श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सदा अकल लिव रहै करन सिउ इछा चारह ॥ द्रुम सपूर जिउ निवै खवै कसु बिमल बीचारह ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: अकल = कला (अंग) रहित, एक रस सर्व व्यापक प्रभू। लिव = बिरती। करन सिउ = करनी में। इछा चारह = स्वतंत्र। द्रुम = वृक्ष। सपूर = (फलों से) भरा हुआ। खवै = सहता है। बिमल = निर्मल।

अर्थ: (हे गुरू अंगद!) तेरी बिरती सदा अकाल-पुरख में टिकी रहती है, करणी में तू स्वतंत्र है (भाव, तेरे ऊपर माया आदि का बल नहीं पड़ सकता)। जैसे फल वाला वृक्ष झुकता है और दुख सहता है, वैसे ही (गुरू अंगद की) निर्मल विचार है, (भाव, गुरू अंगद भी इसी तरह झुकता है, और संसारी जीवों की खातिर तकलीफें सहता है)।

इहै ततु जाणिओ सरब गति अलखु बिडाणी ॥ सहज भाइ संचिओ किरणि अम्रित कल बाणी ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: ततु = भेद। सरब गति = सर्व व्यापक। अलखु = जिसका भेद ना पाया जा सके। बिडाणी = आश्चर्यजनक। सहज भाइ = सहज स्वाभाव ही। किरणि = किरण द्वारा। कल = सुंदर।

अर्थ: (हे गुरू अंगद!) तूने ये भेद पा लिया है कि आश्चर्यजनक और अलख हरी सर्व-व्यापक है। अमृत-भरी सुंदर बाणी-रूप किरण के द्वारा (संसारी जीवों के हृदय में) तू सहज स्वभाव ही अमृत सींच रहा है।

गुर गमि प्रमाणु तै पाइओ सतु संतोखु ग्राहजि लयौ ॥ हरि परसिओ कलु समुलवै जन दरसनु लहणे भयौ ॥६॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: गुर गमि प्रमाणु = गुरू नानक वाला दर्जा। गमि = गम्य, जिस तक पहुँच हो सके। गुर गमि = जहाँ गुरू (नानक) की पहुँच है। प्रमाणु = दर्जा। ग्राहजि लयौ = ग्रहण कर लिया है। समुलवै = ऊँचा पुकारता है। दरसनु लहणे = लहणे जी का दर्शन। भयौ = हुआ।

अर्थ: (हे गुरू अंगद!) तूने गुरू (नानक देव जी) वाला दर्जा हासिल कर लिया है, और सत-संतोख को ग्रहण कर लिया है। कल्सहार (कवि) ऊँचा पुकार के कहता है- 'जिन जनों को लहणा जी का दर्श्न हुआ है, उन्होंने अकाल-पुरख को परस लिया है'।6।

मनि बिसासु पाइओ गहरि गहु हदरथि दीओ ॥ गरल नासु तनि नठयो अमिउ अंतरगति पीओ ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: मनि = मन में। बिसासु = श्रद्धा। गहरि = गंभीर (हरी) में। गहु = पहुँच। हदरथि = हजरत ने, गुरू नानक ने। गरल = विष, जहर। तनि = शरीर में से। अमिओ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अंतर गति = आत्मा के बीच, अपने अंदर। पीओ = पीया है।

अर्थ: ( हे गुरू अंगद!) तूने अपने मन में श्रद्धा प्राप्त की है, हजूर (गुरू नानक जी) ने तुझे गंभीर (हरी) में पहुँच दे दी है। नाश करने वाला जहर (भाव, माया का मोह) तेरे शरीर में से भाग गया है और तूने अंतरात्मे नाम-अमृत पी लिया है।

रिदि बिगासु जागिओ अलखि कल धरी जुगंतरि ॥ सतिगुरु सहज समाधि रविओ सामानि निरंतरि ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: अलखि = अकाल-पुरख ने। कल = सक्ता। जुगंतरि = जुगों में। रिदि = हृदय में। बिगासु = प्रकाश। रविओ = व्यापक है। सामानि = एक जैसा। निरंतरि = सबके अंदर, एक रस, अंतर के बिना। सहज = आत्मिक अडोलता (की)।

अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने अपनी सक्ता (सारे) जुगों में रखी हुई है, उसका प्रकाश (गुरू अंगद के) हृदय में जाग उठा है। अकाल-पुरख एक-रस सबके अंदर व्याप रहा है, उसमें सतिगुरू (अंगद देव) आत्मिक अडोलता में समाधि जोड़े रखता है।

उदारउ चित दारिद हरन पिखंतिह कलमल त्रसन ॥ सद रंगि सहजि कलु उचरै जसु ज्मपउ लहणे रसन ॥७॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: उदारउ चित = उदार चिक्त वाला। दारिद हरन = गरीबी दूर करने वाला। पिखंतिह = देखते हुए ही। कलमल = पाप। त्रसन = डरना। सद = सदा। रंगि = रंग में, प्रेम से। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। उचरै = कहता है। जस = शोभा। जंपउ = मैं उचारता हूँ। रसन = जीभ से।

अर्थ: कल्सहार कहता है- 'मैं अपनी जीभ से सदा प्रेम में और आत्मिक अडोलता में (टिक के) उस लहणे जी का यश उचारता हूँ, जो उदार-चिक्त वाला है, जो गरीबी दूर करने वाला है, और जिसको देख के पाप त्राहि जाते हैं।7।

नामु अवखधु नामु आधारु अरु नामु समाधि सुखु सदा नाम नीसाणु सोहै ॥ रंगि रतौ नाम सिउ कल नामु सुरि नरह बोहै ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: अवखधु = दवाई, जड़ी बूटी। समाधि सुखु = वह सुख जो समाधी लगाने से मिलता है। नाम नीसाणु = नाम का झण्डा। सोहै = शोभता है। रंगि रतौ = रंग में रंगा हुआ। नाम सिउ = नाम की बरकति से। सुरि = देवते। नरह = मनुष्यों को। बोहै = सुगंधित करता है। कल = हे कल्सहार!

अर्थ: अकाल पुरख का नाम (सारे रोगों की) दवाई है, नाम (सबका) आसरा है और नाम ही समाधि वाला आनंद है; अकाल-पुरख के नाम का झण्डा सदा शोभ रहा है। हे कल्सहार! हरी-नाम की बरकति से ही (गुरू अंगद) रंग में रंगा हुआ है। यह नाम देवताओं और मनुष्यों को सुगंधित कर रहा है।

नाम परसु जिनि पाइओ सतु प्रगटिओ रवि लोइ ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै अठसठि मजनु होइ ॥८॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: परसु = छूह। जिनि = जिस ने। सतु रवि = सत धरम रूप सूरज। लोइ = सृष्टि में। दरसनि परसिअै = दर्शन करने से। अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। मजनु = स्नान। सतु = ऊँचा आचरण।

अर्थ: जिस मनुष्य के नाम की छोह (गुरू अंगद देव जी) से प्राप्त की है, उसका सत धर्म-रूप सूरज संसार में चमक पड़ा है। सतिगुरू (अंगद देव जी) का दर्शन करने से अढ़सठ तीर्थों का स्नान हो जाता है।8।

सचु तीरथु सचु इसनानु अरु भोजनु भाउ सचु सदा सचु भाखंतु सोहै ॥ सचु पाइओ गुर सबदि सचु नामु संगती बोहै ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: सचु = सच्चे हरी का नाम। भाखंत = उचारते हुए। सोहै = शोभा दे रहा है। गुर सबदि = गुरू के शबद से। संगति = संगतों को। बोहै = सुगंधित करता है।

अर्थ: सदा-स्थिर हरी का नाम ही (गुरू अंगद देव जी का) तीर्थ है, नाम ही स्नान है और नाम और प्यार ही (उनका) भोजन है। सदा-स्थिर प्रभू का नाम उचारते हुए ही (गुरू अंगद जी) शोभा दे रहे हैं। (गुरू अंगद देव जी ने) अकाल-पुरख का नाम गुरू (नानक देव जी) के शबद द्वारा प्राप्त किया है, ये सच्चा नाम संगतों को सुगंधित करता है।

जिसु सचु संजमु वरतु सचु कबि जन कल वखाणु ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै सचु जनमु परवाणु ॥९॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: जिसु संजमु = जिस (गुरू अंगद देव जी) का संयमं। कल = हे कल्सहार! वखाणु = कह। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। परवाणु = प्रमाणिक, कबूल, सफल।

अर्थ: हे दास कलसहार कवि! कह-"जिस (गुरू अंगद देव जी) का संयम अकाल-पुरख का नाम है और वरत भी हरी का नाम ही है, उस गुरू के दर्शन करने से सदा-स्थिर हरी-नाम प्राप्त हो जाता है और मनुष्य का जनम सफल हो जाता है"।9।

अमिअ द्रिसटि सुभ करै हरै अघ पाप सकल मल ॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह वसि करै सभै बल ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: अमिअ = अमृतमयी, अमृत भरी, आत्मिक जीवन देने वाली। द्रिसटि = नजर। हरै = दूर करता है। अघ = पाप। सकल मल = सारी मैलें। वसि करै = काबू करता है। बल = अहंकार।

अर्थ: (गुरू अंगद देव जी जिस पर) आत्मिक जीवन देने वाली भली निगाह करता है, (उसके) पाप और सारी मैलें दूर कर देता है, और काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार- ये सारे उसके काबू में कर देता है।

सदा सुखु मनि वसै दुखु संसारह खोवै ॥ गुरु नव निधि दरीआउ जनम हम कालख धोवै ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: मनि = मन में। संसारह = संसार का। खोवै = नाश करता है। नवनिधि दरीआउ = नौ निधियों का दरिया। जनम हम = हमारे जन्मों की। निधि = खजाना।

अर्थ: (गुरू अंगद के) मन में सदा सुख बस रहा है, (वह) संसार का दुख दूर करता है। सतिगुरू नौ-निधियों का दरिया है; हमारे जन्मों (-जन्मों) की कालिख धोता है।

सु कहु टल गुरु सेवीऐ अहिनिसि सहजि सुभाइ ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै जनम मरण दुखु जाइ ॥१०॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: टल = हे टल्! हे कल्! हे कॅल्सहार! अहि = दिन। निस = रात। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।

अर्थ: हे कल्सहार! कह- "(ऐसे) गुरू (अंगद देव जी) की दिन-रात आत्मिक अडोलता और प्रेम में टिक के सेवा करनी चाहिए। (ऐसे) सतिगुरू के दर्शन करने से जनम-मरण के दुख काटे जाते हैं"।10।

नोट: इन 15 सवईयों का कर्ता भॅट 'कल्सहार' है, जिसके दूसरे नाम 'कल्' और 'टल्' हैं।

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सवईए महले तीजे के ३

अर्थ: गुरू अमरदास जी की उस्तति में उचारे हुए सवईऐ।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सोई पुरखु सिवरि साचा जा का इकु नामु अछलु संसारे ॥ जिनि भगत भवजल तारे सिमरहु सोई नामु परधानु ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: सिवरि = सिमर। साचा = सदा कायम रहने वाला। जा का = जिस (हरी) का। अछलु = ना छले जाने वाला। संसारे = संसार में। जिनि = जिस (नाम) ने। परधानु = श्रेष्ठ, उक्तम।

अर्थ: उस सदा-स्थिर अकाल-पुरख को सिमर; जिसका एक नाम संसार में अछल है। जिस नाम ने भगतों को संसार-सागर से पार उतारा है, उस उक्तम नाम को सिमरो।

तितु नामि रसिकु नानकु लहणा थपिओ जेन स्रब सिधी ॥ कवि जन कल्य सबुधी कीरति जन अमरदास बिस्तरीया ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: तितु नामि = उसी नाम का। रसिकु = आनंद लेने वाला। थपिओ = थापा गया, स्थापित किया गया, टिकाया गया। जेन = जिस कर के (भाव, उसी के नाम की बरकति के कारण)। स्रब सिधी = सारी सिद्धियां (प्राप्त हुई)। सबुधी = बुद्धि वाला, ऊँची मति वाला, सद्बुद्धि। कीरति = शोभा। जन = जनों में, लोगों में। अमरदास = गुरू अमरदास की। बिस्तरीया = बिखरी हुई है।

अर्थ: उसी नाम में (गुरू) नानक आनंद ले रहा है, (उसी नाम द्वारा) लहणा जी टिक गए, जिसके कारण सारी सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई। हे कल् कवि! (उसी की बरकति से) उच्च बुद्धि वाले गुरू अमरदास जी की शोभा लोगों में पसर रही है।

कीरति रवि किरणि प्रगटि संसारह साख तरोवर मवलसरा ॥ उतरि दखिणहि पुबि अरु पस्चमि जै जै कारु जपंथि नरा ॥ {पन्ना 1392}

पद्अर्थ: कीरति रवि किरण = शोभा रूप सूरज की किरण द्वारा। रवि = सूरज। कीरति = शोभा। प्रगटि = प्रकट हो के, बिखर के। संसारह = संसार में। साख = शाखाएं, टहनियां। तरोवर = श्रेष्ठ वृक्ष। मवलसरा = मौलसरी का पेड़ (इसके छोटे-छोटे फूल बड़ी ही मीठी और भीनी सुगन्धि वाले होते हैं)। उतरि = उक्तर, पहाड़ वाली दिशा में। दखिणहि = दक्षिण की तरफ। पुबि = पूरब की तरफ, चढ़ती दिशा में। पस्चमि = पश्चिम, पच्छिम की ओर। जपंथि = जपते हैं।

अर्थ: (जैसे) मौलसरी के श्रेष्ठ वृक्ष की शाखाएं (बिखर के सुगन्धि बिखेरती हैं, वैसे ही गुरू अमरदास की) शोभा-रूप सूरज की किरण के जगत में प्रकट होने के कारण पहाड़, उक्तर-दक्षिण-पुरब-पश्चिम (भाव, हर तरफ) लोग गुरू अमरदास जी की जय-जयकार कर रहे हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh