श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1387 बिनति करउ अरदासि सुनहु जे ठाकुर भावै ॥ देहु दरसु मनि चाउ भगति इहु मनु ठहरावै ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मनि = (मेरे) मन में। चाउ = तमन्ना। भगति = (तेरी) भगती में। इहु मनु = मेरा यह मन। ठहरावै = टिक जाए। अर्थ: हे ठाकुर! यदि तुझे अच्छा लगे तो (मेहर करके मेरी) अरजोई सुन, मैं एक विनती करता हूं, "(मुझे) दीदार दे; मेरे मन में यह तमन्ना है, (मेहर कर) मेरा यह मन तेरी भगती में टिक जाए"। बलिओ चरागु अंध्यार महि सभ कलि उधरी इक नाम धरम ॥ प्रगटु सगल हरि भवन महि जनु नानकु गुरु पारब्रहम ॥९॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: चरागु = चिराग, दीया। अंध्यार महि = अंधेरे में। कलि = सृष्टि। उधरी = पार लांघ गई। नाम धरम = हरी नाम के सिमरन रूप धर्म द्वारा। भवन = संसार। हरि = हे हरी! जन नानकु = (तेरा) सेवक (गुरू) नानक। अर्थ: हे भाई! तेरा सेवक, हे पारब्रहम! तेरा रूप गुरू नानक सारे जगत में प्रकट हुआ है। (गुरू नानक) अंधेरे में दीया जग उठा है, (उसके बताए हुए) नाम की बरकति से सारी सृष्टि पार लांघ रही है। सवये स्री मुखबाक्य महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ काची देह मोह फुनि बांधी सठ कठोर कुचील कुगिआनी ॥ धावत भ्रमत रहनु नही पावत पारब्रहम की गति नही जानी ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: काची = कच्ची, ना स्थिर रहने वाली। देह = शरीर। मोह बांधी = (माया के) मोह से बँधी हुई। फुनि = फिर। सठ = दुर्जन। कठोर = निर्दयी। कुचील = गंदा रहने वाला। कुगिआनी = अज्ञानी, मूढ़, मूर्ख। धावत भ्रमत = भटकता फिरता हूँ। रहनु = टिकाव, स्थिरता। नही पावत = नहीं मिलती, प्राप्त नहीं होती। गति = भेद, ऊँची आत्मिक अवस्था। अर्थ: मैं दुर्जन हूँ, कठोर-दिल हूँ, बुरे कामों में लगा रहता हूँ और मूर्ख हूँ। (एक तो पहले ही मेरा) शरीर सदा-स्थिर रहने वाला नहीं है, ऊपर से बल्कि ये मोह में जकड़ा हुआ है, (इस मोह के कारण) भटकता फिरता हूँ, (मन) टिकता नहीं है, और ना ही मैंने यह जाना है कि परमात्मा कैसा है। जोबन रूप माइआ मद माता बिचरत बिकल बडौ अभिमानी ॥ पर धन पर अपवाद नारि निंदा यह मीठी जीअ माहि हितानी ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: जोबन = जवानी। रूप = सुंदर शकल। मद = अहंकार। माता = मस्त। बिचरत = विचरते हुए, मैं भटक रहा हूँ। बिकल = व्याकुल, अपने आप को भुला के। अपवाद = बुरे वचन, कड़वे बोल। नारि = (पराई) स्त्री (की ओर मंद दृष्टि)। यह = यह। जीअ माहि = हृदय में। हितानी = प्यारे लगते हैं। अर्थ: मैं जवानी, सुंदर शक्ल-सूरत और माया के माण में मस्त होया हुआ हूँ, अपने आप को भुला के भटक रहा हूँ और बड़ा अहंकारी हूँ। पराया धन, पराई बखीली, पराई स्त्री पर कु-दृष्टि से देखना और पराई निंदा- मेरे दिल को ये बातें मीठी और प्यारी लगती हैं। बलबंच छपि करत उपावा पेखत सुनत प्रभ अंतरजामी ॥ सील धरम दया सुच नास्ति आइओ सरनि जीअ के दानी ॥ कारण करण समरथ सिरीधर राखि लेहु नानक के सुआमी ॥१॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: बलबंच उपावा = ठॅगी के उपाय। छपि = छुप के। करत = मैं करता हूँ। पेखत = तू देखता है। सुनत = (तू) सुनता है। प्रभ = हे प्रभू! सील = अच्छा स्वभाव। सुच = पवित्रता। नास्ति = नास्ति, ना+अस्ति, नहीं है। आइओ = मैं आया हूँ। जीअ कै दानी = हे जीवात्मा के दानी! हे जीवन दान देने वाले! कारण करण = हे सृष्टी के मूल! सिरी धर = हे माया के पति!।1। अर्थ: हे अंतजामी प्रभू! मैं छुप-छुप के ठॅगी (करने की) साजिशें रचता हूँ, (पर) तू देखता और सुनता है। हे जीवन दान देने वाले! मेरे में ना शील है ना धर्म; ना दया है ना सॅुच। मैं तेरी शरण आया हूँ। हे सृष्टी के समर्थ करतार! हे माया के मालिक! हे नानक के स्वामी! (मुझे इनसे) बचा ले।1। कीरति करन सरन मनमोहन जोहन पाप बिदारन कउ ॥ हरि तारन तरन समरथ सभै बिधि कुलह समूह उधारन सउ ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: मन मोहन = मन को मोह लेने वाले हरी की। कीरति करन = सिफत सालाह करनी। सरन = शरण पड़ना। जोहन = जोधन, योद्धे। बिदारन कउ = नाश करने के लिए, दूर करने के लिए। तारन तरन = (संसार सागर से) तैरने के लिए बेड़ी। तरन = बेड़ी। सभै बिधि = हर तरह, पूरी तौर पर। कुलह समूह = कूलों के समूह, कई कुलें। उधारन सउ = तारने के लिए, उद्धार के लिए पार करने के लिए। अर्थ: मन को मोह लेने वाली हरी की सिफत-सालाह करनी और उसकी शरण पड़ना- (जीवों के) पापों के नाश करने के लिए ये समर्थ हैं (भाव, हरी की शरण पड़ कर उसका यश करें तो पाप दूर हो जाते हैं)। हरी (जीवों को संसार-सागर से) तैराने के लिए जहाज़ है और (भगत-जनों की अनेकों कुलों को पार उतारने के लिए पूरन तौर पर समर्थ है। चित चेति अचेत जानि सतसंगति भरम अंधेर मोहिओ कत धंउ ॥ मूरत घरी चसा पलु सिमरन राम नामु रसना संगि लउ ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: चित अचेत = हे अचेत चिक्त! हे गाफल मन! चेति = सिमर। जानि = पहचान। भरम अंधेर मोहिओ = भरम रूप अंधेरे में मोहित होया हुआ। कत = किधर? धंउ = तू दौड़ता है, भटकता है। मूरत = महूरत। घरी = घड़ी। सिमरन = चिंतन (कर)। रसना संगि = जीभ से। लउ = लै। अर्थ: हे (मेरे) गाफल मन! (राम को) सिमर, साध-संगत के साथ सांझ डाल, भरम रूप अंधेरे का मोहित हुआ (तू) किधर भटकता फिरता है? महूरत मात्र, घरी भर, रक्ती भर या पल भर ही राम का सिमरन कर, जीभ से राम का नाम सिमर। होछउ काजु अलप सुख बंधन कोटि जनम कहा दुख भंउ ॥ सिख्या संत नामु भजु नानक राम रंगि आतम सिउ रंउ ॥२॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: होछउ = होछा, तोड़ ना निभने वाला। काजु = काम, धंधा। अलप = थोड़े। बंधन = बसाने का वसीला। कोटि = करोड़ों। कहा = क्यों? किस की खातिर? दुखों में। भंउ = भटकता फिरेगा। सिख्या = शिक्षा, उपदेश (ले के)। नानक = हे नानक! रंगि = रंग में। आतम सिउ = अपनी आत्मा से। रंउ = आनंद ले।2। अर्थ: (इस दुनिया का) धंधा सदा साथ निभने वाला नहीं है, (माया के यह) थोड़े से सुख (जीव को) फसाने का कारण हैं; (इनकी खातिर) कहाँ करोड़ों जन्मों तक (तू) दुखों में भटकता फिरेगा? इसलिए, हे नानक! संतों का उपदेश लेकर नाम सिमर, और राम के रंग में (मगन हो के) अपने अंदर ही आनंद ले।2। रंचक रेत खेत तनि निरमित दुरलभ देह सवारि धरी ॥ खान पान सोधे सुख भुंचत संकट काटि बिपति हरी ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: रंचक रेत = थोड़ सा वीर्य। खेत = पैली, खेत। तनि = शरीर में (भाव, माता के पेट में)। खेत तनि = माँ के पेट रूपी खेत में। निरमित = निंमिआ, निर्मित किया, बीजा। देह = शरीर। दुरलभ = अमोलक। सवारि = सजा के। खान पान = पाने पीने के पदार्थ। सोधे = महल माढ़ियां। सुख भुंचत = भोगने के लिए सुख (दिए)। संकट = कलेश (भाव, माता के उदर में उल्टे रहने वाला कलेश)। काटि = काट के, हटा के। बिपत = बिपता, मुसीबत। हरी = दूर की। अर्थ: (हे जीव! परमात्मा ने पिता का) थोड़ा सा वीर्य माँ के पेट-रूप खेत में निर्मित किया और (तेरा) अमोलक (मनुष्य) शरीर सजा के रख दिया। (उसने तुझे) खाने-पीने के पदार्थ, महल-माढ़ियों को माणने के सुख बख्शे, संकट काट के तेरी बिपता दूर की। मात पिता भाई अरु बंधप बूझन की सभ सूझ परी ॥ बरधमान होवत दिन प्रति नित आवत निकटि बिखम जरी ॥ रे गुन हीन दीन माइआ क्रिम सिमरि सुआमी एक घरी ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: अरु = और। बंधप = संबन्धी, साक सैन। बूझन की = पहचानने की। सूझ = मति, बुद्धि। परी = (तेरे मन में) पड़ी। बरधमान होवत = बढ़ता है। दिन प्रति = प्रति दिन, रोज, दिनो दिन। नित = सदा। निकटि = नजदीक। बिखंम = डरावना। जरी = बुढ़ापा। गुनहीन = गुणों से वंचित। दीन = कंगाल। क्रिम = कीड़ा, कृम। अर्थ: (हे जीव! परमात्मा की मेहर से) तब माता, पिता, भाई, साक-संबन्धी की तेरे अंदर सूझ पड़ गई। दिनो-दिन सदा (तेरा शरीर) बढ़-फूल रहा है और डरावना बुढ़ापा नजदीक आ रहा है। हे गुणों से रहित, कंगले, माया के कीड़े! एक घड़ी (तो) उस मालिक को याद कर (जिसने तेरे ऊपर इतनी बख्शिशें की हैं)। करु गहि लेहु क्रिपाल क्रिपा निधि नानक काटि भरम भरी ॥३॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: करु = हाथ। गहि = पकड़ के। गहि लेहु = पकड़ लो। क्रिपाल = हे कृपाल हरी! क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! काटि = दूर कर। भरंम भरी = भरमों की पोटली।3। अर्थ: हे दयालु! हे दया के समुंद्र! नानक का हाथ पकड़ ले और भरमों की पोटली उतार दे।3। रे मन मूस बिला महि गरबत करतब करत महां मुघनां ॥ स्मपत दोल झोल संगि झूलत माइआ मगन भ्रमत घुघना ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: मूस = चूहा। बिला = बिल। गरबत = (तू) अहंकार करता है। करतब = कर्तव्य, काम, करतूत। महां मुघनां = बड़े मूर्खों वाले। संपत = धन, पदार्थ। दोल = पींघ, झूला, पंघूड़ा। झोल = झुलाना, हुलारा। झोल संग = हुलारे के साथ। झूलत = (तू) झूलता है। मगन = मस्त। घुघना = उल्लू की तरह। अर्थ: हे मन! (तू इस शरीर में माण करता है जैसे) चूहा खुड (बिल) में र हके हंकार करता है, और तू बड़े मूर्खों वाले काम करता है। (तू) माया के पंगूड़े में हुलारे ले के झूल रहा है, और माया में मस्त हो के उल्लू की तरह भटक रहा है। सुत बनिता साजन सुख बंधप ता सिउ मोहु बढिओ सु घना ॥ बोइओ बीजु अहं मम अंकुरु बीतत अउध करत अघनां ॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। ता सिउ = इनसे। बढिओ = बढ़ा हुआ है। घणा = बहुत। अहं = अहंकार। मम = ममता। अंकुरु = अंगूर। अउध = उम्र। अघनां = पाप। अर्थ: पुत्र, स्त्री, मित्र, (संसार के) सुख और संबन्धी -इनसे (तेरा) बहुत मोह बढ़ रहा है। तूने (अपने अंदर) अहंकार का बीज बीजा हुआ है (जिससे) ममता का अंगूर (उग रहा है), तेरी उम्र पाप करते हुए बीत रही है। मिरतु मंजार पसारि मुखु निरखत भुंचत भुगति भूख भुखना ॥ सिमरि गुपाल दइआल सतसंगति नानक जगु जानत सुपना ॥४॥ {पन्ना 1387} पद्अर्थ: मिरतु = मौत। मंजार = बिल्ला। मुखु पसारि = मुँह खोल के। निरखत = देखता है। भुंचत भुगति = भोगों को भोगता है। भुगति = दुनिया के भोग। भूख = तृष्णा। जानत = जान के, जानता हुआ। अर्थ: मौत रूप बिल्ला मुँह खोल के (तुझे) ताक रहा है, (पर) तू भोगों को भोग रहा है। फिर भी तृष्णा-अधीन (तू) भूखा ही है। हे नानक (के मन!) संसार को सपना जान के सत्संगति में (टिक के) गोपाल दयाल हरी को सिमर।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |