श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1370 कबीर जेते पाप कीए राखे तलै दुराइ ॥ परगट भए निदान सभ जब पूछे धरम राइ ॥१०५॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: जेते = जितने भी। तलै = नीचे, अपने अंदर। दुराइ राखे = छुपा के रखे। निदान = आखिर। अर्थ: (परमात्मा की याद भुलाने पर मनुष्य शारीरिक मोह के बहाव में पड़ कर विकारों के राह पर पड़ जाता है; तिलक, माला, पूजा, धोती आदि धार्मिक भेष से लोग शायद पतीज जाएं कि ये भगत हैं; पर प्रभू के नाम से टूट के) हे कबीर! जो-जो पाप किए जाते हैं (भले ही वे पाप) अपने अंदर छुपा के रखे जाते हैं, फिर भी जब धर्मराज पूछता है वे पाप सारे उघड़ आते हैं (भाव, वेद आदि का कर्म-काण्ड विकारों से नहीं बचा सकता, बाहरी धर्म-भेष दिखावे से लोग तो भले ही पतीज जाएं, पर अंदरूनी पाप परमात्मा से छुपे नहीं रह सकते)।105। नोट: अगले तीन शलोकों में तीन उदाहरण दे के बताते हैं कि सिमरन छोड़ के दुनिया उल्टी दिशा में चल पड़ती है। इसलिए 'रामु न छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ'। कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै पालिओ बहुतु कुट्मबु ॥ धंधा करता रहि गइआ भाई रहिआ न बंधु ॥१०६॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: रहि गइआ = आत्मा रह जाता है, आत्मा ही कमजोर हो जाती है, आत्मा मर ही जाती है, जीव आत्मिक मौत मर जाता है। न रहिआ = कोई ना रहा, कोई बचाने लायक नहीं होता, कोई बचा नहीं सकता। छाडि = छोड़ के। पालिओ बहुतु = बहुता समय पालता रहा (सारी उम्र यही काम करता रहा कि) सिर्फ (परिवार) पालता रहा। अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का सिमरन छोड़ने का नतीजा ये हैं कि मनुष्य सारी उम्र सिर्फ परिवार ही पालता रहता है, (परिवार की खातिर) जगत के धंधे करता (और, जिंद के साथी परमात्मा से विछुड़ा हुआ रह के) आखिर आत्मिक मौत मर जाता है (इस आत्मिक मौत से) कोई रिश्तेदार बचाने के काबिल नहीं होता।106। कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै राति जगावन जाइ ॥ सरपनि होइ कै अउतरै जाए अपुने खाइ ॥१०७॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: जगावन जाइ = (मसाण) जगाने जाती है। नोट: हमारे देश में अनपढ़ता के कारण बेअंत जहालत है, गाँवों में तो अंधेर मचा हुआ है। मुल्ला-मुलाणें कई तरह के जादू टूणे तवीत बना -बना के देते हैं। जिन औरतों के घर संतान नहीं होती, आम तौर पर वही ये जादू -तवीत कराती फिरती हैं। संतान-हीन औरत मसाण-भूमि में जा के, किसी नए जल रहे मुर्दे की चिखा के पास खास टूणा आदि कर के, नंगी नहा के, रोटी पका के खाती है। इस सारे बेहूदे कर्तव्य के दो मनोरथ होते हैं, जिस चिखा के पास ये टूणा किया जा रहा है, उनके बाल-बच्चे मर जाएं; और, दूसरा टूणा करने वाली के घर औलाद हो जाए। नोट: धर्म और मज़हब के नाम पर अनपढ़ लोगों को आपस में लड़वा के मरवा के अपना स्वार्थ पूरा करते जाना शराफत नहीं है। यह पाज़ ज्यादा समय तक टिका नहीं रहेगा। अब तो देश में अपना राज है। गाँव-गाँव में लड़के-लड़कियों के स्कूल खोल के अनपढ़ता दूर करो, और लोगों को सही धर्म की समझ दो। अउतरै = उतरती है, पैदा करती है। सरपनि = सँपनी। होइ कै = बन के। अपुने जाऐ = अपने पैदा किए हुए बच्चे। खाइ = खाती है। अर्थ: हे कबीर! परमात्मा के सिमरन से वंचित रहके ही (कोई औतरी जाहिल औरत) रात को मसाण जगाने के लिए (मसाण-भुमि में) जाती है। (पर बुरे काम से सुख कहाँ? ऐसी औरत मनुष्य-जन्म हाथ से गवाने के बाद) सँपनी बन के पैदा होती है, और अपने ही बच्चे खाती है।107। कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै अहोई राखै नारि ॥ गदही होइ कै अउतरै भारु सहै मन चारि ॥१०८॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: नोट: एक अनपढ़ता, दूसरा परमात्मा को छोड़ के और-और देवी = देवताओं मढ़ी-मसाणों की पूजा और कई किस्म के व्रतों ने भारत की स्त्री-जाति को नकारा बनाया हुआ है। चेत्र में कार्तिक में इन व्रतों की भरमार होती है; करवा चौथ, महा लक्ष्मी, नवरात्रे आदि कई व्रत हैं, जिनके द्वारा हिन्दू औरतें कई तरह की सुखणें सुखती रहती हैं। गुरू नानक पातिशाह ने सिख-स्त्री को इस जहालत-भरी गुलामी में से निकालने की कोशिश की थी, पर जब तक देश में अनपढ़ता है, औरतें तो कहां रहीं, मर्द भी पागल हुए फिरते हैं। सिख मर्द गुरपुरब भुला के मसिआ, पुंनिआ, संग्रांद मनाते फिरते हैं, औरतें करवा चौथ के व्रत रख के पतियों के शगन मना रही हैं। अहोई = कार्तिक के महीने सीतला देवी की पूजा के व्रत; देवी देवताओं की खास-खास सवारी मानी गई हुई है; जैसे गणेश की सवारी चूहा, ब्रहमा की सवारी हंस, शिव की सवारी सफेद बैल, दुर्गा की सवारी शेर; इसी तरह सीतला की सवारी गधा। गदही = गधी। मन चारि = चार मन (भार, वजन)। अर्थ: हे कबीर! ('रामु न छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ' नहीं तो) राम-नाम छोड़ने का ही ये नतीजा है कि (मूर्ख) स्त्री सीतला के व्रत रखती फिरती है। (और अगर सीतला उससे बड़ा प्यार करेगी तो उसको हर वक्त अपने साथ रखने के लिए अपनी सवारी गधी बना लेगी) सो, वह मूर्ख स्त्री गदही की जून पड़ती है और (अन्य गधे-गधियों की तरह) चार मन वज़न ढोती है।108। कबीर चतुराई अति घनी हरि जपि हिरदै माहि ॥ सूरी ऊपरि खेलना गिरै त ठाहर नाहि ॥१०९॥ {पन्ना 1370} नोट: प्रभू-चरणों से विछुड़े मनुष्य को जगत के कई सहम घेर लेते हैं- दुख-कलेश, रोग, गरीबी, लोक-लाज, ईष्या-जलन, कई किस्म की मुथाजियां आदि। इनसे बचने के लिए कहीं ये बेचारा छुपे पाप करता है, कहीं संतान की खातिर मसाण जगाए जाते हैं, कहीं व्रत रखे जाते हैं, कहीं तीर्थों की तरफ दौड़-भाग हो रही है। फिर भी सुख नहीं है, सहम ही सहम है। ये सारी समझदारियाँ अकारथ व्यर्थ जा रही हैं। इनका एक ही इलाज है। प्रभू से विछोड़े के कारण ये दुख हैं। सिर्फ विछोड़ा दूर करना है, प्रभू के चरणों में जुड़ना है। पर सिर्फ 'राम राम' कहने को सिमरन नहीं कहा जाता। इस दवा के साथ कई परहेज़ भी हैं- चस्के, शारीरिक मोह, आति अभिमान, पराई निंदा, कुसंग, व्रत आदि के भ्रम, संग्रांद-मसिआ की भटकना, नाक रखने के लिए की जाने वाली व्यर्थ रस्में -ऐसे कई काम हैं जो जब तक छोड़े ना जाएं, सिमरन अपना जौहर नहीं दिखा सकता। पर, इनका त्याग कोई आसान खेल नहीं, कहीं अपना ही बिगड़ा हुआ मन रोकता है, कहीं लोक-लाज वरजती है। सो, सिमरन करना एक बड़ी कठिन खेल है, सूली पर चढ़ने के समान है। पर, सिमरन के बिना और कोई रास्ता है ही नहीं, जिस पर चल कर मनुष्यता की चोटी पर पहुँचा जा सके। पद्अर्थ: ठाहर = जगह, आसरा। अर्थ: हे कबीर! (दुनिया के सहम, वहम-भरम से बचने के लिए) सबसे बड़ी समझदारी यही है कि परमात्मा का नाम हृदय में याद कर। (पर) ये सिमरन करना कोई आसान काम नहीं है; (जाति-अभिमान, निंदा, कुसंग, चस्के, व्रत आदि भरम छोड़ने पड़ते हैं; सो) प्रभू का सिमरन सूली पर चढ़ने के समान है, इस सूली से गिरने पर भी (भाव, सिमरन का इस अत्यंत-मुश्किल काम को छोड़ने पर भी) बात नहीं बनती, क्योंकि सिमरन के बिना (दुनिया के दुख-कलेशों और सहमों से बचने के लिए) और कोई आसरा भी नहीं है।109। कबीर सुोई मुखु धंनि है जा मुखि कहीऐ रामु ॥ देही किस की बापुरी पवित्रु होइगो ग्रामु ॥११०॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: धंनि = धन्य, भाग्य वाला। देही = शरीर। बापुरी = बेचारी। ग्रामु = गाँव। 'सुोई' अक्षर 'स' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'सोई', यहां 'सुई' पढ़ना है, इस शलोक की चाल पूरी रखने के लिए। अर्थ: (इसलिए) हे कबीर! वही मुँह भाग्यशाली है जिस मुँह से राम का नाम उचारा जाता है। उस शरीर बेचारे की क्या बात है? (उस शरीर का पवित्र होना तो एक छोटी सी बात है, सिर्फ वह शरीर तो कहाँ रहा,) वह सारा गाँव ही पवित्र हो जाता है। जहाँ पर रहता हुआ मनुष्य नाम सिमरता है।110। कबीर सोई कुल भली जा कुल हरि को दासु ॥ जिह कुल दासु न ऊपजै सो कुल ढाकु पलासु ॥१११॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: ऊपजै = (सं: जन्+उप, उपजन = to become visible, to appear, to grow प्रकट होना, बनना) प्रकट होना। अर्थ: हे कबीर! जिस कुल में परमात्मा का सिमरन करने वाला भगत प्रकट हो जाए, वही कुल सुलक्ष्णी है। जिस कुल में प्रभू की भगती करने वाला बंदा नहीं प्रकट होता, वह कुल ढाक पलाह (आदि निकम्मे पेड़ों जैसी निष्फल जानो)।111। कबीर है गइ बाहन सघन घन लाख धजा फहराहि ॥ इआ सुख ते भिख्या भली जउ हरि सिमरत दिन जाहि ॥११२॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: है = हय, घोड़े। गइ = गै, गय, गज, हाथी। बाहन = वाहन, सवारी (करने के लिए)। सघन घन = बेअंत। धजा = ध्वजा, झंडे। फहराइ = लहराएं, हवा में झूलें। भिख्या = भिक्षा, फकीरों-साधुओं का गृहस्ती के दर से माँगा हुआ अन्न। जउ = अगर। जाहि = गुजरें। ते = से। नोट: अभी 'हरि का सिमरनु छाडि कै' वाला विचार ही चला आ रहा है। अर्थ: हे कबीर! अगर सवारी करने के लिए बेअंत घोड़े-हाथी हों, अगर (महलों पर) लाखों झण्डे झूलते हों (इतना तेज-प्रताप भी हो, पर परमात्मा के नाम से टूटे रह के ये राज-भाग किसी काम के नहीं हैं)। यदि परमात्मा का सिमरन करते हुए (जिंदगी के) दिन गुज़रें तो उस (सिमरन-हीन राज-भाग के) सुख से वह टुकड़ा बेहतर है जो लोगों के दर से माँग के मँगते फकीर खाते हैं।112। कबीर सभु जगु हउ फिरिओ मांदलु कंध चढाइ ॥ कोई काहू को नही सभ देखी ठोकि बजाइ ॥११३॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: मांदलु = ढोल। कंध = कंधे पर। चढाइ = चढ़ा के, रख के। काहू को = किसी का। सभ = सारी (सृष्टि)। ठोकि बजाइ = अच्छी तरह परख के। नोट: वही ख्याल चला आ रहा है। अर्थ: हे कबीर! कंधों पर ढोल रख के मैं (बजाता फिरा हूँ और) सारा जगत गाह मारा है (मैं पूछता फिरा कि बताओ, भाई! इस राज-भाग, महल-माढ़ियां, साक-संबन्धी में से कोई आखिर तक साथ निभाने वाले साथी को भी किसी ने देखा है, पर किसी ने हामी नहीं भरी; सो) सारी सृष्टि मैंने अच्छी तरह परख के देख ली है कोई भी किसी का (आखिर तक साथ निभाने वाला साथी) नहीं है (असल साथी सिर्फ परमात्मा का नाम ही है, इसलिए 'रामु न छोडीअै तनु धनु जाइ त जाउ')।113। मारगि मोती बीथरे अंधा निकसिओ आइ ॥ जोति बिना जगदीस की जगतु उलंघे जाइ ॥११४॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: मारगि = रास्ते में। बीथरे = बिखरे हुए हैं। निकसिओ आइ = सबब से आ पहुँचा है। जोति = रौशनी। जगदीस = जगत+ईश, जगत का मालिक प्रभू। उलंघे जाइ = उलंघता जा रहा है, (उन मोतियों को) पैरों तले लिताड़ता जा रहा है। अर्थ: (परमात्मा के गुण, मानो) मोती (हैं जो इन्सानी जिंदगी के सफर के) रास्ते में बिखरे हुए हैं (भाव, ये मोती लेने के लिए कोई धन-पदार्थ नहीं खर्चना पड़ता; पर यहाँ ज्ञान-हीन) अंधा मनुष्य आ पहुँचा है। परमात्मा की बख्शी हुई (ज्ञान की) जोति के बिना जगत इन मोतियों को पैरों तले लिताड़ता चला जा रहा है (मनुष्य को परमात्मा की सिफतसालाह करने की कद्र नहीं पड़ती, प्रभू स्वयं ही मेहर करे तो ये जीव गुण गा सकता है)।114। बूडा बंसु कबीर का उपजिओ पूतु कमालु ॥ हरि का सिमरनु छाडि कै घरि ले आया मालु ॥११५॥ {पन्ना 1370} नोट: शलोक नं: 107, 108 पढ़ के देखो, अभी वही ख्याल चला आ रहा है, अभी वह शब्द 'हरि का सिमरनु छाडि कै' बरते जा रहे हैं। शलोक नं: 112, 113 में भी वही बात कही है कि सिमरन से वंचित रह के ये राज-भाग भी व्यर्थ। अब वाला शलोक भी उसी सिलसिले में है। नोट: कबीर जी बहुत सारी बाणी ऐसी है जिसकी गहरी रम्ज़ें हैं। पर हमारे कई टीकाकार इन मुश्किल घाटियों को कहानियाँ घड़-घड़ के पार करते आऐ हैं। कहानियाँ घड़ने के वक्त कई बार इस बात का भी ख्याल नहीं रहा कि इस कहानी की टेक पर किए हुए अर्थ हमारे मौजूदा इन्सानी जीवन के साथ मेल खाते हैं या नहीं। कबीर का अपना पत्नी लोई के साथ गुस्सा हो जाना, नामदेव का मुग़ल को रॅब कहना -ऐसी कई बेतुकी कथा-कहानियां इस वक्त सिख प्रचारक सुना देते हैं, जो असल में सिख धर्म के आशय के ही बिल्कुल विरुद्ध जाती हैं। पर इस मौजूदा शलोक में कबीर जी के साथ एक बेइन्साफी भी की गई है। अपने कच्चे और कमजोर अर्थों को पक्का साबित करने की खातिर कहानियां घड़ने वालों ने यह अंदाजा लगाया है कि कबीर का पुत्र (जिसका नाम ये लोग 'कमाल' बता रहे हैं) किसी लालच में फस के कुछ 'माल' घर ले आया था, और कबीर जी ने उसकी इस करतूत की विरोधता इस शलोक में की है। कुछ इसी तरह ही राग गउड़ी के 'छंत' में शब्द 'मोहन' देख के कहानियां घड़ने वालों ने बाबा मोहन की सैंचियों की कहानी गुरू अरजन साहिब के साथ जोड़ दी (इस बारे मेरी पुस्तक 'कुछ और धार्मिक लेख' में 'गुरबाणी के इतिहास बारे' के पहले तीन लेख)। ऐसे बेतुके अंदाजे लगानेकई बार महापुरुषों की निरादरी के तूल्य हो जाते हैं। हम पहले बता आए हैं के कबीर जी के कई शबद देखने में तो साधारण लगते हैं, पर उनके भीतर बहुत ही गहरी रम्ज़ हुआ करती है। मिसाल के तौर पर; सोरठि ...घसि कुंकम चंदनु गारिआ॥ इसके अर्थ: जिस पुत्र (जीवात्मा) ने मेहनत करके अपने प्राणों को प्रभू में मिला दिया है, उसने अपनी आँखों को जगत-तमाशे से हटा के जगत (की अस्लियत) को देख लिया है; पहले वह सदा बाहर भटकता था, अब (उसने अपने अंदर, जैसे) शहर बसा लिया है (भाव, उसके अंदर वह सुंदर गुण पैदा हो गए हैं कि वह अब बाहर नहीं भटकता)।2। बसंतु ...जोइ खसमु है जाइआ॥ पूति बापु खेलाइआ॥ इसका अर्थ: हे लोगो! देखो, कलियुग का अजब प्रभाव पड़ रहा है (भाव, प्रभू से विछुड़ने के कारण जीव पर अजीब तरह का दबाव पड़ रहा है; मन-रूप पुत्र ने अपनी माँ (-माया) को ब्याह लिया है। रहाउ। स्त्री ने पति को जन्म दिया है (भाव, जिस मन को माया ने जन्म दिया है, वही इसको भोगनेवाला बन जाता है, इसका पति बन जाता है); मन-पुत्र ने पिता-जीवात्मा को खेलने लगाया हुआ है; (यह मन) थनों के बिना ही (जीवात्मा को) दूध पिला रहा है (भाव, नाशवंत पदार्थों के स्वाद में डाल रहा है)।1। इसी तरह इस शलोक नं: 115 में भी शब्द 'पूत' का अर्थ है 'मन'। पद्अर्थ: बूडा = डूब गया (समझो)। बंसु = वंश, खानदान, कुल (आँख, नाक, कान आदि बारे सारी ज्ञानेन्द्रियां) परिवार। उपजिओ = (देखो शलोक नं: 111) प्रकट हो गया, इस हालत में पहुँच गया। पूतु = पुत्र, मन। कमालु = कामल, लायक, अजब लायक (भाव, नालायक, मूर्ख)। घरि = घर में, हृदय में, अपने अंदर। मालु = धन, धन की लालसा, माया का मोह (इस भाव को समझने के लिए पढ़ें शलोक नं: 112 और 113)। अर्थ: ('है गइ बाहन सघन घन' और 'लाख धजा' में से 'कोई काहू को नहीं' -ये बात मैंने देखी 'डिठी ठोकि बजाइ', फिर भी) अगर मेरा मूख मन ऐसी (नीची) अवस्था में आ पहुँचा है कि परमात्मा का सिमरन छोड़ के अपने अंदर माया का मोह बसा रहा है तो मैं कबीर का सारा ही परिवार (आँख, नाक, कान आदि बारे सारी ज्ञानेन्द्रियां का टोला विकारों में अवश्य) डूब गया जानो।115। कबीर साधू कउ मिलने जाईऐ साथि न लीजै कोइ ॥ पाछै पाउ न दीजीऐ आगै होइ सु होइ ॥११६॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: साधू = भला मनुष्य, जिसने अपने मन को साधा हुआ है, गुरमुखि। आगै = साधू को ओर जाते हुए, किसी गुरमुखि के सन्मुख रहते हुए। होइ सु होइ = अगर कोई मुश्किल भी हो तो होती रहे। अर्थ: हे कबीर! ('रामु न छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ'; पर प्रभू का नाम सिर्फ उनसे ही मिलता है जिन्होंने अपने मन को साध के रखा हुआ है, जो आप 'साधू' हैं; सो, 'साधू' की संगति करनी चाहिए; पर) अगर किसी साधू गुरमुखि के दर्शन करने जाएं, तो किसी को अपने साथ नहीं ले के जाना चाहिए (किसी साथ का इन्तजार नहीं करना चाहिए, जाने के लिए कोई आसरा नहीं ढूंढना चाहिए, कि कहीं ममता में बँधा हुआ साथी टाल-मटोल ही करा दे)। किसी गुरमुखि का दीदार करने जाने पर कभी पैर पीछे ना धरें (भाव, कभी आलस ना करें); बल्कि उधर को जाते को कोई मुश्किल भी आए तो आती रहे (परवाह ना करें)।116। कबीर जगु बाधिओ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर ॥ जैहहि आटा लोन जिउ सोन समानि सरीरु ॥११७॥ {पन्ना 1370} नोट: किसी साधू गुरमुखि की संगति में जाते वक्त क्यों किसी साथी का इन्जार नहीं करना चाहिए- ये बात इस शलोक में समझाई है कि आम तौर पर हरेक जीव ममता में बँधा हुआ है, आसरे देखते-देखते कहीं किसी साथी की प्रेरणा में ही आ जाएं। पद्अर्थ: जिह जवेरी = जिस रस्सी से, ममता की जिस रस्सी से; माया मोह की रस्सी से। तिह = उस रस्सी से। मत बंधहु = ना बँध जाना। जै हहि = तबाह हो जाएगा। आटा लोन जिउ = आटा नमक की तरह, सस्ते भाव। सोन समानि = सोने जैसा, बहुमूल्य। सरीर = मनुष्य शरीर। अर्थ: हे कबीर! माया-मोह की जिस रस्सी से जगत (का हरेक जीव) बँधा हुआ है, उस रससी से अपने आप को बँधने ना देना। ये सोने जैसा (कीमती) मनुष्य-शरीर (मिला) है, (अगर तू मोह की रस्सी में बँध के गुरमुखों की संगति से परे रह के, परमात्मा का सिमरन छोड़ बैठा, तो) सस्ते भाव में बेकार ही तबाह हो जाएगा।117। कबीर हंसु उडिओ तनु गाडिओ सोझाई सैनाह ॥ अजहू जीउ न छोडई रंकाई नैनाह ॥११८॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: हंसु = जीवात्मा। उडिओ = उडिओ चाहे, उड़ना चाहता है, शरीर को छोड़ने की तैयारी में है। तनु गाडिओ = तनु गाडे जाने वाला है, शरीर और जीवात्मा का विछोड़ा होने पर है। सोझाई = सूझ। सैनाह = सैनतों से। रंकाई = कंगालता, नीचता। नैनाह = नैणों की, आँखों की। अर्थ: (ये ममता की जंजीर कोई साधारण सा बँधन नहीं होता) हे कबीर! (परमात्मा के सिमरन से टूट के माया-मोह की रस्सी में बँधे हुओं का हाल अगर तुने समझना है तो देख कि मौत सिर पर आ पहुँचती है) जीवात्मा (शरीर में से) निकलने पर होता है, शरीर (आत्मा के विछुड़ने पर) (शिथिर और) गिरने वाला होता है, फिर भी मोह की जंजीर का बँधा हुआ जीव सैनतों के साथ ही (पिछले संबन्धियों को) समझाता है, (उस वक्त भी प्रभू याद नहीं आता), अभी भी जीव आँखों की कंगालता नहीं छोड़ता।118। कबीर नैन निहारउ तुझ कउ स्रवन सुनउ तुअ नाउ ॥ बैन उचरउ तुअ नाम जी चरन कमल रिद ठाउ ॥११९॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: नैन निहारउ = आँखों से मैं देखूँ। तुझ कउ = तुझे (हे प्रभू!)। स्रवन = कानों से। सुनउ = मैं सुनूँ। तुअ = तेरा। बैन = वचन, वचनों से। उचारदा = मैं उचारूँ। जी = हे प्रभू जी! चरन कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरन। ठाउ = जगह। अर्थ: हे कबीर! (प्रभू-दर पर अरदास कर और कह- हे प्रभू! तुझे बिसार के जिस मोह-जंजीर से जगत बँधा हुआ है और मरने के वक्त तक भी आँखों की कंगालता नहीं छोड़ता; मेहर कर, उस जेवरी से बचने के लिए) मैं अपनी आँखों से (हर तरफ) तेरा ही दीदार करता रहूँ, तेरा ही नाम मैं अपने कानों से सुनता रहूँ, (जीभ से) वचनों द्वारा मैं तेरा नाम ही उचारता रहूँ, और तेरे सुंदर चरनों को अपने हृदय में जगह दिए रखूँ।119। कबीर सुरग नरक ते मै रहिओ सतिगुर के परसादि ॥ चरन कमल की मउज महि रहउ अंति अरु आदि ॥१२०॥ कबीर चरन कमल की मउज को कहि कैसे उनमान ॥ कहिबे कउ सोभा नही देखा ही परवानु ॥१२१॥ कबीर देखि कै किह कहउ कहे न को पतीआइ ॥ हरि जैसा तैसा उही रहउ हरखि गुन गाइ ॥१२२॥ {पन्ना 1370} पद्अर्थ: ते = से। रहिओ = बच गया हूँ। परसादि = कृपा से। मउज = लहर, हुलारा। अंति अरु आदि = शुरू से आखिर तक, सदा ही।120। मउज को = लहर का हुलारे का। कहि = कहे, बताए। कैसे = कैसे? उनमान = (सं: उन्मान = measuring, price) तोल, अंदाजा, कीमत। कहिबे कउ = बयान करने से। परवानु = प्रमाणिक, मानने योग्य।121। किह = क्या? कहउ = मैं कहूँ। पतीआइ = पतीजता, तसल्ली होती, आनंद आता। रहउ = मैं रहता हूँ। हरखि = खुशी में, खेड़े में। गाइ = गा के।122। अर्थ: हे कबीर! मैं तो सदा ही परमात्मा के सुंदर चरणों (की याद) के हुलारे में रहता हूं; (और इस तरह) अपने सतिगुरू की कृपा से मैं स्वर्ग (की लालसा) और नर्क (के डर) से बच गया हूँ।120। (पर,) हे कबीर! प्रभू के सुंदर चरणों में टिके रहने के हुलारे का अंदाजा कैसे कोई बता सकता है? (जीभ से) उस मौज का बयान करना फबता ही नहीं है; वह कितना (और कैसा) हुलारा है?- ये तो हुलारा ले के ही पता चलता है।121। हे कबीर! उस प्रभू के दीदार करके मैं बता भी कुछ नहीं सकता, और बताने पर किसी को तसल्ली भी नहीं हो सकती (क्योंकि जगत में कोई चीज ऐसी नहीं है जिस तरफ इशारा कर के कहा जा सके कि परमात्मा इस जैसा है), परमात्मा अपने जैसा स्वयं ही है; (मैं तो सिर्फ यह कह सकता हूं कि) उसके गुण गा-गा के मैं मौज में टिका रहता हूँ।122। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |