श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1357 नच दुरलभं धनं रूपं नच दुरलभं स्वरग राजनह ॥ नच दुरलभं भोजनं बिंजनं नच दुरलभं स्वछ अ्मबरह ॥ नच दुरलभं सुत मित्र भ्रात बांधव नच दुरलभं बनिता बिलासह ॥ नच दुरलभं बिदिआ प्रबीणं नच दुरलभं चतुर चंचलह ॥ दुरलभं एक भगवान नामह नानक लबध्यिं साधसंगि क्रिपा प्रभं ॥३५॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: बिंजंनं = (व्यंजन) खाने योग स्वादिष्ट पदार्थ, रोटी के साथ लगा के खाने वाली मसालेदार भाजी आदि। अंबरह = कपड़े। स्वछ = (स्वच्छ) साफ। प्रबीणं = प्रवीण, समझदार। बनिता = स्त्री। बिलास = लाड प्यार, विलास। साध संगि = साध-संगति में। अर्थ: धन और रूप पाना बहुत मुश्किल नहीं है, ना ही स्वर्ग का राज। स्वादिष्ट मसालेदार खाने प्राप्त करने मुश्किल नहीं, ना ही साफ-सुथरे कपड़े। पुत्र, मित्र भाई रिश्तेदारों का मिलना बहुत मुश्किल नहीं, ना ही स्त्री के लाड-प्यार। विद्या हासिल करके समझदार बनना भी बहुत मुश्किल नहीं है, ना ही कठिन है (विद्या की सहायता से) चालाक और तीक्ष्ण बुद्धि होना। हाँ, हे नानक! केवल परमात्मा का नाम मुश्किल से मिलता है। नाम साध-संगति में ही मिलता है (पर तब मिलता है जब) परमात्मा की मेहर हों भाव: दुनिया के पदार्थ मिलने मुश्किल बात नहीं। पर परमात्मा का नाम कहीं भाग्यों से ही मिलता है। मिलता है यह साध-संगति में से, तब जब परमात्मा स्वयं मेहर करे। जत कतह ततह द्रिसटं स्वरग मरत पयाल लोकह ॥ सरबत्र रमणं गोबिंदह नानक लेप छेप न लिप्यते ॥३६॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: मरत = (मक्र्त) मातृलोक, धरती। पयाल = पातालै। छेप = (क्षेप) कलेश, निंदा, अहंकार, विकार। लिप्यते = लिप्त होता है। लेप = पोचा, अपवित्रता। जत कतह = जहाँ कहाँ। ततह = वहाँ। रमणं = व्यापक। जत कतह ततह = हर जगह। अर्थ: हे नानक! जिस व्यक्ति ने सर्व-व्यापक परमात्मा को सवर्ग, मातलोक, पाताल लोक - हर जगह देख लिया है, वह विकारों के पोचे से नहीं लिबड़ता।36। भाव: जो मनुष्य हर जगह परमात्मा के दर्शन करने लग जाता है, उस पर विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। बिखया भयंति अम्रितं द्रुसटां सखा स्वजनह ॥ दुखं भयंति सुख्यं भै भीतं त निरभयह ॥ थान बिहून बिस्राम नामं नानक क्रिपाल हरि हरि गुरह ॥३७॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: बिखया = विष, जहर। भयंति = हो जाता है, बन जाता है (भवषि, भवत:, भवन्ति)। द्रुसटां = द्वैष करने वाला, विरोध करने वाला। सखा = मित्र। स्वजनह = स्व+जन:, अपने आदमी, करीबी रिश्तेदार। थान बिहून = ठिकाने के बिना, अनेकों जूनियों में भटकने वाला। बिस्राम = विश्राम। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमर करने वाला। अर्थ: हे नानक! परमात्मा-का-रूप-सतिगुरू (जिस मनुष्य पर) कृपालु हो जाए, जहर उसके लिए अमृत बन जाता है, दोखी उसके मित्र और करीबी रिश्तेदार बन जाते हैं, दुख-कलेश सुख बन जाते हैं, अगर वह (पहले) अनेकों डरों से सहमा रहता था, तो (वह अब) निडर हो जाता है; अनेकों जूनों में भटकते को परमात्मा का नाम सहारा-आसरा मिल जाता है।37। भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का सहारा मिल जाता है, वह जनम-मरन के चक्करों में से निकल जाता है, आत्मिक मौत उसके पास नहीं फटकती, दुनिया के कोई डर-सहम उस पर अपना असर नहीं डाल सकते। सरब सील ममं सीलं सरब पावन मम पावनह ॥ सरब करतब ममं करता नानक लेप छेप न लिप्यते ॥३८॥ पद्अर्थ: सरब = सारे जी। पावन = पवित्र करने वाला (पु = to make pure Caus पावयति)। छेप = दोश, कलंक (क्षेप)। न लिप्यते = नहीं लिबड़ता। ममं = (मम) मेरा। करतब = करता, रचनहार, करने योग्य। सील = शांति स्वभाव, पवित्र जीवन। अर्थ: हे नानक! जो प्रभू सब जीवों को शांति-स्वभाव देने वाला है मुझे भी वही शांति देता है; जो सबको पवित्र करने के समर्थ है, मेरा भी वही पवित्र कर्ता है; जो प्रभू सब जीवों को रचने के योग्य है, वही मेरा भी कर्ता है। वह प्रभू विकारों के पोचे से नहीं लिबड़ता।38। भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको शांति स्वभाव बख्शता है। उसको पवित्र जीवन बख्शता है। नह सीतलं चंद्र देवह नह सीतलं बावन चंदनह ॥ नह सीतलं सीत रुतेण नानक सीतलं साध स्वजनह ॥३९॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: बावन चंदनह = वामन चंदन, सफेद चँदन जो सुगन्धि वाला होता है। सीत रुतेण = शीत ऋतेण, ठंडी ऋतु, सर्दियों की ऋतु। सीतलं = ठंढा। चंद्र देवह = चँद्र देवता, चँद्रमा। अर्थ: हे नानक! चँद्रमा (उतनी) ठंढक पहुँचाने वाला नहीं है, ना ही सफेद चँदन (उतनी) शीतलता दे सकता है, ना ही सर्दियों की बहार (उतनी) ठंढक ला सकती है, (जितनी) ठंढ-शांति गुरमुख साध-जन देते हैं।39। भाव: साध-संगति ही एक ऐसी जगह है जहाँ मनुष्य को आत्मिक-शांति हासिल होती है। मंत्रं राम राम नामं ध्यानं सरबत्र पूरनह ॥ ग्यानं सम दुख सुखं जुगति निरमल निरवैरणह ॥ दयालं सरबत्र जीआ पंच दोख बिवरजितह ॥ भोजनं गोपाल कीरतनं अलप माया जल कमल रहतह ॥ उपदेसं सम मित्र सत्रह भगवंत भगति भावनी ॥ पर निंदा नह स्रोति स्रवणं आपु त्यिागि सगल रेणुकह ॥ खट लख्यण पूरनं पुरखह नानक नाम साध स्वजनह ॥४०॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: अलप = अलिप, अलेप, निर्लिप। भावनी = भावना, श्रद्धा, प्यार। स्रवणं = श्रवण, कान। रेणुकह = चरन धूल। मंत्रं = किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए जपने-योग्य शबद। ध्यानं = ध्यान, किसी चीज में बिरती को लिवलीन करना। ग्यान = ज्ञान, समझ। स्रोति = सुनना। आपु = स्वै भाव। त्यिगि = त्याग के। खट = छे। लख्यण = लक्षण। सम = बराबर। जुगति = जीवन गुजारने का तरीका। अर्थ: परमात्मा का नाम (जीभ से) जपना और उसको सर्व-व्यापक जान के उसमें सुरति जोड़नी; सुखों-दुखों को एक-समान समझना तथा पवित्र और वेर-रहित जीवन जीना; सारे जीवों के साथ प्यार-हमदर्दी रखनी और कामादिक पाँचों विकारों से बचे रहना; परमात्मा की उपमा को जिंदगी का आसरा बनाना और माया से इस प्रकार निर्लिप रहना जैसे कमल का फूल पानी में, सज्जन और वैरी से एक जैसा प्रेम-भाव रखने की शिक्षा गहण करनी और परमात्मा की भगती में प्यार बनाना; पराई निंदा अपने कानों से ना सुननी और स्वै भाव त्याग के सबके चरणों की धूल बनना। हे नानक! पूरन पुरखों में ये छे लक्षण होते हैं, उनको ही साध गुरमुखि कहा जाता हैं।40। भाव: असल साधू वह मनुष्य है, सर्व-व्यापक परमात्मा के नाम की बरकति से जिसकी आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाती है कि उसके अंदर से मेर-तेर मिट जाती है परमातमा की सिफत-सालाह ही उसकी जिंदगी का सहारा बन जाता है माया और कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। अजा भोगंत कंद मूलं बसंते समीपि केहरह ॥ तत्र गते संसारह नानक सोग हरखं बिआपते ॥४१॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: अजा = बकरी। कंद = गाजर आदि पदार्थ जो धरती के अंदर ही पैदा होते हैं। समीप = नजदीक। केहरह = (केसरिन्) शेर। तत्र गते = वही रीत, वही चाल। बिआपते = प्रभाव डाले रखते हैं। मूल = गाजर मूली आदि धरती के अंदर पैदा होने वाले। भोगंत = खाती। अर्थ: बकरी गाजरमूली आदि खाती हो, पर शेर के नजदीक बसती हो (उसे मन-भाता खाना मिलने की प्रसन्नता तो जरूर है पर हर वक्त शेर का डर भी बना रहता है); हे नानक! यही है हाल जगत का, इसको खुशी और गमी दोनों व्यापते हैं।41। भाव: दुनिया के भोगों के साथ-साथ जगत में अनेकों सहम भी हैं जो परमात्मा की याद से टूटे हुए मनुष्य पर अपना प्रभाव बनाए रखते हैं। छलं छिद्रं कोटि बिघनं अपराधं किलबिख मलं ॥ भरम मोहं मान अपमानं मदं माया बिआपितं ॥ म्रित्यु जनम भ्रमंति नरकह अनिक उपावं न सिध्यते ॥ निरमलं साध संगह जपंति नानक गोपाल नामं ॥ रमंति गुण गोबिंद नित प्रतह ॥४२॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: छिद्रं = अैब, दोख। किलबिख = पाप (किल्विष)। मद = अहंकार। म्रित्यु = मृत्यु, मौत। नित प्रतह = सदा। छल = धोखा। बिघन = (विघ्न) रुकावट। कोटि = करोड़ों। मान = आदर। अपमान = निरादरी। बिआपत = दबाव तले आते हैं। भ्रमंति = भ्रमन्ति, भटकते हैं। न सिध्यते = कामयाब नहीं होते। अर्थ: (दूसरों को) धोखा (देना), (किसी के) ऐब (फरोलने), (औरों के रास्ते में) करोड़ों रुकावटें (डालनी), विकार, पाप, भटकना, मोह, आदर, निरादरी, अहंकार- (जिन लोगों को इन तरीकों से) माया अपने दबाव तले रखती है, वे जनम-मरण में भटकते रहते हैं, नर्क भोगते रहते हैं। अनेकों उपाय करने से भी (इन दुखों में से) निकलने में कामयाब नहीं होते। हे नानक! जो मनुष्य सदा साध-संगति में रह के परमात्मा का नाम जपते हैं सदा गोबिंद के गुण गाते हैं, वे पवित्र (-जीवन) वाले हो जाते हैं।42। भाव: माया अनेकों तरीको से मनुष्यों पर अपना प्रभाव डाले राखती है। जो मनुष्य साधसंगति का आसरा ले के परमात्मा का भजन करता है, वह इससे बचा रहता है। तरण सरण सुआमी रमण सील परमेसुरह ॥ करण कारण समरथह दानु देत प्रभु पूरनह ॥ निरास आस करणं सगल अरथ आलयह ॥ गुण निधान सिमरंति नानक सगल जाचंत जाचिकह ॥४३॥ {पन्ना 1357} पद्अर्थ: तरण = (तृ = to cross। तरण = a boat) जहाज। करण कारण = जगत का मूल। अरथ = पदार्थ। आलयह = (आलय:) घर। निधान = खजाना (निधानं)। जाचंत = (याचन्ति) मांगते हैं। जाचकहि = मंगते (याचका:)। रमण सील = क्रीड़ा करने वाला, करिष्में करने वाला। अर्थ: परमात्मा सब करिष्मों को करने वाला है, सबका मालिक है, उसकी शरण (जीवों के लिए, मानो) जहाज है। पूरन प्रभू जीवों को दातें देता है, वह जगत का मूल है, सब कुछ करने योग्य है। प्रभू निराशों की आशाएं पूरी करने वाला है, सारे पदार्थों का घर है। हे नानक! सारे (जीव) मंगते (बन के उसके दर से) माँगते हैं, और सब गुणों के खजाने प्रभू को सिमरते हैं।43। भाव: परमात्मा ही सब जीवों को दातें देता है और देने के समर्थ है। उसी का आसरा लेना चाहिए। दुरगम सथान सुगमं महा दूख सरब सूखणह ॥ दुरबचन भेद भरमं साकत पिसनं त सुरजनह ॥ असथितं सोग हरखं भै खीणं त निरभवह ॥ भै अटवीअं महा नगर बासं धरम लख्यण प्रभ मइआ ॥ साध संगम राम राम रमणं सरणि नानक हरि हरि दयाल चरणं ॥४४॥ {पन्ना 1357-1358} पद्अर्थ: दुरगम = (दुर्गम) जहाँ पहुँचना मुश्किल हो। सथान = (स्थान) जगह। सुगम = जहाँ आसानी से ही पहुँच सकें। भेद = (भिद् = to pierce) भेदना। भरमं = (भ्रम) भटकना, जीवन का गलत रास्ता। साकत = रॅब से टूटा हुआ। पिसन = (पिशुन) टुकड़े करने वाला (फाड़ने वाला), (पिशुन: चुगल)। निरभवह = निर्भव:, निडर। मइआ = मयस्, प्रसन्नता, दया। अर्थ: दुर्गम स्थान सुगम हो जाते हैं, बड़े-बड़े सुख सारे ही सुख बन जाते हैं। जो लोग जीवन के गलत रास्ते पर पड़ के खरवें वचनों से (औरों के मन) भेदते (छेदते) रहते थे वे माया-ग्रसित चुग़लखोर बंदे, नेक बन जाते हैं। चिंता, खुशी में जा बदल जाती है। (बदल के खुशी बन जाती है)। डरों से सहमा हुआ बँदा निडर हो जाता है। डरावना जंगल अच्छा-खासा बसता शहर प्रतीत होने लगता है- यह है धर्म के लक्षण जो प्रभू की मेहर से प्राप्त होते हैं। हे नानक! (वह धर्म है-) साध-संगति में जा के परमात्मा का नाम सिमरना और दयालु प्रभू के चरणों का आसरा लेना।44। भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, वह साध-संगति का आसरा ले के उसका नाम जपता है। यही है मनुष्य-जीवन का मनोरथ। सिमरन की बरकति से मनुष्य का जीवन पलट जाता है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |