श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1372 कबीरु कसतूरी भइआ भवर भए सभ दास ॥ जिउ जिउ भगति कबीर की तिउ तिउ राम निवास ॥१४१॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: कबीरु = सबसे बड़ा, परमात्मा, परम आत्मा। भइआ = हो जाता है, लगता है। दास = (परमातमा की भगती करने वाले) सेवक। कबीर की भगति = परमात्मा की भगती। अर्थ: (भगती करने वालों को) परमात्मा (ऐसा प्रतीत होता है जैसे) कस्तूरी है, सारे भगत उसके भौरे बन जाते हैं (जैसे भौरे फूल की सुगन्धि में मस्त हो जाते हैं और किसी गंदी बदबू वाली जगह की तरफ नहीं जाते, वैसे ही भगत परमात्मा के प्यार की सुगन्धि में लीन रहते हैं और मायावी पदार्थों की तरफ नहीं पलटते)। ज्यों-ज्यों वे परमात्मा की भगती करते हैं, त्यों-त्यों उनके हृदय में परमात्मा का निवास होता जाता है (ऐसे मनुष्यों की अकल को कौन धिक्कार सकता है?)।141। कबीर गहगचि परिओ कुट्मब कै कांठै रहि गइओ रामु ॥ आइ परे धरम राइ के बीचहि धूमा धाम ॥१४२॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: गहगचि = घमासान में, रौणक में। कुटंब कै गहगचि = परिवार के झमेले में। परिओ = पड़ा रहा, फसा रहा। कांठै = किनारे पर, एक तरफ ही। धरमराइ के = धर्मराज के भेजे हुए दूत। आइ परे = आ पहुँचे। बीचहि = बीच में ही। धूमधाम = शोर शराबा। अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य परिवार के दलदल में ही फसा रहता है, परमात्मा (का भजन उसके हृदय से) अलग ही रह जाता है। इस शोर-शराबे में फसे हुए के पास धर्मराज के भेजे हुए दूत आ पहुँचते हैं ('रामु न चेतिओ, जरा पहूँचिओ आइ')।142। कबीर साकत ते सूकर भला राखै आछा गाउ ॥ उहु साकतु बपुरा मरि गइआ कोइ न लैहै नाउ ॥१४३॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: साकत ते = ईश्वर से टूटे हुए मनुष्य से। सूकर = सूअर। भला = अच्छा। आछा = साफ। गाउ = गाँव। बपुरा = बेचारा, बद नसीब। कोइ नाउ न लै है = कोई उसका नाम भी नहीं लेता, किसी को उसकी याद भी नहीं रह जाती। अर्थ: हे कबीर! (परिवार के दलदल में पड़ के परमात्मा को बिसार देने वाले) साकत से बेहतर तो सूअर जानो (जो गाँव के आस-पास की गंदगी खा के) गाँव को साफ-सुथरा रखता है। जब वह अभागा साकत मर जाता है किसी को उसकी याद भी नहीं रह जाती (चाहे वह जीते जी कितना ही बड़ा बन-बन के बैठता हो)।143। नोट: यहाँ साकत और सूअर के जीवन का मुकाबला करके बताया है कि दोनों में से सूअर को ही बेहतर समझो। साकत सारी उम्र गंदे-मंदे विकारों में पड़ा रहता है, सूअर गंद खाता है। पर साकत तो गरीब लोगों को दुख देता रहा होगा, और सुअर गाँव की सफाई रख के गाँव की सेवा ही करता रहा। कबीर कउडी कउडी जोरि कै जोरे लाख करोरि ॥ चलती बार न कछु मिलिओ लई लंगोटी तोरि ॥१४४॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: चलती बार = संसार से चलने के वक्त, मरने के वक्त। (नोट: 'लंगोटी' प्राणी के मरने पर उसके शरीर को साधारण हालातों में उसके सन्बंधी नहला-धुला के कपड़े पहना के जलाते व दबाते हैं। ये नहीं होता कि उसके कमर की लंगोटी भी उतार लें। पर, पुराने समय में व्यापारी लोग घर से चलने के वक्त रुपयों को वांसली में डाल के कमर से बाँध लेते थे, ताकि चुराए ना जाएं। वासंली एक लंबी और संकरी थैली होती है जिसमें गोलाई की तरफ मुश्किल से एक रुपया आ सके। सो, लंबे राह के लिए उसको रुपयों से भर लेते हैं, वांसली के दोनों सिरों पर डोर सी लगी होती है, जिसको कमर के इर्द-गिर्द बाँध लिया जाता है। जिस मनुष्य को अपने कमाए रुपयों का बहुत फिक्र होगा, वह हर वक्त भी इसे बाँधे फिरता होगा। मालूम होता है कि यहाँ लंगोटी से कबीर जी का भाव वांसली से है)। अर्थ: हे कबीर! (प्रभू से टूट के सिर्फ माया जोड़ने का भी क्या लाभ?) जिस मनुष्य ने तरले कर-कर के लाखों-करोड़ों रुपए भी इकट्ठे कर लिए हों (और इस जोड़े हुए धन का इतना ख्याल रखता हो कि वांसली में डाल के कमर से बाँधे फिरता हो, उसको भी) मरने के वक्त कुछ प्राप्त नहीं होता, (उसके सन्बंधी) उसकी वांसली भी तोड़ के उतार लेते हैं।144। कबीर बैसनो हूआ त किआ भइआ माला मेलीं चारि ॥ बाहरि कंचनु बारहा भीतरि भरी भंगार ॥१४५॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: बैसनो = तिलक माला चक्र आदि लगा के बना हुआ विष्णू का भगत। माला मेलीं चारि = चार मालाएं पहन लीं। कंचनु = सोना। बारहा = बारह वंनी का, शुद्ध। भीतरि = अंदर, मन में। भंगार = लाख, खोट। अर्थ: हे कबीर! (प्रभू का सिमरन छोड़ के सिर्फ धन कमाने के लिए लोग उम्र व्यर्थ गवाते हैं क्योंकि धन यहीं पड़ा रहता है। पर निरे भेख को ही भगती-मार्ग समझने वाले भी कुछ नहीं कमा रहे) अगर किसी मनुष्य ने तिलक चक्र लगा के और चार माला डाल के अपने आप को वैश्णव भगत कहलवा लिया, उसने भी कुछ नहीं कमाया। (इस धार्मिक भेष के कारण) बाहर से देखने पर चाहे शुद्ध सोना दिखे, पर उसके अंदर खोट ही खोट है।145। नोट: चौंक आदि कई गहने लोग ऐसे बनवाते हैं जिनके बाहर से शुद्ध सोना लगा होता है पर उसके अंदर लाख भरी जाती है। कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का तजि मन का अभिमानु ॥ ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु ॥१४६॥ कबीर रोड़ा हूआ त किआ भइआ पंथी कउ दुखु देइ ॥ ऐसा तेरा दासु है जिउ धरनी महि खेह ॥१४७॥ कबीर खेह हूई तउ किआ भइआ जउ उडि लागै अंग ॥ हरि जनु ऐसा चाहीऐ जिउ पानी सरबंग ॥१४८॥ कबीर पानी हूआ त किआ भइआ सीरा ताता होइ ॥ हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ ॥१४९॥ {पन्ना 1372} नोट: प्रभू के सिमरन की सहायता से जीवन को सहजे-सहजे ऊँचा करके परमात्मा के साथ अभेद करने के लिए इस चार शलोकों में कबीर जी रोड़े, धूल और पानी का दृष्टांत दे के इनके गुण धारण और इनके अवगुण छोड़ने का उपदेश करते हैं। रास्ते में पड़ा हुआ रोड़ा राहियों के पैरों की ठोकरें खाता है, इसी तरह मनुष्य ने दूसरों द्वारा आए कलेशों और कुबोलों को सहने की आदत पकानी है। रोड़ा नंगे पैर जाने वाले राहियों के पैरों में चुभता है, भगत ने किसी गरीब से गरीब को भी कोई चुभवें बोल नहीं बोलने, धूल की तरह नर्म-दिल रहना है। पर धूल मुसाफिरों पर पड़ कर उनको गंदा करती है; भगत ने इस बुराई से भी बचना है, किसी के ऐब नहीं फरोलने। जैसे पानी सारी अंगों के लिए एक-समान होता है, सभ शक्लों के बर्तनों से भी मेल कर लेता है, भगत ने अच्छे-बुरे सबके साथ प्यार करना है। पर भगत ने सदा ठंडे स्वभाव वाला रहना है, इतना एक-रस कि परमात्मा और इसके बीच में कोई दूरी ना रह जाए। पद्अर्थ: रोड़ा = ईट का टुकड़ा। बाट = रास्ता, पहिया। तजि = छोड़ के। ताहि = उसी को।146। पंथी = राही, मुसाफिर। धरनी = धरती। खेह = मिट्टी, धूल।137। सरबंग = सारे अंगों से (मेल रखने वाला)।148। सीरा = सीअरा, शीतल, ठंडा। ताता = गरम।149। अर्थ: हे कबीर! (अगर 'जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग' मिलने की तमन्ना है तो) अहंकार छोड़ के राह में पड़े हुए रोड़े जैसा हो जा (और हरेक राही के ठेडे सह)! जो कोई मनुष्य ऐसा सेवक बन जाता है, उसको परमात्मा मिल जाता है।146। पर, हे कबीर! रोड़ा बन के भी अभी पूरी कामयाबी नहीं होती, क्योंकि (रोड़ा, ठोकरें तो सहता है, पर नंगे पैरों से चलने वाले) राहियों के पैरों में चुभता भी है (तूने किसी को दुख नहीं देना)। हे प्रभू! तेरा भगत तो ऐसा (नर्म-दिल) बन जाता है जैसे राह की बारीक धूल।147। हे कबीर! धूल (खेह) (की तरह) बनने पर भी अभी कसर रह जाती है, धूल (पैरों से) उड़ के (राहियों के) अंगों पर पड़ती है। परमात्मा का भगत ऐसा चाहिए जैसे पानी हरेक शकल के बर्तन में समाया रहता है।148। हे कबीर! पानी की तरह सबके साथ मेल रखने पर (भी) अभी संपूर्णता नसीब नहीं होती, पानी कभी ठंडा और कभी गर्म हो जाता है, भगत तो ऐसा होना चाहिए (कि दुनिया से व्यवहार करता हुआ अपने स्वभाव को इतना अडोल रखे) कि इसमें और परमात्मा में कोई फर्क नहीं रह जाए।149। ऊच भवन कनकामनी सिखरि धजा फहराइ ॥ ता ते भली मधूकरी संतसंगि गुन गाइ ॥१५०॥ कबीर पाटन ते ऊजरु भला राम भगत जिह ठाइ ॥ राम सनेही बाहरा जम पुरु मेरे भांइ ॥१५१॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: भवन = महल। कनकामनी = कनक+कामनी (कनक: सोना, धन, दौलत; कामनी: सुंदर स्त्री। सिखरि = (महल की) चोटी पर। धजा = ध्वजा, झंडा। फहराइ = झूलता हो। मधूकरी = दर दर से मंगतों की तरह माँगी हुई भिक्षा।150। (नोट: 'कनक' का आखिरी और 'कामनी' का पहला अक्षर 'क' इकट्ठे मिला दिए गए हैं)। पाटन = शहर। ऊजरु = उजड़ी हुई जगह। इह ठाइ = इस जगह पर। सनेही = प्यार करने वाला। राम सनेही बाहरा = परमात्मा से प्यार करने वालों से सूनी जगह। जम पुरु = जम का शहर, नरक। मेरै भांइ = मेरे लिए।151 अर्थ: ऊँची महल-माढ़ियां हों, बड़ा धन-पदार्थ हो, सुंदर स्त्री हो, महल की चोटी पर झण्डा झूलता हो (पर अगर प्रभू के नाम से शून्य हो) - इस सारे राज-भाग से बेहतर है माँग के लाई हुई भिक्षा, अगर मनुष्य संतों की संगति में रह के परमात्मा की सिफतसालाह करता हो।150। हे कबीर! शहर से बेहतर वही उजड़ी हुई जगह है जहाँ प्रभू के भगत (प्रभू के गुण गाते) हों। जो जगह परमात्मा से प्यार करने वाले लोगों से सूना है, मुझे तो वह नरक लगता है।151। नोट: कबीर जी काम-काज छोड़ के माँग के खाने को यहाँ अच्छा नहीं कह रहे। यहाँ वे उस राज-भाग की विरोधता करते हैं जो प्रभू की याद से विछोड़ दे। जो मनुष्य अभिमान त्यागता है, कोमल हृदय वाला हो जाता है, सबके साथ ऐसा सुहृदयता भरा सलूक करता है कि 'जैसा हरि ही होइ' वैसा बन जाता है, उसको सत्संग ही सबसे प्यारी जगह लगती है। कबीर गंग जमुन के अंतरे सहज सुंन के घाट ॥ तहा कबीरै मटु कीआ खोजत मुनि जन बाट ॥१५२॥ {पन्ना 1372} नोट: पता नहीं हमारे कई टीकाकार सज्जन कबीर जी को जबरन प्राणायामी क्यों बनाए जा रहे हैं। इस शलोक का अर्थ आम तौर पर यूँ किया जा रहा है; 'दाई और बाई सुर जहाँ मिलती है जो जगह अफुर तुरिया अवस्था की है, वहाँ कबीर जी ने अपना मन बनाया है'। श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई सारी बाणी गुरू-रूप है। अगर यहाँ प्राणायाम करने की हिदायत है, तो हरेक सिख के लिए दाई और बाई सुर वाला अभ्यास आवश्यक हो गया। कहीं भी इस शलोक के साथ कोई ऐसा हुकम दर्ज नहीं है कि इसे सिर्फ पढ़ना ही है इस पर अमल नहीं करना। पर असली बात यह है कि इस शलोक में प्राणायाम का कोई जिक्र नहीं है। शलोक नं: 146 से ये सारे शलोक मिला के पढ़ो। जो मनुष्य 'जैसा हरि ही होइ' वैसा बन जाता है उसकी आत्मिक अवस्था बयान की गई है। शब्द 'गंग जमुन' से तुरंत प्राणायाम के मतलब बना लेने बड़ी जल्दबाजी की बात है। हमारे दीन-दुनी के पातशाह सतिगुरू नानक देव जी भी यही शब्द प्रयोग करते हैं। क्या फिर वे भी प्राणायाम किया करते थे? तुखारी छंत महला १ बारा माहा॥ माघि पुनीत भई, तीरथु अंतरि जानिआ॥ साजन सहजि मिले, गुण गहि अंकि समानिआ॥ प्रीतम गुण अंके, सुणि प्रभ बंके, तुधु भावा सरि नावा॥ गंग जमुन तह बेणी संगम सात समुंद समावा॥ पुंन दान पूजा परमेसुर, जुगि जुगि ऐको जाता॥ नानक माघि महा रसु हरि जपि, अठसठि तीरथ नाता॥१५॥ जो सज्जन थोड़ा भी विचारने की कोशिश करेंगे वे देख लेंगे कि चौथी तुक का शब्द 'तह' पहली तुक के 'तीरथु अंतरि जानिआ' के साथ संबंध रखता है। सो, 'गंग जमुन बेणी संगम' हरेक मनुष्य के 'अंतरि' है। वहाँ 'हरि जपि' 'महा रसु' पैदा होता है, इतना रस कि, मानो, 'अठसठि तीरथ नाता'। किसी भी हालत में कोई सज्जन ये खींच-घसीट नहीं कर सकता कि गुरू नानक देव जी यहाँ दाई और बाई सुर के अभ्यास का वर्णन कर रहे हैं। कबीर जी स्वयं भी और जगह 'गंग जमुन' का जिकर करते हैं, वहाँ भी ईड़ा-पिंगला आदि की तरफ इशारा नहीं है। देखें; गउड़ी कबीर जी॥ पिंड मूअै, जीउ किह घरि जाता॥ सबदि अतीत अनाहदि राता॥ जिनि रामु जानिआ, तिनहि पछानिआ॥ जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ॥१॥ अैसा गिआनु कथै बनवारी॥ मन रे, पवन द्रिढ़, सुखमन नारी॥१॥ रहाउ॥ उलटी गंगा जमुन मिलावउ॥ बिनु जल संगम, मन महि नावउ॥ ... इसका अर्थ: (प्रशन:) शरीर का मोह दूर होने पर आत्मा कहाँ टिकती है? ( भाव, पहले तो जीव अपने शरीर के मोह के कारण माया में मस्त रहता है, जब मोह दूर हो जाए तब जीव की सुरति कहाँ जुड़ी रहती है?) (उक्तर:) तब आत्मा सतिगुरू के शबद की बरकति से उस प्रभू में जुड़ी रहती है जो माया के बँधनों से परे है और बेअंत है। पर जिस मनुष्य ने प्रभू को (अपने अंदर) जान लिया है उसने उसको पहचाना है जैसे गूँगे का मन शक्कर में पतीजता है (कोई और उस स्वाद को नहीं समझता, किसी और को वह समझा भी नहीं सकता)।1। इस तरह का ज्ञान प्रभू खुद ही प्रकट करता है (भाव, प्रभू से मिलाप वाला यह स्वाद प्रभू स्वयं ही बख्शता है, इसलिए) हे मन! श्वास-श्वास नाम जप, यही है सुखमना नाड़ी का अभ्यास।1। रहाउ। मैंने अपने मन की बिरती पलट ली है (इस तरह मैं) गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, अपने अंदर त्रिवेणी का संगम बना रहा हूँ); (इस उद्यम से) मैं उस मन-रूप (त्रिवेणी) संगम में स्नान कर रहा हूँ जहाँ (गंगा-जमुना-सरस्वती वाला) जल नहीं है।... कबीर कहता है- मैं माया से रहित प्रभू को सिमर रहा हूँ, (सिमरन करके) उस घर (सहज अवस्था) में पहुँच गया हूँ कि फिर (पलट के वहाँ) आना नहीं पड़ेगा।4।18। सतिगुरू नानक देव जी और कबीर जी के इन दोनों शबदों से हमने देख लिया है कि दोनों का 'गंग जमुन' के बारे में सांझा भाव है। दोनों महापुरुख यही कहते हैं कि त्रिवेणी का असल स्नान यह है कि मनुष्य अपने अंदर प्रभू-चरणों में जुड़े। यह ख्याल इस शलोक नं: 152 में है। पद्अर्थ: गंग जमुन के अंतरे = गंगा जमुना (और सरस्वती) के मेल में। (नोट: जहाँ दो नदियां मिलती हैं वहाँ पानी गहरा और गंभीर हो जाता है। पानी की रफतार कम हो जाती है, पानी ठहरा हुआ प्रतीत होता है। रोड़े की तरह अभिमान आदि त्याग के जब मनुष्य 'जैसा हरि ही होइ' बनता है, तो वह अवस्था बनती है जिस बारे में कबीर जी ने कहा है 'उलटी गंगा जमुन मिलावउ', भाव, मन माया की तरफ से पलट के अडोल अवस्था में आ जाता है)। सहज = अडोल अवस्था, मन की वह हालत जब ये माया में डोलता नही, जब 'ऊच भवन कनकामनी' और 'सिखरि धजा' इसको मोह नहीं सकते। सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ मायावी पदार्थों के फुरने नहीं उठते। तहा = उस अडोलता में। घाट = पक्तन, ठिकाना। मटु = निवास। कबीरै = कबीर ने, कबीर के मन ने। बाट = वाट, रास्ता। अर्थ: हे कबीर! (ज्यों-ज्यों मैं 'जपिआ परविदगार', रोड़े आदि की तरह मैंने अभिमान छोड़ा और 'जैसा हरि ही होइ' वाली मेरी अवस्था बनी, तो) मैंने कबीर के मन ने उस पक्तन पर ठिकाना किया जहाँ सहज अवस्था मायावी पदार्थों के फुरनों से शून्य है, जहाँ, मानो, गंगा-जमुना के पानियों का मिलाप है (अलग-अलग नदियों के पानी का वेग कम हो के अब गंभीरता और शांति है)। इस अवस्था में पहुँचने का रास्ता सारे ऋषि लोग ढूँढते रहते हैं।152। कबीर जैसी उपजी पेड ते जउ तैसी निबहै ओड़ि ॥ हीरा किस का बापुरा पुजहि न रतन करोड़ि ॥१५३॥ {पन्ना 1372} नोट: जब कोई नया पौधा उगता है, वह बड़ा नर्म और कोमल होता है। कितनी ही तेज़ आंधियां आएं, उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, क्योंकि वह लिफ जाता है, तेज़ हवाएं उसको तोड़ नहीं सकतीं। पर ज्यों-ज्यों पौधा बड़ा होता है पहले वाली कोमलता और लचक नहीं रहती। उम्र पा के बड़े आकार वाला तो भले ही बन जाता है, पर आंधी इसको सहजे ही जड़ से उखाड़ बाहर मार देती है। परमात्मा के चरणों में जुड़ने के लिए सबसे पहले 'अभिमान' दूर करना जरूरी है, अभिमान दूर होने पर हृदय में कोमलता आती है जिसकी बरकति से मनुष्य गरीबों-अमीरों सबको एक परमात्मा का पैदा किया हुआ जान के सबसे प्यार करता है, और स्वयं भी सदा शांत चिक्त बना रहता है। यदि मनुष्य 'सहज सुंन के घाट' पर टिका रहे, तो ये कोमलता भी बनी रहती है। ऐसे मनुष्य के उच्च जीवन की कीमत नहीं डाली जा सकती। पद्अर्थ: जैसी = जिस तरह की कोमलता। पेड = नया उगा हुआ पौधा। ते = से। जउ = अगर। निबहे = बनी रहे। ओड़ि = आखिर तक, सदा ही। अर्थ: हे कबीर! जिस प्रकार की कोमलता नए उगे हुए पौधे की होती है, यदि ऐसी कोमलता (मनुष्य के हृदय में) सदा बनी रहे ('ऊच भवन कनकामनी' और 'सिखरि धजा' उस कोमलता को दूर ना कर सकें, मनुष्य 'सहज सुंन के घाट' पर सदा आसन लगाए रखे, तो उस मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) एक हीरा क्या? करोड़ों रत्न भी उसकी कीमत नहीं पा सकते।153। कबीरा एकु अच्मभउ देखिओ हीरा हाट बिकाइ ॥ बनजनहारे बाहरा कउडी बदलै जाइ ॥१५४॥ {पन्ना 1372} नोट: मानस-जनम दुर्लभ है, सौभाग्य से मिलता है; यह मानो, एक ऐसा कीमती हीरा है जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। जीव यह मनुष्य-जन्म पा के यहाँ पर वणज करने आया है, परमात्मा के नाम का सौदा करने आया है। पर 'ऊच भवन कनकामनी' 'सिखरि धजा' आदि मायावी पदार्थों में फस के असली वणज करना इसको भूल ही गया है। ये दुनिया के पदार्थ यहीं रह जाते हैं, यहां से खाली हाथ चलना पड़ता है; सो, सारी उम्र व्यर्थ ही चली जाती है, यह हीरा-जनम, मानो, कौड़ियों के भाव बिक जाता है। पद्अर्थ: अचंभउ = आश्चर्य (मूर्खता भरा) तमाशा। हाट = दुकान दुकान पर। बिकाइ = बिक रहा है। बनजनहारे बाहरा = वणजहारे बाहरा, किसी को वणज करने की जाच ना होने के कारण, खरीददार ना होने के कारण। अर्थ: हे कबीर! (जगत में) मैंने एक आश्चर्य (मूर्खताभरा) तमाशा देखा है। हीरा दुकान-दुकान पर बिक रहा है, चुँकि किसी को इसकी कद्र-पहचान नहीं है, ये कौड़ियों के भाव जा रहा है (व्यर्थ जा रहा है)।153। कबीरा जहा गिआनु तह धरमु है जहा झूठु तह पापु ॥ जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि ॥१५५॥ {पन्ना 1372} पद्अर्थ: जहा = जहाँ, जिस मनुष्य के अंदर। गिआनु = समझ, यह समझ कि हीरा जनम किसलिए मिला है। तह = उस मनुष्य के अंदर। धरमु = जनम मनोरथ को पूरा करने का फर्ज। कालु = (आत्मिक) मौत। खिमा = धीरज, शांति। आपि = परमात्मा स्वयं। अर्थ: हे कबीर! जनम-मनोरथ के पूरा करने की फर्ज-अदायगी सिर्फ वहीं हो सकती है जहाँ ये समझ हो कि हीरा-जनम किसलिए मिला है। पर जिस मनुष्य के अंदर झूठ और लोभ (का जोर) हो, वहाँ (धर्म की जगह) पाप और आत्मिक मौत ही हो सकती है (वह जीवन 'कउडी बदलै' ही जाना हुआ)। परमात्मा का निवास सिर्फ उसी दिल में होता है जहाँ शांति है।155। कबीर माइआ तजी त किआ भइआ जउ मानु तजिआ नही जाइ ॥ मान मुनी मुनिवर गले मानु सभै कउ खाइ ॥१५६॥ {पन्ना 1372} नोट: 'ऊच भवन कनकामनी' 'सिखरि धजा' आदि मायावी पदार्थों में मस्त रहने के कारण हीरा-जनम 'कउडी बदलै' जाता है, क्योंकि दुनियां की मौजों के 'लोभ' के कारण मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ता है। पर इसका ये भाव नहीं कि कबीर जी दुनिया के 'तिआग' वाला रास्ता पसंद करते हें। यह तो बल्कि माण-अहंकार पैदा करता है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि गृहस्त त्याग के जंगलों में जा बैठे, पर इस त्याग का अहंकार ही उनको खा गया। पद्अर्थ: मुनिवर = चुने हुए मुनि, बड़े बड़े ऋषि। मान गले = अहंकार में गल गए। सभै कउ = हरेक को। अर्थ: हे कबीर! ('ऊच भवन कनकामनी' आदि) माया त्याग दी तो भी कुछ नहीं सँवारता, अगर अहंकार नहीं त्यागा जाता। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि (त्याग के) इस मान-अहंकार में गल जाते हैं, (ये अहंकार किसी का लिहाज नहीं करता) अहंकार हरेक को खा जाता है (जो भी प्राणी अहंकार करता है उसका आत्मिक जीवन खत्म हो जाता है)।156। कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ सबदु जु बाहिआ एकु ॥ लागत ही भुइ मिलि गइआ परिआ कलेजे छेकु ॥१५७॥ कबीर साचा सतिगुरु किआ करै जउ सिखा महि चूक ॥ अंधे एक न लागई जिउ बांसु बजाईऐ फूक ॥१५८॥ {पन्ना 1372} नोट: हीरे जनम को 'कउडी बदलै' जाने से बचाने का, बस, एक मात्र रास्ता है, वह है सतिगुरू की शरण। पर गुरू-दर पर भी रस्मी तौर पर नहीं आना। अपनी चतुराई छोड़ के गुरू के बताए हुए राह पर चलना है। पद्अर्थ: मै = मुझे। जु = जब। ऐकु सबदु बाहिआ = एक शबद रूपी तीर चलाया, शबद सुनाया जो मेरे दिल में तीर की तरह भेद गया। भुइ = मिट्टी में। भुइ मिलि गइआ = मिट्टी में मिल गया, मैं निर-अहंकार हो गया। परिआ कलेजे छेकु = मेरे कलेजे में छेद हो गया, मेरा हृदय गुरू चरनों में परोया गया।157 चूक = कमी। ऐक न लागई = एक भी शिक्षा की बात असर नहीं करती। अंधे = अंधे को, उस मनुष्य को जो अहंकार में अंधा हुआ पड़ा है। बजाईअै फूक = फूक से बजाते हैं, फूक मारने से बज उठता है। अर्थ: हे कबीर! (हीरा-जनम बचाने के लिए मुझे गृहस्त त्यागने की आवश्यक्ता नही पड़ी) मुझे पूरा गुरू मिल गया, उसने एक शबद सुनाया जो मुझे तीर की तरह लगा, मेरा हृदय गुरू-चरनों में परोया गया, और मेरा अहंकार मिट्टी में मिल गया।157। पर, हे कबीर! अगर सिखों में कमी हो, तो सतिगुरू भी कुछ सँवार नहीं सकता (इस हीरे-जनम को 'कउडी बदलै' जाते को बचा नहीं सकता), जो मनुष्य अहंकार में अंधा हुआ रहे, गुरू की शिक्षा की कोई भी बात उसको असर नहीं कर सकती। जैसे फूक मारने से बाँस (बाँसुरी) बजने लग जाती है (पर फूक एक सिरे से गुजर के दूसरे सिरे से बाहर निकल जाती है, वैसे ही अहंकारी के एक कान से दूसरे कान द्वारा वह शिक्षा बिना असर किए ही निकल जाती है। हाँ, चोंच-ज्ञानी वह भले ही बन जाए।)।158। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |