श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1384

पहिलै पहरै फुलड़ा फलु भी पछा राति ॥ जो जागंन्हि लहंनि से साई कंनो दाति ॥११२॥ {पन्ना 1384}

नोट: अमृत बेला में उठने के बारे में यहाँ फरीद जी के सिर्फ दो शलोक हैं- नं: 107 और यह नं: 112। शलोक नं: 108,109,110 और 111 गुरू अरजन देव जी के हैं, जिनमें बताया है कि अमृत बेला की बँदगी में से ये लाभ निकलने चाहिए- बेमुथाजी, पाप की र्निर्विक्ति, रजा में रहना, माया की मार से बचाव। फरीद जी ने दोनों शलोकों में सिर्फ ये कहा है-अमृत बेला में उस का नाम जपो, पहली रात भी रॅब की याद में ही सोना चाहिए, पर पहले पहर से अमृत वेला ज्यादा गुणकारी है।

पद्अर्थ: फुलड़ा = सुंदर सा फूल। पछाराति = पिछली राते, अमृत वेला। जागंनि् = अक्षर 'न' के नीचे आधा 'ह' है। लहंनि = हासिल करते हैं। कंनो = से (देखें शलोक नं: 99 में शब्द 'कंनै')।

अर्थ: (रात के) पहले पहर की बँदगी (जैसे) एक सुंदर सा फूल है, फल अमृत बेला की बँदगी ही हो सकती है। जो लोग (अमृत बेला में) जागते हैं वे परमात्मा से बख्शिशें हासिल करते हैं।112।

दाती साहिब संदीआ किआ चलै तिसु नालि ॥ इकि जागंदे ना लहन्हि इकन्हा सुतिआ देइ उठालि ॥११३॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: दाती = बख्शिशें।

नोट: शब्द 'दाति' के अंत में 'ि' है, इसका बहुवचन 'ि' को दीर्घ करने से बनेगा, इसी तरह शब्द 'लहरि' का बहुवचन 'लहरी'; जैसे 'साइरु लहरी देइ'। संदीआ-की। तिसु नालि-उस (साहिब) के साथ। किआ चलै-क्या जोर चल सकता है। इकि-कई लोग। लहनि्-प्राप्त करते हैं।

नोट: ये शलोक गुरू नानक देव जी का है, जो फरीद जी के उपरोक्त शलोक (नं: 112) की व्याख्या के लिए उचारा गया है। फरीद जी ने शब्द 'दाति' बरत के इशारे-मात्र बताया है कि जो अमृत बेला में जाग के बँदगी करते हैं, उन पर ईश्वर प्रसन्न होता है। गुरू नानक देव जी ने स्पष्ट करके कह दिया है कि यह तो 'दाति' है, और 'दाति', हॅक नहीं बन जाता। कहीं कोई अमृत बेला में उठने का माण ही करने लग जाए।

गुरू अरजन देव जी ने इस शलोक को गुरू रामदास जी की उचारी हुई 'सिरी राग' की वार की दूसरी पउड़ी के साथ भी बरता हैं। वहाँ ये शलोक यूँ है।

सलोक म: १॥ दाती साहिब संदीआ, किआ चलै तिसु नालि॥ इकि जागंदे ना लहंनि इकना सुतिआ देइ उठालि॥१॥२॥ (सिरी राग की वार महला ४)

यहाँ दूसरी तुक के दो शब्दों के जोड़ में थोड़ा सा फर्क है- 'लहंनि्' और 'इकना'।

अर्थ: बख्शिशें, मालिक की (अपनी) हैं। उस मालिक के साथ (किसी का) क्या जोर चल सकता है? कई (अमृत बेला में) जागते हुए भी (ये बख्शिशें) नहीं ले सकते, कई (भाग्यशालियों को) सोए हुओं को (वह खुद) जगा देता है (भाव, कई अमृत बेला में जागते हुए भी किसी अहंकार आदि रूप माया में सोए रह जाते हैं, और कई गाफिलों को मेहर कर के खुद सूझ दे देता है)।113।

नोट: गुरू नानक देव जी के उपरोक्त शलोक के साथ 'सिरी राग' की वार में गुरू नानक देव जी का दूसरा शलोक इस तरह है;

महला १॥ सिदक सबूरी सादिका, सबर तोसा मलाइकां॥ दीदारु पूरे पाइसा, थाउ नाही खाइका॥२॥२॥

इन दोनों शलोकों को इकट्ठे पढ़ने पर ये शिक्षा प्रत्यक्ष दिखाई देती है कि रॅब की ओर से 'दाति' तब ही मिलती है अगर बँदा 'सबरु' धारण करे। इसी तरह फरीद जी के शलोक नं: 112 के साथ फरीद जी के अपने अगले चार शलोक नं 114 से 117 तक भी यही कहते हैं कि 'दाति' तब ही मिलेगी जब 'सबरु' धारण करेंगे। 'हॅक' समझ के जल्दबाजी में कोई और 'झाक' नहीं झाँकनी।

नोट: शलोक नं: 114 से 119 तक फरीद जी के ही हैं।

ढूढेदीए सुहाग कू तउ तनि काई कोर ॥ जिन्हा नाउ सुहागणी तिन्हा झाक न होर ॥११४॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: कू = को। तउ तनि = तेरे तन में, तेरे अंदर। कोर = कसर, कमी। काई = कोई। झाक = आस, आसरा, टेक।

अर्थ: सुहाग (-परमात्मा) को तलाशने वाली (हे जीव-सि्त्रए!) (तू अमृत बेला में उठ के पति-परमात्मा को मिलने के लिए बँदगी करती है पर तुझे अभी भी नहीं मिला) तेरे अपने अंदर ही कोई कसर है। जिनका नाम 'सोहगनें' है उनके अंदर और कोई टेक नहीं होती (भाव, पति-मिलाप की 'दाति' उनको ही मिलती है जो अमृत वेला में उठने का कोई 'हक' नहीं जमातीं)।114।

सबर मंझ कमाण ए सबरु का नीहणो ॥ सबर संदा बाणु खालकु खता न करी ॥११५॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: मंझ = (मन) मंझ, (मन) में। सबर कमाण = सब्र की कमान। सबरु = धीरज, सिदक। का = (कमाने का)। नीहणो = चिल्ला। संदा = का। बाणु = तीर। खता न करी = व्यर्थ नहीं जाने देना, गवाने नहीं देना।

अर्थ: यदि मन में इस सब्र की कमान हो, और सब्र की कमान का चिल्ला हो, सब्र का ही तीर हो, तो परमात्मा (इसका निशाना) हाथ से जाने नहीं देगा।115।

सबर अंदरि साबरी तनु एवै जालेन्हि ॥ होनि नजीकि खुदाइ दै भेतु न किसै देनि ॥११६॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: साबरी = सब्र वाले लोग। ऐवै = इसी तरह (भाव,) सब्र में ही। तनु जालेनि् = शरीर को जलाते हैं, मेहनत करते हैं, (भाव, जब जगत सोया हुआ है, वह अमृत बेला में उठ के बँदगी करते हैं, और बेमुथाजी पाप-र्निर्विती और रज़ा का सबक पकाते हैं)। होनि = होते हैं। नजीकि = नजदीक। किसै = किसी को। भेतु न देनि = अपना भेद नहीं देते, जल्दबाजी में किसी के आगे गिला नहीं करते कि इतनी मेहनत करने पर भी अभी तक क्यों नहीं मिला।

अर्थ: सब्र वाले बँदे सब्र में रह के इसी तरह (सदा सब्र में ही) बँदगी की घाल घालते (मेहनत करते) हैं (इस तरह वे) रॅब के नजदीक होते जाते हैं, और किसी को अपने दिल का भेद नहीं देते।116।

सबरु एहु सुआउ जे तूं बंदा दिड़ु करहि ॥ वधि थीवहि दरीआउ टुटि न थीवहि वाहड़ा ॥११७॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: सुआउ = स्वार्थ, प्रयोजन, जिंदगी का निशाना। बंदा = हे बंदे! हे मनुष्य! दिढ़ ु = दृढ़, पक्का। वधि = बढ़ के। बीजहि = हो जाएगा। वाहड़ा = छोटा सा बहाव। टुटि = टूट के, कम हो के।

अर्थ: हे बँदे! यह सब्र ही जिंदगी का असल निशाना है। अगर तू (सब्र को हृदय में) पक्का कर ले, तो तू बढ़ के दरिया हो जाएगा, (पर) कम हो के छोटा सा बहाव नहीं बनेगा (भाव, सब्र वाला जीवन बनाने से तेरा दिल बढ़ के दरिया हो जाएगा, तेरे दिल में सारे जगत के लिए प्यार पैदा हो जाएगा, तेरे अंदर तंग-दिली नहीं रह जाएगी)।117।

फरीदा दरवेसी गाखड़ी चोपड़ी परीति ॥ इकनि किनै चालीऐ दरवेसावी रीति ॥११८॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: गाखड़ी = मुश्किल। दरवेसी = फकीरी। चोपड़ी = ऊपर ऊपर से बढ़िया, दिखावे वाली। इकनि किनै = किसी एक ने, किसी विरले ने। चालीअै = चलाई है। दरवेसावी = दरवेशों वाली।

अर्थ: हे फरीद! (ये सब्र वाला जीवन असल) फकीरी (है, और यह) कठिन (काम) है, पर (हे फरीद! रॅब से तेरी) प्रीति तो ऊपर-ऊपर से है। फकीरों का (यह सब्र वाला) काम किसी विरले बँदे ने कमाया है।118।

तनु तपै तनूर जिउ बालणु हड बलंन्हि ॥ पैरी थकां सिरि जुलां जे मूं पिरी मिलंन्हि ॥११९॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: जिउ = जैसे। बलंनि् = (अक्षर 'न' के नीचे आधा 'ह' है)। पैरी = पैरों से (चलते हुए)। थकां = अगर मैं थक जाऊँ। सिरि = सिर से, सिर भार। जुलां = मैं चलूँ। मूँ = मुझे। पिरी = प्यारी (रॅब) की। मिलंनि् = ् = (अक्षर 'न' के नीचे आधा 'ह' है)।

अर्थ: मेरा शरीर (बेशक) तंदूर की तरह तपे, मेरी हड्डियाँ (चाहे इस तरह) जलें जैसे ईधन (जलता) है। (प्यारे रॅब को मिलने की राह में अगर मैं) पैरों से (चलता-चलता) थक जाऊँ, तो मैं सिर भार चलने लग पड़ूँ। (मैं ये सारी मुश्किलें सहने को तैयार हूँ) अगर मुझे प्यारे रॅब जी मिल जाएं (भाव, रॅब को मिलने के लिए यह जरूरी हो कि शरीर को धूणियां तपा-तपा के दुखी किया जाए, तो मैं ये कष्ट सहने को भी तैयार हूँ)।119।

तनु न तपाइ तनूर जिउ बालणु हड न बालि ॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ अंदरि पिरी निहालि ॥१२०॥ {पन्ना 1384}

नोट: ये शलोक गुरू नानक देव जी का है। 'शलोक वारां ते वधीक महला १' में भी ये दर्ज है। वहाँ कुछ इस तरह है;

तनु न तपाइ तनूर जिउ, बालणु हड न बालि॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ, अंदर पिरी समालि॥18॥

यहाँ सिर्फ एक शब्द का फर्क है 'निहालि' की जगह शब्द 'समालि' है, दोनों का अर्थ एक ही है। जैसे श्लोक नं: 113 में देख आए हैं, कि सतिगुरू जी ने फरीद के शलोक नं: 113 की व्याख्या की है, वैसे ही यहाँ भी यही बात है। फरीद जी की किसी 'कमी' को सही नहीं किया। अगर गुरमति की कसवटी पर यहाँ कोई 'कमी' होती, तो गुरू-रूप गुरबाणी में 'कमी' को जगह क्यों मिलती? फरीद जी ने भी यहाँ कहीं धूणियां तपाने की जरूरत नहीं बताई। उनका अगला शलोक (नं:125) इसके साथ मिला के पढ़ो (बीच के सारे शलोक सतिगुरू जी के हैं), भाव यह है जगत के विकारों से बचने का एक ही उपाय है- परमात्मा की ओट, यह ओट किसी भी भाव पर मिले तो सौदा सस्ता है।

पद्अर्थ: सिरि = सिर ने। पैरी = पैरों ने। फेड़िआ = बिगाड़ा है। निहालि = देख, ताक।

अर्थ: शरीर को (धूणियों से) तंदूर की तरह ना जला; और हड्डियों को इस तरह ना जला जैसे यह ईधन है। सिर ने और पैरों ने कुछ नहीं बिगाड़ा है, (इस वास्ते इनको दुखी ना कर) परमात्मा को अपने अंदर देख।120।

हउ ढूढेदी सजणा सजणु मैडे नालि ॥ नानक अलखु न लखीऐ गुरमुखि देइ दिखालि ॥१२१॥ {पन्ना 1384}

नोट: ये शलोक गुरू राम दास जी का है। राग कानड़े की वार की पंद्रहवीं पौड़ी में आया है, थोड़ा सा फर्क है, वहाँ पर इस प्रकार है;

सलोक महला ४॥ हउ ढूढेदी सजणा, सजणु मैंडे नालि॥ जन नानक अलखु न लखीअै, गुरमुखि देइ दिखालि॥१॥१५॥

गुरू रामदास जी का यह शलोक गुरू नानक देव जी के शलोक की व्याख्या है।

पद्अर्थ: मैडे नालि = मेरे साथ, मेरे हृदय में। अलखु = लक्षणहीन, जिसका कोई खास लक्षण नहीं पता लगता। देइ दिखाल = दिखा देता है।

अर्थ: मैं (जीव-स्त्री) सज्जन (-प्रभू) को (बाहर) तलाश रही हूँ, (पर वह) सज्जन (तो) मेरे हृदय में बस रहा है। हे नानक! उस (सज्जन) का कोई लक्षण नहीं, (अपने उद्यम से जीव से) वह पहचाना नहीं जा सकता, सतिगुरू दिखा देता है।121।

हंसा देखि तरंदिआ बगा आइआ चाउ ॥ डुबि मुए बग बपुड़े सिरु तलि उपरि पाउ ॥१२२॥ {पन्ना 1384}

नोट: यह शलोक गुरू अमरदास जी का है। 'वडहंस की वार' में यह और इससे अगला शलोक (नं:123) जो गुरू अमरदास जी का है, इस प्रकार दर्ज हैं;

हंसा वेखि तरंदिआ बगां भि आइआ चाउ॥ डुबि मुइ बग बपुड़े, सिरु तलि उपरि पाउ॥३॥१॥ मै जानिआ वडहंसु है, ता मै कीआ संगु॥ जे जाणा बगु बपुड़ा, त जनमि न देई अंगु॥२॥१॥

पद्अर्थ: बगा = बगलों को। बपुड़े = बेचारे। तलि = नीचे।

अर्थ: हंसों को तैरता हुआ देख के बगुलों को भी चाव चढ़ गया, पर बेचारे बगुले (ये उद्यम करने के चक्कर में) सिर तले और पैर ऊपर (हो के) डूब के मर गए।122।

मै जाणिआ वड हंसु है तां मै कीता संगु ॥ जे जाणा बगु बपुड़ा जनमि न भेड़ी अंगु ॥१२३॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: वडहंसु = बड़ा हंस। संगु = साथ। जे जाणा = अगर मुझे पता होता। जनमि = जनम में, जनम भर, सारी उम्र। न भेड़ी = ना छूती।

अर्थ: मैंने समझा कि ये कोई बड़ा हँस है, इसीलिए मैंने उसकी संगति की। पर अगर मुझे पता होता कि ये नाकारा बगुला है, तो मैं कभी उसके नजदीक ना फटकती।123।

नोट: इन दोनों शलोकों का भाव यह है कि धूणियों को ही प्रभू-मिलाप का वसीला समझने वाले का ये उद्यम यूँ है जैसे कोई बगुला हँसों की रीस करने लग जाए। इसका नतीजा ये निकलता है कि एक तो वह व्यर्थ दुख सहेड़ता है; दूसरा यह पाज उघड़ जाता है, कोई इस पर रीझता नहीं।

किआ हंसु किआ बगुला जा कउ नदरि धरे ॥ जे तिसु भावै नानका कागहु हंसु करे ॥१२४॥ {पन्ना 1384}

नोट: ये शलोक श्री गुरू नानक देव जी का है। 'वार सिरी रागु' की पउड़ी नं:20 के साथ ये इस तरह दर्ज है;

किआ हंसु किआ बगुला, जा कउ नदरि करेइ॥ जो तिसु भावै नानका, कागहु हंसु करेइ॥२॥२०॥

पद्अर्थ: किआ = चाहे, भले ही। जा कउ = जिस पर। नदरि = मेहर की नजर। तिसु = उस (प्रभू) को। कागहु = कौए से।

अर्थ: चाहे हो हँस चाहे हो बगुला, जिस पर (प्रभू) कृपा की नजर करे (उसको अपना बना लेता है; सो किसी से नफरत क्यों?) हे नानक! अगर परमात्मा को ठीक लगे तो (बगुला तो एक तरफ रहा, वह) कौए से (भी) हँस बना देता है (भाव, बड़े से बड़े विकारी को भी सुधार लेता है)।124।

नोट: अगला शलोक (नं: 124) फरीद जी के शलोक नं: 119 के सिलसिले में है। बीच वाले पाँचों शलोक उस भुलेखे को दूर करने के लिए हैं, जो फरीद जी के अकेले शलोक नं: 119 को पढ़ के लग सकते थे।

सरवर पंखी हेकड़ो फाहीवाल पचास ॥ इहु तनु लहरी गडु थिआ सचे तेरी आस ॥१२५॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: सरवर = (जगत रूप) तालाब में। हेकड़ो = अकेला। गडु थिआ = फस गया है। लहरी = लहरों में।

अर्थ: (जगत रूप) तालाब में (ये जीव-रूपी) पंछी अकेला ही है, फसाने वाले (कामादिक) पचास हैं। (मेरा) यह शरीर (संसार-रूप तालाब की विकार-रूप) लहरों में फस गया है। हे सच्चे (प्रभू)! (इनसे बचने के लिए) एक तेरी (सहायता की ही) आस है (इस वास्ते तुझे मिलने के लिए अगर तप तपाने पड़ें, तो भी सौदा सस्ता है)।125।

नोट: वह 'तप' कौन से हैं, जो फरीद जी के ख्याल अनुसार प्रभू-मिलाप के लिए और 'फाहीवाल पचास' से बचने के लिए जरूरी हैं? वह अगले पाँच शलोकों में दिए गए हैं।

कवणु सु अखरु कवणु गुणु कवणु सु मणीआ मंतु ॥ कवणु सु वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु ॥१२६॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: मणीआ = शिरोमणी। हउ = मैं। जितु = जिस (भेष) से। वसि = वश में।

अर्थ: (हे बहन!) वह कौन सा अक्षर है? वह कौन सा गुण है? वह कौन सा शिरोमणि मंत्र है? वह कौन सा भेष मैं करूँ जिससे (मेरा) पति (मेरे) वश में आ जाए?।126।

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहबा मणीआ मंतु ॥ ए त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु ॥१२७॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: खवणु = सहना। जिहबा = मीठी जीभ, मीठा बोलना।

अर्थ: हे बहन! झुकना अक्षर है, सहना गुण है, मीठा बोलना शिरोमणि मंत्र है। अगर ये तीन वेश (भेष) कर ले तो (मेरा) पति (तेरे) वश में आ जाएगा।127।

मति होदी होइ इआणा ॥ ताण होदे होइ निताणा ॥ अणहोदे आपु वंडाए ॥ को ऐसा भगतु सदाए ॥१२८॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: मति = बुद्धि। होइ = बने। ताणु = जोर, ताकत। अणहोदे = जब कुछ भी देने के लायक ना रहे। सदाऐ = कहलवाए।

अर्थ: (जो मनुष्य) अक्ल के होते हुए भी अंजान बना रहे (भाव, अकल के ताण से ताकत से दूसरों पर कोई दबाव ना डाले), जोर होते हुए कमजोरों की तरह जीए (भाव, किसी के ऊपर जोर जबरदस्ती ना करे), जब कुछ भी देने के लायक ना हो, तब अपना आप (भाव, अपना हिस्सा) बाँट दे, किसी ऐसे मनुष्य को (ही) भगत कहना चाहिए।128।

इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥ हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥१२९॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: गालाइ = बोल। इकु = एक भी वचन। धणी = मालिक, पति। हिआउ = हृदय। कैही = किसी की भी। ठाहि = ढाह। माणक = मोती।

अर्थ: एक भी फीका वचन ना बोल (क्योंकि) सबमें सच्चा मालिक (बस रहा है), किसी का भी दिल ना दुखा (क्योंकि) यह सारे (जीव) अमूल्य मोती हैं।129।

सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥ जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥१३०॥ {पन्ना 1384}

पद्अर्थ: ठाहणु = ढाहणा, दुखाना। मूलि = बिल्कुल ही। मचांगवा = अच्छा नहीं। तउ = तुझे।

अर्थ: सारे जीवों के मन मोती हैं, (किसी को भी) दुखाना बिल्कुल ठीक नहीं। अगर तुझे प्यारे प्रभू से मिलने की तमन्ना है, तो किसी का दिल ना दुखा।130।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh