श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1390 गावहि गुण बरन चारि खट दरसन ब्रहमादिक सिमरंथि गुना ॥ गावै गुण सेसु सहस जिहबा रस आदि अंति लिव लागि धुना ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं (गावै = गाता है)। बरन चारि = चारे वर्ण, ब्रहमण, खत्री, वैश्य और शूद्र। खट दरसन = छे भेख: जोगी, जंगम, सरेवड़े, सन्यासी आदिक। सिमरंथि = सिमरते हैं। गुना = गुणों को। सेसु = शेशनाग। सहस जिहबा = हजारों जीभों से। रस = प्रेम से। आदि अंति = सदा, एक रस। लिव लागि धुना = लिव की धुन लगा के। अर्थ: चारों वर्ण, छह भेख, गुरू नानक के गुण गा रहे हैं, ब्रहम आदिक भी उसके गुण याद कर रहे हैं। शेशनाग हजारों जीभों द्वारा प्रेम से एक-रस लिव की धुनी लगा के गुरू नानक के गुण गाता है। गावै गुण महादेउ बैरागी जिनि धिआन निरंतरि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥५॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: महादेउ = शिव जी। बैरागी = वैरागवान, त्यागी। जिनि = जिस (गुरू नानक) ने। निरंतरि = एक रस। अर्थ: जिस गुरू नानक ने एक-रस बिरती जोड़ के अकाल-पुरख को पहचाना है (सांझ डाली है), उसके गुण वैरागवान शिव जी (भी) गाता है। कल् कवि (कहता है) - 'मैं उस गुरू नानक के गुण गाता हूं, जिसने राज और जोग दोनों माणें हैं (जीए हैं)'।5। राजु जोगु माणिओ बसिओ निरवैरु रिदंतरि ॥ स्रिसटि सगल उधरी नामि ले तरिओ निरंतरि ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: बसिओ = बस रहा है। रिदंतरि = (गुरू नानक के) हृदय में। सगल = सारी। उधरी = (गुरू नानक ने) उद्धार कर दी है। नामि = नाम से। ले = (स्वयं नाम) जप के। तरिओ = (गुरू नानक) तैर गया है, (गुरू नानक का) उद्धार हो गया है। निरंतरि = एक रस। अर्थ: (गुरू नानक देव जी ने) राज भी पाया है और जोग भी; निरवैर अकाल-पुरख (उनके) हृदय में बस रहा है। (गुरू नानक देव) स्वयं एक-रस नाम जप के पार निकल गया है, और (उसने) सारी सृष्टि को भी नाम की बरकति से पार लगा दिया है। गुण गावहि सनकादि आदि जनकादि जुगह लगि ॥ धंनि धंनि गुरु धंनि जनमु सकयथु भलौ जगि ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: सनकादि = सनक आदिक ब्रहमा के चारों पुत्र। आदि = पुरातन। जनकादि = जनक आदि ऋषि। जुगह लगि = जुगों प्रयन्त, सदा। सकयथु = सकार्थ, सफल। भलौ = भला, अच्छा। जगि = जगत में। अर्थ: सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र, जनक आदि पुरातन ऋषि-जन कई जुगों से (गुरू नानक देव जी के) गुण गा रहे हैं। धन्य हैं गुरू (नानक)! धन्य हैं गुरू (नानक)! जगत में (उनका) जन्म लेना सकार्थ और भला हुआ है। पाताल पुरी जैकार धुनि कबि जन कल वखाणिओ ॥ हरि नाम रसिक नानक गुर राजु जोगु तै माणिओ ॥६॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: पाताल पुरी = पाताल लोक से। जैकार धुनि = (गुरू नानक की) जै जै की आवाज़। वखाणिओ = कहता है। रसिक = रसिया। नानक गुर = हे गुरू नानक! तै = तू।6। अर्थ: दास कल् कवि विनती करता है- 'हरी के नाम के रसिए हे गुरू नानक! पाताल लोक से भी तेरी जै-जैकार की आवाज (उठ रही है), तूने राज और जोग दोनों पाए हैं'।6। सतजुगि तै माणिओ छलिओ बलि बावन भाइओ ॥ त्रेतै तै माणिओ रामु रघुवंसु कहाइओ ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: सतिजुग = सतियुग में। तै = तू (हे गुरू नानक!)। माणिओ = (राज और योग) माणा ( भोगा अथवा पाया)। बलि = राजा बलि जिसको वामन अवतार ने छला था। भाइओ = अच्छा लगा। बावन = वामन अवतार। त्रेतै = त्रेते जुग में। रघुवंसु = रघु के वंश वाला। अर्थ: (हे गुरू नानक!) सतियुग में (भी) तूने ही (राज और जोग) माण था, तूने ही राजा बलि को छला था और तब वामन अवतार बनना तुझे अच्छा लगा था। त्रेते में भी तूने ही (राज और जोग) माणा था, तब तूने अपने आप को रघुवंशी राम कहलवाया था (भाव, हे गुरू नानक! मेरे लिए तो तू ही है वामन अवतार, तू ही है रघुवंशी अवतार राम)। दुआपुरि क्रिसन मुरारि कंसु किरतारथु कीओ ॥ उग्रसैण कउ राजु अभै भगतह जन दीओ ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: दुआपरि = द्वापर (युग) में। मुरारि = (मुर = अरि) मुर (दैत्य) का वैरी। किरतारथु = सफल, मुक्त। उग्रसैण = मथुरा का राजा, कंस का पिता; कंस अपने पिता उग्रसेन को गद्दी से उतार के खुद राजा बन बैठा था; श्री कृष्ण जी ने कंस को मार के दोबारा उग्रसेन को राज दे दिया था। अभै = अभयपद, निर्भयता। भगतह जन = भगतों को। अर्थ: (हे गुरू नानक!) द्वापर जुग में कृष्ण मुरारी भी (तू ही था), तू ही कंस को (मार के) मुक्त किया था (तू ही) उग्रसैन को (मथुरा का) राज और अपने भगत-जनों को निर्भयता बख्शी थी (भाव, हे गुरू नानक! मेरे वास्ते तो तू ही है श्री कृष्ण)। कलिजुगि प्रमाणु नानक गुरु अंगदु अमरु कहाइओ ॥ स्री गुरू राजु अबिचलु अटलु आदि पुरखि फुरमाइओ ॥७॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: कलिजुगि = कलजुग में। प्रमाणु = प्रमाणिक, जाना माना हुआ, समर्था वाला। नानक = हे (गुरू) नानक! श्री गुरू राजु = श्री गुरू (नानक देव जी) का राज। अबिचलु = ना हिलने वाला, पक्का, स्थिर। आदि पुरखि = आदि पुरख ने, अकाल-पुरख ने। अर्थ: हे गुरू नानक! कलयुग में (भी तू ही) समर्थता वाला है, (तू ही अपने आप को) गुरू अंगद और गुरू अमरदास कहलवाया है। (यह तो) अकाल-पुरख ने (ही) हुकम दे रखा है कि श्री गुरू (नानक देव जी) का राज सदा-स्थिर और अटल है।7। गुण गावै रविदासु भगतु जैदेव त्रिलोचन ॥ नामा भगतु कबीरु सदा गावहि सम लोचन ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। समलोचन = समान नेत्रों वाले दो (गुणों को), उस गुरू नानक के (गुणों को) जो अकाल-पुरख को अपने नेत्रों से सब जगह देख रहा है। सम = बराबर। लोचन = आँख। अर्थ: (उस गुरू नानक के) गुण रविदास भगत गा रहा है, जैदेव और त्रिलोचन गा रहे हैं, भगत नामदेव और कबीर गा रहे हैं; (जो) अकाल पुरख को अपने नेत्रों से सब जगह देख रहा है। भगतु बेणि गुण रवै सहजि आतम रंगु माणै ॥ जोग धिआनि गुर गिआनि बिना प्रभ अवरु न जाणै ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: रवै = गाता है, जपता है। सहजि = सहज अवस्था में, अडोलता में (रह के)। आतम रंगु = परमात्मा (के मिलाप) का स्वाद। जोग = (परमात्मा का) मिलाप। जोग धिआनि = जोग के ध्यान में, परमात्मा के मिलाप में ध्यान लगाने के कारण, भाव, परमात्मा में सुरती जोड़ने के कारण। गुर गिआन = गुरू के ज्ञान द्वारा। अवरु = किसी और को। अर्थ: (जो गुरू नानक) अडोलता में टिक के परमात्मा के मिलाप के स्वाद का आनंद लेता है, (जो गुरू नानक) गुरू के ज्ञान की बरकति से अकाल-पुरख में सुरति जोड़ के उसके बिना किसी और को नहीं जानता, (उसके) गुणों को बेणी भगत गा रहा है। सुखदेउ परीख्यतु गुण रवै गोतम रिखि जसु गाइओ ॥ कबि कल सुजसु नानक गुर नित नवतनु जगि छाइओ ॥८॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: सुखदेउ = ब्यास ऋषि के एक पुत्र का नाम है; यह सुखदेव जी घृताची नाम अप्सरा की कोख से जन्मे थे; पैदा होने के वक्त ही ज्ञानवान थे, महान तपस्वी प्रसिद्ध हुए हैं, इन्होंने ही राजा परीक्ष्यत को भगवत पुराण सुनाया था। परीख्यतु = परीक्ष्यत् राजा अभिमन्यु का पुत्र और अर्जुन का पौत्र हुआ है, युधिष्ठर के बाद हस्तिनापुर का राज इसी को मिला था, साँप डसने के कारण इसकी मौत हो गई थी। कहते हैं, कलियुग का समय इसके राज से ही आरम्भ हुआ था। रवै = सिमर रहा है (एक वचन)। सुजसु नानक गुर = गुरू नानक का सुंदर यश। नवतनु = नया। छाइओ = छाया हुआ है, प्रभाव वाला है। अर्थ: सुखदेव ऋषि (गुरू नानक के गुण) गा रहा है और (राजा) परीक्ष्यत (भी गुरू नानक के) गुणों को गा रहा है। गौतम ऋषी ने (भी गुरू नानक का ही) यश गाया है। हे कल् कवी! गुरू नानक (देव जी) की सुंदर शोभा नित्य नई है और जगत में अपना प्रभाव डाल रही है।8। गुण गावहि पायालि भगत नागादि भुयंगम ॥ महादेउ गुण रवै सदा जोगी जति जंगम ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: पायालि = पाताल में। नागादि = (शेष-) नाग आदि। भुयंगम = साँप। जति = जती। जंगम = छह भेषों में से एक भेष है। अर्थ: पाताल में भी (शेष-) नाग आदिक और सर्प-भगत (गुरू नानक के) गुण गा रहे हैं। गुण गावै मुनि ब्यासु जिनि बेद ब्याकरण बीचारिअ ॥ ब्रहमा गुण उचरै जिनि हुकमि सभ स्रिसटि सवारीअ ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: जिनि = जिस (व्यास मुनि) ने। बेद = वेदों को। ब्याकरण = व्याकर्णों द्वारा। बीचारिअ = विचारा है। जिनि = जिस (ब्रहमा) ने। हुकमि = (अकाल-पुरख के) हुकम में। सवारीअ = रची है। अर्थ: जिस (ब्यास मुनि) ने सारे वेदों को व्याकरणों द्वारा विचारा है, वह (गुरू नानक के) गुण गा रहा है। जिस (ब्रहमा) ने अकाल-पुरख के हुकम में सारी सृष्टि रची है, वह (गुरू नानक के) गुण उचार रहा है। ब्रहमंड खंड पूरन ब्रहमु गुण निरगुण सम जाणिओ ॥ जपु कल सुजसु नानक गुर सहजु जोगु जिनि माणिओ ॥९॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: ब्रहमंड खंड = खंडों ब्रहमंडों में, सारी दुनिया में। पूरन = व्यापक, हाजर नाजर। ब्रहम = अकाल पुरख। गुण = गुण वाला, सरगुण। सम = एक जैसा। जपु = याद कर, सिमर। सुजसु = सुंदर यश। कल = हे कल् कवि! नानक गुर = गुरू नानक के। सहजु = अडोलता, शांत अवस्था। जिनि = (जिस गुरू नानक) ने। जोग = (प्रभू के साथ) मिलाप। अर्थ: जिस गुरू नानक ने अडोल अवस्था को और अकाल-पुरख के मिलाप को पाया है, जिस गुरू नानक ने सारी दुनिया में हाजिर-नाजर अकाल-पुरख को सरगुण और निरगुण रूपों में एक-समान पहचाना है, हे कल्! उस गुरू नानक के सुंदर गुणों को याद कर।9। गुण गावहि नव नाथ धंनि गुरु साचि समाइओ ॥ मांधाता गुण रवै जेन चक्रवै कहाइओ ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: नव नाथ = नौ नाथ (गोरख, मछंदर आदिक)। साचि = साच में, सदा स्थिर हरी में। समाइओ = लीन हो गया है। मांधाता = सूर्यवंशी कुल का एक राजा, युवनांशु का पुत्र था, बड़ा बली राजा था। जेन = जिनि, जिस ने (अपने आप को)। चक्रवै = चक्रवर्ती। कहाइओ = कहलवाया। अर्थ: नौ नाथ (भी) गुरू नानक के गुण गाते हैं (और कहते हैं), "गुरू नानक धन्य है जो सच्चे हरी में जुड़ा हुआ है।" जिस मान्धाता ने अपने आप को चक्रवर्ती राजा कहलवाया था, वह भी गुरू नानक के गुण उचार रहा है। गुण गावै बलि राउ सपत पातालि बसंतौ ॥ भरथरि गुण उचरै सदा गुर संगि रहंतौ ॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: बलिराउ = राजा बलि। सपत पातालि = सातवें पाताल में। बसंतौ = बसता हुआ। गुर संगि = गुरू के साथ। रहंतौ = रहता हुआ। अर्थ: सातवें पाताल में बसता हुआ राजा बली (गुरू नानक के) गुण गा रहा है। अपने गुरू के साथ रहता हुआ भरथरी भी सदा (गुरू नानक के) गुण उचार रहा है। दूरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाइओ ॥ कबि कल सुजसु नानक गुर घटि घटि सहजि समाइओ ॥१०॥ {पन्ना 1390} पद्अर्थ: दूरबा = दुर्वासा ऋषि। परूरउ = राजा पुरू, चँद्रवंशी कुल का छेवाँ राजा, ययाती और सरमिष्ट का सबसे छोटा पुत्र। अंगरै = एक प्रसिद्ध ऋषि हुआ है; ऋगवेद में कई छंद इस ऋषि के नाम पर हैं; ब्रहमा के मन से पैदा हुए दस पुत्रों में से एक यह भी था। नानक जसु = नानक यश। घटि = घट में, हृदय में। घटि घटि = हरेक हृदय में। सहजि = सहज ही। अर्थ: दुर्वासा ऋषि ने, राजा पुरू ने और अंगर ऋषि ने गुरू नानक का यश गाया है। हे कल् कवि! गुरू नानक की सुंदर शोभा सहज ही हरेक प्राणी-मात्र के हृदय में टिकी हुई है।10। नोट: ये 10 सवईऐ भॅट कल् के उचारे हुए हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |