श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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This is about Bhat Bani-भाटों के सवईए (Sawa-e-ay by Bhats) that start on page 1389.


ੴ सतिगुर प्रसादि॥

भाटों के सवईयों के बारे में विनती

श्री गुरु ग्रंथ साहिग जी की वाणी सिख की जिंद–जान है, वाणी ही इसका लोक–परलोक सवाँरने के समर्थ है। सो, जितना भी सिदक श्रद्धा गुरसिख सतिगुरु जी की वाणी में रखे, उतना ही थोड़ा है।

सिख कौम के लिए ये बात खास फखर वाली है, कि पंथ की आत्मिक राहबरी के लिए सतिगुरु जी अपनी हाजरी में वह ‘वाणी’ बख्शिश कर गए।, जिससे अनेक का बेड़ा पार होता आ रहा है। रजा में ऐसे करिश्मे भी दिखा गए, जहाँ आप ने यह हुक्म भी किया कि इस ‘दाति’ में अब किसी लग–मात्रा की भी तब्दीली नहीं हो सकनी।

पातशाह जी की मेहर के सदका पंथ में ऐसे विद्वान पैदा होते रहे, जो ‘धुर की वाणी’ को खुद समझते रहे और सिख संगतों को समझा के उनके दिलों की श्रद्धा बढ़ाते रहे। पर, ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया, जगत में और व्यस्तताएं ज्यादा होने के कारण ‘गुरबाणी’ को विचारने के लिए समय देने वाले कम होते गए। ऊपर से पड़ोसियों ने सिख कौम को कुछ बेपरवाह देख के सिख धर्म पर कई ऐतराज उठाने शुरू कर दिए, जिनको सुन–पढ़ के कई दिल डोलने लग पड़े। दाते ने मेहर की, और गुरु–प्यारे भाई दिक्त सिंह जी जैसे विद्वान आगे बढ़े, जिन्होंने विद्वान सिखों की रुचि वापस ‘गुरबाणी’ की ओर पल्टाई, और अन्मतियों के द्वारा बढ़ते जा रहे खतरे को लगाम दी। गुरमति की विचार और ‘गुरबाणी’ की व्याख्या संबंधी दिन–ब–दिन पुस्तकें लिखीं जाने लग पड़ीं, जिसके सदका जिग्यासू मनों की ‘वाणी’ की विचार वाली कामना पूरी होने लगी।

पिछली बेपरवाही के वक्त कई अनमतिए विचार भी गुरमति में आ मिले थे। जिनको सतिगुरु जी ने विद्या की दाति बख्शी हुई थी, उन्होंने पंथ हित में इस दाति को बरता और गुरमति व अनमति का ‘निर्णय’ करने के लिए भी कई पुस्तकें रची, जो लाभदायक साबित होती रहीं। पर यह ‘निर्णय’ का दौर आखिर इतना बढ़ने लग गया, कि कई विद्वान सज्जनों का सारा बल इसी में ही खर्च होने लगा, जिससे एक और जरूरी क्षेत्र बे–ध्याना ही छूट गया। जिस ‘गुरबाणी’ के आधार पर मनमति का प्रहार किया जा रहा था, धीरे-धीरे उस संबंधी ही कहीं-कहीं शक पड़ने लग पड़ा कि शायद इसमें भी मिलावट हो गई हो। ‘राग–माला’ का निर्णय कई हल्कों में बड़ा मजेदार बन गया, जिसका नतीजा ये निकला कि कुछ सज्जनों के मिलावट संबंधी शक और बढ़ते गए, और वे और-और कहीं के कहीं को अपने विचारों को दौड़ाने लगे। भाटों के सवैइयों पर भी शंके –इसी तरह के कई और करिश्मे शायद इसी ‘निर्णय–दौड़’ के नतीजे हैं, जो अब दुखदाई साबित हो रहे हैं।

मन की दौड़ भी एक अजीब खेल है। गुरमति–प्रचार का एक आशिक, प्रचार के बहाव में पड़ा हुआ किसी एक खास गुरमति–नियम को प्रचारने के लिए, दिन–रात गुरबाणी में से प्रमाण इकट्ठे किए जाता है। उसके अपने मन में बना हुआ विचार कि गुरमति इस तरह ही है ‘गुरबाणी’ से भी वह उसी रंग वाले प्रमाण ढूँढ देता है। इस दौड़ में उसको यह याद नहीं रहता कि कई बार मैं ‘गुरबाणी’ के पीछे–पीछे चलने की जगह ‘गुरबाणी’ के प्रमाणों को अपने घड़े हुए विचारों के पीछे–पीछे चलाने की जबरदस्ती कर रहा हूँ। गुरमति और मनमति का ‘निर्णय’ करने वाली इस दौड़ में भी बहुत कुछ ऐसा ही घटित हो गया है। सज्जनों को यह भूल ही गया कि वे जिस ‘वाणी’ पर विचार कर रहे हैं, उसकी ‘बोली’ आजकल की ‘पंजाबी बोली’ नहीं है।

किसी सुंदर पक्की बनी हुई इमारत को गिरा देने का प्रयास आसान है, पर वैसी ही नई इमारत उसारनी बहुत कठिन है। विद्वानों का फर्ज है कि इस ‘निर्णय’ वाली दौड़ को कुछ कम करके देखने की कोशिश करें कि कहीं वे किसी गलत पगडंडी पर तो नहीं पड़ गए। जो ‘दाति’ साहिब श्री गुरु अरजन देव जी हमें बख्श गए हैं, उसमें से ‘गुरमति’ तलाशना आपकी विद्वता होगी। उठाया हुआ एक भी गलत कदम बहुत समय तक के लिए दुखदाई हो जाया करता है। ‘विचार’ के समय विद्वानों का ये फर्ज है कि परस्पर विचार को आदर से देखें, और एक-दूसरे पर दुख देने वाली शब्दावली ना बरतें।

मिलावट की शंका करने वाले सज्जनों ने कुछ समय से भाटों के सवैईयों के प्रति श्रद्धा–हीन शब्द भी लिखने शुरू कर दिए हैं। उनकी सेवा में प्रार्थना है कि इतनी जल्दबाजी में कदम नहीं उठाना चाहिए, जिससे शायद कुछ पछतावा करना पड़े। यह जरूरी नहीं कि उनकी अब तक की की हुई विचार के अनुसार ये सिद्ध हो जाए कि ‘भटों के सवैईए’ मिलावट हैं। दूसरी तरफ, पंथ के विद्वान सज्जनों की सेवा में भी जोर से विनती है कि अपने शुभ विचारों के द्वारा इस ‘निर्णय’ संबंधी डाँवा–डोल रहे हृदयों की सहायता करें। नहीं तो, हरेक गुरसिख को प्रसिद्ध अंग्रेज के निम्न-लिखित शब्द चेते रखने चाहिए कि ये छोटी सी अ–श्रद्धा बढ़ती–बढ़ती आखिर भयानक रूप पकड़ लेगी। कवि टैनीसन लिखता है;

Unfaith in aught is want of faith in all:
It is the little rift within the lute.
That by and by will make the music mute.
And ever widening, slowly silence all.....—Tennyson

शक

गुर–रजा विच शक रता–भरि, श्रद्धा सभ गवाऐ।

सहजे सहजे तोड़ि गुरू तों, मनमुखु अंति कराए॥
वेखो! सोहणा साज, जिवें, जद हथि गवइए आवे॥
कढि कढि सुरां मिठियां उस चों (दिल–) तरबां पिआ हिलावे॥
बे–परवाहीओं साज ओस विच, चीरु जिहा जद पैंदा॥
निक्का ही इह रोगु, साज दा घुटि गला तद लैंदा॥
वेले सिर जे गायक उसदा चीर न बंद कराए॥
वधदा वधदा चौड़ा हो हो, सारा राग मुकाए॥

इसी ख्याल को मुख रख के सवैईयों का टीका 1930 में संगतों की सेवा में पेश किया गया था। पर वह कमजोर आवाज विद्वान गुरमुखों को प्रेरित करने में, कर्तार जाने, कामयाब हुई कि नहीं। अब वही प्रयत्न दोबारा आरम्भ किया गया है। इसमें निम्न-लिखित विषयों पर विचार की गई है;

भाव:

भटों के सवैईए गुरु अरजन साहिब जी ने खुद श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज करवाए।

भटों के सवैईयों का सिद्धांत गुरमति से मिलता है।

भट किस गुरु साहिब जी की शारीरिक हजूरी में हाजिर हुए? कब, कहाँ और कैसे?

कितने थे? इत्यादिक।

इस सारी विचार में केवल ‘गुरबाणी’ और गुरबाणी व्याकरण की सहायता ली गई है। पर इसमें कोई शक नहीं कि ये कठिन काम किसी नामवर विद्वान की कलम से होना चाहिए था। पिछली बार एक सज्जन जी ने गिला किया था कि ‘नई खोज और चाव’ में यह अनुचित प्रयत्न किया गया है। इस विनती के माध्यम से उस सज्जन जी को अंत पंथ के अन्य पुजनीय विद्वानों को विश्वास दिलवाया जाता है कि इसका कारण केवल यही खतरा है कि अगर किसी सज्जन व सोसाईटी को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में से किसी शब्द व वाणी पर काटा मारने की प्रेरणा करने में एक बार सफलता मिल गई, तो, ईश्वर जाने, इसके कितने ज्यादा हानिकारक नतीजे निकलें।

इस हालत में ये जरूरी लगा कि इस तुच्छ सी प्रेरणा के द्वारा विद्वान गुरमुखों का ध्यान इस ओर डालने का प्रयत्न किया जाए।

अगस्त, 1935                 साहिब सिंह
24, खालसा कालेज, अमुतसर।

प्रस्तावना

भटों के सवैईयों का टीका पहले पहल मैंने संन् 1930 में छापा था। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की बाणियों के टीके करने में मेरा सबसे पहला टीका ये भटों के सवइए ही थे। इसकी दूसरी ऐडीशन संन् 1945 में।

और कई बाणियों के टीके करने की वयस्तता में मैं भटों के सवईयों का चौथा संस्करण, वाणी के प्रेमियों के सामने पेश करने की ओर ध्यान ना दे सका। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की सारी वाणी का व्याकरण अनुसार टीका लिखने की भारी मेहनत ने मुझे और भी मजबूर किया कि अभी ये काम और पीछे रखा जाए।

मासिक पत्र ‘आलोचना’ के अगस्त 1961 के पर्चे में भटों के बारे में भाई–चारिक जान–पहचान के बारे में ज्ञानी गुरदिक्त सिंह ने एक बड़ा खोज भरा लेख प्रकाशित किया है। पाठकों की वाक्फियत के लिए उस लेख में धन्यवाद सहित भटों का हसब–नसब भी पेश किया जाएगा।

कई सज्जनों द्वारा कई बार भटों के सवईए के टीके की माँग कई सालों से आती रही है। मैं पाठकों से क्ष्मा माँगता हूँ कि उनको इतने लंबे समय तक इन्जार करना पड़ा है। मैं अपने पाठकों का धन्यवाद किए बिना भी नहीं रह सकता, जिनहोंने मेरी की हुई मेहनत में बहुत दिल–चस्पी ली है, और मुझे इस महान और मुश्किल काम में लगे रहने के लिए हौसला दिए रखा है। चौथी ऐडीशन लाहौर बुक शाप लुधियाना वालों द्वारा छापी गई है।

26 सितंबर,1961             साहिब सिंह
शहीद सिख मिशनरी कालज,         रिटायर्ड प्रोफैसर
रणजीत पुरा, अमृतसर           खालासा कालेज, अमृतसर।

भाग–1

भटों के बारे में भाईचारिक जान–पहिचान:

ज्ञानी गुरदिक्त सिंह जी ने मासिक पत्र ‘आलोचना’ के अगस्त 1961 के अंक में भटों के हसब–नसब के बारे में जो लेख लिखा है उसके अनुसार;

पंजाब के भट जाति के सारसुत ब्राहमण थे। ये अपनी उत्पक्ति कौशिश ऋषि से बताते हैं। ऊँची जातियों के ब्राहमण, भटों को अपने से नीच जाति के ब्राहमण समझते हैं। ये लोग सरस्वती नदी के किनारे पर बसे हुए थे। ये नदी पहले पिहोवे (जिला करनाल) के पास से बहती थी। जो भट नदी के इस पार बसते थे वे सारसुत, और, जो उस पार बसते थे वे गौड़ कहलवाने लग गए।

जिस सज्जन से ज्ञानी गुरदिक्त सिंह जी को भटों की बंसावली मिली, वे हैं भाई संत सिंह जी भट गाँव करसिंधू तहसील जींद के रहने वाले। सुल्तानपुर भादसों परगना लाडवा (जिला करनाल) और तलौढा परगणा जींद में सरस्वती नदी के किनारे के गाँवों में कितने ही भाट रहते हैं।

इन्हीं भाटों के कुछ खानदान यू.पी., एम.पी. में भी जा बसे हैं, और कुछ सहारनपुर के जगाधरी के इलाके में रहते हैं। इन सब भाटों के पास बहियां हैं, जिस पर वे अपने जजमानों की बँसावली लिखते चले आ रहे हैं।

भाट संत सिंह जी की पंजाब वाली वही (जिसको मोहरों वाली बही भी कहते हैं) के अनुसार भाट भिखा और टोडा, भाट रईऐ के पुत्र (सगे भाई) थे। उस बही से पता भी चलता है कि ये भाट सुल्तानपुर के रहने वाले थे।

बँसावली भाट भागीरथ से शुरू होती है। भागीरथ से नौवीं पीढ़ी में भाट रईया हुआ, जिसके छह पुत्र थे– भिखा, सेखा, तोखा, गोखा, चोखा और टोडा। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में जिस भाटों की वाणी दर्ज है, उनमें से मथुरा, जालप और कीरत ये तीन भाट भिखे के पुत्र थे। भाट सल्य और भल्य ये दो भाट भिखे के छोटे भाई सेखे के पुत्र थे। भाट बल्य भिखे के छोटे भाई तोखे का पुत्र था। भाट हरबंस भाट भिखें के भाई गोखे का पुत्र था। भाट कलसहार और गयंद भाट भिखें के भाई चोखे के पुत्र थे।

भाट रईए के पौत्र– भाट कीरत के पौत्र सिंघ सज गए थे (खालसा सज गए थे)। भिखा भाट गुरु अमरदास जी के वक्त सिख बना था। भाई गुरदास जी ने इसका नाम सतिगुरु अमरदास जी के सिखों में लिखा है।

पर कई विद्वान सज्जन भाटों की इस बँसावली को शक की निगाह से देखते हैं।

भाट कब गुरु साहिब के पास आए थे?

भाट हरबँस ने गुरु अरजन साहिब की स्तुति में दो सवैऐ लिखे थे। उनमें वह गुरु रामदास जी का इस प्रकार वर्णन करता है जिससे ये साफ सिद्ध हो जाता है कि जब भाट गुरु–दर पर हाजिर हुए थे, तब गुरु रामदास जी को ज्योति से ज्योति समाए अभी थोड़े ही दिन हुए थे। हरबंस लिखता है;

अजै गंग जलु अटलु, सिख संगति सभ नावै॥
नित पुराण बाचीअहि, बेद ब्रहमा मुखि गावै॥
अजै चवरु सिरि ढुलै, नामु अंम्रितु मुखि लीअउ॥
गुर अरजुन सिरि छत्रु, अपि परुमेसरि दीअउ॥
मिलि नानक अंगद अमर गुर, रामदासु हरि पहि गयउ॥१॥
देव पुरी महि गयउ, आप परमेश्वर भायउ॥
हरि सिंघासणु दीअउ, सिरी गुरु तह बैठायउ॥
रहसु कीअउ सुर देव, तोहि जसु जय जय जंपहि॥
असुर गए ते भागि, पाप तिन् भीतरि कंपहि॥
काटे सु पाप तिन् नरहु के, गुरु रामदासु जिन् पाइयउ॥
छत्रु सिंघासनु पिरथमी गुर अरजुन कउ दे आइअउ॥२॥ ....(सवईए महले पंजवे के)

भाट कहाँ से आए थे?

गुरु रामदास जी गोइंदवाल जा के ज्योति से ज्योति समाए थे। गोविंदवाल ब्यास दरिया के किनारे पर है।

गुरु का दीदार कर के जो आत्मिक आनंद भाटों को मिला था उसका जिक्र उन भाटों में से एक साथी भाट नल्य अपने स्वैयों में करता है और कहता है –नाम-अमृत पीने की मेरे अंदर चिरों से चाहत थी। जब मैंने गुरु के दर्शन किए मेरी वह तमन्ना पूरी हो गई, मेरा मन जो पहले दसों दिशाओं में भटकता फिरता था, दर्शन करके ठिकाने आ गया, और कई बरसों का दुख मेरे अंदर से दूर हो गया। वहीं भाट नल्य लिखता है कि ये दर्शन गोइंदवाल में हुए जो मुझे प्रत्यक्ष तौर पर बैकुंठ नगर दिख रहा है। लिखता है;

गुरू मुखु देखि, गुरू सुखु पायउ॥
रुती जु पिआस, पिऊस पिवंन की बंछत सिधि कउ बिधि मिलायउ॥
पूरन भौ, मन ठउर बसो, रस बासन सिउ, जु दहंदिसि धायउ॥
गोबिंद वालु, गोबिंद पुरी सम, जल्न तीरि बिपास बनायउ॥
गयउ दुखु दूरि, बरखन को, सु गुरू मुखु देखि गरू सुख पायउ॥६॥१०॥ (सवईए महले ४ चौथे के, नल्य)

पिछली विचार का निचोड़:

भाटों ने अपनी वाणी गुरु अरजन साहिब की हजूरी में उचारी थी। तब सतिगुरु जी गोइंदवाल में थे। गुरु रामदास जी ज्योति से ज्योति समा चुके थे, और उनके बाद गुरु अरजन साहिब जी को गुर–सिंघासन पर बैठे थोड़ा ही समय हुआ था।

सारे भाट इकट्ठे मिल के गुरु अरजन साहिब के पास आए थे

ऐतराज़, कि सारे भाट मिल के नहीं आए:

कुछ सज्जन भाटों के संबन्ध में विचार प्रकट करते हैं कि ये एक साथ मिल के गुरु अरजन साहिब जी के पास नहीं आए थे, अलग-अलग समय में हुए हैं और हरेक सतिगुरु जी के समय में हुए थे और हरेक सतिगुरु जी के समय में (जैसे–जैसे उन्होंने वाणी रची है) आए हैं। अपने इस विचार की प्रौढ़ता में वे कहते हैं कि;

पहली दलील:

ये नहीं हो सकता कि गुरु अरजन साहिब जी के सामने खड़े हो के, कोई भाट गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद साहिब जी, गुरु अमरदास जी या गुरु रामदास जी को संबोधन कर के स्तुति कर रहा हो। सवईऐ महला पहले के में से जब कवि कहता है:

पाताल पुरी जैकार धुनि, कबि जन कल्य वखाणिओ॥
हरि नाम रसिक नानक गुर, राजु जोगु तै माणिओ॥६॥

यहाँ प्रत्यक्ष तौर पर कहा है: हे गुरु नानक! तूने राज–जोग पाया है।

सवईऐ महला दूजे के में–

तै तउ द्रिढ़िओ नामु अपारु....॥ ...

तू ता जनिक राजा अउतारु, सबद संसारि सारु,

रहहि जगत्र, जल पदम बीचार॥ ...॥३॥

स्पष्ट तौर पर गुरु अंगद साहिब जी को कहा है: हे गुरु! तू जगत में इस तरह रहता है जैसे जल में कमल।

इसी तरह बाकी गुरु साहिबान जी की स्तुति में उचारे हुए सवईयों में से प्रमाण दिए जा सकते हैं जहाँ एक भाट गुरु अमरदास जी को संबोधन करता है, दूसरा गुरु रामदास जी को।

दूसरी दलील:

भाई गुरदास जी की 11वीं वार की 21वीं पउड़ी में लिखा है कि ‘भिखा’ और ‘टोडा’ सुल्तानपुर के रहने वाले भाट थे और सतिगुरु अमरदास जी के सिख थे।

इस ऐतराज़ संबन्धी निर्णय:

इस ऐतराज़ संबन्धी, सबसे पहले भाट ‘कलसहार’ की अपनी वाणी ही काफी सबूत है कि वे इकट्ठे मिल के आए थे। इतिहास की खोज करने वाले सज्जनों के वास्ते ये बात नोट करनी मजेदार होगी कि किसी–किसी भाट ने अपने आने के वक्त, जगह आदि संबंधी थोड़ी–बहुत जानकारी दे दी है; जैसे;

समय:

सवईऐ महले पंजवें के आखिर में भाट ‘हरिबंस’ खबर देता है कि जब वह सतिगुरु जी के पास आए थे, गुरु रामदास जी को ज्योति से ज्योति समाए थोड़े ही दिन हुए थे और गुरु अरजन साहिब जी गुर–सिंघासन पर बैठे ही थे।

गोइंदवाल:

सवईऐ महले चउथे के में भाट ‘नल्य’ बताता है कि उन दिनों सतिगुरु जी गोइंदवाल साहिब थे। अगर यह दलील मान ली जाए कि जिस भाट ने जिस गुरु की स्तुति की है, वह उसी गुरु की हजूरी में आ के स्तुति कर रहा है, तो, भाट ‘नल्य’ ‘श्री गुर रामदास पुरे’ (श्री अमृतसर जी) आता। इतिहास साफ बताता है कि गोइंदवाल साहिब केवल गुरु अमरदास जी रहे हैं। गुर–गद्दी पर बैठने के बाद गुरु रामदास जी गोइंदवाल साहिब से चले आए थे और ज्योति से ज्योति समाने के वक्त ही वहाँ गए थे। किसी भाट ने करतारपुर साहिब, खडूर साहिब, अथवा श्री अमृतसर जी का जिक्र नहीं किया, केवल भाट ‘नल्य’ ने गोइंदवाल साहिब का जिक्र किया है, साफ लिखा है: बिआसा दरिया के किनारे पर। फिर, यह जिक्र भी गुरु रामदास जी की स्तुति करने के संबन्ध में है। इससे साफ सिद्ध होता है कि अकेला भाट ‘नल्य’ केवल गुरु अमरदास जी की सेवा में गोइंदवाल साहिब हाजिर नहीं हुआ।

पाँचों का जिक्र:

सवईऐ महले पंजवें के में, भाट ‘कल्यसहार’ पाँचों ही गुर–महलों का जिक्र करता है और कहता है कि सतिगुरु जी की स्तुति सारे कवियों ने की है। इस भाट के संबन्ध में ये बात याद रखने वाली है कि इसने पाँचों ही गुर–महलों की स्तुति की है; सारे भाटों में से सबसे ज्यादा वाणी इसी ही भाट की है, हरेक महले के सवईयों में सबसे पहले इसी भाट की वाणी है। ऐतिहासिक खोज–कसवटी पर रखने से साफ सिद्ध है कि भाट ‘कल्यसहार’ भाटों के इस जत्थे का जत्थेदार था। उसका यह कहना कि सारे भाटों ने स्तुति की है इस बात का सबूत है कि भाट एक साथ मिल के गुरु अरजन देव जी के पास गोइंदवाल साहिब आए थे। भाट ‘कल्यसहार’ कहता है;

खेलु गूढ़उ कीअउ हरि राइ,

संतोखि समाचर्उ, बिमल बुधि सतिगुरि समाणउ॥
आजोनी संभविअउ, सुजसु कल्य कवीअणि बखाणिअउ॥
गुरि नानकि अंगदु वर्उ, गुरि अंगदि अमर निधानु॥
गुरि रामदासि अरजुनु वर्उ, पारसु परसु प्रमाणु॥४॥

ये जरूरी नहीं:

किसी गुरु-व्यक्ति को संबोधन करके भाट का स्तुति करना यह साबित नहीं कर सकता कि वह भाट अवश्य उसी सतिगुरु जी की शारीरिक हाजरी में खड़े हो के वाणी उचार रहा है। यदि भाट ‘कल्यसहार’ गुरु नानक देव जी को कह रहा है: ‘राजु जोगु तै माणिओ’ यह जरूरी नहीं कि वह गुरु नानक देव जी के पास खड़ा हो। इसी तरह अगर भाट ‘कीरत’ गुरु अमरदास जी को कह रहा है;

गुर अमरदास, कीरतु कहै, त्राहि त्राहि तुअ पा सरण॥

ये जरूरी नहीं कि भाट ‘कीरत’ गुरु अमरदास जी के सामने खड़ा हो के कह रहा हो।

भाटों की वाणी को ध्यान से पढ़ने और ऐतिहासिक निशाने को आँखों के सामने रखने से ये साफ प्रकट हो जाता है कि ये सारे केवल गुरु अरजन साहिब जी की हजूरी में सवईऐ उचार रहे हैं।

देखे! गुरु नानक देव जी को संबोधन कर के:

भाट ‘कल्यसहार’ महले पहले के सवईयों में केवल गुरु नानक देव जी की स्तुति करते हुए कहता है;

सतजुगि तै माणिओ, छलिओ बलि बावन भाइओ॥
त्रेतै तै माणिओ, रामु रघुवंसु कहाइओ॥
दुआपरि क्रिसनि मुरारि, कंसु किरतारथु कीओ॥
उग्रसैण कउ राजु, अभै भगतह जन दीओ॥
कलिजुगि प्रमाणु नानक अंगदु अमरु कहाइओ॥
श्री गुरू राजु, अबिचलु अटलु, आदि पुरखि फुरमाइओ॥७॥

अगर ये सवईया ‘कल्यसहार’ ने गुरु नानक देव जी की शारीरिक हजूरी में उचारा होता, तो वह गुरु अंगद साहिब जी और गुरु अमरदास जी का जिक्र ना कर सकता। इस सवईऐ में साफ तौर पर भाट गुरु नानक साहिब जी को संबोधन करता है, पाँचवीं तुक को ध्यान से पढ़ के, गुरबाणी–व्याकरण का ख्याल रख के, पदार्थ कर के देखें, इस प्रकार बनते हैं;

कलजुगि–कलजुग में।

प्रमाण–जाना माना, प्रसिद्ध।

नानक–हे गुरु नानक!

अर्थ: हे गुरु नानक! कलिजुग में भी तू ही सामर्थ्य वाला है, तूने ही अपने आप को गुरु अंगद और अमरदास कहलवाया है।

ज्योति से ज्योति समा चुके गुरु रामदास जी को संबोधन:

महले पँजवें के सवईयों में भाट ‘हरिबंस’ अपने पहले सवईए में कहता है कि गुरु रामदास जी शारीरिक तौर पर तो ज्योति से ज्योति समा गए हैं, पर उनका ‘जसु’ जगत में पसर रहा है, सो कौन कह सकता है कि वे अब मौजूद नहीं है;

मिलि नानक अंगद अमर गुर, गुरु रामदासु हरि पहि गयउ॥
हरिबंस, जगति जसु संचर्उ, सु कवणु कहै, स्री गुरु मुयउ॥1॥

(नोट: गुरबाणी व्याकरण की रम्ज़ को पहचानने वालों के लिए पहली तुक के शब्द ‘गुर और ‘गुरु’ खास तौर पर मजेदार हैं)।

गुरु रामदास जी का ज्योति से ज्योति समाना बता के, दूसरे सवैये में फिर वही बात दोहराते हैं, और कहता है;

देव पुरी महि गयउ, आपि परमेस्वर भायउ॥
हरि सिंघासणु दीअउ, सिरी गुरु तह बैठायउ॥
रहसु कीअउ सुर देव, तोहि जसु जय जय जंपहि॥
असुर गए ते भागि, पाप तिन् भीतरि कंपहि॥
काटे सु पाप तिन् नरहु के, गुरु रामदासु जिन् पाइयउ॥
छत्र सिंघासनु पिरथमी, गुर अरजुन कउ दे आइअउ॥१॥

इस सवैऐ की हरेक तुक को ध्यान से विचारो। पहली दो तुकों में भाट ‘हरिबंस’ बताता है कि गुरु रामदास जी ‘देवपुरी’ में चले गए हैं, ‘हरि’ ने उनको सिंघासन दिया है। यहाँ शब्द ‘गुरु’ को भाट ‘अन्य-पुरुष’ (Third Person) में प्रयोग करता है। पर तीसरी तुक में गुरु रामदास जी को संबोधन करके कहता है: ‘तोहि जसु’, भाव, तेरा जस, हे गुरु रामदास जी! तेरे देवपुरी में पहुँचने पर देवताओं ने खुशी मनाई है, तेरा जस गा रहे हैं और जय–जयकार कह रहे हैं।

यह तुक उच्चारण के वक्त भाट ‘हरिबंस’ गुरु रामदास जी की शारीरिक हजूरी में नहीं है, वे खुद ही कह रहे हैं कि वे ज्योति से ज्योति समा चुके हैं फिर भी उनको संबोधन करके ये तीसरी तुक उचारता है।

उपरोक्त दोनों प्रमाण सामने होते हुए, अब ये कहने की गुँजायश नहीं रह गई कि हरेक भाट हरेक गुरु-व्यक्ति की शारीरिक हजूरी में आ के स्तुति करता आ रहा है, और एक साथ मिल के नहीं आए थे।

भाई गुरदास जी वाला प्रमाण भी अब इस ऐतराज की सहायता नहीं करता। सुल्तानपुर वाले ये भाट, भिखा’ और ‘टोडा’ कोई और होंगे। एक बिरादरी अथवा वंश में एक नाम वाले कई मनुष्य हो सकते हैं और होते हैं।

अगर ये गुरु अमरदास जी के वक्त के ही सिख थे, तो भी इस बात के मानने के रास्ते में कोई रोक नहीं पड़ सकती कि भिखा बाकी के भाटों के साथ मिल के गुरु अरजन साहिब के पास आया था।

भाग–2

भाटों के सवईऐ

गुरु अरजन साहिब ने खुद ही दर्ज करवाए

अलग-अलग शीर्षक

‘खसम’ की यह ‘वाणी’ (अर्थात अकाल-पुरख ईश्वर रूप पति का ये वाणी रूप संदेश) किस–किस गुरु-व्यक्ति को ‘आई’– ये बात समझने के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने इस ‘वाणी’ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज करने के वक्त हरेक शब्द, अष्टपदी, छंद, वार आदिक के पहले इस फर्क को बताने वाला शीर्षक लिख दिया। हरेक गुरु-व्यक्ति को ‘आई’ ‘वाणी’ के अंत में नाम केवल ‘नानक’ है। सो, अगर ये शीर्षक ना लिखे जाते, तो यह पहचानना असंभव होता कि कौन सा शब्द किस गुरु-व्यक्ति ने उचारा।

शीर्षकों की ऐतहासिक महत्वता;

‘आसा दी वार सटीक’ के आरम्भ में इस बात पर विस्तार से विचार करके बताया गया है कि श्ब्द ‘गुरु-व्यक्ति’ के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने शब्द ‘महला’ बरता है। सो, हरेक शब्द, अष्टपदी आदि के शुरुवात में पहले ‘राग’ का नाम लिख के फिर ‘महला १’, ‘महला २’, ‘महला ३’, ‘महला ४’ आदि पद लिखे हैं।

शीर्षकों पर और विचार:

इस चर्चा से हमने ये समझ लिया है कि ऐतिहासिक तौर पर ये शीर्षक बहुत जरूरी हैं। इसलिए, आईए इन पर थोड़ा सा वक्त खर्च कर लें:

(अ) . जितनी वाणी ‘रागों’ के अनुसार दर्ज की गई है, उसमें पहले ‘राग’ का नाम दे के आगे ‘गुरु-व्यक्ति’ का ‘अंक’ दिया गया है; जैसे;

सिरी रागु महला १

कानड़ा महला ४

जैजावंती महला ९; इत्यादिक

(आ) . रागों के बाद जो जो वाणी दर्ज की गई है, उनके शीर्षक यूँ हैं;

सलोक सहसक्रिती महला १;

सलोक सहसक्रिती महला ५;

महला ५ गाथा;

फुनहे महला ५;

चउबोले महला ५;

सलोक वारां ते वधीक॥ महला १;

सलोक महला ३;

सलोक महला ४;

सलोक महला ५;

सलोक महला ९;

मुंदावणी महला ५;

सलोक महला ५;

जैसे ‘रागों’ वाली बाणियों के आरम्भ में ‘राग’ का नाम दे के फिर ‘महला १’, ‘महला ३’ आदि पद बरते गए हैं, वैसे ही ‘रागों’ के आगे केवल वाणी का नाम देकर ‘महला१’, ‘महला ३’ आदि लिखा गया है। यहाँ पाठक सज्जन इस बात पर खास तौर से ध्यान दें कि ‘गुर-व्यक्ति’ के वास्ते केवल ‘महला’ ही बरता गया है।

सवईयों के शीर्षक में विशेष:

आईए, अब देखें ‘सवईयों’ के शीर्षक को, जो यूँ है;

“सवये स्री मुख बाक् महला ५॥ ”

पीछे हम देख आए हैं कि साधारण तौर पर ‘गुर-व्यक्ति’ के लिए शब्द ‘महला’ ही बरता जाता है, पर सवईयों में एक अतिरिक्त विशेष पद् ‘श्री मुख बाक्य’ भी मिलता है।

ये अतिरिक्त विशेष पद् क्यों?

इस का उक्तर तलाशने के लिए, आओ, उस ‘वाणी’ का शीर्षक देखें, जिसको भाटों के सवईये कहा जाता है। वे शीर्षक इस प्रकार हैं;

सवईये महले पहिले के १;

सवईये महले दूजे के २;

सवईये महले तीजे के ३;

सवईये महले चउथे के ४;

सवईये महले पंजवें के ५;

(नोट: यहाँ पाठकजन अंक १,२,३,४,५ को उच्चारण करने का तरीका नोट कर लें। शब्दों में लिख के प्रत्यक्ष बता दिया है कि ‘इक’, ‘दो’, ‘तिंन’ की जगह ‘महिला’, ‘दूजा’, ‘तीजा’ आदि कहना है, जैसे सतिगुरु जी की अपनी उचारी वाणी में। यह ‘सूचना’ जानकारी अपने आप में प्रकट करती है कि इन शीर्षकों के द्वारा इस ‘जानकारी सूचना’ को देने वाले गुरु अरजन देव जी खुद ही हैं।)

गुरु साहिब ने अपने मुखारबिंद से उचारी ‘वाणी’ में से केवल सवईयों के शीर्षक में ही क्यों ‘श्री मुख बाक्’ पद बरता– इस बात को समझाने के लिए उस शीर्षक में से वह विशेष पद निकाल के इस को आखिरी शीर्षक से तुलना कर के देखें;

सवये (स्री मुख बाक्) महला ५;

सवइऐ महले पंजवें के ५;

सतिगुरु जी अपने ही लिखे तरीके के अनुसार उपरोक्त दोनों शीर्षकों को हम इस तरह पढ़ेंगें;

सवये महला पंजवां ५;

सवईये महले पंजवें के ५;

पाठक–जन देख लें कि इन दोनों शीर्षकों को पढ़ के कितना बड़ा भुलेखा पड़ने की गुंजायश है। दोनों का मतलब एक ही लगता है।

जो, सज्जन इस विचार को जरा ध्यान से पढ़ते आए हैं, उनको निर–संदेह पिछले उठाए हुए प्रश्न का उक्तर मिल गया होगा। प्रश्न ये था कि ‘सवईयों’ के शीर्षक में और शीर्षकों से अतिरिक्त विशेष पद् ‘स्री मुख बाक्’ क्यों बरता? इसका उक्तर हमें मिला है कि अगर हजूर ने केवल अपने ही मुखारबिंद से उचारे हुए सवईऐ दर्ज किए होते, तो इस विशेष पद् की आवश्यक्ता नहीं थी। पर ‘भाटों के सवईऐ’ भी सतिगुरु जी ने खुद ही दर्ज किए, और उनके शीर्षकों का फर्क बताने के लिए मुखारबिंद की वाणी के शीर्षक में पद् ‘स्री मुख बाक्’ लिखा दिया।

कविता के दृष्टिकोण से दो–मात्रा वाले अक्षर:

‘कविता’ में कई बार ‘छंद’ की चाल ठीक रखने के लिए शब्दों की लग–मात्राओं को बढ़ाना पड़ जाता है। ‘गुरु’ मात्रा को ‘लघु’ कर देना, या ‘लघु’ को ‘गुरु’ कर देना– ये रीति पंजाबी कविता की पुरानी चली आ रही है। गुरबाणी के वर्णिक रूप को खोज से पढ़ने के चाहवानों के लिए यह रीति परखनी भी बहुत मजेदार होगी।

(अ) . ‘ु’ से अंत, अक्षर एक मात्रा वाला है, जैसे शब्द ‘भुलाइआ’ में ‘भू’ की एक मात्रा है। जब इसे दो–मात्रक करने की जरूरत पड़ी है, तो ‘ु’ की जगह ‘ो’ बरता गया है।

(आ) . ‘ो’ से अंत अक्षर दो–मात्रक है, जैसे ‘गोपाल’ में ‘गो’, जब इसे एक-मात्रक किया गया, तो ‘ु’ बरता गया है।

पर कई जगहों पर शब्द की असल शकल असल बनावट को कायम रखा गया है; वहाँ एक ही अक्षर के साथ दोनों मात्राओं (‘ो’ और ‘ु’) बरते गए हैं। इस बात को समझने के लिए, आओ, थोड़े से प्रमाण देख लें;

गुर परसादि परम पदु पाइआ॥
गुण गुोपाल दिनु रैनि धिआइआ॥
तूटे बंधन पूरन आसा॥
हरि के चरण रिद माहि निवासा॥३॥३५॥४८॥ .... (भैरउ महला ५)

यहाँ पर असली शब्द ‘गोपाल’ है, पर इसका पाठ ‘गुपाल’ करना है।

मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ॥
ममता लाइ भरमि भुोलाइआ॥२॥५॥ ..... (भैरउ महला ३)

यहाँ असली शब्द ‘भुलाइआ’ है, पाठ ‘भोलाइआ’ करना है।

नही दोख बीचारे पूरन सुख सारे, पावन बिरदु बखानिआ॥
भगति वछलु सुनि अंचलुो गहिआ, घटि घटि पूर समानिआ॥
सुखसागरुो पाइआ सहज सुभाइआ, जनम मरन दुख हारे॥
करु गहि लीने नानक दास अपने, राम नाम उरि हारे॥४॥१॥ .... (केदारा महला ५)

यहाँ असली शब्द ‘अंचलु’ और ‘सुखसागरु’ है, पर इनका पाठ ‘अंचलो’ और ‘सुखसागरो’ करना है।

चउथा पहरु भइआ, दउतु बिहागै राम॥
तिन घरु राखिअड़ा, जुो अनदिनु जागै राम॥४॥२॥ .... (तुखारी महला१)

यहाँ असली शब्द ‘जो’ है, पर इसका पाठ ‘जु’ करना है।

जिह ठाकुरु सुप्रसंनु भयुो सतसंगति तिह पिआरु॥
हरि गुरु नानक जिन् परसिओ तिन् सभ कुझ कीओ उधारु॥६॥ (सवये स्री मुखबाक् महला ५)

यहाँ असली शब्द ‘भयुो’ है, पर इसका पाठ ‘भयु’ करना है।

प्रहलाद कोठे विचि राखिआ, बारि दीआ ताला॥
निरभउ बालकु मूलि न डरई, मेरै अंतरि गुर गोपाला॥
कीता होवै सरीकी करै, अनहोदा नाउ धराइआ॥
जो धुरि लिखिआ सुो आइ पहुता, जन सिउ वादु रचाइआ॥७॥१॥२॥

(भैरउ महला ३ घरु २, असटपदीआ)

यहाँ असली शब्द ‘सो’ है, पर इसका पाठ ‘सु’ है।

कोटि गिआनी कथहि गिआनु॥ कोटि धिआनी धरत धिआनु॥
कोटि तपीसर तप ही करते॥ कोटि मुनीसर मुोनि महि रहते॥७॥२॥५॥ (भैरउ महला ५, असटपदीआ)

यहाँ असली शब्द ‘मोनि’ है, पर इसका पाठ ‘मुनि’ है।

सुोइन कटोरी अंम्रित भरी॥ लै नामै हरि आगै धरी॥२॥३॥ यहाँ असली शब्द ‘सोइन’ है, पर इसका पाठ ‘सुइन’ है।

इस किस्म के कई और प्रमाण पाठक–जन स्वयं ढूँढ सकते हैं।

ध्यान योग्य बातें:

हमने यहाँ इस अनोखी बनावट के संबन्ध में निम्न-लिखित बातों की तरफ ध्यान देना है;

(अ) . उच्चारण के वक्त केवल एक ही मात्रा उचारी जा सकती है, चाहे ‘ो’ उचारो, चाहे ‘ु’। दोनों इकट्ठी उच्चारण असंभव हैं।

(आ) . शब्दों के बहुत सारे व्याकर्णिक रूप तो संस्कृत आदि बोलियों में से बदले हुए रूप में मिल रहे हैं, पर यह दोहरी ‘मात्रा’ उन बोलियों में नहीं मिलती। यह रीति श्री गुरु अरजुन देव जी की अपनी जारी की हुई है।

(इ) . भाटों ने श्री गुरु अरजन साहिब जी की हजूरी में अपनी वाणी गुर–महिमा में उचार के सुनाई थी। उच्चारण के समय वह किसी जरूरी जगह पर ये दोनों मात्राएं इकट्ठी नहीं इस्तेमाल कर सकते थे। दो ‘मात्राएं’ केवल लिखने के वक्त ही आ सकती हैं।

पर ‘सवईऐ महले तीजे’ के में आखिरी सवईया निम्न-लिखित तरीके से ‘बीड़’ में दर्ज है;

घनहर बूँद बसुअ रोमावलि, कुसम बसंत गनंत न आवै॥
रवि ससि किरणि उदरु सागर को, रंग तरंग अंतु को पावै॥
रुद्र धिआन गिआन सतिगुर के, कबि जन भल्य उनह जुो गावै॥
भले अमरदास गुण तेरे, तेरी उपमा तोहि बनि आवै॥1॥22॥ ... (भल्य भाट)

यहाँ तीसरी तुक में असली शब्द ‘जो’ है, पर इसका पाठ ‘जु’ करना है।

इस दोहरी ‘मात्रा’ का प्रयोग भी साफ प्रकट करता है कि भाटों की वाणी भी ‘बीड़’ में दर्ज करने वाले वही हैं, जिनकी ये खोज है, और जिन्होंने श्री मुख–वाक वाणी में यह रीति बरती है।

भाग–3

भाटों की गिनती

गिनती बारे मतभेद:

भाटों की गिनती संबन्धी मतभेद चला आ रहा है: 10,11,13,17 और 19। सिख इतिहास के पुराने पुस्तक भाटों की गिनती 17 देते हैं, पर इनका आपस में नामों के संबन्धी कहीं-कहीं मतभेद है। अगर सारे ख्यालों वालों के मत अनुसार भाटों के नाम इकट्ठे किए जाएं, तो निम्न-लिखित बनते हैं;

(1) कलसहार, (2) जालप, (3) कीरत, (4) भिखा, (5) सल, (6) भल्य, (7) नल्य, (8) मथुरा, (9) बल्य, (10) गयंद, (11) हरिबंस, (12) दास, (13) कल्य, (14) जल्य, (15) जल्न, (16) टल्, (17) सेवक, (18) सदरंग, (19) परमानंद, (20) पारथ, (21) नल्य ठकुर, (22) गंगा।

जब किसी ख्याल संबन्धी मतभेद हो, तो विचारवानों का मिल के विचार तब ही हो सकता है अगर सारे एक-दूसरे के ख्याल को ठंडे–दिल से सुने और विचारें। पर अगर कोई पक्ष दूसरों को कड़वा वचन बोल के अपने ख्याल थोपने चाहे, तो इस तरह सांझा विचार नहीं पैदा हो सकता।

सवईऐ सटीक (रूहानी बाण नं: 1) की पहली एडीशन छपने पर एक सज्जन जी ने पंथ की एक अखबार में यूँ लिखा– ‘इस मतभेद को मिटाने के लिए एक व्यापक नियम बताने की बड़ी जरूरत थी, कि इतने में प्रोफेसर साहिब जी का ‘रूहानी बाण’ नामक भाटों के सवईयों का टीका प्राप्त हुआ, जो ठीक बाण का ही काम कर गया; क्योंकि आगे कई टीकाकारों या खोजियों के बिरथा मतभेद से दुखी हुई आत्माओं पर इस झगड़े के कारण जो चोटें लगी थीं, उन पर ये बाण काफी जख़्म कर गया; अर्थात, इन्होंने अपनी नई खोज के चाव में भाट–वाणी की रचना की तरतीब को ना समझते हुए भाटों की गिनती कुल 11 ही बताई है। बाकियों की हस्ती नहीं मानी।’

इस सज्जन जी के व्यापक नियम:

इस सज्जन जी ने नीचे लिखे व्यापक नियम लिखे हैं, जिनके द्वारा भाटों की गिनती इनके ख्याल अनुसार, ठीक–ठीक की जा सकती है;

जहाँ किसी अकेले भाट की वाणी है, वहाँ बड़ा अंक ही चला जा रहा है।

जहाँ बहुत सारे भाटों का ‘वर्ग’ अथवा ‘गण’ है, वहाँ भी बड़ा अंक एकसार चला जाता है। जैसे महला २ के ‘कल्य’ और ‘टल्’ की वाणी आदि में।

जब एक भाट के मातहित हो के उसके साथ दूसरे भाट आते हैं तो पहले भाट की वाणी का छोटा अंक बड़े अंक के अंदर चलता है; दूसरों की वाणी के अंक उपरोक्त छोटे अंक के भी अधीन और अंक कर के लिखे जाते हैं।

झमेला फिर भी टिका रहा:

इन तीन व्यापक नियमों पर अगर ध्यान से विचार किया जाए, तो यूँ दिखता है कि ये नियम होते हुए भी मिलान अभी खत्म नहीं हो सका। पहले दो नियमों में लिखा है कि: ‘बड़ा अंक एकसार चला जाता है’ चाहे अकेले भाट की वाणी है और चाहे बहुत सारे भाटों का ‘वर्ग’ या ‘गण’ है। सो, यह नियम होते हुए भी कोई कहेगा कि एक भाट की वाणी है और कोई कहेगा कि बहुत भाटों का ‘वर्ग’ उचार रहा है। आखिर निर्णय कौन करेगा? अब लीजिए दूसरे और तीसरे नियम को। यहाँ इस बात का फैसला कौन करेगा कि ये सारे भाट ‘गण’ और ‘वर्ग’ की हैसियत में हैं या एक-दूसरे के मातहित?

नियम नं: 2 में ‘गण’ ‘वर्ग’ संबंधी खुद मिसाल देते हैं कि ‘महला २ के कल्य और टल् की वाणी में’ कलसहार, कल्य और टल्य का ‘वर्ग’ या ‘गण’ है, ‘इसलिए बड़ा अंक एकसार चला आ रहा है’। पर इससे पहले ‘वर्ग’, ‘गण’, ‘जूथ आदि शबदों की व्याख्या करते हुए खुद लिखते हैं: ‘इसी तरह गुरु महाराज के हजूर भी ठाठ बाँधने के लिए अपनी हमेशा की मर्यादा के अनुसार बहुत सारी उपमाएं भाटों ने मिल के, अर्थात, ‘वर्ग’ और ‘गण’ बना के की, जिसका सबूत उनकी वाणी में साफ तौर पर बहुत जगह मिलता है, जैसे महला २ के सवईऐ नं: 10 में कलसहार के मातहित टल् जी बोलते हैं।’

सो, देख लीजिए, कि व्यापक नियम देने वाले सज्जन जी के अपने ही मन में झमेला पड़ गया है। अगर ‘टल्’ जी ‘कलसहार के मातहित; बोल रहे हैं तो नियम नं: 3 के अनुसार अंक छोटे बड़े चाहिए थे।

वहीं आप लिखते हैं: ‘जब बहुत सारे भाट कोई स्तुति करें तो पहले एक शुरू करता है; फिर बारी–बारी से दूसरे मिलके छंद कहते हैं, कभी-कभी आखिरी छंद या तुक सब एक साथ बोलते हैं।’

आप जी के इस कथन पर विचार करने से पहले आप की विचार के अनुसार बताए गए 19 भाटों के नाम दिए जाने जरूरी हैं; (1) कलसहार, (2) कल्य, (3) टल्, (4) जालप, (5) जल्य, (6) कीरत, (7) भिखा, (8) सल्य, (9) भल्य, (10) कलठकुर, (11) जलन, (12) दास, (13) सेवक, (14) परमानंद, (15) गयंद, (16) मथुरा, (17) बल्य, (18) पारथ, (19) हरिबंस।

अजब तमाशा:

इस संबंध में आप लिखते हैं: “सबसे ज्यादा तमाशा ये है कि म: 4 के 10 वें छंद की आखिरी दो तुकों के बाद पहली के कर्ता ‘भल्य’ और पिछली का कर्ता ‘कल्य’ है, यथा प्रमाण;

आजोनीउ भल्य अमलु, सतिगुर संगि निवासु॥
गुर रामदास, कल्चरै, तुअ सहज सरोवरि बासु॥10॥

इस पूर्वोक्त विचार से सिद्ध होता है कि भाट गुरु साहिब के पास मिल के भी आए थे और एक-एक करके भी।”

पर, ये कैसे?

‘मिल के भी आए और एक-एक करके भी’– इस कथन के अनुसार ये प्रतीत हुआ कि भाट हरेक गुरु-व्यक्ति की हजूरी में आए। पर कई भाट ऐसे हैं, जिनहोंने गुरु अरजन साहिब की उपमा में कुछ भी नहीं उचारा; और अगर उन्होंने गुरु अरजन साहिब की जगह केवल गुरु अमरदास जी अथवा गुरु रामदास जी की उपमा की, और आए भी अकेले–अकेले, तो प्रत्यक्ष है कि वे गुरु अरजन साहिब जी के पास नहीं आए; जैसे भाट भिखा, कीरत, गयंद आदि। गुरु अरजन साहिब पास आने वाले तो रह गए केवल कलसहार, कल्य, मथुरा और हरिबंस, भाव, भंज भाट।

एक और झमेला:

पर आप की ये दलील और विचार एक और झमेले में डाल देती है। आप के ख्याल अनुसार महले पहले की स्तुति केवल भाट ‘कल्य’ ने की है; उसके साथ ना कोई और भाट ‘गण’ या ‘वर्ग’ बनाने वाला था और ना उसके मातहित कोई और भाट। इस तरह वह आया भी गुरु नानक साहिब के पास ही होगा; पर, पढ़ें सवईया नं: 7–

सतजुगि तै माणिओ, छलिओ बलि, बावन भाइओ॥
त्रेतै ते माणिओ, रामु रघुवंसु कहाइओ॥
दुआपरि क्रिसन मुरारि, कंसु किरतारथु कीओ॥
उग्रसैण कउ राजु, अभै भगतह जन दीओ॥ ...
स्री गुरू राजु अबिचलु अटलु आदि पुरखि फुरमाइओ॥

यहाँ उसको अगले गुरु साहिबानों के नाम कैसे पता लग गए?

नया झमेला

पीछे आप ‘ज्यादा तमाशे’ वाली बात कह आए हैं कि एक सवईए में तीसरी तुक भाट ‘भल्य’ की और दूसरी ‘कल्य’ की है पर यहाँ एक नया झमेला पड़ गया कि पहली दो तुकें किसकी रची हुई हैं।

देखने वाली बात और है

आप का ये कथन ठीक है कि रागियों की तरह किसी एक सवईऐ या तुक को अकेला भाट, दो भाट या ज्यादा भाट ठाठ बाँधने के लिए सुना सकते हैं और सुनाते थे। पर यहाँ ये विचार नहीं कि सुनाने के लिए भाट क्या तरतीब बरतते थे। देखना तो ये है कि कोई सवईया या तुक रचना किस की है। अगर आप वाला ख्याल ठीक ही मान लिया जाए, तो आप के ‘सेवक’ और ‘दास’ दो भाट होते हुए नीचे लिखी तुक दोनों ने कैसे रची अथवा खुद इसका कर्ता ‘सेवक’ को क्यों मानते हैं?

दानि बडौ, अतिवंतु महाबलि, सेवकि दासि कहिओ इहु तथु॥
ताहि कहा परवाह काहू की, जा कै बसीसि धरिओ गुरि हथु॥4॥49॥ (सवईए महले चउथे के)

‘व्यापक नियम’ यहाँ भी नकारा:

भाटों ने वाणी केवल उचारी थी, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अंक लगा के दर्ज कराने वाले श्री गुरु अरजन देव जी थे। सो, जो नियम आप ने भाट–वाणी के अंकों पर बरते हैं, वही व्यापक नियम स्री मुख वाक महला ५ पर बरते जाने चाहिए। आओ, देखें आप का नियम नं: 3। अगर इसको (दूसरे) सवईऐ श्री मुख बाक् महले ५ पर बरतें, तो यह नियम भी रह जाता है, क्योंकि यहाँ छोटे–बड़े अंक तो मौजूद हैं, पर उचारने वाले एक-दूसरे के मातहित कोई नहीं हैं। देखें सवईया नं: 1/10/ और 2/ 11

ना 19, ना 17

भाटों की ‘19’ गिनती संबंधी व्यापक नियमों पर विचार काफी लंबी हो गई है, इसलिए इसे बंद किया जाता है। अगले सफों में आवश्यक्ता अनुसार साथ-साथ ही बाकी का जिक्र किया जाएगा।

प्रयाय पं: सुते प्रकाश, श्री गुरु ग्रंथ कोष, वाणी ब्यौरा, सूरज प्रकाश आदि सारे ग्रंथों ने भाटों की गिनती 17 दी है, आपस में इनका थोड़ा सा ही मतभेद है। सो, इनका अलग-अलग वर्णन यहाँ नहीं किया जाएगा। पर यह विचार अधूरी रह जाएगी, अगर इसमें भाई मनी सिंघ जी वाली बीड़ संबंधी विचार ना की जाए।

भाई मनी सिंघ जी के अनुसार:

रूहानी बाण नं: 1 के छपने के कुछ समय बाद (जैसे कि तत्कालीन अखबारों के द्वारा प्रकट किया गया था) प्रो: जोध सिंह जी को हजूर साहिब जा के उस बीड़ को देखने का अवसर मिला जो भाई मनी सिंघ जी वाली कही जाती है और जिसमें वाणी की तरतीब गुर-व्यक्ति अनुसार है। उसमें केवल निम्न-लिखित 10 भाटों की ही वाणी रची हुई प्रतीत होती है।;

(1) कलसहार, (2) कीरत, (3) जालप, (4) भिखा, (5) सल्य, (6) बल्य, (7) भल्य, (8) नल्य, (9) दास, (10) मथुरा।

(नोट: जैसे ये 10 नाम ऊपर दिए गए हैं, उस बीड़ में इसी तरतीब में ही सारी भाट–वाणी बाँट के दर्ज की गई है।)

दर्शन का अवसर:

असल ‘बीड़’ के दर्शन किए बिना, इस गिनती पर विचार नहीं हो सकती थी। रज़ा अनुसार, वह सज्जन, जिनके पास वह बीड़ थी, 1934 के शुरू में (फरवरी 1934) श्री अमृतसर जी आए, ‘बीड़’ भी साथ ले आए। सो, इस तरह गुरद्वारा रामसर जी में (जहाँ वे उतरे हुए थे) दो दिन काफी समय मिल गया।

कागज़ बहुत पुराना है, कहीं-कहीं हाशिया नया लगाया हुआ है। लिखाई बहुत सुंदर है। आधे से आगे आठ सफे के करीब पंजाबी का बहुत सुंदर शिकस्ता बरता हुआ है। श्री दसवें ग्रंथ की वाणी भी दर्ज है, जफरनामा फारसी अक्षरों में है। यह नहीं कहा जा सकता कि किस गुरु–प्यारे की ये महान मेहनत है, इतिहास में जिक्र केवल भाई मनी सिंघ जी संबंधी है।

भाटों की वाणी का इंदराज (कल्यसहार)

इस बीड़ में भाटों की वाणी नीचे लिखे तरीके अनुसार दर्ज है;

“ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥ ” लिख के, भाट का नाम ‘कल्यसहार’ दिया गया है। पहले महले पहले के सारे सवईऐ लिखे हैं, पर गिनती में फर्क है: सवईया नं: 1 के आखिर पर कोई अंक नहीं, इसकी जगह दूसरा सवईया खत्म होने पर अंक नं: 1 दिया गया है। इस तरह महले पहले के सवईयों की गिनती 10 की जगह 9 दी गई है। वाणी ठीक सारी मुकम्मल है।

ये फर्क क्यों पड़ा? इसका अनुमान सहजे ही लग सकता है। महले पहले के सवईयों को थोड़ा ध्यान से पढ़ें। सवईया नं: 1 की तुकें बहुत छोटी हैं, और भाट का नाम भी नहीं है, सो इस अगले सवईए के साथ चलाया गया है। यह ठीक है कि सवईया नं: 7 में भाट का नाम नहीं, पर वह सवईया पूरे आकार का है, वहाँ शक की गुँजायश नहीं हो सकी।

और भाट

यही तरीका भाट ‘कीरत’ और ‘सल्य’ के वास्ते बरता हुआ है।

नोट: भाट ‘जालप’, ‘भिखा’, ‘बल्य’ और ‘भल्य’ के सवईयों में कोई आखिरी बड़ा जोड़ देने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि इनकी वाणी केवल एक-एक गुरु-व्यक्ति के संबंध में है।

भाट नल्य

भाट ‘नल्य’ के सवईऐ आप ने केवल 4 ही दिए हैं। चारों की पहली–पहली तुक ये है;

सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिढ़ तिन् जन दुख पापु कहु कत होवै जीउ॥
धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है॥
हउ बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर॥
राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास॥

यहाँ पाठकों के लिए चेते रखने वाली बात यह है कि उपरोक्त सवईयों में से केवल तीसरे सवईए की चउथी पंक्ति में ही ‘नल्य’ का नाम आता है, और कहीं नहीं;

नल्य कवि पारस परस कच कंचना हुइ

चंदना सुबासु जासु सिमरत अन तर॥

भाट दास

भाट ‘नल्य’ के केवल चार ही सवईए बता के आगे आप ने भाट ‘दास’ शुरू किया है। यहाँ सवईए महले चउथे के ‘रड’ और ‘झोलना’ वाले सारे सवईऐ दर्ज किए गए हैं।

फर्क

पर यहाँ एक और फर्क है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में ‘रड’ का अंक दोहरा है: 1।5। से 8।12। तक। इस ‘बीड़’ में केवल इकेहरा अंक 1 से 8 दिया है। इसी तरह श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ‘झोलना’ का दोहरा अंक 1।13 से 4।16।129। है, पर इस बीड़ में यह अंक बदला के 1।9। से 4।12। लिखा गया है।

तिहरा अंक क्यों?

नोट: खोजी पाठकों के लिए यह तिहरा अंक 4।16।29। खास तौर पर इस विचार में बहुमूल्य है। भाट ‘कलसहार’ के 13 सवईयों के बाद ये 16 सवईए तीन हिस्सों में आए हैं: पहला हिस्सा 1 से 4; दूसरा 1।5। से 8।12।; तीसरा 1।13। से 4।16। तीन हिस्से खत्म हो जाने के कारण पिछले भाट और इस भाट के सारे सवईयों की गिनती कर के बड़ा अंक 29 दिया गया है।

नल्य के सवईऐ ‘दास’ के नाम तले

अंक के अलावा और भी फर्क है। ‘रड’ और ‘झोलना’ वाले 12 ही सवईऐ ‘दास’ के नाम तले दिए गए हैं, पर भाट ‘नल्य’ का नाम सवईया नं: 4।8। में प्रत्यक्ष बरता हुआ है;

गुरु नयणि बयणि गुरु गुरु करहु, गुरू सति कवि नल्य कहि॥
जिनि गुरू न देखिअउ, नहु कीअउ, ते अकयब संसार महि॥4॥8॥

गयंद के सवईए ‘दास’ के नाम तले

इससे आगे उस बीड़ में ‘ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि’ लिख के किसी नए भाट का नाम नहीं दिया, उपरोक्त, भाव ‘दास’ के नाम तले अगले 13 सवईऐ लिखे गए हैं।

पाठकों की वाकफियत के लिए, यहाँ कुछ बताना जरूरी है। पीछे बता आए हैं कि जिस भाटों ने एक से ज्यादा गुरु–महलों की स्तुति की है, इस ‘बीड़’ में उनके सवईयों का बड़ा जोड़ आखिर में दिया गया है। भाट ‘दास’ के नाम तले जो 13 सवईए लिखे हैं, उनमें कई जगहों पर नाम ‘गयंद’ स्पष्ट आया है, उसको अलग भाट नहीं माना गया। वह ऊपर बताई गई रीति भी यहाँ छोड़ दी गई है, भाव, ‘गयंद’ भाट वाले सारे सवईऐ ‘दास’ के नाम तले देकर के, आखिर में कोई जोड़ नहीं दिखाया गया कि इस भाट के कुल कितने सवईए हैं।

हरिबंस के सवईऐ मथुरा–नाम तले ही

‘सबसे आखिर पर है मथुरा भाट। महले चौथे और पंजवें के सात-सात सवैयों के के आखिर में एक बड़ा जोड़ 14 लिखा गया है। पर इसके साथ ही आगे भाट ‘हरिबंस’ का नाम दिए बिना ही, उसके भी दोनों सवैये दर्ज किए गए हैं, और अंत में एक बड़ा जोड़ फिर छोड़ा गया है।

भाटों के नाम:

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किस–किस भाट की वाणी दर्ज है – ये बताने से पहले ये विचार पेश करनी जरूरी है कि किस तरीके से ये नाम ढूँढे जा सकते हैं।

वाणी की अंदरूनी तरतीब श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी एक खास तरीके से तरतीब दे के लिखी गई है, और वह तरीका ही सारी वाणी में मिलता है। किसी एक राग को ले लो। सबसे पहले ‘शब्द’ फिर ‘अष्टपदियां’, फिर ‘छंत’ आदि दर्ज हैं। अगर किसी गुरु-व्यक्ति की कोई और खास वाणी ‘थिती’ ‘वार सत’, आदि आई हैं तो वह ‘छंत’ से पहले दर्ज की गई है। अंत में ‘राग की वार’, और वार के बाद भगतों की वाणी है।

‘शब्द’, ‘अष्टपदी’, ‘छंत’ आदि की भी अपनी अंदरूनी खास तरतीब है; भाव हरेक गुरु-व्यक्ति की वाणी क्रम–अनुसार है। सबसे पहले गुरु नानक साहिब, फिर गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और अंत में गुरु अरजन देव जी की वाणी है। जिस ‘राग’ में गुरु तेग बहादर जी के ‘शब्द’ हैं, वे गुरु अरजन साहिब जी के शबदों के बाद हैं। इस तरह की तरतीब भगतों की वाणी में है: पहले भक्त कबीर जी, फिर भक्त नामदेव जी, फिर भक्त रविदास जी इत्यादिक।

जो वाणी ‘रागों’ से अलग है, उसकी तरतीब भी ऊपर जैसी ही है। सहसक्रिती शलोक, पहले गुरु नानक देव जी के, फिर गुरु अरजन साहिब जी के। सलोक पहले कबीर जी के, फिर शेख फरीद जी के। ‘सलोक वारां ते वधीक’, हरेक ‘गुरु-व्यक्ति’ के पहली ही तरतीब के साथ।

जैसे ‘वारां ते वधीक सलोक’ पहले गुरु नानक देव जी के हैं, फिर गुरु अमरदास जी के, गुरु रामदास जी के, और अंत में गुरु अरजन साहिब जी के हैं, इसी तरह ही भाटों की वाणी दर्ज की गई है जो उन्होंने पाँच गुरु–महलों की स्तुति में उचारी है।

हरेक ‘राग’ के ‘शब्द’, ‘अष्टपदी’, ‘छंत’ आदि दर्ज करने की तरतीब में भी एक खास बात ध्यान देने वाली है। ‘शब्द’ दर्ज करने के वक्त पहले गुरु नानक साहिब के सारे शब्द दर्ज कर दिए हैं, तब गुरु अमरदास जी के शुरू किए हैं; यही सिलसिला हरेक ‘राग’ में ‘शब्द’ ‘अष्टपदी’ आदि हरेक शीर्षक में ठीक निभाया गया है। कहीं यह देखने में नहीं आता कि कुछ शब्द गुरु नानक साहिब के लिख के फिर कुछ शब्द गुरु अमरदास जी के दर्ज किए हों। सिर्फ राग बसंत में इस नियम की उलंघना है। उसका भी खास कारण है।

गिनती के अंक (श्री मुख बाक् वाणी)

अब आईए, कुछ समय गुरु ग्रंथ साहिब जी के ‘अंक’ समझने में खर्च करें। नमूने के तौर पर लेते हैं ‘राग सारंग’। (इस विचार को समझने के लिए पाठकों की सेवा में निवेदन है कि आप 1430 पन्ने वाली ‘बीड़’ का पृष्ठ 1197 खोलने का कष्ट करें। पाँच–सात मिनट इस गिनती की तरफ लगाने आवश्यक हैं, भले ही ये काम नीरस सा लग रहा हो। क्योंकि भाटों का नाम ढूँढने में इस गिनती ने खास तौर पर सहायता करनी है)।

क्रमांक------पृष्ठ--------महला--------------------जोड़ अंक
1-----1197–1198-----महला १------------------------3
2-----1198–1200-----महला ४ घरु १-----------------6
3----------1200--------महला४ घरु ३ दुपदा ---------1॥7
4-----1200–1202-----महला४ घरु५ दुपदे पड़ताल---6॥13॥:


नोट 1: इस अंक 4 में नंबर का सिलसिला दोहरा है, 1॥8॥; 2॥9॥ से 6॥13॥

नोट 2: अंक नंबर 2,3,4 में महला ४ के ही शब्द हैं, नं: 2 में 1, नं: 3 में 1 और नंबर 4 में 6।

इसलिए, महला ४ के सारे शब्द खत्म होने पर बड़ा अंक 13 बरता गया है।

नोट 3: भाटों की गिनती 19 बताने वाले सज्जन का व्यापकता का नियम नं: 3 यहाँ नहीं निभ सका।

क्रमांक-----पृष्ठ--------महला----------------------जोड़ अंक
5-----1202–1206-----महला ५ चउपदे घरु१--------14
6-----1206–1208-----महला ५ घरु २-------------5॥19॥
7-----1208–1209-----महला ५ घरु ३ -----------4॥23॥
8-----1209–1229-----महला ५ दुपदे घरु ९ -----105॥128॥
9-----1229-------------महला५ चउपदे घरु ५ -----1॥129॥
10-----1229–1231-----महला ५ घरु ६ पड़ताल---10॥139॥3॥13॥155॥:


नोट 1: अंक नंबर 5 से अंक 10 तक महला ५ के शब्द हैं, पर ‘घरु’ अलग-अलग होने के कारण भिन्न-भिन्न हिस्से किए गए हैं। अंक नंबर 5 के बिना बाकी सबमें नंबर दोहरा है।

नोट 2: नंबर 5 में 14 शब्द, नंबर 6 में 5, नंबर 7 में 4, नंबर 8 में 105, नंबर 9 में 1, और नंबर 10 में 10 शब्द हैं। इन सभी का जोड़ 139 दिया गया है। महला १ के 3 शब्द थे (देखें पन्ना 1198), महला ४ के 13 शब्द (देखें पन्ना 1202)। ये सारे नंबर दे के बड़ा जोड़ (कुल जोड़) 155॥

क्रमांक--------पृष्ठ-----------महला-----जोड़ अंक
11--------1231–1232-----महला ९ --------4:


नोट: यहाँ ‘शब्द’ खत्म हो गए हैं, ‘अष्टपदियां’ शुरू हुई हैं; इस तरह सारे ‘गुरु–महलों’ (अर्थात गुरु-व्यक्तियों) के शबदों का जोड़ दे के आखिरी कुल जोड़ भी दिया गया है: 1232– 3॥13॥139॥4॥159॥

भक्त वाणी के अंक

ज्यादा विस्तार की आवश्यक्ता नहीं। अब केवल इस ‘राग’ की भक्त-वाणी के अंक ही विचार लें।

क्रमांक-----पृष्ठ-----------भक्त -----जोड़ अंक
1-----1251–1252-----कबीर जी--------2
2-----1252–1253-----नामदेव जी-------3
3-----1253-----परमानंद जी-----------1॥6॥:


नोट: कबीर जी के 2 शब्द हैं, नामदेव जी के 3, परमानंद जी का 1; इन तीनों भगतों के शबदों का कुल जोड़ (बड़ा अंक) 6 दिया गया है।

नोट 2: इससे आगे केवल एक तुक है;

(4) 1253 पृष्ठ: ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’

इस तुक के साथ कोई अंक नहीं दिया गया; इसके कर्ता भक्त जी का नाम भी नहीं है।

इससे आगे

(5) 1253 महला ५ सूरदास॥1॥8॥

नोट 3: थोड़ा सा ध्यान देना जी। भक्त परमानन्द जी की वाणी के आखिर पर अंक 6 हैं, इसके पीछे केवल एक तुक, और एक पूरा शब्द आया है, पर यहाँ आखिरी अंक 8 है। प्रत्यक्ष रूप से इसका भाव यह है कि उस एक तुक को एक मुकम्मल शब्द वाला ही नंबर दिया गया है।

अंकों का यही ढंग सवईयों में

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी की तरतीब हम पिछले अंक में समझ आए हैं। आईए, अब इस ढंग को श्री मुख बाक् सवईयों और भाटों के सवईयों में बरत के देखें।

नोट: पाठक सज्जन फिर 1430 पन्ने वाली बीड़ का पन्ना नंबर 1385 खोलने का कष्ट करें।

क्रमांक-----पृष्ठ---------महला--------जोड़ अंक
1-----1385–1387-----महला ५ --------9
2-----1387–1389-----महला ५ -----2॥11॥20:


नोट 1: पृष्ठ 1389 वाले श्री मुख बाक् सवईऐ को जरा सा ध्यान से देखें। अंक 9 तक इकहरा अंक सिलसिलेवार चला आ रहा है। इससे आगे निम्न-लिखित दो सवईए दोहरे अंक वाले हैं;

आवध कटिओ न जात, प्रेम रस चरन कमल संगि॥
दावनि बंधिओ न जात, बिधे मन दरस मगि॥
पावक जरिओ न जात रहिओ धूरि लगि॥
नीरु न साकसि बोरि, चलहि हरि पंथ पगि॥
नानक, रोग दोख अघ मोह, छिदे हरि नाम पगि॥1॥10॥
उदमु करि लागे बहु भाती, बिचरहि अनिक सासत्र बहु खटूआ॥
भसम लगाइ तीरथ बहु भ्रमते, सूखम देह बंधहि बहु जटूआ॥
बिनु हरि भजन सगल दुख पावत,
जिउ प्रेम बढाइ सूत के हटूआ॥2॥11॥20॥

नोट 2: पीछे हम देख आए हैं कि 19 भाटों वाले सज्जन जी का व्यापकता का नियम नं: 3 इन उपरोक्त दो सवईयों पर बरतने पर फेल हो चुका है, क्योंकि इन सवईयों को उचारने वाले गरीब–निवाज वही हैं जो पहले 9 सवईयों को।

नोट 3: सवईया नं: 2॥11॥ में ‘नानक’ नाम नहीं आया, फिर भी हम पूरे यकीन से कह सकते हैं कि ये सवईया श्री गुरु अरजन साहिब जी का रचा हुआ है।

क्यों?

केवल इस वास्ते कि आखिरी अंक 11 जो उपरोक्त सवईए से दोहरा हो चुका है, इस सवईऐ के आखिर में ठीक मिलता है; साथ ही, पिछले 9 सवईए व इन 11 सवईयों का बड़ा जोड़ (कुल योग) भी ठीक 20 ही आगे लिखा हुआ है।

यदि कोई सज्जन इन सवईयों की प्रति (Copy) बनाते हुए ॥1॥10॥ के आखिर में निम्न-लिखित शीर्षक (देखो पन्ना 1389)

“ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥ सवईऐ महला पहिले के १॥ ” लिख के उसके आगे यह सवईया ‘उदमु करि लागे...’ दर्ज कर दे और उससे आगे अगले सवईऐ ‘इक मनि पुरखु...’ वाले लिख दे, तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी से देखे बिना ही हम ये गलती कर लेंगे।

किस तरह?

केवल इस ‘2॥11॥20॥’ अंक की सहायता से। यह अंक पिछले सवईयों के साथ मिलता है, अगले सवईयों के अंक 1, 2 आदि से इसका कोई संबंध नहीं है।

यही है कुंजी:

लो, यही है कुँजी भाटों के नाम ढूँढने की। ये देखने की आवश्यक्ता नहीं है कि सवईऐ में भाट का नाम मिलता है अथवा नहीं। केवल अंक देखे चलो, सहज ही आप को हरेक भाट के सवईयों की गिनती मिलती जाएगी।

नोट 4: यही श्री मुख बाक्, आखिरी दो सवईऐ पाठकों को साफ बता रहे हैं कि अगले ‘(भट–) सवईऐ’ भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज कराने वाले वही दाता जी हैं जिन्होंने ये दो सवईऐ दर्ज कराए हैं। अंक लिखने का तरीका एक सा है। पुराने बने हुए संस्कार, किसी अपने अति–प्यारे के द्वारा बने हुए संस्कार, मन में से जल्दी निकलने बहुत कठिन होते हैं, खास तौर पर उन हृदयों में से, जहाँ उनको सँभाल के रखने का उचेचा प्रयत्न किया जा रहा हो। फिर भी इस गुर–श्रद्धा–भरी भाट–वाणी के विरोधी सज्जनों की सेवा में हाथ जोड़ के बिनती है कि आप इस सारी विचार को इतिहास के खोजी विद्वानों की तरह पहले सारे पक्षपात दूर कर के, पढ़ने की कृपा करें। किसी भी पगडंडी पर चलने से गलती खा जाना कोई बड़ी बात नहीं, पर विरोधी विद्वान गुरमुखों का धर्म है कि इस निमाणी सी मेहनत को उसी नुक्ते से विचारें, जिससे लेखक ने उनके सामने पेश की हैं।

भाटों की वाणी के अंक:

(पाठक जन फिर पन्ना 1389 देखने का कष्ट करें)

क्रमांक-----पृष्ठ--------- भाट-----------------जोड़ अंक
3-----1389–1390-----कल्य ------------------------9
4-----1391–1392-----कलसहार (–कल्य, टल्) ---10:


तीनों नाम एक ही भाट के:

नोट1: पाठक सज्जन पिछली सारी विचार का ख्याल रख के अंकों की तरफ ध्यान दें सिलसिला वही है; ये तीनों नाम ही एक ही भाट के हैं, जो ऊपर दिए गए सवईऐ महलों का भी कर्ता है।

‘सद रंगि’ कोई भाट नहीं:

नोट 2: सवईया नं: 7 की आखिरी दो-तुकों विचारने योग्य हैं;

उदारउ चित, दारिद हरन, पिखंतिह कलमल त्रसन॥
सदरंगि सहजि कलु उचरै जस जंपउ लहणे रसन॥7॥

एक तो, नोट 1 में बताया गया है कि अंक सिलसिले वार ठीक होने कारण भाट कल्य (जिसके दूसरे नाम ‘कलसहार’ और ‘टल्’ हैं) ही अकेला इनका कर्ता है; दूसरा, इस आखिरी तुक में भाट का नाम ‘कल्य’ साफ बरता मिलता है। एक ही तुक के दो कर्ता नहीं हो सकते, सो, ‘सदरंगि’ किसी भाट का नाम नहीं।

सवईऐ महले तीजे के:

क्रमांक-----पृष्ठ-------- भाट--------------------जोड़ अंक
5-----1393–1394-----कल्य ----------------------------9
6-----1394–1395-----जालप (दूसरा नाम ‘जल्य’) ---।5।14:


नोट: पिछले नोट 1 की विचार की तरह यहाँ भी ‘जालप’ और ‘जल्य’ एक ही भाट है। भाट ‘कल्य’ के 9 सवईऐ थे, ‘जालप’ के 5 मिला के कुल योग बना 10 सवईए।

क्रमांक-----पृष्ठ----- भाट-----जोड़ अंक
7-----1395----------कीरत -----4। 18:


नोट: पिछले दो भाटों के मिला के 14 सवईऐ थे, भाट कीरत के 4 मिल के कुल बड़ा जोड़ 18 हो गया।

भाट ‘कीरत’ के चार सवईऐ क्यों?

नोट 2: भाट ‘कीरत’ के चार सवईयों में कर्ता–भाट का नाम केवल पहले सवईए (1/ 15) में आया है। बाकी के तीन सवईयों का कर्ता क्यों भाट ‘कीरत’ ही है? कोई और क्यों नहीं?

इस प्रश्न का उक्तर केवल यही है कि अंक का सिलसिला (1/15/, 2/16, 3/17, 4/18)। ठीक मिलने के कारण बाकी के तीन सवईयों का कर्ता भी केवल भाट ‘कीरत’ ही हो सकता है। (देखें सतिगुरु जी का अपना सवईया नंबर 2/11/20/)

क्रमांक-----पृष्ठ-------- भाट------जोड़ अंक
8-----1395–1396-----भिखा -----2/ 20


भाट भिखे के दो सवईऐ पिछले कुल बड़े योग 18 के साथ मिल के अब बड़ा जोड़ 20 हो गया है।

क्रमांक-----पृष्ठ----- भाट-----जोड़ अंक
9-----1396---------सल्य-------1/21
10-----1396--------भल्य-------1/22


सवईऐ महले चउथे के ४

भाट ‘कलसहार’ के 13

नोट: ‘कल्य ठकुर’ कोई भाट नहीं है। देखें पंना 1396 सवईया नं: 1।

इक मनि पुरखु निरंजनु धिआवउ॥ ...
कल्य सहारु तासु गुण जंपै॥ ....
कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे॥1॥

अगर इस सवईए में ‘कलसहार’ और ‘कल्य ठकुर’ दो भाट होते, तो सवईयों के नंबर दो अलग-अलग होते। शब्द ‘ठकुर’ शब्द ‘हरदास’ से संबंध रखता है।

नोट 2: अगर ‘कलसहार’ और ‘कल्य’ ही दो भाट होते, तो भी सवईयों के दो अलग-अलग नंबर होते। इस तरह ‘कल्य’ और ‘कलसहार’ एक ही भाट है।

भाट नल्य के 16:

क्रमांक-----पृष्ठ--------- भाट------जोड़ अंक
12-----1398–1401-----नल्य-----4/16/29


नोट 1: भाट ‘कल्य’ के 13 सवईए हैं इस अंक के बाद पन्ना 1401 के इस पिछले (4/16/29/) अंक तक और कहीं भी बड़े जोड़ वाला कोई अंक नहीं आया। प्रत्यक्ष रूप से इसका भाव यह है कि सवईया नं: 14 से ले के 29 तक एक ही भाट की वाणी चली आ रही है। यहाँ दोबारा याद करा देना आवश्यक लगता है कि वाणी का कर्ता ढूँढने के लिए भाट का नाम उतनी सहायता नहीं करता, जितना कि ‘अंक’ कर रहा है; पीछे हम ‘श्री मुखबाक् महला ५’ के आखिरी सवईए और भाट ‘कीरत’ के पिछले 3 सवईयों में ये बात प्रत्यक्ष देख आए हैं।

‘दास’ और ‘जल्न’ कोई भाट नहीं हैं:

पन्ना 1399 पर सवईया नं: 8 में ‘नल्य कवि’ नाम मिलता है, भाट ‘कीरत’ की तरह बाकी के 3 सवईयों का कर्ता भी ‘नल्य कवि’ ही हो सकता है। अंक 4 से आगे ‘रड’ (छंद) ‘झोलना’ चल पड़ता है; इसका भी दोहरा नं: 1/13 से शुरू हो के 4/16/ तक पहुँचता है। यहाँ इस दूसरे भाट की वाणी खत्म हो जाने के कारण दोनों भाटों का कुल बड़ा जोड़ 29 दिया गया है। जो सज्जन ‘सारंग’ राग संबंधी दी गई अंकों की विचार को ध्यान से पढ़ते आए हैं, उनको ये स्पष्ट हो गया होगा कि ‘नल्य’ कवि के इन 16 सवईयों में किसी और भाट की कोई गुँजाइश नहीं है।

सो, अंक 3/7/ की तुक में बरता हुआ शब्द ‘दासु’ किसी भाट का नाम नहीं है। इसी तरह 6/10/ में शब्द ‘जल्न’ भी किसी भाट का नाम नहीं है।

क्रमांक-----पृष्ठ--------- भाट-------जोड़ अंक
13-----1401–1404-----गयंद-----3/13/42


नोट 1: पिछले दो भाट ‘कल्य’ और ‘नल्य’ के सवईयों के जोड़ का बड़ा अंक 29 आया था। उस अंक से ले के अंक 42 तक बीच में कहीं भी बड़े जोड़ का अंक नहीं आया। इसका भाव यह है कि अंक 29 से ले के अंक 42 तक सारे सवईए एक ही भाट के हैं। ये सवईए गिनती में 13 हैं; और ‘नल्य कवि’ सवईयों की तरह इनके भी तीन हिस्से किए गए हैं। पहला हिस्सा 1 से 5; दूसरा 1/6 से 5/10/; तीसरा 1/11 से 3/13/42। आखिरी हिस्से का तीसरा अंक 42 साफ तौर पर बताता है कि इन तीनों ही हिस्सों के सवईए एक ही भाट के हैं। अगर पहले हिस्से में कोई और भाट होता तो पहले हिस्से के अंक 5 के पीछे बड़े जोड़ वाला अंक (34) इस्तेमाल हुआ होता।

‘सेवक’ और ‘परमानन्द’ कोई भाट नहीं हैं:

सारे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में वाणी की तरतीब और अंक लगाने का तरीका एक समान होने के कारण, यहाँ भी पहले हिस्से में दो बार बरता हुआ शब्द ‘परमानंद’ किसी भाट का नाम नहीं है। इस हिस्से का कर्ता भी वही है, जो दूसरे हिस्से का है। जैसे यह जरूरी नहीं कि हरेक सवईए में कर्ता–भाट का नाम मिले वैसे ही ये भी जरूरी नहीं कि हरेक हिस्से में नाम जरूरी हो। अंक का एकसार जारी रहना काफी सबूत है कि सारे सवईऐ एक ही भाट के हें। दूसरे हिस्से में भाट का नाम प्रत्यक्ष ‘गयंद’ मिलता है।

अंक के इसी सिलसिले अनुसार ‘सेवक’ भी किसी भाट का नाम नहीं है, जैसे कि पिछले भाट की वाणी में शब्द ‘दास’ किसी भाट का नाम नहीं है।

क्रमांक-----पृष्ठ--------- भाट-----जोड़ अंक
14-----1404–1405-----मथुरा-----7/49


नोट: 42 के बाद बड़ा अंक 49 है, सो, ये सात सवईए भाट मथुरा के हैं।

भाट ‘कीरत’ के सवईयों में देख आए हैं कि भाट का नाम केवल पहले सवईए में है। एकसार अंक की सहायता से बाकी के तीन सवईए ‘कीरत’ के बताए गए हैं।

इसी तरह यहाँ भी ‘मथुरा’ नाम केवल पहले 3 सवईयों में है, पर अंक सिलसिले वार 1 से 7 तक जा के आगे बड़ा जोड़ 49 मिलता है।

‘सेवक’ और ‘दास’ कोई भाट नहीं हैं:

भाटों की संख्या 19 बताने वाले सज्जन की इन सवईयों में से पहले 5 भाट ‘मथुरा’ के बताते हैं, आखिरी दो ‘सेवक’ के। अगर शब्द ‘सेवक’ होने के कारण ये दो सवईए भाट ‘मथुरा’ के नहीं हैं, तो चौथे, पाँचवें भी मथुरा के नहीं हैं, तब वे किसके हुए? वे क्यों ‘मथुरा’ के गिने गए? सातवें सवईए में तुकें इस प्रकार हैं;

दानि बडौ अतिवंतु महाबलि सेवकि दासि कहिओ इहु तबु॥
ताहि कहा परवाह काहू की जा कै बसीसि धरिओ गुरि हथु॥7/49

‘सेवक’ और ‘दास’ दोनों को भाट मानने वाले सज्जन यहाँ पहली तुक का कर्ता किसको कहेंगे? अस्लियत पाठक सज्जन देख रहे हैं कि अंकों के हिसाब के अनुसार ‘सेवक’ और ‘दास’ किसी भाट का नाम नहीं है।

बल्य, कीरत और सल्य:

क्रमांक-----पृष्ठ-------- भाट-----जोड़ अंक
15-----1405-------------बल्य-------5/54
16-----1405–1406-----कीरत-----4/58
17-----1406--------------सल्य-----2/60


सवईए महले पँजवें के

कलसहार के 12

क्रमांक-----पृष्ठ---------- भाट-------जोड़ अंक
18-----1406–1408-----कल्य--------------9
19-----1408-----------कल्य (सोरठे) -----3/12


‘पारथ’ कोई भाट नही:

नोट1: जैसे सवईए महले चौथे के में छंद ‘रड’ और ‘झोलना’ के कारण छोटा अंक बदला था, पर वैसे वह सवईए भाट ‘नल्य’ के ही थे, वैसे ही यहाँ भी ‘सोरठा’ के कारण आखिरी अंक बदला है, आखिर में बड़ा अंक 12 है। सो, यह 12 सवईए भाट ‘कल्य’ के हैं। ‘पारथ’ किसी भाट का नाम नहीं है। पांडवों में सबसे प्रमुख शूरवीर का नाम ‘अर्जुन’ था, इसका दूसरा नाम ‘पार्थ’ था; जैसे भगवत गीता में कई जगहों पर मिलता है। यही नाम ‘अर्जुन’ श्री गुरु पंचम पातशाह जी का होने के कारण, पांडवों के सरदार की शूरवीरता के ‘साधारण गुण’ के आधार पर ‘उपमा अलंकार’ बरता है; जैसे अर्जुन रणभूमि में वैरियों के मुकाबले पर पैर टिका के डोलता नहीं था, वैसे ही गुरु अरजन साहिब भी ‘प्रमाण पुरखु’, जाने–माने योद्धे हैं, कामादिक वैरियों के मुकाबले में कभी डोलने वाले नहीं हैं।

मथुरा और हरिबंस

क्रमांक-----पृष्ठ---------- भाट-----जोड़ अंक
20-----1407–1409-----मथुरा--------7/19
21-----1409-------------हरिबंस--------2/21


नोट: महले पंजवें के सवईयों में एक बड़ा अंक केवल तीन बार आया है; पहले 112, फिर 19, आखिर में 21। सो, यह तीन भाटों (कल्य, मथुरा और हरिबंस) के सवईए हैं।

11 भाटों के नाम:

इस सारी पड़ताल से भाटों के नाम निम्न-लिखित अनुसार बनते हैं;

कल्य, जिसके दूसरे नाम ‘कलसहार’ और ‘टल्’ हैं।

जालप, जिसका दूसरा नाम ‘जल्य’ है।

कीरत, 4. भिखा, 5. सल्य, 6. भल्य, 7. नल्य, 8. गयंद, 9. मथुरा, 10. बल्य, 11. हरिबंस।

भाग 4

केवल ‘गुरु की बड़ाई’ (गुरु महिमा) ही विषयवस्तु है

बोली और व्याकरण का ध्यान आवश्यक

श्रद्धालू मन चाहे वाणी के अर्थ करने के वक्त बोली और व्याकरण को मुख्य रख के बहुत गहराई में जाने की आवश्यक्ता ना समझते हों, पर भाट–वाणी के संबन्ध में जब हम कई जगह ऐतिहासिक खोज का ख्याल रखते आए हैं, तो ये भी आवश्यक लगता है कि जहाँ कहीं भाट–वाणी के मुख्य भाव के सम्बंध में मतभेद है, वहाँ भी बोली और व्याकरण की सहायता ले के गहरी खोज की जाए।

एक-एक गुर-व्यक्ति की बड़ाई

श्री गुरु रामदास जी के गोईंदवाल साहिब में ज्योति से ज्योति समाने के बाद दस्तार–बंदी की रस्म के वक्त सिख संगतें इकट्ठी होती हैं। ये ‘भाट’ भी उसी वक्त वहाँ पहुँच जाते हैं। दीदार कर के कपाट खुल जाते हैं और इनका चिक्त गुरु की स्तुति करने के उल्लास में आता है। पहला ही भाट उठता है और कहता है;

इक मनि पुरखु धिआइ बरदाता॥
संत सहारु सदा बिखिआता॥
तासु चरन ले रिदै बसावउ॥
तउ परम गुरू नानक गुन गावउ॥1॥

सो, भाट बारी–बारी उठते हैं और ‘गुरु’ की महिमा करने के लिए एक-एक गुर-व्यक्ति’ की बड़ाई करते जाते हैं। जिस भाट ने कहीं आरम्भ में थोड़ा सा अकाल-पुरख का गुण गाया हैं, वहीं पर उसने ‘गुर-व्यक्ति’ का जिक्र भी कर दिया है जिसके वह गुण गाने शुरू करने लगा है।

महले दूजे के

आईए, इस विचार के अनुसार सारे भाटों की वाणी को ध्यान से देखें। सवईए महले दूजे के, के आरम्भ में भाट ‘कलसहार’ कहता है;

सोई पुरखु धंनु करता कारण करतारु करण समरथो॥
सतिगुरू धंनु नानकु, मसतकि तुम धरिओ जिनि हथो॥1॥

महले तीजे के

सवईए महले तीजे के, के आरम्भ में फिर यही भाट कहता है;

सोई पुरखु सिवरि साचा, जा का इकु नामु अछलु संसारे॥
जिनि भगत भवजल तारे, सिमरहु सोई नामु परधानु॥
तितु नामि रसिकु नानकु, लहिणा थापिओ जेन स्रब सिधी॥
कवि जन कल्य सबुधी, कीरति जन अमरदास बिस्तरीआ॥१॥

भाट ‘कीरत’ भी गुरु महिमा ही करता है

इससे आगे भाट ‘जालप’ के पाँचों सवईयों में प्रत्यक्ष तौर पर गुरु अमरदास जी की ही स्तुति है। आगे आता है भाट ‘कीरत’। इसका पहला सवईया साफ तौर पर गुरु अमरदास जी की स्तुति में है। अगर भाट कीरत ने मंगलाचरण के तौर पर अकाल पुरख की स्तुति करनी होती, तो वह पहले भाट की ही तरह पहले ही सवईऐ में आ जाती। सरसरी तौर पर दूसरे सवईऐ का पाठ करने से भुलेखा लग जाता है कि यहाँ अकाल-पुरख की उपमा है;

आपि नराइण कला धारि, जग महि परवरियउ॥
निरंकारि आकारु जोति, जग मंडलि करियउ॥

यह सारा सवईया ध्यान से पढ़ के जब इसी ही भाट के चौथे सवईऐ की आखिरी दो तुकें पढ़ें तो दिख जाता है कि भाट कीरत के नेत्रों में ‘अकाल-पुरख’ और ‘गुरु अमरदास’ एक ही रूप हैं;

अगम अलख कारण पुरख, जो फुरमावहि सो कहउ॥
गुर अमरदास कारण करण, जिव तू रखहि तिव रहउ॥4॥18॥

सवईए महले चउथे के:

आगे देखते हैं सवईऐ महले चौथे के। पहले ही सवईऐ में भाट ‘कलसहार’ पहले ही सतिगुरु के आगे अरदास करता है और कहता है;

इक मनि पुरखु निरंजनु धिआवउ॥ गुर प्रसादि हरि गुण सद गावउ॥
गुन गावत मनि होइ बिगासा॥ सतिगुर पूरि जनह की आसा॥

(अर्थ– सतिगुर–हे सतिगुरु!)

इसके आगे के 13 ही सवईयों में भाट ‘कलसहार’ गुरु रामदास जी की बड़ाई करता है। आगे ‘नल्य’ भाट के 16 सवईयों में भी केवल ‘गुरु’ की ही स्तुति है।

‘कलसहार’ भाटों के जत्थेदार

अब आते हैं 13 सवईए भाट ‘गयंद’ के, जिस में शब्द ‘वाहिगुरू’ के सम्बंध में मतभेद है। इन सवईयों पर विचार करने से पहले यहाँ यह बता देना जरूरी बनता है कि बाकी के सवईयों को भी ध्यान से पढ़ने पर ये बात साफ प्रकट हो जाती है कि भाट ‘कलसहार’ के बिना और किसी भाट ने मंगलाचरण के तौर पर कोई तुक नहीं उचारी, सीधे ही ‘गुरु’ की स्तुति शुरू कर दी है। पीछे की तरह भाट ‘कलसहार’ ने ही पाँचवें गुरु जी की बड़ाई करने के वक्त पहले ‘अकाल-पुरख’ को स्मरण किया है;

सिमरं सोई पुरखु अचलु अबिनासी॥ जिसु सिमरत दुरमति मलु नासी॥
सतिगुर चरन कवल रिदि धारं॥ गुर अरजुन गुण सहजि बिचारं॥1॥

ये बात भी पीछे दिए गए ख्याल की प्रौढ़ता करती है कि भाट ‘कलसहार’ इस जत्थे के जत्थेदार थे; और ये सारे एक साथ मिल के गुरु अरजन साहिब जी के पास आए थे।

इस तरह हम देख आए हैं कि भाटों का जत्थेदार इस वाणी का उद्देश्य साफ तौर पर ‘गुरु–उपमा’ बता रहा है। केवल ‘कलसहार’ ने ही ‘गुर–उपमा’ करने के वक्त ‘अकाल पुरख’ की उपमा की है, वह भी अपने सवईयों के केवल आरम्भ में।

भाट गयंद के सवईऐ

आईए, अब भाट ‘गयंद’ के सवईयों की तरफ। ये तीन हिस्सों में विभाजित हैं; सरसरी नजर मारने पर ही दिखाई दे जाता है कि छंद की चाल और ख्याल तीनों जगह अलग-अलग है।

गयंद के पहले हिस्से में केवल ‘गुरु–उपमा’ है; दूसरे हिस्से में तीन सवईए छोड़ के आखिरी दोनों में फिर ‘गुर–उपमा’। इस हिस्से के पहले तीन सवईयों में ‘वाहिगुरू’ की स्तुति कहने का भुलेखा केवल इसलिए लगता है कि साहित्यक तौर पर ज्यादा खोज करने की आवश्यक्ता है।

दूसरे हिस्से में ‘गुरु’ पद के साथ ‘वाहि’, ‘सति’ और ‘सिरी’ पद बरत के निम्न-लिखित तीन तुकें आई हैं;

वाहिगुरू, वाहिगुरू, वाहिगुरू, वाहि जीउ॥1//6//, 2//7//, 3//8॥
सतिगुरू सतिगुरू सतिगुरू गुबिंद जीउ॥4//9॥
सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ॥5//10॥

इसमें तो कोई शक नहीं कि सवईया नं: 4/9 और 5/10/ में शब्द ‘सतिगुरु’ और ‘सिरी गुरु’ केवल ‘गुरु’ के लिए हैं। आओ, अब इन सवईयों में की गई गुर–उपमा को ध्यान से पढ़ें;

सतिगुरू सतिगुरू सतिगुरू गुबिंद जीउ॥
बलिहि छलन, सबल मलन, भग्ति फलन, कान् कुअर,
निहकलंक, बजी डंक, चढ़ दल रविंद जीउ॥
राम रवण, दुरत दवण, सकल भवण कुसल करण, सरब भूत,
आपि ही देवाधि देव, सहस मुख फनिंद जीउ॥
जरम करम मछ कछ हुअ बराह,
जमुना जै कूल, खेलु खेलिओ जिनि गिंद जीउ॥
नामु सारु हीए धारु तजु बिकार मन गयंद,
सतिगुरू सतिगुरू सतिगुरू गुबिंद जीउ॥

इस सवईऐ में की गई ‘गुर–उपमा’ को निम्न-लिखित सवईऐ के साथ मिलाओ; दोनों में एक ही तरीका बरता जा रहा है;

पीत बसन कुंद दसन, प्रिआ सहित कंठ माल,
मुकटु सीसि, मोर पंख चाहि जीउ॥
बेवजीर बडे धीर, धरम अंग अलख अगम,
खेलु कीआ आपणै उछाहि जीउ॥
अकथ कथा कथी न जाइ तीनि लोक रहिआ समाइ,
सुतह सिध रूपु धरिओ, साहन कै साहि जीउ॥
सति साचु स्री निवासु, आदि पुरखु सदा तुही,
वाहिगुरू, वाहिगुरू, वाहिगुरू, वाहि जीउ॥3॥8॥

इन दोनों सवईयों में उपमा करते हुए ‘श्री कृष्ण–रूप’ का जिक्र किया गया है; जो पहले सवईए में (सति–) ‘गुरु’ की उपमा है, तो दूसरे में भी ‘गुरु’ की महिमा है।

दूसरे सवईऐ की पहली तुक के अक्षरों की ओर ध्यान देने की जरूरत है। आखिरी शब्द हैं: ‘वाहि जीउ’। शब्द ‘वाहि’ का आखिर में प्रयोग किया जाना भी जाहिर करता है कि पहले भी इस शब्द को ‘गुरु’ शब्द से अलग ही बरतना है। जैसे आखिर में कहा है: हे जीउ! तूं ‘वाहि’ है, इसी तरह पहले भी यही है: हे ‘गुरु’! तू ‘वाहि’ है!

गयंद के आखिरी तीन सवईऐ:

अब, आईऐ, इस भाट के आखिरी तीन सवईयों की तरफ। इनमें ‘वाहिगुरू’ की स्तुति प्रतीत होती है, पर पीछे बताया जा चुका है कि किसी भी भाट ने इन सवईयों में ‘वाहिगुरू’ की स्तुति को अपना मुख्य–उद्देश्य नहीं रखा, केवल ‘गुरु’ उपमा ही की है।

कई सज्जन ऐतराज़ करते और कहते हैं कि गुरु को चौरासी लाख जूनियों का कर्ता कहना गुरमति के अनुसार नहीं है इन तीनों ही सवईयों में की गई बड़ाई केवल निरंकार पर फिट होती है। इस ऐतराज वालें सज्जनों का ध्यान सुखमनी साहिब की निम्न-लिखित पउड़ी की तरफ दिलवाया जाता है;

ब्रहम गिआनी सभ स्रिसटि का करता॥
ब्रहम गिआनी सद जीवै नही मरता॥
ब्रहम गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता॥
ब्रहम गिआनी पूरनु पुरखु बिधाता॥
ब्रहम गिआनी अनाथु का नाथु॥
ब्रहम गिआनी का सभ ऊपरि हाथु॥
ब्रहम गिआनी का सगल अकारु॥
ब्रहम गिआनी आपि निरंकारु॥
ब्रहम गिआनी की सोभा ब्रहम गिआनी बनी॥
नानक ब्रहम गिआनी सरब का धनी॥8॥8॥

एक और बात भी विचारने–योग्य है। आईए, आखिरी सवईऐ को ध्यान से पढ़ें;

कीआ खेलु बड मेलु तमासा, वाहिगुरू तेरी सभ रचना॥
तू जलि थलि गगनि पयालि पूरि रहा, अम्रित ते मीठे जा के बचना॥
मानहि ब्रहमादिक रुद्रादिक, काल का कालु, निरंजन जचना॥
गुर प्रसादि पाईऐ परमारथु, सत संगति सेती मनु खचना॥
कीआ खेलु बड मेलु तमासा, वाहगुरू तेरी सभ रचना॥3॥13॥42॥

पहली तुक में शब्द ‘वाहि’ ‘गुरु’ हैं और आखिरी तुक में ‘वाह’ ‘गुरु’। पहली और आखिरी तुक के शब्दों में केवल ‘वाहि’ और ‘वाह’ की ‘ि’ मात्रा का अंतर है।

इन दो रूपों के बारे में इतिहास:

‘गुरमंत्र’ सम्बंधी विचार करते हुए एक सज्जन अपने लेख में इस प्रकार लिखते हैं: ’ “जब भाट–वाणी को खोजें तो उसमें भी दो शब्द हैं: ‘वाहिगुरू’ और ‘वाहगुरू’। सो, दोनों में से कौन सा सही हुआ? इससे साबित है कि भाट खुद ही दुबिधा में नहीं पड़े हुए, बल्कि और लोगों को भी संशय में डालते हैं, क्योंकि दो ‘गुर मंत्र कैसे सिद्ध हुए? ” (नोट: पाठक सज्जन याद रखें कि हम पिछली विचार में ‘वाहि’ और ‘वाह’ को ‘गुरु’ से अलग का निर्णय कर चुके हैं।)

बोली सदा बदलती है

जो सज्जन किसी ‘बोली’ को ओर उसकी तब्दीलियों को ध्यान से विचारते हैं, वे जानते हैं कि हरेक देश की बोली समय के अनुसार बदलती आई है। शब्दों शक्ल, इनके जोड़, लिंग और उनका आपस में मिल के बरता जाना – इन सबमें सहजे ही अंतर आता जाता है। सो, अगर किसी समय किसी वाणी में किसी शब्द (लफ्ज़) के अलग-अलग रूप, या अलग-अलग लिंग बरते हुए मिलें, तो वहाँ पर ये नहीं कहा जा सकता कि उस वाणी के उचारने वाले महापुरख दुबिधा में पड़े हुए हैं।

उदाहरण:

इस विचार को अच्छी तरह से समझने के लिए, आईए, एक-दो उदाहरणे ले के देखें;

‘पउणु’ संस्कृत के ‘पवन’ से बना ‘पउण’ प्राक्रित रूप है। संस्कृत में ये शब्द ‘पुलिंग’ (Mesculine Gender) है; प्राक्रित में भी पुलिंग ही रहा है, और पुरानी पंजाबी में भी कुछ समय तक के लिए पुलिंग ही रहा। पर धीरे-धीरे ये स्त्री–लिंग (Feminine Gender) के रूप में प्रयोग होना शुरू हुआ; आखिर आजकल ये मुकम्मल तौर पर स्त्रीलिंग शब्द है।

“पवणु गुरु पाणी पिता”– यहाँ ‘पवणु’ (पउण) पुलिंग है। ‘कंनी बुजे दे रहा, किती वगै पउण’– यहाँ शब्द ‘पउण’ स्त्रीलिंग हो गया, चाहे इसके रूप में कोई अंतर नहीं आया।

‘रेणु’, ये शब्द भी संस्कृत का ‘रेणु’ है; वहाँ ये पुलिंग और स्त्रीलिंग दोनों रूपों में ही बरता जाता है। पुरानी पंजाबी में यह केवल स्त्रीलिंग रह गया। सिर्फ यही नहीं रूप भी चार हो गए– रेणु, रेण, रेनु, रेन।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कई प्रमाण इनके सम्बंधी मिल सकते हैं।

इस विचार के सम्बन्ध में नीचे दिया गया सलोक बहुत ही मजेदार होगा;

नानक चिंता मति करहु चिंता तिस ही हेइ॥
जल महि जंत उपाइअनु तिना भि रोजी देइ॥ ...
विचि उपाए साइरा तिना भी सार करेइ॥
नानक चिंता मत करहु चिंता तिस ही हेइ॥1॥18॥

(सलोक महला २, रामकली की वार महला ३)

इस शलोक की पहली और आखिरी तुक केवल शब्द ‘मति’ और ‘मत’ में ‘ि’ मात्रा का ही फर्क है। क्यों? इसलिए कि तब बोली में इस शब्द के दोनों जोड़ (‘मति’ और ‘मत’) प्रचलित थे।

मरणु मुणसा सूरिआ हकु है जो होइ मरनि परवाणो॥
सूरे सेई आगै आखीअहि दरगह पावहि साची माणो॥ ...
मरणु मुणसां सूरिआ हकु है जो होइ मरहि परवाणो॥3॥2॥ (वडहंस महला १, असटपदीआ)

यहाँ भी पहली और आखिरी तुक में केवल शब्द ‘मरनि’ और ‘मरहि’ के ‘न’ और ‘ह’ का अंतर है। कारण वही है कि दोनों रूप प्रचलित थे।

संस्कृत का शब्द ‘धन्य’ के पाँच रूप पुरानी पंजाबी में प्रचलित थे। इनके बरतने में भी कोई भिन्न–भेद नहीं था; एक वचन, पुलिंग, स्त्रीलिंग, सबके लिए एक से ही बरते जाते थे।

कुछ प्रमाण:

धंनि सु थानु धंनि ओइ भवना जा महि संत बसारे॥
जन नानक की सरधा पूरहु ठाकुर भगत तेरे नमसकारे॥2।9।40॥ .(धनासरी महला ५)

धनु सु माणस देही पाई जितु प्रभि अपनै मेलि लीओ॥
धंनु सु कलिजुगु साधसंगि कीरतनु गाईऐ
नानक नामु अधारु हीओ॥4॥8॥47॥ (आसा महला ५)

धनु ओहु मसतकु धनु तेरे नेत॥
धनु ओइ भगत जिन तुम संगि हेत॥1॥104॥173॥ (गउड़ी महला ५)

कोई दुबिधा नहीं

इस विचार से साफ सिद्ध होता है कि जैसे ये उपरोक्त दिए हुए शब्द समय के अनुसार रूप बदलते गए, वैसे ही शब्द ‘वाह’ ने भी दूसरा रूप ‘वाहि’ ले लिया और भाट इन दोनों रूपों को बरतने के वक्त किसी ‘दुबिधा’ में नहीं पड़े, और ना ही और लोगों को किसी संशय में डाल गए।

जल्दबाजी के आगे गड्ढे:

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में 6 गुरु–महलों के अतिरक्त कई अरशी व्यक्तियों की वाणी दर्ज है। एक तो, इनमें से बहुत सारे पंजाब से बाहर रहने वाले होने के कारण इनकी वाणी पंजाबियों के लिए कुछ कठिन है। दूसरा, उस वक्त की पंजाबी बोली भी कुछ अलग ढंग की थी, जिसको अब समझने के लिए खास प्रयासों की आवश्यक्ता महसूस हो रही है। सो, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की सारी वाणी के अर्थ–भाव को समझने के लिए कई मतभेद पैदा हो रहे हैं।

हरेक सज्जन की अपनी–अपनी मेहनत, खोज और विद्या के आधार पर ये मतभेद तो बने ही रहने हैं, पर यदि विद्वान सज्जन मिली–जुली विचार से कोशिश करें, तो शायद मौजूदा बढ़ रही मतभेदता काफी हद तक दूर हो सकती है। पर, ये बात तो काफी आश्चर्यजनक और जल्दबाजी वाली प्रतीत होती है, कि इस तरफ जरूरी सांझा बल बरतने की बजाए कुछ सज्जन अपनी एक–पक्षीय विचार के आसरे यह शक शुरू कर दें कि जिस-जिस वाणी को वे मौजूदा पंजाबी बोली के आधार पर गुरमति के अनुसार नहीं समझ सके, वह शायद मिलावट है। कौम का ध्यान गुरमति–खोज की तरफ लगाना– यह एक सराहनीय प्रयास है, पर इस खोज में लगे हुए प्यारों को ये भी याद रखना चाहिए कि इस वाणी की बोली आज से चार–पाँच सौ साल पहले की है, इसकी सफल खोज तब ही हो सकती है यदि साहित्यिक तौर पर की जाए।

ये बात किसी से छुपी नहीं है कि साहित्य की खोज के ढंग हम लोग पश्चिम से अब सीख रहे हैं, हमारे देश में ये रिवाज़ नहीं था। सो, अगर इस नई रौशनी वाले विद्वान सज्जन इस महान बड़े काम को अपने हाथ में लें, तो नि: संदेह यह एक ऊँची सेवा होगी।

व्याकर्णिक बहुरूपता

भाटों के सवईयों की खोज करने वाले कई सज्जनों द्वारा ये ख्याल प्रकट किए जा रहे हैं कि इस वाणी में ‘गुरु’ की ‘गुर-व्यक्ति’ की उपमा है: गुरमति का ये मनोरथ नहीं है।

आइए, इस अंक में इस बात पर विचार करें। ये तो बताया जा चुका है कि पुरातन पंजाबी में व्याकर्णिक नियम कुछ और तरह के थे, उनमें से एक नियम को (जिसकी इस विचार में जरूरत पड़नी है) समझाने के लिए पहले कुछ प्रमाण बतौर उदाहरण दिए जाते हैं:

रामु झुरै दल मेलवै, अंतरि बलु अधिकार॥
...बंतर की सैना सेवीऐ, मनि तनि जुझु अपारु॥२५॥ ... (सलोक वारां ते वधीक, म: १)

(प्रश्न): कौन झुरै?

(उक्तर): राम। कर्ता कारक, एक वचन।

नानक दुनीआ कैसी होई॥ सालक मितु न रहिओ कोई॥५॥ ... (सलोक वारां ते वधीक, म: १)

(प्रश्न): कौन ना ‘रहिआ’?

(उक्तर): कोई ‘मितु’। ‘मितु’ कर्ता कारक, एक वचन।

जो सिरु साई ना निवै सो सिरु कीजै कांइ॥
...कुंने हेठि जलाईऐ बालण सांदै थाइ॥७२॥ .... (सलोक फरीद जी)

(प्रश्न): कौन ना ‘निवै’?

(उक्तर): जो ‘सिरु’। ‘सिरु’ कर्ता कारक, एक वचन।

फरीदा खालकु खलक महि, खलक वसै रब माहि॥
...मंदा किस नो आखीऐ, जां तिसु बिनु कोई नाहि॥७५॥ ... (म: ५, सलोक फरीद जी)

(प्रश्न): कौन वसै?

(उक्तर): ...‘खालकु’। ‘खालकु’ कर्ता कारक, एक वचन।

जाचिकु नामु जाचै जाचै॥
...सरब धार सरब को नाइक, सुख समूह के दाते॥१॥ रहाउ॥२॥ (कलिआनु म: ५ घरु १)

(प्रश्न): कौन ‘जाचै’?

(उक्तर): ‘जाचिकु’। ‘जाचिकु’ कर्ता कारक, एक वचन।

मेरा मनु साध जना मिलि हरिआ॥
...हउ बलि बलि, बलि बलि साध जनां कउ, मिलि संगति पारि उतरिआ॥१॥ रहाउ॥१॥ (कानड़ा म: ४ घरु १)

(प्रश्न): कौन ‘हरिआ’ हुआ?

(उक्तर): मेरा ‘मनु’। ‘मनु’ कर्ता कारक, एक वचन।

हरि बिनु किउ रहीऐ दुखु बिआपै॥
...जिहवा सादु न, फीकी रस बिनु, बिनु प्रभ कालु संतापै॥१॥ रहाउ॥२॥ ... (सारग म: १)

(प्रश्न): कौन ‘संतापै’?

(उक्तर): ‘कालु’। ‘कालु’ कर्ता कारक, एक वचन।

(प्रश्न): कौन ‘बिआपै’?

(उक्तर): ‘दुखु’। ‘दुखु’ कर्ता कारक, एक वचन।

उपरोक्त दिए प्रमाणों में शब्द ‘रामु’, ‘मितु’, ‘सिर’, ‘खालकु’, ‘जाचिकु’, ‘मनु’, ‘कालु’ और ‘दुखु’ व्याकरण के अनुसार ‘कर्ता कारक, एक वचन’ हैं। ये सारे ही मुक्ता–अंत पुलिंग भी हैं, हरेक के अंत में ‘ु’ है।

कर्ता कारक, एक वचन का चिन्ह ‘ु’:

नोट: ये आखिरी ‘ु’ मुक्ता–अंत पुलिंग–शब्दों के कर्ता कारक, एक वचन का चिन्ह है।

आओ, अब देखें, यह नियम मन–घड़ंत ही है, अथवा बोली के इतिहास के साथ इसका कोई गहरा संबंध है।

संस्कृत धातू ‘या’ का अर्थ है ‘जाना’। वाक्य ‘राम जाता है’ को संस्कृत में इस प्रकार लिखेंगे;

‘रामो याति’

संस्कृत में कर्ता कारक एकवचन का चिन्ह ‘स्’ (:) है, जो कई जगह किसी शब्द के अंत में उ (ु) बन जाता है। जिस अक्षर को पंजाबी में हम मुक्ता–अंत कहते हैं, संस्कृत में उसके अंत में ‘अ’ समझा जाता है।, ‘राम’ शब्द के आखिरी ‘म’ के बीच ‘अ’ भी शामिल है।

‘रामो याति” असल में पहले यूँ है: राम: याति।

राम: का अंतला चिन्ह ‘उ’ (ु) बन के शब्द ‘राम’ के अंतले ‘अ’ के साथ मिल के ‘ओ’ बन जाता है, और सारा वाक्य ‘रामो याति’ हो गया है।

पर, ‘प्राक्रित’ में अक्षरों के आखिरी ‘अ’ की अलग हस्ती नहीं मानी गई। सो (:) के (ु) बनने ओर, यह (ु) पहले अक्षर के साथ सीधा ही बरता गया। संस्कृत के शब्द ‘रामो’ प्राक्रित रूप में ‘रामु’ हो गया।

संस्कृत के कई शब्दों का आरम्भिक ‘य’, प्रा कृत और पंजाबी में ‘ज’ बन गया, क्योंकि ‘ज’ और ‘य’ का उच्चारण–स्थान एक ही है (जीभ को तालू में लगाना), जैसे;

यव – जउं।

यमुना – जमुना।

यज्ञ – जग।

यति – जती।

इसी तरह वाक्य ‘रामो याति’ के ‘याति’ का ‘य’ ‘ज’ बन के बन के सारा वाक्य प्राक्रित में यूँ हो गया;

रामु जादि।

यह वाक्य पुरातन पंजाबी में ‘रामु जांदा’ बन गया।

इस सारी विचार से हमने देख लिया है कि यह (ु) बोली के इतिहास में एक खास मूल्य रखता है।

गुरु नानक अकाल-पुरखु का रूप:

आईए, अब इस नियम की सहायता से ‘श्री मुख बाक्’ सवईयों को ध्यान से पढ़ें;

जनु नानकु भगत, दरि तुलि ब्रहम समसरि, एक जीह किआ बखानै॥
हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि॥१॥
धंनि धंनि ते धंनि जन, जिह क्रिपालु हरि हरि भयउ॥
हरि गुरु नानकु जिन परसिउ, सि जनम मरण दुह थे रहिओ॥५॥
बलिओ चरागु अंध्यार महि, सभ कलि उधरी इक नाम धरम॥
प्रगटु सगल हरि भवन महि, जनु नानकु गुरु पारब्रहम॥९॥

हरेक सवईऐ में पहले अकाल पुरख की बड़ाई कर के अंत में गुरु अरजन साहिब जी गुरु नानक देव जी को उस अकाल-पुरख के ‘समसरि’, ‘तुलि’ बताते हैं। आखिरी सवईऐ में आप फरमाते है;

पारब्रहम का रूप, उस का ‘जनु’ गुरु ‘नानकु’ सारे भवनों में प्रकट है, (गुरु नानक) ‘अंध्यार महि’ ‘चरागु’ ‘बलिओ’ है।

नोट: खोजी विद्वान सज्जन इन 9 ही स्री मुख बाक् सवईयों को दो–चार बार ध्यान से पढ़ के देखें। यहाँ गुरु नानक देव जी को अकाल पुरख का रूप कह: कह के गुरु नानक साहिब जी का नाम ले–ले के उनकी बड़ाई की गई है।

भाटों ने भी अपनी वाणी में यही काम किया है। दोनों का मनोरथ एक ही है।

और भी कई जगह ऐसे प्रमाण:

गुरु नानक देव जी को और गुरु को केवल इन सारे सवईयों में पारब्रहम के ‘तुलि’ नहीं कहा गया, और भी कई जगह वाणी में इस तरह के प्रमाण मिलते हैं; उदाहरण के तौर पर निम्न-लिखित कुछ प्रमाण यहाँ दिए जा रहे हैं;

भैरउ महला ५॥

सतिगुरु मेरा बेमुहताजु॥ सतिगुर मेरे सचा साजु॥
सतिगुरु मेरा सभस का दाता॥ सतिगुरु मेरा पुरखु बिधाता॥१॥
गुर जैसा नाही को देव॥ जिसु मसतकि भागु सु लागा सेव॥१॥ रहाउ॥
.... जिनि गुरु सेविआ तिसु भउ न बिआपै॥
जिनि गुरु सेविआ तिसु दुखु न संतापै॥
नानक सोधे सिंम्रिति बेद॥ पारब्रहम गुर नाही भेद॥४॥११॥२४॥ (पन्ना ११४२)

भाव: पारब्रहम और गुरु में भेद नहीं है।

सूही महला ५॥
जिस के सिर ऊपरि तूं सुआमी सो दुखु कैसा पावै॥
बोलि न जाणै माइआ मदि माता मरणा चीति न आवै॥१॥ ....
गिआनु धिआनु किछु करमु न जाणा सार न जाणा तेरी॥
सभ ते वडा सतिगुरु नानकु जिनि कल राखी मेरी॥४॥१०॥५७॥ (पन्ना ७४९–७५०)

रागु सूही महला ५ घरु ६॥
सतिगुर पासि बेनंतीआ मिलै नामु आधारा॥
तुठा सचा पातसाहु तापु गइआ संसारा॥१॥ ....
सभे इछा पूरीआ जा पाइआ अगम अपारा॥
गुरु नानकु मिलिआ पारब्रहमु तेरिआ चरणा कउ बलिहारा॥४॥१॥४७॥ (पन्ना ७४६)

गउड़ी पूरबी महला ४॥
तुम दइआल सरब दुख भंजन इक बिनउ सुनहु दे काने॥
जिस ते तुम हरि जाने सुआमी सो सतिगुरु मेलि मेरा प्राने॥१॥
राम हम सतिगुर पारब्रहम करि माने॥
हम मूढ़ मुगध असुध मति होते गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम जाने॥१॥ रहाउ॥१८॥५६॥ (पन्ना १६९)

गउड़ी महला ५॥
गुर का सबदु लगो मनि मीठा॥ पारब्रहमु ता ते मोहि डीठा॥३॥
गुरु सुखदाता गुरु करतारु॥ जीअ प्राण नानक गुरु आधारु॥४॥१०७॥ (पन्ना १८७)

गउड़ी महला ५ मांझ॥
भए क्रिपाल गुसाईआ, नठे सोग संताप॥
तती वाउ न लगई, सतिगुरि रखे आपि॥३॥
गुर नाराइणु, दयु गुरु, गुरु सचा सिरजणहारु॥
गुरि तुठै सभ किछु पाइआ जन नानक सद बलिहार॥४॥२॥१७०॥ (पन्ना २१८)

मलार महला ४॥
सतिगुरु हरि हरि नामु द्रिढ़ावै॥
हरि बोलहु गुर के सिख मेरे भाई हरि भउजलु जगतु तरावै॥१॥ रहाउ॥
जो गुर कउ जनु पूजे सेवे, सो जनु मेरे हरि प्रभ भावै॥
हरि की सेवा सतिगुरु पूजहु करि किरपा आपि तरावै॥२॥ ...
सतिगुरु देउ परतखि हरि मूरति, जो अंम्रित बचन सुणावै॥
नानक भाग भले तिसु जन के, जो हरि चरणी चितु लावै॥५॥४॥ (पन्ना १२६३–१२६४)

गुरु रामदास साहिब जी के उपरोक्त शब्द के साथ भाट मथुरा जी का निम्न-लिखित सवईया (जो आप ने श्री गुरु अरजन साहिब जी की उपमा में उचारा है) थोड़ा ध्यान से पढ़ें तो शब्द ‘परतखि हरि’ क्या मजेदार भाव प्रकट करते हैं;

धरनि गगन नव खंड महि जोति स्वरूपी रहिओ भरि॥
भनि मथुरा कछु भेदु नही गुरु अरजुन परतख् हरि॥७॥१९॥

(सवईऐ महले पंजवे के, मथुरा जी)

सिरीरागु महला ५॥
मेरे मन, गुर जेवडु अवरु ना कोइ॥
दूजा थाउ न को सुझै गुर मेले सचु सोइ॥१॥ रहाउ॥
सगल पदारथ तिसु मिले जिनि गुर डिठा जाइ॥
गुर चरणी जिन मनु लगा से वडभागी माइ॥
गुरु दाता, समरथु गुरु, गुरु सभ महि रहिआ समाइ॥
गुरु परमेसरु पारब्रहमु, गुरु डुबदा लए तराइ॥२॥
कितु मुखि गुरु सालाहीऐ करण कारण समरथु॥
से मथे निहचल रहे जिन गुरि धारिआ हथु॥
गुरि अंम्रित नामु पीआलिआ जनम मरन का पथु॥
गुर परमेसरु सेविआ भै भंजनु दुख लथु॥३॥२०॥९०॥ (पन्ना ४९)

नोट: इस सारे शब्द की हरेक तुक को ध्यान से पढ़ें ‘रहाउ’ की तुक में ‘गुर’ की स्तुति शुरू की है, इसके अनुसार सारे शब्द में ‘गुरु’ उपमा है, और ‘गुरु’ को ‘दाता’, ‘समरथु’, ‘करण कारण समरथु’, ‘परमेसरु’, ‘पारब्रहमु’, ‘सभ महि रहिआ समाइ’ कहा है।

गुरु ग्रंथ साहिब में ‘गुरु’ को ‘समरथु, परमेसरु’, ‘पारब्रहमु’ कहने वाले सैकड़ों शब्द हैं, पाठक अपने वास्ते आप देख लें। अगर सतिगुरु जी के अपने मुखारबिंद से उचारे हुए शबदों में ‘गुरु’ को ये पदवी मिल सकती है और गुरमति के अनुसार है, तो भाटों का सतिगुरु जी को यही पदवी देना गुरमति के विरुद्ध नहीं हो सकता।

सो, इस उपरोक्त विचार से ये स्पष्ट है कि भाटों के सवईयों में केवल ‘सतिगुरु’ की बड़ाई है। जो शब्द ‘वाहिगुरू’ यहाँ पर बरते गए हैं, ये एक साबत शब्द नहीं हैं: ‘वाहि’ अथवा ‘वाह’ और ‘गुरु’ अलग-अलग।

भाग–5

‘वाहिगुरू’ गुरमंत्र बारे

वाहिगुरू गुरमंत्र है, जपि हउमै खोई॥
आपु गवाए आपि है, गुण गुणी परोई॥२॥१३॥
वेदु न जाणै भेदु किहु, सेखनागु न पाए॥
वाहिगुरू सालाहणा, गुरसबदु अलाए॥१३॥९॥
निरंकारु आकारु करि, जोति सरूपु अनूप दिखाइआ॥
वेद कतेब अगोचरा, वाहिगुरू गुर सबदु सुणाइआ॥१७॥१२॥
धरमसाल करतार पुरु, साध संगति सच खंडु वसाइआ॥
वाहिगुरू गुर सबदु सुणाइआ॥१॥२४॥ .... (वारां, भाई गुरदास जी)

‘गुरमुंत्र’ गुरु ग्रंथ साहिब में

साधारण तौर पर ये ख्याल बना हुआ था कि यही ‘गुरमंत्र’ भाटों के सवईयों में भी मिलता है। पर जिस सज्जनों ने भाटों के सवईयों को खंडन करने का बीड़ा उठाया, उन्हें शायद ये आवश्यक्ता भी महसूस हुई कि ‘गुरमंत्र’ वाणी में और किसी जगह भी मिल सके। सो, यह सज्जन आम तौर पर नीचे लिखे दो प्रमाण पेश करते हैं;

वेमुहताजा वेपरवाह नानक दास कहहु गुर वाहु॥४॥२१॥ ... (आसा म: ५)

वाहु वाहु गुरसिख नित करहु गुर पूरे वाहु वाहु भावै॥
नानक वाहु वाहु जो मनि चिति करे तिसु जमकंकरु नेड़ि न आवै॥२॥१॥ (महला ३, गूजरी की वार म: ३)

इस पुस्तक के पिछले भाग में भी हम देख आए हैं कि भाटों के सवईयों के बीच का शब्द ‘वाहि’ और ‘गुरु’ अकाल-पुरख–वाचक नहीं है। भाई गुरदास जी की वाणी में प्रत्यक्ष रूप से बरता हुआ ‘गुरमंत्र’ स्वीकार करने में उन सज्जनों को ये ऐतराज है कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में नहीं मिलने पर ‘गुरमंत्र’ को गुप्त रखने का दोष आता है।

ऐतराज अभी भी कायम

पर, ये ऐतराज तो अभी भी नहीं मिटा। अगर ‘वाहिगुर’ गुरमंत्र स्थापित कर भी लें तो भी यह वाणी तो गुरु अमरदास जी की है। गुरु नानक साहिब और गुरु अंगद साहिब ने फिर भी गुप्त ही रख लिया। वैसे अगर थोड़ा सा धीरज से विचार किया जाए, तो इन दोनों प्रमाणों में से गुरमंत्र ‘वाहगुर’ बनता ही नहीं है। पहले प्रमाण में शब्द ‘गुर वाहु’ है, अगर इसको पलट के ही ‘वाहगुर’ बनाना है, तो असली तुक में तो फिर भी गुरमंत्र गुप्त ही रहा। दूसरे प्रमाण में से गुरमंत्र ‘वाहु गुर’ बनाना तो स्पष्ट तौर पर कल्पित प्रयत्न ही दिखाई दे रहा है। इस ‘वार’ में महले तीसरे के यह बहुत सारे शलोक हैं, जिस में शब्द ‘वाहु वाहु’ आए हैं; हर जगह शब्द ‘वाहु’ दो बार आया है, अर्थ हर जगह दोनों का एक ही है, भाव ‘महिमा’। केवल इस अकेली जगह पर इन शब्दों को अलग-अलग करके देखना फबता नहीं है। यदि केवल इनी दोनों तुकों को ही विचारें तो अर्थ यूँ बनता है;

पूरे गुरु को ‘वाहु वाहु’ (भाव, महिमा) भाता है; हे नानक! जो (मनुष्य) मन में चिक्त में ‘वाहु वाहु’ करता है, जमकंकर उसके नजदीक नहीं आता, (इसलिए) हे गुरसिखों! नित्य सारे ‘वाहु वाहु’ कहो।

‘गुर वाह’ का अर्थ

पहले प्रमाण में शब्द ‘गुर वाहु’ का अर्थ समझने के लिए पाठकों के सामने दो प्रमाण रखे जाते हैं;

उझड़ि भुले राह गुरि वेखालिआ॥ सतिगुर सचे वाहु सचु समालिआ॥२४॥ (माझ की वार म: १)

वाहु वाहु सतिगुरु पुरखु है, जिनि सचु जाता सोइ॥
जितु मिलिऐ तिख उतरै, तनु मनु सीतलु होइ॥
वाहु वाहु सतिगुरु सति पुरखु है, जिस नो समतु सभ कोइ॥
वाहु वाहु सतिगुरु निरवैरु है, जिसु निंदा उसतति तुलि होइ॥
वाहु वाहु सतिगुरु सुजाणु है, जिसु अंतरि ब्रहमु वीचारु॥
वाहु वाहु सतिगुरु निरंकारु है, जिसु अंत न पारावारु॥
वाहु वाहु सतिगुरु है, जि सचु द्रिढ़ाए सोइ॥
नानक सतिगुरु वाहु वाहु, जिस ते नामु परापति होइ॥२॥ ...(सलोक म: ४, वारां ते वधीक)

इस दूसरे प्रमाण की पहली सात तुकों में शब्द ‘सतिगुरु’ व्याकरण के अनुसार कर्ता कारक, एक वचन (Nominative case, singular Number) है, क्रिया (Verb) ‘है’ का यह शब्द ‘कर्ता (Subject) है। इस तरह इन तुकों का अर्थ यूँ है;

धन्य है सतिगुरु पुरखु जिस ने उस सच्चे हरि को जान लिया, धन्य है धन्य है सतिगुरु निरवैर जिसको निंदा स्तुति एक समान ही है, धन्य है सतिगुरु निरंकार (–रूप) जिसका अंत नहीं पाया जाता...।

पर आखिरी तुक में शब्द ‘सतिगुर’ कर्ता कारक नहीं है, इसका रूप बदल गया है, ना ही यहाँ क्रिया ‘है’ मिलती है। तुक का अर्थ करने के लिए, आईए, तीनों प्रमाण एक साथ पढ़ें;

नानक दास कहहु गुर वाहु॥
सतिगुर सचे वाहु सचु समालिआ॥
नानक सतिगुर वाहु वाहु जिस ते नामु परापति होइ॥

इन तीनों ही तुकों में शब्द ‘गुर’ मुक्ता–अंत है, इनका ‘कारक’ एक ही है, अर्थ इस प्रकार बनेगा;

(3) हे नानक! सतिगुरु (को) वाहु वाहु (भाव, धन्य धन्य) (कहहु), जिस (सतिगुर) से नामु परापति होय।

(2) सच्चे सतिगुर (को) वाहु (भाव, धन्य) (कहहु) (जिनि) सचु समालिआ।

इसी तरह

(1) हे नानक दास! गुर (को) वाहु (भाव, धन्य) कहहु।

अगर ‘वाहु वाहु’ को पलट के गुरमंत्र मिल सकता है, तो ‘सतिगुर वाहु’ को उलट के भी गुरमंत्र ही बन जाना चाहिए, क्योंकि ‘गुरमंत्र प्रबोध’ पुस्तक में ये शब्द ‘गुर’ और ‘सतिगुर’ (मुक्ता–अंत अर्थात जिस शब्द के अंत में ‘ु’ मात्रा नहीं लगी हुई) को अकाल–वाचक कहते हैं, और शब्द ‘गुरु’ ‘सतिगुरु’ को गुरां का वाचक कहते है।

नियम वह जो हर जगह फिट हो सके

पर नियम वह ही माने जा सकते हैं जो साहित्यिक तौर पर और बोली में मेल खाते हों, और हर जगह फिट बैठते हों। अगर शब्द ‘गुर’ (मुक्ता–अंत) को अकाल–बोधक और ‘गुरु’ (ु – अंत) को गुरु–बोधक मान लें तो शब्द ‘गुरि (ि– अंत) के क्या अर्थ करेंगे? सिर्फ यही नहीं, सैकड़ों मुक्ता–अंत पुलिंग शब्द इन तीन रूपों में मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर

(1) पिर, पिरु, पिरि... (2) घर, घरु, घरि

(3) ग्रिह, ग्रिहु, ग्रिहि... (4) सबद, सबदु, सबदि

(5) जल, जलु, जलि... (6) हुक्म, हुकमु, हुकमि

इसी तरह

(7) गुर, गुरु, गुरि।

कारक चिन्ह (Case Terminations) लगाने से शब्दों के अपने निज अर्थ नहीं बदल सकते।

प्रमाण:

मुंधे ‘पिर’ बिनु किआ सीगारु॥ रहाउ॥१३॥ ... (सिरी रागु म: १)

‘पिर’ रीसालु ता मिलै, जा गुर का सबदु सुणी॥२॥१०॥ ...

(सिरी रागु म: १)

‘पिरि’ छोडिअड़ी सुती, ‘पिर’ की सार न जाणी॥१॥४॥ ...

(तुखारी म: १ छंत)

‘घर’ महि ‘घरु’ जो देखि दिखावै॥५॥४॥ .... (बसंतु म: १ असटपदीआ

‘घरि’ वरु सहजु न जाणै छोहरि, बिनु पिर नीद न पाई है॥१॥३॥ ...

(मारू सोलहे म: १)

‘ग्रिह’ राज महि नरकु,, उदास करोधा॥२॥१॥७॥ ...

(मारू म: ५ अंजुलीआ)

‘ग्रिहु’ वसि गुरि कीना, हउ घर की नारि॥१॥४॥ ... (सूही म: ५)

‘ग्रिहि’ लाल आए, पुरबि कमाए, ता की उपमा किआ गणा॥४॥४॥ ...

(रामकली म: ५ छंत)

‘सबद’ सेती मनु मिलिआ, सचै लाइआ भाउ॥२५॥

गुर का ‘सबदु’ रतंनु है, हीरे जितु जड़ाउ॥२५॥ .. (रामकली अनंदु म: ३)

‘सबदि’ मरहि, से मरणु सवारहि॥३॥२३॥ (मारू सोलहे म: ३)

‘जल’ बिनु पिआस न उतरै, छुटकि जांहि मेरे प्रान॥2॥13॥ कृ

(म: ३ मलार की वार)

‘जलु’ मथीऐ, ‘जलु’ देखीऐ भाई, इहु जगु एहा वथु॥५॥२॥ ...

(सोरठि म: १, असटपदीआ)

‘जलि’ मलि काइआ माजीऐ, भाई भी मैला तनु होइ॥५॥४॥ ...

(सोरठि म: १, असटपदीआ)

‘हुकम’ कीए मनि भावदे, राहि भीड़ै अगै जावणा॥१४॥ ...

(आसा दी वार म: १,)

‘हुकमु’ करहि मूरख गावार॥४॥३॥ ... (बसंत म: १)

‘हुकमि’ चलाए सचु नीसानां॥५॥२॥१९॥ ... (मारू सोलहे म: १)

इसी तरह;

‘गुर’ की सेवा चाकरी मनु निरमलु सुखु होइ॥६॥१२॥ ...

(सिरीरागु म: १)

‘गुरु’ डिठा तां मनु साधारिआ॥७॥ (सता बलवंड वार)

‘गुरि’ अंकसु सबदु दारू सिरि धरिओ, घरि मंदरि आणि वसाईऐ॥१॥६॥ ... (बसंतु म: ४)

पुस्तक का आकार बड़ा हो जाने के डर से, यहाँ इन शब्दों की व्याकर्णिक संरचना तो समझाई नहीं जा सकती; पर नीचे दिए भाटों के सवईयों में से कुछ प्रमाण दिए जाते हैं, जिनको ध्यान से पढ़ के पाठक जन ये समझ सकते हैं कि व्याकरण के जो नियम सतिगुरु जी की अपनी वाणी में मिलते हैं, वही नियम भाटों की वाणी में भी बरते हुए मिलते हैं।

गुरबाणी और भाट वाणी में वही व्याकर्णिक नियम

पुलिंग, कर्ता कारक, एक वचन:

राजु जोगु माणिओ बसिओ ‘निरवैरु’ रिदंतरि॥६॥

स्री ‘गुरू राजु’ अबिचलु अटलु आदि पुरखि फुरमाइओ॥७॥ ...

(सवईऐ महले पहले के १)

सोई ‘पुरखु’ धंनु करता कारणु करतारु करणु समरथो॥१॥

तू ता जनिक राजा ‘अउतारु’...॥३॥

हरि पसरिओ कलु समुलवै जन ‘दरसनु’ लहणे भयो॥६॥

‘गुरु’ नवनिधि दरीआउ जनम हम कालख धोवै॥१०॥

(सवईऐ महले दूजे के २)

तितु नामि रसिकु ‘नानकु’...॥१॥

सोई ‘नामु’ अछलु ‘भगतह’ ‘भव तारणु’ अमरदास गुरकउ फुरिआ॥३॥

‘नामु’ सिरोमणि सरब मै भगत रहे लिव धारि॥ ...

(सवईए महले तीजे के ३)

‘गुरु– जिन् कउ सुप्रसंनु ‘नामु’ हरि रिदै निवासै॥११॥

कचहु ‘कंचनु’ भइअउ सबदु गुर स्रवणहि सुणिओ॥२॥६॥ ....

(सवईए महले चउथे के ४)

‘गुरु’ अरजुनु पुरखु प्रमाणु पारथउ चालै नही॥१॥ सोरठे॥

गुरु अरजुनु, घरि गुर रामदास अपरंपरु बीणा॥३॥

भनि मथुरा कछु भेद नही गुरु अरजुनु परतख्य हरि॥७॥१९॥

हरिबंस जगति जसु संचर्उ सु ‘कवणु’ कहै स्री गुरु मुयउ॥१॥

(सवईऐ महले पंजवें के ५)

संबंधकों के साथ मुक्ता–अंत रूप:

‘गुर बिनु’ घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै॥
गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै॥ ...

(सवईऐ महले चउथे के, नल्य)

‘गुर के’ बचन सति जीअ धारहु॥ माणस जनमु देह निस्तारहु॥१॥

(सवईऐ महले चौथे के, गयंद)

परतापु सदा ‘गुर का’ घटि घटि परगासु भया जसु जन कै॥४॥ ...

(सवईऐ महले चौथे के, गयंद)

संबंध कारक, एक वचन (मुक्ता–अंत):

कबि कल सुजसु गावउ ‘गुर नानक’ राजु जोगु जिनि माणिओ॥३॥ ...

(सवईऐ महले पहले के, कल्य)

गुर नानक सुजसु– गुरु नानक का सुंदर यश।

संसारि सफलु गंगा ‘गुर दरसनु’ परसन परम पवित्र गते॥
जीतहि जम लोकु पतित जे प्राणी हरि जन सिव गुर ग्यानि रते॥२...

(सवईऐ महले चौथे के, गयंद)

गुर दरसनु–गुरु का दर्शन। गुर ग्यानि–गुरु के ज्ञान में।

तै ता हदरथि पाइओ मानु सेविआ गुरु परवानु साधि अजगरु जिनि कीआ उनमानु॥
हरि हरि दरस समान आतमा वंत गिआन जाणीअ अकल गति गुर परवान॥५॥ (सवईए महले दूजे के, कल्य)

नोट: पहली तुक में ‘गुरु परवानु’ कर्म कारक, एक वचन है; सो, (ु– अंत) है। दूसरी तुक में;

गुर परवान अकल गति– स्वीकार गुरु की गूझी गति।

शब्द का असली अर्थ वही रहेगा:

इस भाग की विचार में हम समझ चुके हैं कि कोई शब्द केवल कारक–चिन्ह के बदलने से अपने असली अर्थ से नहीं बदलता। सो, शब्द ‘गुर’ का अर्थ ‘अकाल-पुरख’ केवल इसलिए नहीं बन सकता कि यह मुक्ता–अंत है। पंजाबी में शब्द ‘गुर’ मुक्ता–अंत है, व्याकर्णिक संबंध के कारण कभी ये ‘गुरु’ और कभी ‘गुरि’ बन जाता है। हमने ये भी देख लिया है कि सज्जन जनों के दिए हुए प्रमाणों में से गुर मंत्र ‘वाहगुर’ नहीं बन सका।

सारी विचार का संक्षेप:

गुरु रामदास जी ने देहांत का समय नजदीक जान के गुरता–गद्दी की जिम्मेवारी गुरु अरजन साहिब जी को सौंपी, और खुद श्री रामदास पुर से गोइंदवाल साहिब चले गए। यहीं ही आप अगस्त 1581ईसवी में ज्योति से ज्योति समाए।

दस्तार–बंदी की रस्म के वक्त दूर-दूर से सिख–संगतें गुरु अरजुन जी के दीदार के लिए आई। उन्हीं दिनों भाट भी संगतों के साथ गोइंदवाल आए। दीदार की इनायत से चिक्त गुरु की सिफति करने के उमाह में आया, और गुरु–उपमा में उन्होंने यह ‘सवईऐ’ उचारे, जिनको समय सिर गुरु अरजन साहिब जी ने ‘श्री मुखवाक’ सवईयों समेत श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज किया।

यह साखी इन भाटों की वाणी में से ही मिल जाती है। भाट ‘नल्य’ गोइंदवाल की स्तुति करता है और भाट ‘हरिबंस’ गुरु रामदास जी के ‘देव पुरी में जाने और गुरु अरजुन साहिब जी के सिर पर गुरियाई का छत्र झूले का जिक्र करता है।

जिस भाटों की वाणी ‘बीड़’ में दर्ज है, उनके नाम ये हैं;

कल्यसहार, (जिसके दूसरे नाम ‘कल्य’ और ‘टल्’ भी हैं)।

जालप, जिसका दूसरा नाम ‘जल्य’ है।

कीरत, 4. भिखा, 5. सल्य, 6. भल्य, 7. नल्य, 8. गयंद, 9. मथुरा, 10. बल्य और 11. हरिबंस।

‘कल्यसहार’ इनका नेता, जत्थेदार था, ये सारे मिल के ही गुरु अरजन साहिब के दीदार को आए थे।

सवईयों में केवल ‘गुरु’ की बड़ाई की गई है ‘गुरु’ उपमा करने के वक्त ‘गुर व्यक्ति’ की उपमा होनी स्वाभाविक बात थी, इन्होंने गुरु नानक साहिब से ले के गुरु अरजन साहिब तक हरेक ‘गुर–महले’ की सिफति उचारी है।

व्याज निंदा नहीं

भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन भाटों के सवईयों के भी विरुद्ध थे। वह लिखते हैं: “भाट असल में माँग के खाने वालों का टोला है जिनका काम स्तुति करके माँगना और खाना है। हो सकता है भाटों ने भी गुरु–स्तुति के ख्याल से कविता रची हो, पर ये असल में गुरु–निंदा है।

भाटों ने गुरु–उपमा करते हुए हिन्दू–अवतारों का जिक्र किया है, जिनके साथ अनेक ऐसी साखियां हिन्दू–मिथिहास ने जोड़ी हुई हैं जो गुरमति के धुरे से मानी नहीं जा सकतीं।”

‘छलिओ बलि’ के शीर्षक तले भाट–वाणी के विरोधी सज्जन राजा बलि वाली पौराणिक साखी दे के आखिर में लिखते हैं: “क्या गुरु नानक साहिब जी ऐसे थे जो ऐसी मन–मन भरी गप्पों में पड़े रहे? ”

‘रामु रघुवंसु’ के शीर्षक तहत लिखे पंडित हृदय राम के लिखे हनूँमान नाटक में से हवाले देते हैं जो श्री रामचंद्र जी की शान को चमका नहीं सकते। आखिर में वह सज्जन यह लिखने पर मजबूर हैं: “पर, भाट गुरु महाराज की उपमा इस तरह करते हैं कि हे गुरु! राघवों के वंश में शिरोमणी राजा दशरथ के घर प्रकट हुए आप रामचंद्र हो।....गुरु साहिबान को रामचंद्र जनक आदि राजाओं का दर्जा दे के निवाजना गुरु साहिबान की सख्त निरादरी है।”

‘दुआपरि क्रिशन मुरारि’ के शीर्षक तहत ‘चीर हरन कथा’ दे के आप लिखते हैं: “क्या हमारे गुरु साहिबान ऐसी कृष्ण–लीला रच के...?

भाट साहिब तो साफ कह रहे हैं कि गुरु नानक! तू कृष्ण मुरारी है, तूने द्वापर युग में ये करिश्मे किए। सोचो, ये स्तुति है या निंदा? ”

भाट–वाणी के विरोधी सज्जन जी का गुरमुखी के वास्ते प्यार और जज़्बा सचमुच ही सराहनीय है। पर, विचार–धारा के फर्क को धैर्य और सहजता से पड़चोलने पर सुखद नतीजे निकल सकते हैं। भाटों का दृष्टिकोण ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे वास्ते तो गुरु नानक पातशाह ही वह श्री रामचंद्र है वह श्री कृष्ण है जिनको अपने-अपने युग का शिरोमणी माना जा रहा है और जिनके जीवन के साथ उन के श्रद्धालु कई किस्म की कहानियां जोड़ते चले आ रहे हैं।

भाट–वाणी के विरोधी सज्जन अपनी पुस्तक के आखिर में भाई मनी सिंघ जी का वर्णन करते हुए इस तरह लिखते हैं: “भाई मनी सिंघ जी शहीद पर ये झूठा इल्ज़ाम लगाया कि उनको ‘बीड़’ का क्रम भंग करने के कारण खालसा पंथ ने श्राप दिया था कि तुर्क उनके बंद–बंद (टुकड़े–टुकड़े) कटवाएंगे।” इस तरह भाई साहिब जी की शहीदी को भी सज़ा मिलनी साबित किया गया।

भाई मनी सिंघ जी के इस महान साहित्यिक उद्यम की तरफ ऊपर इशारा किया गया है, वह सारा संग्रह इस समय सरदार गुलाब सिंह जी सेठी के पास (17– हनूमान रोड, नई दिल्ली) में बताया जाता है। भाई साहिब जी की यह महान मेहनत संबत् 1770 में खत्म हुई थी (भाव, संन् 1713 में, गुरु गोबिंद सिंघ जी की शहादत के पाँच साल बाद)।

ये बात पंथ–प्रसिद्ध है कि भाई मनी सिंघ जी दसवाँ पातिशाह जी के वक्त रोजाना दीवान में गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी की कथा किया करते थे। उनका ये उद्यम इतना सफल हुआ, कि उनके नाम पर गुरु ग्रंथ साहिब की कथा की एक संप्रदाय ही चली हुई है।

ज्ञानी गिरजा सिंह जी की खोज के अनुसार भाई मनी सिंघ जी का जन्म संमत् 1714 (सन् 1644) में हुआ था। वह 13 साल की आयु के थे जब वे गुरु हरि राय जी की शरण आए। संमत 1756 (तदानुसार संन् 1699) में आपने अमृतपान किया। गुरु-व्यक्तियों के क्रम–अनुसार सारे गुरु–ग्रंथ साहिब की वाणी लिखने के उद्यम को सिख–इतिहास अब तक भाई मनी सिंघ जी के साथ ही जोड़ता आ रहा है, और, उस संग्रह में भगतों की वाणी भी मौजूद है और भाटों के सवईऐ भी मौजूद हैं।

इन बाणियों के विरुद्ध कड़वे और श्रद्धा–हीन बोल लिखने और बोलने वाले सज्जनों की सेवा में विनती है कि इस अति–गंभीर मामले को गंभीरता से ही विचारना चाहिए।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh