श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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फरीदा मउतै दा बंना एवै दिसै जिउ दरीआवै ढाहा ॥ अगै दोजकु तपिआ सुणीऐ हूल पवै काहाहा ॥ इकना नो सभ सोझी आई इकि फिरदे वेपरवाहा ॥ अमल जि कीतिआ दुनी विचि से दरगह ओगाहा ॥९८॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: ऐवै = इस तरह, ऐसे। ढाहा = किनारा। हूल = रौला, शोर। काहाहा = हाहाकार। दोजक = नर्क। इकि = कई जीव (शब्द 'इकि' 'बहुवचन' है शब्द 'इक' से)। ओगाहा = गवाह, साखी।

अर्थ: हे फरीद! जैसे दरिया का किनारा है (जो पानी के वेग से ढह रहा होता है) इसी तरह मौत (-रूप) नदी का किनारा है (जिसमें बेअंत जीव उम्र भोग के गिरते जा रहे हैं)। (मौत) के आगे (विकारियों के लिए) तपे हुए नर्क सुने जाते हैं, वहाँ उनकी हाहाकार और शोर पड़ रहा है। कई (भाग्यशालियों) को तो सारी समझ आ गई है (कि यहाँ कैसे जिंदगी गुजारनी है, पर) कई बेपरवाह फिर रहे हैं। जो अमल यहाँ दुनिया में किए जाते हैं, वह रॅब की दरगाह में (मनुष्य की जिंदगी के) गवाह बनते हैं।98।

फरीदा दरीआवै कंन्है बगुला बैठा केल करे ॥ केल करेदे हंझ नो अचिंते बाज पए ॥ बाज पए तिसु रब दे केलां विसरीआं ॥ जो मनि चिति न चेते सनि सो गाली रब कीआं ॥९९॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: कंनै = किनारे पर। केल = कलोल। हंझ = हँस (जिहा सफेद बगुला)। अचिंते = अचन चेत। तिहु = उस (हंस) को। विसरीआं = भूल गई। मनि = मन मे। चेते सनि = याद थीं। गाली = बातें।

अर्थ: हे फरीद! (बंदा जगत के रंग-तमाशों में मस्त है, जैसे) दरिया के किनारे पर बैठा हुआ बगुला कलोल करता है (जैसे उस) हँस (जैसे सफेद बगले) कलोल करते को अचानक बाज़ आ पड़ते हें, (वैसे ही बंदे को मौत के दूत आ दबोचते हैं)। जब उसको बाज़ आ के दबोचते हैं, तो उसे सारे कलोल भूल जाते हैं (अपनी जान की पड़ जाती है, यही हाल मौत आने पर बंदे का होता है)। जो बातें (मनुष्य के कभी) मन में चिक्त-चेते नहीं थीं, रॅब ने वह कर दीं।99।

साढे त्रै मण देहुरी चलै पाणी अंनि ॥ आइओ बंदा दुनी विचि वति आसूणी बंन्हि ॥ मलकल मउत जां आवसी सभ दरवाजे भंनि ॥ तिन्हा पिआरिआ भाईआं अगै दिता बंन्हि ॥ वेखहु बंदा चलिआ चहु जणिआ दै कंन्हि ॥ फरीदा अमल जि कीते दुनी विचि दरगह आए कमि ॥१००॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: देहुरी = सुंदर शरीर, पला हुआ शरीर। चलै = चलता है, काम देता है। अंनि = अन्न से।

विचि: इसके आखिर में सदा 'ि' की मात्रा होती है। शब्द 'बिनु' के आखिर में सदा 'ु' की मात्रा होती है।

वति = बार बार, पलट पलट के। आसूणी = छोटी सी आशा, सुंदर सी छोटी आस। बंनि् = बाँध के। मलक = फरिश्ता। अल = का। मलकल मउत = मौत का फरिश्ता। कंनि् = कंधे पर। आऐ कंमि = काम में आए, सहायक हुए।

अर्थ: (मनुष्य का यह) साढ़े तीन मन का पला हुआ शरीर (इसको) पानी और अन्न के जोर पर काम दे रहा है। बँदा जगत में कोई सुंदर सी आशा बाँध के आया है (पर, आशा पूरी नहीं होती)। जब मौत का फरिश्ता (शरीर के) सारे दरवाजे तोड़ के (भाव, सारी इन्द्रियों को नकारा कर के) आ जाता है, (मनुष्य के) वह प्यारे वीर (मौत के फरिश्ते के) आगे बाँध के चला देते हैं। देखो! बँदा चार लोगों के कांधों पर चल पड़ा है।

हे फरीद! (परमात्मा की) दरगाह में वही (भले) काम सहाई होते हैं जो दुनिया में (रह के) किए जाते हैं।100।

फरीदा हउ बलिहारी तिन्ह पंखीआ जंगलि जिंन्हा वासु ॥ ककरु चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु ॥१०१॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलिहारी = सदके, कुर्बान। तिन् = अक्षर 'न' के नीचे आधा 'ह' है। जंगलि = जंगल में। वासु = बसेरा, निवास। ककरु = कंकड़, रोड़। थलि = थल पर, जमीन पर। रब पासु = रब का पासा, रब का आसरा। छोड़नि् = अक्षर 'न' के नीचे आधा 'ह' है।

अर्थ: हे फरीद! मैं उन पक्षियों से सदके हूँ जिनका वासा जंगल में है, कंकड़ चुगते हैं, जमीन पर बसते हैं, (पर) रॅब का आसरा नहीं छोड़ते (भाव, महलों में रहने वाले पले हुए शरीर वाले पर रॅब को भुला देने वाले लोगों से बेहतर तो वे पक्षी ही हैं जो पेड़ों पर घोंसले बना लेते हैं, कंकड़ चुग के गुजारा कर लेते हैं, पर रॅब को याद रखते हैं)।101।

फरीदा रुति फिरी वणु क्मबिआ पत झड़े झड़ि पाहि ॥ चारे कुंडा ढूंढीआं रहणु किथाऊ नाहि ॥१०२॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: फिरी = बदल गई है। वणु = जंगल (भाव, जंगल का पेड़)। (शब्द 'वणु' के रूप और शलोक नं: 19 और 43 में आए शब्द 'वणि' के व्याकर्णिक रूप का फर्क देखें)। रहणु = स्थिरता। किथाऊ = कहीं भी।

अर्थ: हे फरीद! मौसम बदल गया है, जंगल (का बूटा-बूटा) हिल गया है, पत्ते झड़ रहे हैं। (जगत की) चारों दिशाएं ढूँढ के देख ली हैं, स्थिरता कहीं भी नहीं है (ना ही ऋतु एक जैसी रह सकती है, ना ही वृक्ष और वृक्षों के पत्ते सदा टिके रह सकते हैं। भाव, समय गुजरने पर इस मनुष्य पर बुढ़ापा आ जाता है, सारे अंग कमजोर पड़ जाते हैं, आखिर जगत से चल पड़ता है)।102।

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी क्मबलड़ी पहिरेउ ॥ जिन्ही वेसी सहु मिलै सेई वेस करेउ ॥१०३॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: पाड़ि = फाड़ के। पटोला = (सिर पर लेने वाला औरत का) पट का कपड़ा। धज = लीरें। कंबलड़ी = तुच्छ सी कंबली। जिनी वेसी = जिन भेषों से। सहु = पति।

अर्थ: हे फरीद! पॅट का कपड़ा फाड़ के लीर कर दॅूँ, और बेकार सी कंबली पहन लूँ। मैं वही वेश कर लूँ, जिन वेशों से (मेरा) पति परमात्मा मिल जाए।103।

मः ३ ॥ काइ पटोला पाड़ती क्मबलड़ी पहिरेइ ॥ नानक घर ही बैठिआ सहु मिलै जे नीअति रासि करेइ ॥१०४॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: काइ = किस लिए? क्यों? पहिरेइ = पहनती है। घर ही = (घरि ही। शब्द 'घरि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) घर में ही। रासि = अच्छी, साफ।

अर्थ: (पति-परमात्मा को मिलने के लिए जीव-स्त्री) सिर पर पॅट का कपड़ा क्यों फाड़े और बेकार सी कंबली क्यों पहने? हे नानक! घर बैठे ही पति (-परमात्मा) मिल जाता है, अगर (जीव-स्त्री अपनी) नीयत साफ कर ले (यदि मन पवित्र कर ले)।104।

मः ५ ॥ फरीदा गरबु जिन्हा वडिआईआ धनि जोबनि आगाह ॥ खाली चले धणी सिउ टिबे जिउ मीहाहु ॥१०५॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। वडिआईआ गरबु = वडिआईयों का गुमान, दुनियावी इज्जत का घमण्ड। धनि = धन के कारण। जोबनि = जवानी के कारण। आगाह = बेअंत। धणी = रॅब, परमात्मा। सिउ = से। मीहाहु = मींह से, बरसात से।

अर्थ: हे फरीद! जिन लोगों को दुनियावी इज्जत का अहंकार (रहा), बेअंत धन के कारण अथवा जवानी के कारण (कोई) माण रहा, वे (जगत में से) मालिक (की मेहर) से वंचित ही चले गए, जैसे टिबे (ऊँची जगहें) बरसात (वर्षा होने) के बाद (सूखे ही रह जाते हैं)।106।

फरीदा तिना मुख डरावणे जिना विसारिओनु नाउ ॥ ऐथै दुख घणेरिआ अगै ठउर न ठाउ ॥१०६॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: अैथै = इस जीवन में। घणेरिआ = घनेरे, बड़े। ठउर न ठाउ = ना जगह ना ठौर।

अर्थ: हे फरीद! जिन लोगों ने परमात्मा का नाम भुलाया हुआ है, उनके मुँह डरावने लगते हैं (उनको देखने से ही डर लगता है, चाहे वे रेशमी कपड़े पहनने वाले हों, धन वाले हों, जवानी वाले हों अथवा आदर सत्कार वाले हों)। (जब तक) वे यहाँ (जीते हैं, उनको) कई दुख होते हैं, और आगे भी उनको कोई ठौर-ठिकाना नहीं मिलता (भाव, धक्के ही पड़ते हैं)।106

नोट: शलोक नं: 103 और 106 फरीद जी के हैं। नं:104 गुरू अमरदास जी का है और नं: 105 गुरू अरजन साहिब का है। फरीद जी के दोनों शलोकों को मिला के पढ़ो। पहला नं: 106 और फिर नं: 103। दोनों का भाव यह है, जिन लोगों ने परमात्मा का नाम भुलाया है उनके मुँह डरावने लगते हैं चाहे वे बढ़िया कपड़े पहनें और धनवान ही हों। धन होते हुए भी, रेशम पहनने से भी, वे दुखी ही रहते हैं। सो, रॅब को भुला के ऐसे रेशम पहनने की जगह तो लीरें पहन लेनी ही बेहतर हैं, कंबली पहन लेनी बढ़िया, यदि इन लीरों और इस कंबली को पहन कर के रॅब ना भूले।

पर इसका भाव ये नहीं कि फरीद जी फकीरी पहरावे की हिदायत कर रहे हैं। सो, इस भुलेखे को दूर करने के लिए गुरू अमरदास जी ने फरीद जी के शलोक नं: 103 के साथ अपनी ओर से शलोक नं: 104 लिखा है। गुरू अरजन साहिब ने इस ख्याल की और व्याख्या करते हुए लिखा है कि कि धन और जवानी का मान करने से रॅब की मेहर से वंचित ही रह जाया जाता है। इसलिए ऐसे धन-जवानी की मौज से फकीरी की नज़रें और गोदड़ी बेहतर, अगर इस फकीरी में रॅब की याद रह सके।

फरीद जी का इससे अगला शलोक नं: 107 थोड़ा ध्यान से पिछले शलोकों के साथ मिला के पढ़ के देखो। वे खुद ही कहते हैं कि लीरों और गोदड़ी की जरूरत नहीं है, घर छोड़ के जंगलों में जाने की जरूरत भी नहीं, सिफ्र निम्नलिखित उद्यम करो- अमृत बेला में उठ के रॅब को याद करो, एक रॅब की ओट रखो, संतोख रखो आदि।

फरीदा पिछल राति न जागिओहि जीवदड़ो मुइओहि ॥ जे तै रबु विसारिआ त रबि न विसरिओहि ॥१०७॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: पिछलि राति = पिछली रात, अमृत बेला में। न जागिओहि = तू ना जागा। मुइओहि = तू मरा। तै = तू। रबि = रॅब ने।

अर्थ: हे फरीद! अगर तू अमृत बेला में नहीं जागा तो (यह कोझा जीवन) जीता हुआ ही तू मरा हुआ है। अगर तूने रॅब को भुला दिया है, तो रॅब ने तुझे नहीं भुलाया (भाव, परमात्मा हर वक्त तेरे अमलों को देख रहा है)।107।

नोट: पिछली रात क्यों जागना है? ये बात फरीद जी ने सिर्फ इशारे मात्र कही है-'जे तै रबु विसारिआ', भाव पिछली राते जाग के रॅब को याद करना है। गुरू अरजन देव जी फरीद जी के इस भाव को अगले शलोकों में और ज्यादा स्पष्ट करते हैं।

मः ५ ॥ फरीदा कंतु रंगावला वडा वेमुहताजु ॥ अलह सेती रतिआ एहु सचावां साजु ॥१०८॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: कंतु = पति, परमात्मा। रंगावला = (देखो शलोक नं:82 में 'रंगावली') सोहज मयी, सोहणा। अलह सेती = रब से। साजु = बणतर, रूप। सचावां = सच वाला, परमात्मा वाला। ऐहु साजु = ये रूप, (भाव,) 'रंगावाला' और 'वेमुहताजु' रूप।

अर्थ: हे फरीद! पति (परमात्मा) सुंदर है और बहुत बेमुहताज है। (अमृत बेला में उठ के) अगर रॅब के साथ रंगे जाएं तो (मनुष्य को भी) रॅब वाला यह (सुंदर और बेमुथाजी वाला) रूप मिल जाता है (भाव, मनुष्य का मन सुंदर हो जाता है, और इसको किसी की मुथाजी नहीं रहती)।108।

मः ५ ॥ फरीदा दुखु सुखु इकु करि दिल ते लाहि विकारु ॥ अलह भावै सो भला तां लभी दरबारु ॥१०९॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: इकु करि = एक समान कर, एक जैसे जान। विकारु = पाप। ते = से। अलह भावै = (जो) रॅब को अच्छा लगे। दरबारु = रब की दरगाह।

अर्थ: हे फरीद! (अमृत बेला में उठ के रॅबी याद के अभ्यास से जीवन में घटित होते) दुख और सुख को एक समान जान, तब तुझे (परमात्मा की) दरगाह की प्राप्ति होगी।109।

मः ५ ॥ फरीदा दुनी वजाई वजदी तूं भी वजहि नालि ॥ सोई जीउ न वजदा जिसु अलहु करदा सार ॥११०॥ {पन्ना 1383}

पद्अर्थ: दुनी = दुनिया, दुनिया के लोग। वजाई = माया की प्रेरित हुई। नालि = दुनिया के ही साथ। जिसु = जिसकी। सार = संभाल। अलहु = परमात्मा।

नोट: शलोक नं: 108, 109 ओर 110 में शब्द 'अलह' का प्रयोग व्याकरण के अनुसार इस तरह है- 'अलह सेती'- यहाँ मुक्ता अंत शब्द 'अलह' के साथ 'संबंधक' 'सेती बरता गया है। 'अलह भावै'- यहाँ क्रिया 'भावै' के साथ शब्द 'अलह' संप्रदान कारक, एक वचन है, भाव, 'अलह नूं' 'अलहु करदा'- यहाँ शब्द 'अलहु' कर्ता-कारक, एकवचन है।

अर्थ: हे फरीद! दुनिया के लोग (बाजे हैं जो माया के) बजाए हुए बज रहे हैं, तू भी उनके साथ ही बज रहा है, (भाव, माया का नचाया नाच रहा है)। वही (भाग्यशाली) जीव (माया का बजाया हुआ) नहीं बजता, जिसकी (संभाल) रखवाली परमात्मा खुद करता है (सो, अमृत बेला में उठ के उसकी याद में जुड़, ताकि तेरी भी संभाल, रखवाली हो सके)।110।

मः ५ ॥ फरीदा दिलु रता इसु दुनी सिउ दुनी न कितै कमि ॥ मिसल फकीरां गाखड़ी सु पाईऐ पूर करमि ॥१११॥ {पन्ना 1383-1384}

पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। दुनी = दुनिया, माया। दुनी = दुनिया, माया। कितै कंमि = किसी काम में (नहीं आती)। मिसल = फकीरों वाली रहनी। गाखड़ी = मुश्किल। पूर करंमि = पूरी किस्मत से।

अर्थ: हे फरीद! (अमृत बेला में उठना ही काफी नहीं; उस उठने का भी क्या लाभ अगर उस वक्त भी) दिल दुनिया (के पदार्थों) के साथ ही रंगा रहा? दुनिया (आखिरी वक्त पर) किसी काम नहीं आती। (उठ के रॅब को याद कर, ये) फकीरों वाली रहणी बहुत मुश्किल है, और मिलती है बहुत बड़े भाग्यों से।111।

नोट: अगल शलोक नं: 112 फरीद जी का है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh