूर्यों की रोशनी हो जाती है।64।

भाव: जिस मनुष्य पर गुरू परमात्मा मेहर करता है, सिमरन की बरकति से उस का आत्मिक जीवन ऊँचा हो जाता है, विकारों का अंधेरा उसके नजदीक नहीं फटकता, उसकी जिंदगी गुणों से भरपूर हो जाती है।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh