श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1386 आप ही धारन धारे कुदरति है देखारे बरनु चिहनु नाही मुख न मसारे ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: धारन = सृष्टि। धारे = आसरा दे रहा है। देखारे = दिखलाता है। बरनु = वर्ण, रंग। चिहनु = निशान। मसारे = (संस्कृत: शमश्र) दाढ़ी। अर्थ: (हरी) स्वयं ही सारे जगत को आसरा दे रहा है, अपनी कुदरति दिखा रहा है। ना (उसका कोई) रंग है ना (कोई) निशान, ना मुँह, और ना दाढ़ी। जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥३॥ {पन्ना 1386} अर्थ: हरी का भगत दास (गुरू) नानक (हरी के) दर पर प्रवान (हुआ है) और हरी जैसा है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरू नानक के) क्या (गुण) कह सकती है? मैं (गुरू नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।3। सरब गुण निधानं कीमति न ग्यानं ध्यानं ऊचे ते ऊचौ जानीजै प्रभ तेरो थानं ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: निधानं = खजाना। कीमति = मूल्य। जानीजै = जाना जाता है, सुना जाता है। थान = ठिकाना। प्रभ = हे प्रभू! अर्थ: हे प्रभू! तू सारे गुणों का खजाना है, तेरे ज्ञान का और (तेरे में) ध्यान (जोड़ने) का मूल्य नहीं (पड़ सकता)। तेरा ठिकाना ऊँचे से ऊँचा सुना जाता है। मनु धनु तेरो प्रानं एकै सूति है जहानं कवन उपमा देउ बडे ते बडानं ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: सूत = सूत्र, मर्यादा, सक्ता। ऐकै सूति = एक ही मर्यादा में। उपमा = तशबीह, बराबर की चीज़। बडानं = बड़ा। देउ = देऊँ, मैं दूँ। अर्थ: (हे प्रभू!) मेरा मन, मेरा धन और मेरे प्राण - ये सब तेरे ही दिए हुए हैं। सारा संसार तेरी एक ही सक्ता में है (भाव, सक्ता के आसरे है)। मैं किस का नाम बताऊँ जो तेरे बराबर का हो? तू बड़ों से भी बड़ा है। जानै कउनु तेरो भेउ अलख अपार देउ अकल कला है प्रभ सरब को धानं ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: भाउ = भेद, राज़, गूढ़ गती। अपार = बेअंत। देउ = देव, प्रकाश रूप। अकल कला = जिस की कला (सक्ता) अंग रहित है, भाव, एक रस है। धानं = आसरा (संस्कृत: धानं = a receptacle, seat, nourishment)। अर्थ: हे प्रभू! तेरा भेद कौन जान सकता है? हे अलख! हे अपार! हे प्रकाश-रूप! तेरी सक्ता (सब जगह) एक-रस है, तू सारे जीवों का आसरा है। जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥४॥ {पन्ना 1386} अर्थ: हे प्रभू! (तेरा भगत सेवक (गुरू) नानक (तेरे) दर पर प्रवान (हुआ है) और (हे प्रभू! तेरे) ब्रहम जैसा है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरू नानक के) क्या (गुण) कह सकती है? मैं (गुरू नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।4। निरंकारु आकार अछल पूरन अबिनासी ॥ हरखवंत आनंत रूप निरमल बिगासी ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: निरंकारु = आकार से रहित, वर्णों चिन्हों से बाहर। आकार = सरगुन, स्वरूप वाला। अछल = जिसको कोई धोखा ना दे सके। हरखवंत = सदा प्रसन्न। आनंतरूप = बेअंत स्वरूपों वाला। बिगासी = मौला हुआ, खिला हुआ, प्रकट। अर्थ: तू वर्णों-चिन्हों से बाहर का है, और स्वरूप वाला भी है; तुझे कोई छल नहीं सकता, तू सब जगह व्यापक है, और कभी नाश होने वाला नहीं है, तेरे बेअंत स्वरूप हैं, तू शुद्ध-स्वरूप है और जाहरा-जहूर है। गुण गावहि बेअंत अंतु इकु तिलु नही पासी ॥ जा कउ होंहि क्रिपाल सु जनु प्रभ तुमहि मिलासी ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: बेअंत = बेअंत जीव। इकु तिलु = रक्ती भी। नही पासी = नहीं पड़ता। मिलासी = मिल जाता है। प्रभ = हे प्रभू! अर्थ: बेअंत जीव तेरे गुण गाते हैं, पर तेरा अंत थोड़ा सा भी नहीं पड़ता (जाना जा सकता)। हे प्रभू! जिस पर तू दयावान होता है, वह मनुष्य तुझे मिल जाता है। धंनि धंनि ते धंनि जन जिह क्रिपालु हरि हरि भयउ ॥ हरि गुरु नानकु जिन परसिअउ सि जनम मरण दुह थे रहिओ ॥५॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: धंनि = धन्य, भाग्यशाली। जिह = जिन पर। हरि गुरु नानकु = (इस तरह के गुणों वाले) हरी का रूप गुरू नानक। जिन = जिन्होंने। परसियउ = प्रसन्न किया है, छूआ है, चरन परसे हैं, सेवा की है। सि = वे (भाग्यशाली) मनुष्य। दुह थे = दोनों से। रहिओ = बचे रहे हैं। अर्थ: भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिन पर हरी दयावान हुआ है। जिन मनुष्यों ने (उपरोक्त गुणों वाले) हरी के रूप गुरू नानक को परसा है, वे जनम-मरण दोनों से बच रहे हैं।5। सति सति हरि सति सति सते सति भणीऐ ॥ दूसर आन न अवरु पुरखु पऊरातनु सुणीऐ ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: सति = सदा रहने वाला, अटल। भणीअै = कहा जाता है (भाव, लोग कहते हैं)। अवरु = और। आन = कोई और। पऊरातनु = पुरातन, पुराना, आदि का। सुणीअै = सुना जाता है। अर्थ: महात्मा लोग सदा कहते आए हैं कि हरी सदा अटल है, सदा कायम रहने वाला है; वह पुरातन पुरख सुना जाता है (भाव, सबका आदि है) कोई और दूसरा उसके जैसा नहीं है। अम्रितु हरि को नामु लैत मनि सभ सुख पाए ॥ जेह रसन चाखिओ तेह जन त्रिपति अघाए ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: जेह = जिन मनुष्यों ने। रसन = रसना द्वारा, जीभ से। तेह जन = वह मनुष्य (बहु वचन)। त्रिपति अघाऐ = संतुष्ट हो गए, अघा गए। मन = हे मन! अर्थ: हे मन! जिन्होंने हरी का आत्मिक जीवन देने वाला नाम लिया है, उनको सारे सुख मिल गए हैं। जिन्होंने (नाम-अमृत) जीभ से चखा है, वे मनुष्य तृप्त हो गए हैं (भाव, और रसों की उनको तमन्ना नहीं रही)। जिह ठाकुरु सुप्रसंनु भयुो सतसंगति तिह पिआरु ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ तिन्ह सभ कुल कीओ उधारु ॥६॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: जिह = जिन पर। तिह = उनका। ठाकुरु = मालिक प्रभू। उधारु = उद्धार, पार उतारा। भयुो = अक्षर 'य' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं, पर यहाँ 'ु' पढ़नी है। अर्थ: जिन मनुष्यों पर मालिक-प्रभू दयावान हुआ है, उनका साध-संगति में प्रेम (पड़ गया है)। (इस तरह के) हरी-रूप गुरू नानक (के चरणों) को जिन्होंने परसा है, उन मनुष्यों ने अपनी सारी कुल का उद्धार कर लिया है।6। सचु सभा दीबाणु सचु सचे पहि धरिओ ॥ सचै तखति निवासु सचु तपावसु करिओ ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: सभा = संगति, दरबार। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। दीबाणु = कचहरी। सचे पहि = सदा स्थिर हरी के रूप गुरू के पास। सचै तखति = सच्चे तख्त पर। तपावसु = न्याय। अर्थ: (अकाल पुरख की) सभा सदा अटल रहने वाली है, (उसकी) कचहरी सदा-स्थिर है; (अकाल-पुरख ने अपना आप) अपने सदा-स्थिर-रूप गुरू के पास रखा हुआ है; (भाव, हरी गुरू के माध्यम से मिलता है), (अकाल-पुरख का) ठिकाना सदा कायम रहने वाला है और, वह सदा (सच्चा) न्याय करता है। सचि सिरज्यिउ संसारु आपि आभुलु न भुलउ ॥ रतन नामु अपारु कीम नहु पवै अमुलउ ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: सचि = सच्चे (अकाल-पुरख) ने, सदा कायम रहने वाले (प्रभू) ने। सिरज्यिउ = सिरजियो, सृजन किया, पैदा किया है। आभुलु = ना भूलने वाला। न भुलउ = भूल नहीं करता है। कीम = कीमत। नहु = नहीं। अमुलउ = अमोलक है। अर्थ: सदा स्थिर सच्चे (अकाल-पुरख) ने जगत को रचा है, वह स्वयं कभी गलती नहीं करता, कभी भूल नहीं करता। (अकाल-पुरख का) श्रेष्ठ नाम (भी) बेअंत है, अमूल्य है, (उसके नाम का) मूल्य नहीं पाया जा सकता। जिह क्रिपालु होयउ गुोबिंदु सरब सुख तिनहू पाए ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ ते बहुड़ि फिरि जोनि न आए ॥७॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: जिह = जिन मनुष्यों पर। बहुड़ि = दोबारा, पलट के। जोनि न आऐ = नहीं जनम लिया, नहीं जन्मे। तिनहू = उन्होंने ही। गुोबिंद: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोबिंद', यहां 'गुबिंद' पढ़ना है। अर्थ: जिन मनुष्यों पर अकाल-पुरख दयावान हुआ है, उनको ही सारे सुख मिले हैं। (ऐसे गुणों वाले) अकाल-पुरख के रूप नानक (के चरनों) को जिन्होंने परसा है, वे फिर पलट के जनम (-मरण) में नहीं आते।7। कवनु जोगु कउनु ग्यानु ध्यानु कवन बिधि उस्तति करीऐ ॥ सिध साधिक तेतीस कोरि तिरु कीम न परीऐ ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: कवन बिधि = किस तरह, किस बिधि से, किस जुगति से? साधकि = साधना करने वाले, जो मनुष्य आत्मिक जिंदगी के लिए यतन कर रहे हैं। तेतीस कोरि = तैतीस करोड़ देवते। तिरु = तिल मात्र, थोड़ा भी। कीम = कीमत, मूल्य। परीअै = पाई नहीं जा सकती। अर्थ: कौन से योग (का साधन) करें? कौन सा ज्ञान (विचारें) ? कौन सा ध्यान (धरें) ? वह कौन सी जुगति बरतें जिससे अकाल-पुरख के गुण गा सकें? सिद्ध, साधिक और तैतिस करोड़ देवताओं से भी अकाल-पुरख की थोड़ी सी भी कीमत नहीं पड़ सकी। ब्रहमादिक सनकादि सेख गुण अंतु न पाए ॥ अगहु गहिओ नही जाइ पूरि स्रब रहिओ समाए ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: ब्रहमादिक = ब्रहमा व अन्य देवता गण (ब्रहम+आदिक)। सनकादिक = (सनक+आदिक) सनक व अन्य (सनक, सनातन, सनत कुमार और सनंदन; ये चारों ब्रहमा के पुत्र थे)। सेख = शेशनाग, पुरातन हिन्दू विचार है कि इसके एक हजार फन हैं और विष्णू का ये आसन है; ये ख्याल भी प्रचलित है कि शेशनाग सारी सृष्टि को अपने फन पर उठाए खड़ा है। अगहु = (अ+गहु) जो पकड़ से परे है, जिस तक पहुँच ना हो सके। पूरि = व्यापक। गहिओ = पकड़ा। स्रब = सरब, सारे। अर्थ: ब्रहमा व अन्य देवतागण (ब्रहमा के पुत्र) सनक आदिक और शेशनाग, अकाल-पुरख के गुणों का अंत ना पा सके। (अकाल-पुरख मनुष्यों की) समझ से ऊँचा है, उसकी गति नहीं पाई जा सकती, सब जगह व्यापक है और सबमें रमा हुआ है। जिह काटी सिलक दयाल प्रभि सेइ जन लगे भगते ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ ते इत उत सदा मुकते ॥८॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: जिह = जिन मनुष्यों की। सिलक = (माया का) फंदा। प्रभि = प्रभू ने। सेइ जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। भगते = भगती में। इत उत = यहाँ वहाँ, इस लोक में परलोक में। मुकते = मुक्त, बँधनों से स्वतंत्र। अर्थ: दयालु प्रभू ने जिन मनुष्यों के (माया के मोह का) फंदा काट दिया है, वे मनुष्य उसकी भगती में जुड़ गए हैं। (इस तरह के उपरोक्त गुणों वाले) हरी के रूप गुरू नानक जिन्होंने पसरा है, वह जीव लोक-परलोक में माया के बँधनों से बचे हुए हैं। प्रभ दातउ दातार परि्यउ जाचकु इकु सरना ॥ मिलै दानु संत रेन जेह लगि भउजलु तरना ॥ {पन्ना 1386} पद्अर्थ: परि्उ = पड़ा है। जाचकु = याचना करने वाला, मंगता। सरना = शरण। दानु = ख़ैर, भिक्षा। संत रेन = सत्संगियों के चरनों की धूड़। जेह लगि = जिस के आसरे, जिस (धूल) की ओट ले के। भउजलु = घुम्मन घेर (संसार का)। तरना = तैरा जा सके। अर्थ: हे प्रभू! हे दाते! हे दातार! मैं एक जाचिक तेरी शरण आया हूँ, (मुझ मंगते को) सत्संगियों के चरणों की धूड़ की ख़ैर मिल जाए, ता कि इस धूड़ की ओट ले के मैं (संसार के) भवजल से पार लांघ सकूँ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |