श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कबीर चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारे ॥ जैसे बचरहि कूंज मन माइआ ममता रे ॥१२३॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: चुगै = (चोगा) चुगती है। चितारै = (अपने बच्चों को) याद करती है। भी = दोबारा, फिर। चुगि चुगि चितारे = चुग चुग के (बच्चों को याद करती है, चोगा भी चुगती जाती है और बच्चों को याद भी करती है)। बचरहि = बच्चों में। ममता = ये ख्याल कि (माया) मेरी बन जाए, मल्कियत की तमन्ना। रे = हे भाई!

अर्थ: हे कबीर! कूँज चोगा चुगती है और अपने बच्चों को भी चेता करती है, फिर चुगती है, चोगा भी चुगती है और बच्चों को भी याद करती है। जैसे कूँज की सुरति हर वक्त अपने बच्चों में रहती है, वैसे ही, हे भाई! ('हरि का सिमरनु छाडि कै') मनुष्य का मन माया की मल्कियत की तमन्ना में टिका रहता है।123।

कबीर अ्मबर घनहरु छाइआ बरखि भरे सर ताल ॥ चात्रिक जिउ तरसत रहै तिन को कउनु हवालु ॥१२४॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: अंबर = आकाश, आसमान। घनहरु = बादल। छाइआ = बिछ गए, बिखर गए। बरखि = बरस के, बस के। सर ताल = सरोवर तालाब। चात्रिक = पपीहा। रहै = रहते हैं। कउनु हवालु = (भाव) बुरा ही हाल।

अर्थ: हे कबीर! (वर्षा ऋतु में) बादल आकाश में (चारों तरफ) बिछ जाता है, बरखा कर के (छोटे बड़े सारे) सरोवर तालाब भर देता है (पर, पपीहा फिर भी बरखा की बूँद को तरसता और कूकता रहता है)। (परमात्मा सारी सृष्टी में व्यापक है, पर माया की ममता में फसे हुए जीव उसका दर्शन नहीं कर सकते) ('हरि का सिमरनु छाडि कै') वह पपीहे की तरह तरले लेते हैं, और उनका सदा बुरा हाल ही रहता है।124।

कबीर चकई जउ निसि बीछुरै आइ मिलै परभाति ॥ जो नर बिछुरे राम सिउ ना दिन मिले न राति ॥१२५॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: चकई = चकवी।

(नोट: आम ख्याल है कि चकवी अपने साथी चकवे से सारी रात विछुड़ी रहती है। एक दूसरे की याद में कूकते हैं, पर मिल नहीं सकते। सवेर होते सार ही दोबारा मिल जाते हैं)।

जउ = जब। निसि = रात के वक्त। परभाति = सूरज चढ़ने से पहले। सिउ = से।

अर्थ: हे कबीर! चकवी जब रात को (अपने चकवे से) विछुड़ती है और सुबह होती ही दोबारा आ के मिलती है (रात का अंधेरा इनके मेल के रास्ते में रुकावट बना रहता है, वैसे ये अंधकार उनको ज्यादा से ज्यादा चार पहर ही विछोड़ सकता है। पर माया की ममता का अंधेरा ऐसा नहीं जो जल्दी खत्म हो सके, यह तो जन्म-जन्मांतरों तक खलासी नहीं करता; इस अंधेरे के कारण) जो मनुष्य प्रभू से विछुड़ते हैं, वे ना दिन में मिल सकते हैं ना रात को।125।

कबीर रैनाइर बिछोरिआ रहु रे संख मझूरि ॥ देवल देवल धाहड़ी देसहि उगवत सूर ॥१२६॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: रैनाइर = (सं: रत्नाकर = रत्नों की खान) समुंद्र। मझूरि = (रैनाइर) माझ, समुंद्र में ही। रहु = टिका रह। देवल = (देवालय = देव+आलय) देवते का घर, देहुरा, ठाकुरद्वारा, मन्दिर। धाहड़ी = धाह+ड़ी, डरावनी ढाह। देसहि = देएगां। सूर = सूरज।

अर्थ: हे कबीर! (कह-) समुंद्र से विछुड़े हुए हे शंख! समुंद्र में ही टिका रह, नहीं तो हर रोज चढ़ते सूरज के साथ हरेक मन्दिर में डरावनी आवाज मारेगा (दहाड़ेगा)।126।

नोट: प्रभू चरनों से विछुड़ के ममता का मारा जीव माया की खातिर दर-दर पर तरले लेता है; अगर प्रभू के दर पर टिका रहे तो और-और आशाएं धार के धक्के खाने से बच जाता है। तभी तो,

('कबीर रामुन छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ')।

कबीर सूता किआ करहि जागु रोइ भै दुख ॥ जा का बासा गोर महि सो किउ सोवै सुख ॥१२७॥ कबीर सूता किआ करहि उठि कि न जपहि मुरारि ॥ इक दिन सोवनु होइगो लांबे गोड पसारि ॥१२८॥ कबीर सूता किआ करहि बैठा रहु अरु जागु ॥ जा के संग ते बीछुरा ता ही के संगि लागु ॥१२९॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: सूता = (माया की ममता की नींद में) सोया हुआ। भै = (दुनिया के) डर सहम।

नोट: 'रोइ भै दुख' (देखो शलोक नं: 72) दुनिया के डरों सहमों और दुखों को दूर कर। (किसी को रो बैठने का भाव है किसी से संबन्ध तोड़ लेना)।

बासा = वास, निवास। गोर = कब्र, अंधेरी गहरी जगह, दुनिया के दुखों और सहम से भरी हुई जिंदगी। किउ = कैसे? किउ सोवै = सुख से सो नहीं सकता, सुखी हो नहीं सकता।127।

उठि = सचेत हो के, होशियार हो के। कि = क्यों? मुरारि = परमात्मा। पसारि = पसार के, बिखेर के। लांबे गोड पसारि = लंबे घुटने पसार के, ऐसे बेफिक्र हो के कि जैसे दोबारा उठना ही ना हो।128।

जा के संग ते = जिस परमात्मा की संगति से। लागु = लगा रह, जुड़ा रह।129।

नोट: तीसरे शलोक की आखिर तुक कारे पढ़ने से साफ पता चल जाता है कि 'सोने' से भाव है परमात्मा के चरणों से विछुड़ना और 'जागने' से भाव है प्रभू की याद में जुड़ना।

अर्थ: हे कबीर! (माया के मोह में) सोया हुआ (मस्त हुआ) क्या कर रहा है (क्यों व्यर्थ में उम्र गवा रहा है?) प्रभू की याद में होशियार हो और (इस याद की बरकति से उन सांसारिक) सहमों और कलेशों से खलासी हासिल कर (जो प्रभू-चरनों से विछुड़ने पर आ घेरते हैं। तू समझता है कि मोह की नींद मीठी नींद है, पर इस मोह से पैदा हुए दुखों-कलेशों और सहमों के तले दबे रहना कब्र में पड़ने के समान है। ये दुखों-कलेशों-सहमों भरा जीवन सुखी जीवन नहीं है)। जिस मनुष्य का वास सदा (ऐसी) कब्र में रहे, वह कभी सुखी जीवन जीता हुआ नहीं कहा जा सकता।128।

हे कबीर! माया के मोह में मस्त हो के क्यों उम्र व्यर्थ गवा रहा है? इस मोह की नींद में से होशियार हो के क्यों परमात्मा का सिमरन नहीं करता? एक दिन ऐसा बे-बस हो के सोना पड़ेगा कि दोबारा उठा ही नहीं जा सकेगा (एक दिन सदा की नींद सोना पड़ेगा)।128।

हे कबीर! माया के मोह में मस्त हो के क्यों उम्र व्यर्थ गवा रहा है? होशियार हो, ममता की नींद के हुलारे से सचेत रह। जिस प्रभू की याद से विछुड़ा हुआ है (और ये सहम और कलेश बर्दाश्त कर रहा है) उसी प्रभू के चरनों में जुड़ा रह।129।

कबीर संत की गैल न छोडीऐ मारगि लागा जाउ ॥ पेखत ही पुंनीत होइ भेटत जपीऐ नाउ ॥१३०॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: गैल = रास्ता, पीछा। संत की गैल = वह रास्ता जिस पर संत चले हैं। मारगि = रस्ते पर। लागा जाउ = चला चल। पुंनीत = पुनीत, पवित्र। भेटत = मिलने से, संगति करने से, पास बैठने से।

अर्थ: (पर) हे कबीर! (अगर 'जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु' वाला उद्यम करना है तो) वह रास्ता ना छोड़ें जिस पर संत गुरमुखि चलते हैं, उनके रास्ते पर चलते चलना चाहिए। संतों-गुरमुखों का दर्शन करने से मन पवित्र हो जाता है, उनके पास बैठने से परमात्मा का सिमरना शुरू हो जाता है (सिमरन का शौक पड़ जाता है)।130।

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥ बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु ॥१३१॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। संगु = सुहबत। दूरहि = (साकत से) दूर ही। भागि जाईअै = भाग जाना चाहिए। बासनु = बर्तन। कारो = काला। तउ = तो। कछु = कुछ, थोड़ा बहुत।

अर्थ: हे कबीर! (अगर 'जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु' वाला उद्यम करना है तो) रॅब से टूटे हुए बंदे की सोहबति नहीं करनी चाहिए, उससे दूर ही हट जाना चाहिए। (देख,) यदि किसी काले बर्तन को छूएं, तो थोड़ा-बहुत दाग़ लग ही जाता है।132।

कबीरा रामु न चेतिओ जरा पहूंचिओ आइ ॥ लागी मंदिर दुआर ते अब किआ काढिआ जाइ ॥१३२॥ कबीर कारनु सो भइओ जो कीनो करतारि ॥ तिसु बिनु दूसरु को नही एकै सिरजनहारु ॥१३३॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। लागी = (आग) लग गई। मंदरि = घर। मंदरि दुआर ते = घर के दरवाजे पर। अब = अब, आग लगने पर। किआ काढिआ जाइ = क्या निकाला जा सकता है? क्या बचाया जा सकता है? सब कुछ बचाया नहीं जा सकता।132

कारनु = कारण, सबब, वसीला, 'राम को चेतने का सबब। सो भइओ = वही (सबब) बनता है। ऐकै = एक ही।133।

अर्थ: हे कबीर! (अगर 'जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु' वाला उद्यम करना है तो ये समय-सिर ही हो सकता है, साधारण तौर पर बुढ़ापे से पहले-पहले ही ये उद्यम करना चाहिए; पर अगर जवानी में परमात्मा का भजन ना किया (ऊपर से) बुढ़ापा आ पहुँचा, इस उम्र तक माया के मोह में फंसे रहने से बेअंत बुरे संस्कार अंदर जमा होते गए, अब ये कैसे सिमरन की तरफ पलटने देंगे?) अगर किसी घर को दरवाजे की तरफ से आग लग जाए, तो उस वक्त (घर में से) बहुत कुछ (जलने से) नहीं बचाया जा सकता (इसी तरह अगर) जवानी विकारों में गल जाए, तो बुढ़ापे में उम्र के गिनती के दिन होने के कारण जीवन बहुत सँवारा नहीं जा सकता।132।

(पर) हे कबीर! (यदि सिमरन से वंचित ही जवानी गुजर गई है ओर बुढ़ापा आ जाने पर अब समझ आई है, तो भी निराश होने की आवश्यक्ता नहीं। सिमरन प्रभू की अपनी बख्शिश हैजब दे तब ही जीव सिमरन कर सकता है। जवानी हो चाहे बुढ़ापा, सिमरन करने का) सबब वही बनाता है जो करतार स्वयं बनाए; (ये दाति किसी भी जीव के हाथ में नहीं है, ये सबब बनाने वाला) उस परमात्मा के बिना और कोई नहीं, सिर्फ सृष्टि का रचनहार स्वयं ही सबब बनाने-योग्य है।133।

कबीर फल लागे फलनि पाकनि लागे आंब ॥ जाइ पहूचहि खसम कउ जउ बीचि न खाही कांब ॥१३४॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: फल फलनि लागे = आमों को फल लगने लग जाते हैं। खसम कउ = बाग़ के मालिक के पास। जउ = अगर। बीचि = बीच में ही, पकने से पहले ही। कांब = कँपनी, कंपन, अंधेरी आदि के कारण टहनी से फल का हिल जाना।

नोट: बसंत ऋतु में आमों को बौर पड़ता है, आगे गर्मियां शुरू हो जाती हैं। पहले कच्चे फलों को गिलहरियां-तोते आदि ही कतर-कतर के खा जाते हैं, अंधेरी आने पर बहुत सारा फल झड़ जाता है, कई फल टहनियों के साथ लगे तो रहते हैं, पर अंधेरी के कारण हिल जाने के कारण ऊपर ही सूख जाते हैं। इन कई कठिनाईयों से जूझते हुए जो पकते हैं, वही कबूल होते हैं। यही हाल मनुष्यों का है, जगत के कई विकार इन्सान को प्रभू से विछोड़ते हैं, जो मनुष्य माया के सब हमलों से बच के पूरी श्रद्धा से प्रभू के दर पर टिके रहते हैं, वही मालिक प्रभू की नजरों में जचते हैं।

अर्थ: हे कबीर! आम के पेड़ों को (पहले) फल लगते हैं, और (सहजे-सहजे फिर वह) पकने शुरू होते हैं; पकने से पहले अगर ये आम (अंधेरी आदि के कारण टहनी से) हिल ना जाए तो ही मालिक तक पहुँचते हैं।134।

कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले मनहठि तीरथ जाहि ॥ देखा देखी स्वांगु धरि भूले भटका खाहि ॥१३५॥ कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ पूजै सभु संसारु ॥ इस भरवासे जो रहे बूडे काली धार ॥१३६॥ कबीर कागद की ओबरी मसु के करम कपाट ॥ पाहन बोरी पिरथमी पंडित पाड़ी बाट ॥१३७॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: मोलि ले = मूल्य ले के, खरीद के। जाहि = जाते हैं। देखा देखी = एक दूसरे को (ये काम करते हुए) देख के। सांगु धरि = स्वांग बना के, नकल करके। भटका खाहि = भटकते हैं।135।

पाहनु = पत्थर (की मूर्ति)। कीआ = बना लिया, मिथ लिया। इस भरवासे = इस यकीन में (कि ये परमात्मा है)। बूडै = डूब गए। काली धार = गहरे पानी में ।136।

(नोट: समुंद्र का पानी ज्यों-ज्यों ज्यादा गहरा होता जाए, उसका रंग ज्यादा काला दिखेगा)।

ओबरी = कैदखाने की कोठरी। कागद = (भाव, पंडितों के) धर्म शास्त्र। मसु = स्याही। मसु के = स्याही से लिखे हुए। करम = कर्म काण्ड (की मर्यादा)। कपाट = किवाड़, पक्के दरवाजे। बोरी = डुबा दी। पिरथमी = पृथवी, धरती, धरती के लोग। पाड़ी बाट = राह तोड़ दिया है, डाका मार लिया है। बाट = रास्ता।137।

अर्थ: (ष्) हे कबीर! जो लोग ठाकुर (की मूर्ति) मूल्य में लेकर (उसकी) पूजा करते हें, और मन के हठ से तीर्थों पर जाते हैं, (दरअसल वे लोग) एक-दूसरे को (ये काम करते हुए) देख के स्वांग बनाए जाते हैं (एक-दूसरे की नकल करते हैं) (इसमें सच्चाई कोई नहीं होती, सब कुछ लोगों में भला कहलवाने के लिए ही किया जाता है, हृदय में परमात्मा के प्यार का कोई हिलोरा नहीं होता) सही राह से टूटे हुए ये लोग भटकते हैं।135।

हे कबीर! (पंडितों के पीछे लगा हुआ ये) सारा जगत पत्थर (की मूर्ति) को परमेश्वर समझ रहा है और इसकी पूजा कर रहा है। जिन लोगों का ये ख्याल बना हुआ है कि पत्थर को पूज के वे परमात्मा की भगती कर रहे हैं, वे गहरे पानियों में डूबे हुए समझो (जहाँ उनका कोई खुरा-खोज ही नहीं मिलना)।136।

हे कबीर! (इन पंडितों के) शास्त्र, जैसे कैद खाने हैं, (इन शास्त्रों में) स्याही से लिखी हुई कर्म-काण्डों की मर्यादा, जैसे, उस कैद खाने के बंद दरवाजे हैं। (इस कैद खाने में रखी हुई) पत्थर की मूर्तियों ने धरती के लोगों को (संसार-समुंद्र में) डुबो दिया है, पंडित लोग डाके मार रहे हैं ( भाव, सादा-दिल लोगों को भोले-भाले लोगों को शास्त्रों की कर्म-काण्ड की मर्यादा और मूर्ति-पूजा में लगा के दक्षिणा-दान आदि के नाम पर लूट रहे हैं)।137।

नोट: इस शलोक नं: 136 के होते हुए कोई सिख जो इस बाणी में श्रद्धा रखता हो यह नहीं कह सकता कि मूर्ति के द्वारा ही परमात्मा की पूजा हो सकती है, अथवा मूर्ति-पूजा भी एक ठीक रास्ता है जिस रास्ते पर चल के मनुष्य परमात्मा को मिल सकता है।

कबीर कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल ॥ पाछै कछू न होइगा जउ सिर परि आवै कालु ॥१३८॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: कलि = कल, आगे आने वाला दिन। अबहि = अभी ही। सुइ ताल = उसी पल। जउ = जब। कालु = मौत। पाछै = भगती करने को मौका गुजर जाने पर, असल समय के बाद।

नोट: शलोक नं: 132 में कबीर जी ने यह ताकीद की थी कि बुढ़ापा आने से पहले भगती का स्वभाव बनाओ। साथ ही याद करवाते हैं कि भगती प्रभू की बख्शिश ही है, जिस पर आ जाए। आम के फल की मिसाल दे के समझाते हैं कि उसकी मेहर पर यकीन रखो, वह अवश्य बख्शिश करता है। पर साथ ही आगे सचेत करते हैं कि इन मूर्ति-पूजकों को परमात्मा के भक्त ना समझो, ये बेचारे तो पंडित लोगों के कैदी हैं।

शलोक नं: 132 के ख्याल को दोबारा जारी रखते हुए कहते हैं कि;

अर्थ: हे कबीर! (परमात्मा का सिमरन करने में कभी आलस ना कर) कल (सिमरन करूँगा, ये सलाह) करता अभी ही (सिमरन) कर (कल सिमरन शुरू करने की जगह अभी ही शुरू कर दे। नहीं तो कल-कल करते हुए) जब मौत सिर पर आ जाती है उस वक्त समय बीत जाने पर कुछ नहीं हो सकता।138।

कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ जैसी धोई लाख ॥ दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक ॥१३९॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: अैसा जंतु = ऐसा मनुष्य जिसने 'रामु न चेतिओ'। धोई लाख = धोई हुई लाख (जो बहुत चमकती है)। चंचलु = चालाक, चुस्त। बहु गुना = बहुत ही ज्यादा। मति हीना = मति हीन, बुद्धिहीन। नापाक = अपवित्र, गंदे जीवन वाला।

अर्थ: हे कबीर! मैंने एक ऐसा मनुष्य देखा (जिसने कभी परमात्मा का सिमरन नहीं था किया) वह (बाहर से देखने को) धोई हुई चमकती लाख जैसा था। प्रभू की याद से टूटा हुआ मनुष्य चाहे बहुत ही चुस्त-चालाक दिखता हो, पर वह असल में बुद्धिहीन होता है क्योंकि प्रभू से विछुड़ के उसका जीवन गंदा होता है।139।

कबीर मेरी बुधि कउ जमु न करै तिसकार ॥ जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार ॥१४०॥ {पन्ना 1371}

पद्अर्थ: बुधि = बुद्धि, अकल। कउ = को। तिसकार = तिरस्कार, निरादरी। जिनि = जिस (परवदिगार) ने, जिस पालनहार प्रभू ने। जमूआ = गरीब सा जम, बेचारा जम।

(नोट: जिस 'जम' से दुनिया थर-थर काँपती है, भगती करने वाले को वह भी परमात्मा का पैदा किया हुआ एक साधारण सा जीव लगता है, उससे वे रक्ती भर भी नहीं डरते)।

सु = उस (परमात्मा) को।

अर्थ: हे कबीर! (प्रभू की याद से भूला हुआ मनुष्य बड़ा चुस्त-चालाक होता हुआ भी बुद्धि-हीन और तिरस्कारयोग्य होता है क्योंकि उसका जीवन नीच रह जाता है। पर मेरे ऊपर प्रभू की मेहर हुई है, दुनिया के लोग तो कहां रहे) मेरी बुद्धि को तो जमराज भी नहीं धिक्कार सकता, क्योंकि मैंने उस पालनहार प्रभू को सिमरा है जिसने इस बेचारे जम को पैदा किया है।140।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh