श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1389

About Bhat Bani-भटों के सवईए (Sawa-e-ay by Bhats).
(Note: it is described before page 1385 text on volume 10 of Darpan)

साजन मीत सखा हरि बंधप जीअ धान प्रभ प्रान अधारी ॥ ओट गही सुआमी समरथह नानक दास सदा बलिहारी ॥९॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: जीअ धान = जिंदगी का आसरा, जिंद का सोमा। प्रान अधारी = प्राणों का आधार। गही = पकड़ी है। सुआमी समरथह = समर्थ मालिक की।

अर्थ: हरी हमारा सज्जन है, मित्र है, सखा और सम्बन्धी है; हमारी जिंदगी का आसरा है और प्राणों का आधार है। हमने समर्थ मालिक की ओट पकड़ी है, नानक (उसका) दास उससे सदा सदके है।9।

आवध कटिओ न जात प्रेम रस चरन कमल संगि ॥ दावनि बंधिओ न जात बिधे मन दरस मगि ॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: आवध = शस्त्रों से। चरन कमल संगि = चरन कमलों से। दावनि = रस्सी से (दामन् = रस्सी)। बंधिओ न जात = बाँधा नहीं जा सकता। बिधे = भेदा हुआ। दरस मगि = (हरी के) दर्शन के रास्ते में। मगि = रास्ते में।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने) हरी के चरन-कमलों के साथ जुड़ के प्रेम का स्वाद (चखा है, वह) शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता। (जिसका) मन (हरी के) दर्शन के राह में भेदा गया है, वह रस्सी से (किसी और तरफ) बाँधा नहीं जा सकता।

पावक जरिओ न जात रहिओ जन धूरि लगि ॥ नीरु न साकसि बोरि चलहि हरि पंथि पगि ॥ नानक रोग दोख अघ मोह छिदे हरि नाम खगि ॥१॥१०॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: पावक = आग। जरिओ न जात = जलाया नहीं जा सकता। जन धूरि = संत जनों की चरन धूड़ में। नीरु = पानी। बोरि = डुबो। पंथ = रस्ता। पग = पैर। अघ = पाप। छिदे = काटे जाते हैं। खगि = तीर से। दोख = विकार। पंथि = रास्ते पर।

अर्थ: (जो मनुष्य) संत जनों की चरन धूड़ से जुड़ा रहा है, (उसको) आग जला नहीं सकती; (जिसके) पैर ईश्वर के राह की ओर चलते हैं, उसको पानी डुबो नहीं सकता। हे नानक! (उस मनुष्य के) रोग, दोख, पाप और मोह -यह सारे ही हरी के नाम-रूपी तीर से काटे जाते हैं।१।१०।

उदमु करि लागे बहु भाती बिचरहि अनिक सासत्र बहु खटूआ ॥ भसम लगाइ तीरथ बहु भ्रमते सूखम देह बंधहि बहु जटूआ ॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: बिचरहि = बिचारते हैं। अनिक = बहुत सारे लोग। सासत्र खटूआ = छे शास्त्रों को (सांख, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदांत)। भ्रमते = भटकते फिरते हैं। सूखम = कमजोर। देह = शरीर। बहु = बहुत सारे मनुष्य। बंधहि जटूआ = जटों जटाएं सिर पर धारण कर रहे हैं।

अर्थ: अनेकों मनुष्य कई तरह के उद्यम कर रहे हैं, छे शास्त्र विचार रहे हैं; (शरीर पर) राख मल के बहुत सारे मनुष्य तीर्थों पर भटकते फिरते हैं, और कई बँदे शरीर को (तपों से) कमजोर कर चुके हैं और (सीस पर) जटाएं धार रहे हैं।

बिनु हरि भजन सगल दुख पावत जिउ प्रेम बढाइ सूत के हटूआ ॥ पूजा चक्र करत सोमपाका अनिक भांति थाटहि करि थटूआ ॥२॥११॥२०॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: सगल = सारे (मनुष्य)। प्रेम = प्रेम से, मजे से। बढाइ = बढ़ाता है, तानता है। सूत के हटूआ = सूत्र के घर, तारों के घर, तारों का जाल। सोमपाका = स्वयं पाक, अपने हाथों से रोटी तैयार करनी। थाटहि = बनाते हैं। बहु थटूआ = कई थाट, कई बनावटें, कई भेख।

अर्थ: कई मनुष्य पूजा करते हैं; शरीर पर चक्रों के चिन्ह लगाते हैं, (सॅुच की खातिर) अपने हाथों से रोटी तैयार करते हैं, व और अनेकों तरह की रचनाएं बनाते हैं। पर, हरी के नाम लेने के बिना, ये सारे लोग दुख पाते हैं (यह सारे आडंबर उनके लिए फसने के लिए जाल बन जाते हैं) जैसे (कहना) बड़े मजे से तारों का जाल तनता है (और आप ही उसमें फस के अपने बच्चों के हाथों मारा जाता है)।2।11।20।

–––०–––

सवईए महले पहिले के १

अर्थ: गुरू नानक साहिब की उस्तति में उचारे हुए सवईऐ।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इक मनि पुरखु धिआइ बरदाता ॥ संत सहारु सदा बिखिआता ॥ तासु चरन ले रिदै बसावउ ॥ तउ परम गुरू नानक गुन गावउ ॥१॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, एकाग्र हो के। धिआइ = सिमर के, याद कर के। बरदाता = बख्शिश करने वाला। संत सहारु = संतों का आसरा। बिखिआता = प्रकट, हाज़र नाज़र। तासु = उसके। ले = ले के। बसावउ = बसाता हूँ, मैं बसा लूँ। तउ = तब। गुरू नानक गुन = गुरू नानक के गुण।1।

अर्थ: उस अकाल-पुरख को एकाग्र मन से सिमर के, जो बख्शिशें करने वाला है, जो संतों का आसरा है और जो सदा हाज़र-नाजर है, मैं उसके चरन अपने हृदय में बसाता हूँ, (और इनकी बरकति से) परम सतिगुरू नानक देव जी के गुणों को गाता हूँ।1।

गावउ गुन परम गुरू सुख सागर दुरत निवारण सबद सरे ॥ गावहि ग्मभीर धीर मति सागर जोगी जंगम धिआनु धरे ॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: गुन सुख सागर = सुखों के समुंद्र (खजाने) सतिगुरू के गुण। दुरत = पाप। दुरत निवारण = जो गुरू पापों को दूर करता है। सबद सरे = (जो गुरू) शबद का सर (भाव, बाणी का श्रोत) है। धीर = धैर्य वाले मनुष्य। मति सागर = मति के समुंद्र, ऊँची मति वाले। धिआन धरे = ध्यान धर के। परम = सबसे ऊँचा।

अर्थ: मैं उस परम गुरू नानक देव जी के गुण गाता हूँ, जो पापों को दूर करने वाला है और जो बाणी का श्रोत है। (गुरू नानक को) जोगी, जंगम ध्यान धर के गाते हैं, और वह लोग गाते हैं जो गंभीर हैं, जो धैर्यवान हैं और जो ऊँची मति वाले हैं।

गावहि इंद्रादि भगत प्रहिलादिक आतम रसु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥२॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: इंद्रादि = इन्द्र और अन्य। भगत प्रहिलादिक = प्रहलाद आदि भगत। आतम रसु = आत्मा का आनंद। जिनि = जिस (गुरू नानक) ने। कबि कल = हे कल् कवि! सुजसु = सुंदर यश। गुर नानक = गुरू नानक का। जिनि = जिस (गुरू नानक) ने।

अर्थ: जिस गुरू नानक ने आत्मिक आनंद जाना है, उसको इन्द्र आदिक और प्रहलाद आदि भगत गाते हैं। 'कल्' कवि (कहता है), -मैं उस गुरू नानक देव जी के सुंदर गुण गाता हूँ जिसने राज और जोग पाया है (भाव, जो गृहस्ती भी है और साथ ही माया से उपराम हो के हरी के साथ जुड़ा हुआ है)।2।

गावहि जनकादि जुगति जोगेसुर हरि रस पूरन सरब कला ॥ गावहि सनकादि साध सिधादिक मुनि जन गावहि अछल छला ॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: जुगति = समेत। जुगति जोगेसुर = जोगीश्वरों के साथ, बड़े बड़े जोगियों समेत। हरि रस पूरन = जो (गुरू नानक) हरी के आनंद से पूण है। सरब कला = सारी कलाओं वाला, सक्ता वाला गुरू नानक। सनकादि = ब्रहमा के पुत्र सनक, सनंदन, सनद कुमार और सनातन। सिधादिक = सिद्ध आदिक। अछल = ना छले जा सकने वाला गुरू नानक। छला = माया, छलने वाली।

अर्थ: जो गुरू नानक हरी के रस में भीगा हुआ है, जो गुरू नानक हर प्रकार की सक्तिया (शक्ति) वाला है, उसको जनक आदि बड़े-बड़े जोगियों समेत गाते हैं। जिस गुरू नानक को माया नहीं छल सकी, उसको ऋषि गाते हैं, सनक आदिक साध और सिद्ध आदि गाते हैं।

गावै गुण धोमु अटल मंडलवै भगति भाइ रसु जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥३॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: गावै = गाता है। धोम = एक ऋषि का नाम है। अटल मंडलवै = अटल मण्डल वाला ध्रुव भगत। भगति भाइ = भगती वाले भाव से। रसु = (हरी के मिलाप का) आनंद।

अर्थ: जिस गुरू नानक ने भगती वाले भाव द्वारा (हरी के मिलाप का) आनंद जाना है, उसके गुणों को धोमु ऋषि गाता है, ध्रुव भगत गाता है। कल् कवि (कहता है) - 'मैं उस गुरू नानक के सुंदर गुण गाता हूँ जिस ने राज और जोग पाया है'।3।

गावहि कपिलादि आदि जोगेसुर अपर्मपर अवतार वरो ॥ गावै जमदगनि परसरामेसुर कर कुठारु रघु तेजु हरिओ ॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: कपिलादि = कपिल ऋषि आदिक। आदि जोगेसुर = पुरातन बड़े बड़े जोगी है। अपरंपर = जिसका पार ना पाया जा सके, बेअंत। वर = श्रेष्ठ, उक्तम। अपरंपर अवतार वरो = बेअंत हरी के श्रेष्ठ अवतार गुरू नानक को। कर = हाथ। कुठारु = कोहाड़ा। तेजु = प्रताप। रघु = श्री राम चंद्र जी। कर कुठारु = हाथ का कुहाड़ा।

अर्थ: कपिल आदि ऋषि और पुरातन बड़े-बड़े जोगी-जन परमात्मा के शिरोमणि अवतार गुरू नानक को गाते हैं। (गुरू नानक के यश को) जमदगनि का पुत्र परशुराम भी गा रहा है, जिस के हाथ का कुहाड़ा और जिसका प्रताप श्री राम चंद्र जी ने छीन लिया था।

उधौ अक्रूरु बिदरु गुण गावै सरबातमु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥४॥ {पन्ना 1389}

पद्अर्थ: उधौ = ऊधव, श्री कृष्ण जी का भगत था। अक्रूर = श्री कृष्ण जी का भगत था। बिदरु = श्री कृष्ण जी का भगत था। सरबातमु = सर्व व्यापक हरी। जिनि = जिस (गुरू नानक ने)।

अर्थ: जिस गुरू नानक ने सर्व-व्यापक हरी को जान लिया (गहरी सांझ डाली हुई थी), उस के गुण ऊधव गाता है, अक्रूर गाता है, बिदर भगत गाता है। कल् कवि (कहता है) - 'मैं उस गुरू नानक का सुंदर यश गाता हूं, जिसने राज और जोग दोनों माणें हैं'।4।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh