श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1373 कबीर है गै बाहन सघन घन छत्रपती की नारि ॥ तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनिहारि ॥१५९॥ कबीर न्रिप नारी किउ निंदीऐ किउ हरि चेरी कउ मानु ॥ ओह मांग सवारै बिखै कउ ओह सिमरै हरि नामु ॥१६०॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: है = हय, घोड़े। गै = गय, गज, हाथी। बाहन = वाहन, सवारी। सघन घन = बहुत सारे। छत्र पती = छत्र का मालिक राजा। तासु पटंतर = उसके बराबर। पनिहार = पानी हारि, पानी भरने वाली।159। न्रिप = नृप, राजा। चेरी = दासी। मानु = आदर। कउ = को। मांग सवारै = सजती सँवरती है। बिखै कउ = काम वासना के लिए।160 अर्थ: हे कबीर! जो स्त्री परमात्मा का भजन करने के लिए गुरमुखों का पानी भरने की सेवा करती है (वह चाहे कितनी गरीब भी हो) उसकी बराबरी उस छत्रपति राजे की रानी भी नहीं कर सकती जिसके पास सवारी के लिए बेअंत घोड़े-हाथी हों।159। हे कबीर! हम उस रानी को बुरा क्यों कहते हैं और संत-जनों की सेवा करने वाली को आदर क्यों देते हैं? (इसका कारण ये है कि) नृप-नारी तो सदा काम-वासना की खातिर श्रंृगार करती रहती है, पर संत-जनों की दासी (संतों की संगति में रह के) परमात्मा का नाम सिमरती है।160। कबीर थूनी पाई थिति भई सतिगुर बंधी धीर ॥ कबीर हीरा बनजिआ मान सरोवर तीर ॥१६१॥ कबीर हरि हीरा जन जउहरी ले कै मांडै हाट ॥ जब ही पाईअहि पारखू तब हीरन की साट ॥१६२॥ {पन्ना 1373} नोट: शलोक नं: 161 में और अगले शलोक की पहली तुक में शब्द 'हीरा' एकवचन है, पर आखिरी तुक में शब्द 'हीरन' बहुवचन है। इनके अर्थ में थोड़ा सा फर्क पड़ेगा, भाव हलांकि वही रहेगा। पद्अर्थ: थूनी = थंमी, खंभा, सतिगुरू का शबद। थिति = स्थिर, टिकाव, शांति, प्रभू चरनों में टिकाव। बंधी धीर = धीरज बँध दिया, अडोलता दी, भटकना से बचा लिया। हीरा = परमात्मा का नाम। बनजिआ = खरीदा (मन की दौड़-भाग दे के, मन गुरू के हवाले करके)। मान सरोवर = सत्संग। तीर = किनारा।161। जन = हरि जन, परमात्मा के भगत, सत्संगी। जउहरी = जौहरी, नाम रूप हीरे का व्यापारी। ले कै = नाम हीरा ले के। मांडै = सजाता है। हाट = दुकान, हृदय। पाईअहि = मिलते हैं, सत्संगे में एकत्र होते हैं। पारखू = नाम हीरे की कद्र जानने वाले। हीरन की = हीरों की, प्रभू के गुणों की । (नोट: 'हीरन' बहुवचन होने के कारण इसका अर्थ है 'परमात्मा के गुण')। साट = अदला बदली, सांझ, सत्संग में मिल के प्रभू के गुणों का वर्णन। अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य को सतिगुरू के शबद का सहारा मिल जाता है जिसको गुरू ('ऊच भवन कनकामनी' 'है गै बाहन' आदि की ओर) भटकने से बच जाता है उसका मन प्रभू-चरनों में टिक जाता है। (अपना मन सतिगुरू के हवाले करके) वह मनुष्य सत्संग में परमात्मा का अमूल्य नाम खरीदता है।161। हे कबीर! परमात्मा का नाम, मानो, हीरा है। परमात्मा का सेवक उस हीरे का व्यापारी है; ये हीरा हासिल करके वह (अपने) हृदय को सुंदरता से सजाता है। जब (नाम हीरे की) कद्र जानने वाले (परख रखने वाले) ये सेवक (सत्संग में) मिलते हैं, तब परमात्मा के गुणों की सांझ बनाते हैं (भाव, मिल के प्रभू की) सिफत सालाह करते हैं।162। कबीर काम परे हरि सिमरीऐ ऐसा सिमरहु नित ॥ अमरा पुर बासा करहु हरि गइआ बहोरै बित ॥१६३॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: काम परे = जब कोई जरूरत पड़े, जब कोई गरज पड़े। अमरापुर = वह पुरी जहाँ अमर हो जाते हैं, वह पुरी जहाँ जनम मरण के चक्करों से बच जाया जाता है। गइआ बित = गायब हुआ धन, वह शुभ गुण जो मायावी पदार्थों के पीछे दौड़-दौड़ के गायब हो चुके हैं। बहोरै = वापस ले आता है, दोबारा पैदा कर देता है। अर्थ: हे कबीर! कोई गरज़ पड़ने पर जिस तरह (भाव, जिस आर्कषण और प्यार से) परमात्मा को याद किया जाता है, यदि उसी कसक-प्यार से उसको सदा ही याद करो, तो उस जगह पर टिक जाओ जहाँ अमरत्व मिल जाता है (जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती); और, जो सुंदर गुण मायावी पदार्थों के पीछे दौड़-दौड़ के गुम हो चुके होते हैं, वह गुण प्रभू दोबारा (सिमरन करने वाले के हृदय में) पैदा कर देता है।163। कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु ॥ रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥१६४॥ कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर ॥ इक अवघट घाटी राम की तिह चड़ि रहिओ कबीर ॥१६५॥ {पन्ना 1373} नोट: कबीर जी यहाँ ख़लकत की सेवा से नहीं मना कर रहे। दोनों शलोकों को मिला के पढ़ें, तो उनका भाव स्पष्ट हो जाता है। वैसे तो वे शलोक नं: 146 सं 149 तक हरेक प्राणी-मात्र के साथ प्यार का सलूक करने की हिदायत करते हैं, यहाँ यह जिकर है कि एक तो परमात्मा के बिना किसी और देवी-देवते की पूजा ना करो; दूसरा, परमात्मा का मिलाप सिर्फ सत्संग में गुरमुखों की संगति में होता है, कर्म-काण्डी पंडितों अथवा भेखी साधुओं के आगे नाक ना रगड़ते फिरो। पद्अर्थ: को = का। दाता = देने वाला। मुकति = मायावी बँधनों से मुक्ति। जपावै = जपने में सहायता करता है, जपने की ओर प्रेरता है।164। जिह मारगि = जिस राह पर, कर्म काण्ड के जिस मार्ग पर, तीर्थ व्रत आदि के जिस राह पर। परी = चल पड़ी, चलती जा रही है। बहीर = भीड़, लोगों की भीड़, बेअंत लोग। अवघट घाटी = मुश्किल घाटी, मुश्किल चढ़ाई का रास्ता।165। अर्थ: हे कबीर! मायावी बँधनों से खलासी देने वाला परमात्मा स्वयं है, और संत-गुरमुखि उस परमात्मा के नाम-सिमरन की ओर प्रेरित करता है; सो, एक संत और एक परमात्मा- (मुक्ति और प्रभू-मिलाप की खातिर) इन दोनों की ही सेवा-पूजा करनी चाहिए।164। हे कबीर! (तीर्थ-व्रत आदि के) जिस रास्ते पर पंडित लोग चल रहे हैं (यह रास्ता चुँकि आसान है) भीड़ उनके पीछे लगी हुई है; पर परमात्मा के सिमरन का रास्ता, मानो, एक कठिन पहाड़ी रास्ता है, कबीर (इन पंडितों लोगों को छोड़ के) चढ़ाई वाला रास्ता तय कर रहा है।165। कबीर दुनीआ के दोखे मूआ चालत कुल की कानि ॥ तब कुलु किस का लाजसी जब ले धरहि मसानि ॥१६६॥ कबीर डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि ॥ पारोसी के जो हूआ तू अपने भी जानु ॥१६७॥ {पन्ना 1373} नोट: पंडित लोगों ने तीर्थ-व्रत आदि का जो रास्ता चला दिया है, इस पर चलने के लिए साधरण मनुष्य को कुल-रीति भी बहुत मजबूर करती है। यदि कोई हिन्दू स्त्री करवा चौथ महा लक्ष्मी आदि का व्रत रखना छोड़ दे, तो आस-पड़ोस 'हाय बहन, हाय बहन' होने लग जाता है। इस लोकाचार में से निकलना बहुत मुश्किल है। पद्अर्थ: दुनीआ के दोखे = इस फिकर में कि दुनिया क्या कहेगी। मूआ = मर जाता है, आत्मिक मौत मर जाता है। कुल की कानि = उस बंदिश में जिसमें अपने कुल के लोग चले आ रहे हैं। लाजमी = लज्जावान होगा, शर्मसार होगा, बदनामी कमाएगा। मसानि = मसाण में।166। रे बापुरे = हे अभागे जीव! लोगन की कानि = लोक लाज में। पारोसी = पड़ोसी।167। अर्थ: हे कबीर! मनुष्य आम तौर पर कुल-रीति के अनुसार ही चलता है, इस ख्याल से कि दुनिया क्या कहेगी (लोकाचार को छोड़ के भगती-सत्संग वाले रास्ते की ओर नहीं आता, इस तरह) आत्मिक मौत मर जाता है। (यह नहीं सोचता कि) जब मौत आ गई (तब यह कुलरीति तो खुद-ब-खुद ही छूट जानी है; सिमरन-भगती से वंचित रह के जो तकलीफ मोल ले ली, उसके कारण) किसके कुल में नामोशी आएगी? ।166। हे कबीर! (लोक-लाज में फस के भगती से वंचित रहने वाले व्यक्ति को कह-) हे अभागे मनुष्य! बहुत लोक-लाज में रहने से (लोक-लाज में ही) डूब जाएगा (आत्मिक मौत मर जाएगा)। (यहाँ सदा बैठे नहीं रहना) अगर मौत किसी पड़ोसी पर आ रही है, तो याद रख कि वह तेरे पर भी आनी है।167। कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु ॥ दावा काहू को नही बडा देसु बड राजु ॥१६८॥ कबीर दावै दाझनु होतु है निरदावै रहै निसंक ॥ जो जनु निरदावै रहै सो गनै इंद्र सो रंक ॥१६९॥ {पन्ना 1373} नोट: कबीर जी शलोक नं: 168 में मांग के खाने की हिदायत नहीं करते। कहते हैं कि जायदादें बनाने, एक के बाद एक विजय हासिल करने, मल्कियतें बनाने से बेहतर है मँगतों की तरह माँग के खाना, क्यों-क्यों ज्यों-ज्यों मनुष्य जायदाद इकट्ठी करता है त्यों-त्यों उसके अंदर 'दाझनु' बढ़ती है। गुरू अमरदास जी ने भी सोरठि राग के एक शबद में लिखा है; 'काचा धनु संचहि मूरख गावार' यह अजब खेल है कि गुरद्वारे जा के श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की तालीम तो हम सुनते हैं कि धन जोड़ना मूर्ख उजड्डों का काम है, इससे तो माँग के खाना अच्छा है। पर, बाहर दुनिया में आ के हमारा सारा जोर ही धन जोड़ने और मल्कियतें बनाने पर लगता है। पर साधारण मनुष्य धन जोड़ने का यतन ना करे तो और करे भी कया? बुढ़ापा, बिमारी, बच्चों की तालीम आदि कई जरूरते ऐसी हैं जो मनुष्य ने पूरी करनी हैं। मालूम होता हैकि भगत कबीर जी ओर गुरू अमरदास जी भाईचारिक प्रबंध और राज-प्रबंध में भी कई खामियाँ देख रहे थे। अगर राज-प्रबंध ऐसा हो जहाँ हरेक मनुष्य मात्र के बच्चों की तालीम और परवरिश, उसके अपने रोज़गार का पक्का प्रबंध, बीमारी ओर बुढ़ापे की जरूरतें पूरी हो सकें तो आम तौर पर माया जोड़ने-इकट्ठी करने की जरूरत ही नहीं रह जाती। धक्का, धोखा आदि बहुत कम हो सकते हैं। सहज ही हक की कमाई और ख़लकति से प्यार वाले राह पड़ा जा सकता है। इसके आगे धर्म की सिर्फ एक मुश्किल घाटी ही रह जाती है- लगन और रज़ा। पद्अर्थ: मधूकरी = घर घर से माँगी हुई भिक्षा। नाना बिधि को = कई किस्मों का। नाजु = अनाज, अन्न। दावा = मल्कियत का हक। काहू को = किसी (जयदाद) से।168। दावै = मल्कियतें बनानी। दाझनु = जलन, खिझ। निसंक = बेफिक्र। इंद्र सो = देवते जैसों को। रंक = कंगाल।169। अर्थ: हे कबीर! (जायदादों के कब्जे करने से मँगता बन के) घर-घर से माँगी हुई रोटी खा लेनी अच्छी है जिसमें (घर-घर से माँगने के कारण) कई किस्म का अन्न होता है। (मँगता) किसी जायदाद पर मल्कियत का हक नहीं बाँधता, सारा देश उसका अपना देश है, सारा राज उसका अपना राज है।168। हे कबीर! मल्कियतें बनाने से मनुष्य के अंदर खिझ-सड़न पैदा होती है। जो मनुष्य कोई मल्कियत नहीं बनाता उसको कोई चिंता-फिक्र नहीं रहती। जो मनुष्य जायदादों की मल्कियतें नहीं बनाता, वह इन्द्र देवते जैसे को भी कंगाल समझता है (भाव, वह किसी धनाढ आदि की खुशामद नहीं करता फिरता)।169। कबीर पालि समुहा सरवरु भरा पी न सकै कोई नीरु ॥ भाग बडे तै पाइओ तूं भरि भरि पीउ कबीर ॥१७०॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: पालि = (सं: पालि = skirt boundary) किनारा। समुहा = सु+मुह, मुँह तक, नाको नाक। पालि समुहा = किनारे तक नाको नाक। सरवरु = तालाब। तै पाइओ = तू (नीरु) ढूँढ रहा है। भरि भरि = प्याले भर भर के, पेट भर भर के। नोट: इस शलोक में बहुत हसरत भरी दुखद बात बताते हें। लोक 'दाझन' के कारण, अंदरूनी प्यास-जलन के कारण पानी के लिए तरस रहे हैं। पानी का तालाब भरा हुआ है, और लबा-लब भरा हुआ है, पर किसी को दिखाई नहीं देता। यह सारा दोष किसका है? दुनिया की चीजों को हथियाने का, मलिकयतें बनाने को संसार के जरे-जरे में प्रभू बसता हो घट-घट में वयापक हो, पर लोग हर चीज हथिया लेने के आहर में लग के तृष्णा-अग्नि में जलते हुए उस घट-घट वासी को ना पहचान सके -ये इतनी हसरति भरी घटना है। अर्थ: हे कबीर! सरोवर किनारों तक नाको-नाक (पानी से) भरा हुआ है, (पर, 'दावै दाझनु' के कारण यह पानी किसी को दिखाई नहीं देता, इसलिए) कोई मनुष्य यह पानी नहीं पी सकता। हे कबीर! (तू इस 'दाझन' से बच गया) सौभाग्य से तुझे यह पानी दिखाई दे गया है, तू अब (प्याले) भर-भर के पी (मौज से श्वास-श्वास नाम जप)।170। कबीर परभाते तारे खिसहि तिउ इहु खिसै सरीरु ॥ ए दुइ अखर ना खिसहि सो गहि रहिओ कबीरु ॥१७१॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: परभाते = प्रभात के वक्त (जब सूर्यादय होने को होता है, सूर्य के तेज-प्रताप के कारण)। खिसहि = खिसकते हैं, मध्यम पड़ते जाते हैं, (तारों की) रोशनी कम होती जाती है। तिउ = उसी तरह 'दावै दाझनु' के कारण, मल्कियतों के कारण पैदा हुई अंदरूनी तपश के असर तले। खिसै = क्षीण होता जाता है। खिसै सरीरु = यह शरीर क्षीण होता जाता है, इस शरीर में से आत्मिक लौअ कमजोर होती जाती है (ज्ञानेन्द्रियों में से प्रभू के प्रति प्रेरणा कम होती जाती है; ऐ दुइ अखर ना खिसहि, 'राम' नाम के दोनों अक्षर मध्यम नहीं पड़ते, परमात्मा के नाम पर मल्कियतों की तपश कोई प्रभाव नहीं डाल सकती)। (नोट: यहाँ 'दुइ अखर' से भाव है: 'राम' का दो अक्षरी नाम, प्रभू का नाम )। गहि रहिओ = संभाल के बैठा है। अर्थ: हे कबीर! (जैसे सूर्य के तेज-प्रताप के कारण) प्रभात के वकत तारे (जो रात की ठहरी हुई शांति में चमक रहे होते हैं) मध्यम पड़ते जाते हैं; वैसे ही (दुनियावी पदार्थों के) मालकानों से पैदा हुई तपश के कारण ज्ञान-इन्द्रियों में से प्रभू के प्रति लौअ कम होती जाती है। सिर्फ एक प्रभू का नाम ही है जो मल्कियतों की तपश के असर से परे रहता है। कबीर (दुनियावी मल्कियतों की जगह) उस नाम को संभाले बैठा है।171। नोट: यहाँ शब्द 'गहि रहिओ' साफ तौर पर नं: 169 के 'दावै' की तरफ इशारा करते हैं। कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि ॥ पंडित पंडित जलि मूए मूरख उबरे भागि ॥१७२॥ {पन्ना 1373} नोट: शब्द 'पंडित' यहाँ ब्राहमण के लिए नहीं है; इसके विपरीत मुकाबले में शब्द 'मूर्ख' प्रयोग किया गया है। सो, शब्द 'पंडित' का भाव है 'वह मनुष्य जो अपने आप को समझदार समझते हैं'। पद्अर्थ: कोठी = ('इहु जगु सचै की है कोठड़ी') जगत। दिसि = की ओर से। दह दिसि = दसो तरफ से, हर तरफ से। आगि लागी = 'दावै दाझनु' लगी हुई है, मल्कियतें बनाने के कारण मन में तपश पैदा हो रही है। मूर्ख = वह लोग जो मालकानें बनाने से बेपरवाह रहे। भागि = भाग के, दौड़ के, इस 'दावै दाझनु' से परे हट के। अर्थ: हे कबीर! यह जगत, मानो, लकड़ी का मकान है जिसको हर तरफ से (कब्जा करने की) आग लगी हुई है; (जो मनुष्य अपनी ओर से) समझदार (बन के इस आग में ही बैठे रहते हैं वे) जल मरते हैं, (जो इन समझदार लोगों के हिसाब से) मूर्ख (हैं वे) इस आग से दूर परे भाग के (जलने से) बच जाते हैं।172। नोट: माया अनेक रूपों में मनुष्य को मोह रही है, मनुष्य इस माया की हरेक मौज को अपनी मल्कियत बनाने की कोशिश करता है। सो, कब्जा करने से पैदा हुई अंदरूनी आग, जैसे, हरेक तरफ से लगी हुई है। दुनिया में समझदार वही माने जाते हैं जो ज्यादा से ज्यादा कामयाब हों, ज्यादा से ज्यादा धन-पदार्थ जोड़ें। जो इस उद्यम के प्रति बेपरवाह रहते हैं उनको दुनिया मूर्ख कहती है। सो, यहाँ ये भाव नहीं है कि कबीर जी विद्या के मुकाबले में अनपढ़ता को अच्छा कह रहे हैं। कबीर संसा दूरि करु कागद देह बिहाइ ॥ बावन अखर सोधि कै हरि चरनी चितु लाइ ॥१७३॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: संसा = चिंता, 'दाझनु'। कागद = कागज, (भाव,) दुनिया की चिंता वाले लेखे, 'दावै दाझनु' वाले लेखे। बिहाइ देहि = बहा दे, हरि चरनों में चिक्त जोड़ने का एक ऐसा प्रवाह चला दे कि 'दावै दाझनु' वाले लेखे उस नाम प्रवाह में बह जाएं। बावन अखर = बावन अक्षर (संस्कृत-हिंदी के बावन अक्षर है। हिन्दू कौम संस्कृत या हिन्दी के द्वारा विद्या हासिल करने का प्रयास करती थी; सो 'बावन अखर' का भाव है 'विद्या'), विद्या। सोधि कै = (अपने आप को) सोध के, विचारवान बन के। अर्थ: हे कबीर! विद्या के द्वारा विचारवान बन के प्रभू-चरनों में चिक्त जोड़ (भाव, हे भाई! यदि तुझे विद्या हासिल करने का मौका मिला है तो उसके द्वारा दुनिया की मल्कियतों में खिझने की जगह विचारवान बन और परमात्मा का सिमरन कर)। (इस प्रभू-याद की बरकति से) दुनिया वाले संशय-दाझन दूर कर, चिंता वाले सारे लेखे ही भगती के प्रवाह में बहा दे।173। कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥ मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: संतई = संत का स्वभाव, चिक्त की शांति। जउ = चाहे, भले ही। कोटिक = करोड़ों। असंत = विकारी लोग जिनके मन शांत नहीं हैं। मलिआगरु = मलय पर्वत पर उगा हुआ चँदन का पौधा। भुयंगम = साँप। बेढिओ = घिरा हुआ। अर्थ: हे कबीर! (हरी-चरनों में चिक्त लगाने की ही यह बरकति है कि) संत अपना शांत-स्वभाव नहीं छोड़ता, भले ही उसका करोड़ों बुरे लोगों से पाला पड़ता रहे। चँदन का पौधा साँपों से घिरा रहता है, पर वह अपनी अंदरूनी ठंडक नहीं त्यागता।174। कबीर मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ जिनि जुआला जगु जारिआ सु जन के उदक समानि ॥१७५॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: जिनि जुआला = जिस माया रूपी आग ने। जारिआ = जला दिया है। सु = वह आग। जन के = जन के लिए, बँदगी करने वाले के लिए। उदक = पानी। गिआनु = सूझ, जान पहचान। ब्रहम = परमात्मा। अर्थ: हे कबीर! जब मनुष्य परमात्मा से (सिमरन के द्वारा) जान-पहचान बना लेता है तब (दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी) उसका मन ठंडा-ठार रहता है। जिस (माया की मल्कियत की) आग ने सारा संसार जला दिया है, बँदगी करने वाले मनुष्य के लिए वह पानी (जैसी ठंडी) रहती है।175। कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाही कोइ ॥ कै जानै आपन धनी कै दासु दीवानी होइ ॥१७६॥ {पन्ना 1373} पद्अर्थ: सारी = सजाई हुई, बनाई हुई। सिरजनहार = सृजनहार, सृष्टि बनाने वाले परमात्मा। जानै नाही कोइ = हर कोई नहीं जानता। कै = या। धनी आपन = मालिक प्रभू स्वयं। दीवानी = उस के दीवान में रहने वाला, उसकी हजूरी में रहने वाला। अर्थ: हे कबीर! ये बात हरेक व्यक्ति नहीं जानता कि यह (माया-रूपी आग सारे संसार को जला रही है) परमात्मा ने स्वयं बनाई है। इस भेद को प्रभू स्वयं जानता है या वह भगत जानता है जो सदा उसके चरणों में जुड़ा रहे (सो, हजूरी में रहने वाले को पता होता है कि माया की जलन से बचने के लिए माया को बनाने वाले के चरणों में जुड़े रहना ही सही तरीका है)।176। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |