श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1358 हे अजित सूर संग्रामं अति बलना बहु मरदनह ॥ गण गंधरब देव मानुख्यं पसु पंखी बिमोहनह ॥ हरि करणहारं नमसकारं सरणि नानक जगदीस्वरह ॥४५॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: सूर = शूरवीर (a hero)। संग्राम = युद्ध अति। बलना = बहुत बल वाला। मरदनह = (मर्दन = crushing) मल देने वाला, नाश करने वाला। गंधरब = देव लोक के गवईए। अथर्व वेद में इनकी गिनती 6333 है। इनमें से आठ प्रधान हैं- हाहा, हूहू, चित्रर्थ, हंस, विश्वावसू, गोयू, तुंबर और नंदी। पुराणों के अनुसार दक्ष्य की दो बेटियाँ मुनि और प्रधा को कद्वऋषि ने बयाहा था, उनकी संतान हैं गन्धर्व। गण = देवताओं के दास (जैसे जमगण) शिवगण (गण)। नौ देवताओं की 'गण' संज्ञा, क्योंकि वे गिनती में कई-कई हैं; अनिल (पवन) -49; 2. आदित्य-12; 3. आभास्वर-64; 4. साध्य-12; 5. तुशित-36; 6. महाराजिक-दो सौ बीस। 7. रुद्र-11; 8. वसू-8; 9. विश्वदेवा-10 अर्थ: हे ना जीते जाने वाले (मोह)! तू युद्ध का सूरमा है, तू अनेकों महाबलियों को मॅल देने वाला है। गण-गन्धर्व देवतागण मनुष्य पशु पक्षी -इन सबको तू मोह लेता है। (पर इसकी मार से बचने के लिए) हे नानक! जगत के मालिक प्रभू की शरण ले और जगत के राखनहार हरी को नमस्कार कर।45। भाव: मोह जगत के सारे जीवों में प्रभावी है। इसकी मार से वही बचते हैं जो जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लेते हैं परमात्मा का नाम सिमरते हैं। हे कामं नरक बिस्रामं बहु जोनी भ्रमावणह ॥ चित हरणं त्रै लोक गम्यं जप तप सील बिदारणह ॥ अलप सुख अवित चंचल ऊच नीच समावणह ॥ तव भै बिमुंचित साध संगम ओट नानक नाराइणह ॥४६॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: गम्यं = (गम्य) पहुँच वाला। सील = (शील) शुद्ध आचरण। बिदरणह = (विद = to tear in pieces) नाश करने वाला। अवित = (वित = धन) वित हीन, धन हीन करने वाला। तव = तेरा। बिमुंचित = खलासी मिलती है। नरक बिस्रामं = नर्क में विश्राम देने वाला। चित हरणं = (हृ = to captivate) मन को भ्रमा लेने वाला। अलप = अल्प, थोड़ा। अर्थ: हे काम! तू (जीवों को अपने वश में कर के) नर्क में पहुँचाने वाला है और कई जूनियों में भटकाने वाला है। तू जीवों के मन भ्रमा लेता है, तीनों ही लोकों में तेरी पहुँच है, तू जीवों के जप-तप और शुद्ध-आचरण का नाश कर देता है। हे चँचल काम्! तू सुख तो थोड़ा ही देता है, पर इसके साथ तू जीवों को (शुद्व-आचरण के) धन से वंचित कर देता है। जीव ऊँचे हों, नीचे हों, सबमें तू पहुँच जाता है। साध-संगति में पहुँचने से तेरे डर से निजात मिलती है। हे नानक! (साध-संग में जा के) प्रभू की शरण ले।46। भाव: मनुष्य ऊँची जाति के हों चाहे नीच जाति के, कामदेव सबको अपने काबू में कर लेता है। इसकी मार से वही बचता है जो साध-संगति में टिक के परमात्मा का आसरा लेता है। हे कलि मूल क्रोधं कदंच करुणा न उपरजते ॥ बिखयंत जीवं वस्यं करोति निरत्यं करोति जथा मरकटह ॥ अनिक सासन ताड़ंति जमदूतह तव संगे अधमं नरह ॥ दीन दुख भंजन दयाल प्रभु नानक सरब जीअ रख्या करोति ॥४७॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: कलि मूल = (कलि = strife, quarrel) झगड़े का मूल। कंद च = (कदा च) कभी भी। उपरजते = पैदा होती। (उपजिनं = acquiring)। बिखयंत = विषयी। वस्यं करोति = वश में कर लेता (वश्यं करोति)। नित्यं = (नृत्यं) नाच। जथा = (यथा) जैसे। मरकटह = (मर्कट = monkey) बंदर। सासन = (शासनं) हुकम। ताड़ंति = (ताडन्ति) दंड देते हैं। अधमं = (अधम:) नीच। तव = तेरे। करुणा = (करुण) तरस, दया। रख्या = रक्षा। अर्थ: हे झगड़े के मूल क्रोध! (तेरे अंदर) कभी दया नहीं पैदा होती। तू विषयी जीवों को अपने वश में कर लेता है। तेरे वश में आया जीव ऐसे नाचता है जैसे बँदर। तेरी संगत में जीव नीच (स्वभाव वाले) बन जाते हैं। जमदूत उनको अनेकों हुकम और दण्ड देते हैं। हे नानक! दीनों के दुख दूर करने वाला दयालु प्रभू ही (इस क्रोध से) सब जीवों की रक्षा करता है (और कोई नहीं कर सकता)।47। भाव: बली क्रोध के वश में आ के मनुष्य कई झगड़े खड़े कर लेता है, और, अपना जीवन दुखी बना लेता है। इसकी मार से बचने के लिए भी परमात्मा की शरण एकमात्र तरीका है। हे लोभा ल्मपट संग सिरमोरह अनिक लहरी कलोलते ॥ धावंत जीआ बहु प्रकारं अनिक भांति बहु डोलते ॥ नच मित्रं नच इसटं नच बाधव नच मात पिता तव लजया ॥ अकरणं करोति अखाद्यि खाद्यं असाज्यं साजि समजया ॥ त्राहि त्राहि सरणि सुआमी बिग्याप्ति नानक हरि नरहरह ॥४८॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: लंपट = मगन, डूबा हुआ। सिरमोरह = (शिरस्+मौलि) सिर का ताज, प्रधान, मुखी लोग, सिर मौर। धावंत = (धावन्ति) दौड़ते हैं। लजया = (लज्जा) शर्म। अकरणं = (अकर्णीय) ना करने योग्य। करोति = करता है। अखाद्यि = (अखाद्य, खाद्य। खाद् = to eat)। असाज्यं = ना सृजन योग्य, नामुमकिन। समजया = समाज, सभा, मंडली (भाव, निसंग हो, खुले तौर पर)। विग्यिाप्ति = (विज्ञाप्ति) विनती। नरहरह = परमात्मा। त्राहि = (त्रायस्व) बचा ले। तव = तेरे (कारण), तेरे असर तले रह के। न च = ना तो। अर्थ: हे लोभ! मुखी लोग (भी) तेरी संगति में (रह के विकारों में) डूब जाते हैं, तेरी लहरों में (फस के) अनेकों कलोल करते हैं। तेरे वश में आए हुए जीव कई तरह से भटकते फिरते हैं, अनेकों तरीकों से डोलते हैं। तेरे असर के नीचे रहने के कारण उन्हें ना किसी मित्र की, ना गुरू पीर की, ना सम्बन्धियों की, और ना ही माता-पिता की कोई शर्म रहती है। तेरे प्रभाव से जीव खुले तौर पर समाज में वह काम करता है जो नहीं करने चाहिए, वह चीजें खाता है जो नहीं खानी चाहिए, वह बातें करता है जो नहीं करनी चाहिए। हे नानक! (लोभ से बचने के लिए) इस तरह अरदास कर- हे प्रभू! हे स्वामी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझे इससे बचा ले, बचा ले।48। भाव: लोभ के असर तले मनुष्य शर्म-हया छोड़ के अयोग्य करतूतें करने लग जाता है। परमात्मा के ही दर पर अरदासें कर के इससे बचा जा सकता है। हे जनम मरण मूलं अहंकारं पापातमा ॥ मित्रं तजंति सत्रं द्रिड़ंति अनिक माया बिस्तीरनह ॥ आवंत जावंत थकंत जीआ दुख सुख बहु भोगणह ॥ भ्रम भयान उदिआन रमणं महा बिकट असाध रोगणह ॥ बैद्यं पारब्रहम परमेस्वर आराधि नानक हरि हरि हरे ॥४९॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: पापातमा = (पापत्मन्) दुष्टात्मा, जिसका मन सदा पाप में रहे। द्रिढ़ंति = पक्का कर लेता है। बिस्तीरनह = (विस्तीर्ण) पसारा, खिलारा। बिकट = (विकट) भयानक, बिखड़ा। असाध = (असाध्य, असाध्यनीय) जिसका इलाज ना हो सके। बैद्यं = (वैद्य) बैद्, हकीम। रमणं = भटकना। उदिआन = (उद्यान) जंगल। अर्थ: हे पापी अहंकार! तू जीवों के जनम-मरण का कारण है। माया के अनेकों खिलारे पसार के तू मित्रों का त्याग करा के वैरी पक्के कराए जाता है। (तेरे वश में हो के) जीव जनम-मरण के चक्करों में पड़ के थक जाते हैं, अनेकों दुख-सुख भोगते हैं, भटकनों में पड़ कर, जैसे, डरावने जंगल में से गुजरते हैं, और बड़े भयानक ला-इलाज रोगों में फसे हुए हैं। (अहंकार के रोग से बचाने वाला) हकीम परमात्मा ही है। हे नानक! उस प्रभू को हर वक्त सिमर।49। भाव: परमात्मा ही एक ऐसा हकीम है जो अहंकार के रोगों से जीवों को बचाता है। अहंकार के वश हो के जीव अनेकों वैरी बना लेता है। हे प्राण नाथ गोबिंदह क्रिपा निधान जगद गुरो ॥ हे संसार ताप हरणह करुणा मै सभ दुख हरो ॥ हे सरणि जोग दयालह दीना नाथ मया करो ॥ सरीर स्वसथ खीण समए सिमरंति नानक राम दामोदर माधवह ॥५०॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: जगद गुरो = हे जगत के गुरू! हरो = (हृ = to take away) दूर करो। मया = तरस, कृपा (मयस्)। स्वस्थ = (स्वास्थ्यं) अरोगता। समऐ = (समय)। करुणा = तरस। करुणा मै = (करुणा+मय) तरस रूप। दयालह = दया का घर। करो = (कुरू) कर। अर्थ: हे गोबिंद! हे जीवों के मालिक! हे कृपा के खजाने! हे जगत के गुरू! हे दुनिया के दुखों के नाश करने वाले! हे तरस-स्वरूप प्रभू! (जीवों के) सारे दुख-कलेश दूर कर। हे दया के घर! हे शरण आए हुओं की सहायता करने-योग्य प्रभू! हे दीनों के नाथ! मेहर कर। हे राम! हे दामोदर! हे माधो! शारीरिक आरोगता के समय और शरीर के नाश होने के वक्त (हर वक्त) नानक तुझे सिमरता रहे।50। भाव: हर वक्त परमात्मा का नाम ही सिमरना चाहिए। वही संसारी जीवों का दुख नाश करने में समर्थ है। चरण कमल सरणं रमणं गोपाल कीरतनह ॥ साध संगेण तरणं नानक महा सागर भै दुतरह ॥५१॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: रमणं = उचारना। दुतरह = (दुस्तर) जिसे तैरना मुश्किल हो। साध संगेण = साध-संगति से, गुरमुखों की संगति करने से। सरण = ओट आसरा। चरण कमल = कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। भै = डरों (से भरपूर), भयानक। सागर = समुंद्र। कीरतह = सिफतसालाह। अर्थ: हे नानक! (संसार) एक बड़ा भयानक समुंद्र है, जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है। साध-संगति से प्रभू के सुंदर चरणों का आसरा (लेने से), जगत के पालनहार परमात्मा की सिफत-सालाह उचारने से (इसमें से) पार लांघा जा सकता है।51। भाव: संसार-समुंद्र में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाने का एक-मात्र तरीका है- साध-संगति में रह के परमात्मा की उपमा की जाए। सिर मस्तक रख्या पारब्रहमं हस्त काया रख्या परमेस्वरह ॥ आतम रख्या गोपाल सुआमी धन चरण रख्या जगदीस्वरह ॥ सरब रख्या गुर दयालह भै दूख बिनासनह ॥ भगति वछल अनाथ नाथे सरणि नानक पुरख अचुतह ॥५२॥ {पन्ना 1358} पद्अर्थ: रख्या = (रक्षा), राखी। मस्तक = माथा। हस्त = हाथ। काया = (काय:) शरीर। अचुतह = अविनाशी (चयु: नाश हो जाना, गिर जाना; च्युत: गिरा हुआ, नाशवंत; अच्युत: नाश ना होने वाला)। (नोट: इस शबद का उच्चरण करने के वक्त 'अच्' को यूँ पढ़ना है कि जैसे दोनों के बीच अर्धक 'ॅ' है 'अॅच')। आतम = (आत्मन्) जीवात्मा। गुर = सबसे बड़ा (गुरू)। वछल = (वत्सल) प्यार करने वाला। अर्थ: सिर, माथा, हाथ, शरीर, जीवात्मा, पैर, धन-पदार्थ -जीवों की हर तरह से रक्षा करने वाला पारब्रहम परमेश्वर गोपाल, स्वामी, जगदीश्वर, सबसे बड़ा दया का घर परमात्मा ही है। वही सारे दुखों का नाश करने वाला है। हे नानक! वह प्रभू निआसरों का आसरा है, भगती को प्यार करने वाला है। उस अविनाशी सर्व-व्यापक प्रभू का आसरा ले।52। भाव: परमात्मा ही मनुष्य के शरीर की जीवात्मा की हरेक किसम की रक्षा करने वाला है। जो मनुष्य उसकी भक्ति करते हैं उनसे वह प्यार करता है। जेन कला धारिओ आकासं बैसंतरं कासट बेसटं ॥ जेन कला ससि सूर नख्यत्र जोत्यिं सासं सरीर धारणं ॥ जेन कला मात गरभ प्रतिपालं नह छेदंत जठर रोगणह ॥ तेन कला असथ्मभं सरोवरं नानक नह छिजंति तरंग तोयणह ॥५३॥ {पन्ना 1358-1359} पद्अर्थ: कला = सक्तिआ, ताकत। बैसंतर = (वैश्वानर:) आग। बेसटं = (वेष्टित) घेरा हुआ, ढका हुआ। जेन = (येन = by whom) जिस ने। ससि = (शशिन्) चँद्रमा। नख्यत्र = (नक्षत्रं) तारे। जोत्यिं = (ज्योतिस्) प्रकाश। असथंभं = (स्तम्भ), सहारा, आसरा, थंम। तयोणह = (तोयं) जल। सूर = सूरज (सूर्य)। सरीर = शरीरं। सास = श्वास। जठर = (जठरं = the womb) माँ के पेट। तेन = (by him) उस ने। अर्थ: जिस (परमात्मा) ने अपनी कला से आकाश को टिकाया हुआ है और आग को लकड़ी में ढका हुआ है; जिस प्रभू ने अपनी ताकत से चँद्रमा सूर्य और तारों में अपना प्रकाश टिकाया हुआ है और सब शरीरों में साँसें टिकाई हुई हैं; जिस अकाल-पुरख ने अपनी सक्ता से माँ के पेट में जीवों की रक्षा (का प्रबंध किया हुआ है), माँ के पेट की आग-रूप रोग जीव का नाश नहीं कर सकता। हे नानक! उस प्रभू ने इस (संसार-) सरोवर को अपनी ताकत का आसरा दिया हुआ है, इस सरोवर के पानी की लहरें (जीवों का) नाश नहीं कर सकतीं।53। भाव: संसार, समुंद्र के समान है। इसमें अनेकों विकारों की लहरें उठ रही हैं। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेता है उसके आत्मिक जीवन को ये विकार तबाह नहीं कर सकते। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |