श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1393 हरि नामु रसनि गुरमुखि बरदायउ उलटि गंग पस्चमि धरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥१॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: रसनि = रसना द्वारा, जीभ से (भाव, उचार के)। गुरमुखि = गुरू (नानक) ने। बरदायउ = वरताया, बाँटा। उलटि = उल्टा के। गंग = गंगा का प्रवाह, जीवों की बिरती। पस्चमि = पश्चिम की ओर, माया से उलट। धरीआ = टिका दी। भगतह भव तारणु = भगतों को संसार से तारने वाला। फुरिआ = अनुभव हुआ। अर्थ: जो हरी का नाम गुरू नानक देव जी ने उचार के बाँटा और संसारी जीवों की बिरती संसार से पलट दी, वही अॅछल नाम, वही भगतों को संसार से पार उतारने वाला नाम गुरू अमरदास जी के हृदय में प्रकट हुआ। सिमरहि सोई नामु जख्य अरु किंनर साधिक सिध समाधि हरा ॥ सिमरहि नख्यत्र अवर ध्रू मंडल नारदादि प्रहलादि वरा ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: हरा = शिव जी। नख्त्र = नक्षत्र, तारे। ध्रू मंडल = ध्रुव मण्डल के तारे। वरा = श्रेष्ठ। अर्थ: उसी नाम को जख्, किन्नर, साधिक सिद्ध और शिव जी समाधी लगा के सिमर रहे हैं। उसी नाम को अनेकों नक्षत्र, ध्रुव भगत के मण्डल, नारद आदिक और प्रहलाद आदिक श्रेष्ठ भगत जप रहे हैं। ससीअरु अरु सूरु नामु उलासहि सैल लोअ जिनि उधरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥२॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: ससीअरु = (शशधर) चँद्रमा। अरु = और। सूरु = सूरज। उलासहि = चाहते हैं। सैल लोअ = पत्थरों के ढेर। सैल = शैल, पत्थर, पहाड़। लोअ = लोक, ढेर। उधारिआ = उद्धार कर दिया। जिनि = जिस (नाम) ने। अर्थ: चँद्रमा और सूरज उसी हरी-नाम को लोच रहे हैं, जिसने पत्थरों के ढेर तैरा दिए। वही अछॅल नाम, और भगतों को संसार से तैराने वाला नाम सतिगुरू अमरदास जी के हृदय में प्रकट हुआ।2। सोई नामु सिवरि नव नाथ निरंजनु सिव सनकादि समुधरिआ ॥ चवरासीह सिध बुध जितु राते अ्मबरीक भवजलु तरिआ ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: सिवरि = सिमर के। नव = नौ। निरंजनु = निर्लिप हरी (निरअंजनु। माया की कालिख से रहित)। समुधरिआ = तैर गए, पार उतर गए। जितु = जिस (नाम) में। बुध = समझदार, ज्ञानवान मनुष्य। राते = रति हुए, रंगे हुए। अर्थ: नौ नाथ, शिव जी, सनक आदिक उसी पवित्र नाम को सिमर के तैर गए; चौरासी सिद्ध व अन्य ज्ञानवान उसी रंग में रंगे हुए हैं; (उसी नाम की बरकति से) अंबरीक संसार-सागर से पार लांघ गया। उधउ अक्रूरु तिलोचनु नामा कलि कबीर किलविख हरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥३॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: कलि = कलियुग में। किलविख = पाप। हरिआ = दूर किए। उधउ = कृष्ण जी का भगत। अक्रूर = कृष्ण जी का भगत। अर्थ: उसी नाम को ऊधव, अक्रूर, त्रिलोचन और नामदेव भगत ने सिमरा, (उसी नाम ने) कलियुग में कबीर के पाप दूर किए। वही अछॅल नाम, और भगत जनों को संसार को पार कराने वाला नाम, सतिगुरू अमरदास जी को अनुभव हुआ।3। तितु नामि लागि तेतीस धिआवहि जती तपीसुर मनि वसिआ ॥ सोई नामु सिमरि गंगेव पितामह चरण चित अम्रित रसिआ ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: तितु नामि = उसी नाम में। लागि = लग के, जुड़ के। तेतीस = तैतीस करोड़ देवते। तपीसुर मनि = बड़े बड़े तपियों के मन में। गंगेव पितामह = गंगा का पुत्र भीष्म पितामह। चरन = (हरी के) चरणों में (जुड़ने के कारण)। रसिआ = चोयाया। अर्थ: तैंतीस करोड़ देवते उसी नाम में जुड़ के (अकाल-पुरख को) सिमर रहे हैं, (वही नाम) जतियों व बड़े-बड़े तपियों के मन में बस रहा है। उसी नाम को सिमर के अकाल-पुरख के चरणों में जुड़ने के कारण भीष्म-पितामह के चिक्त में अमृत चूआ। तितु नामि गुरू ग्मभीर गरूअ मति सत करि संगति उधरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥४॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: गुरूअ मति = गहरी मति वाले, उच्च बुद्धि वाले। गुरू = गुरू के द्वारा। सति करि = सिदक धार के, श्रद्धा से। उधरीआ = तैर रही है। अर्थ: उसी नाम में लग के, गंभीर और ऊँची मति वाले सतिगुरू के द्वारा, पूर्ण श्रद्धा के सदका, संगत का उद्धार हो रहा है। वही अछॅल नाम और भगत जनों को संसार-सागर से तैराने वाला नाम गुरू अमरदास जी के दिल में प्रकट हुआ।4। नाम किति संसारि किरणि रवि सुरतर साखह ॥ उतरि दखिणि पुबि देसि पस्चमि जसु भाखह ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: किति = किरति, शोभा, वडिआई। नाम किति = नाम की कीर्ति। संसारि = जगत में। रवि = सूरज। किरणि = किरण द्वारा। सुरतर = (सुर = स्वर्ग। तर = तरु, वृक्ष) स्वर्ग का पेड़। साखह = शाखाएं, टहणियां। जसु = सिफत सालाह। भाखह = उचारते हैं। उतरि = उक्तर (देश) में। पुबि = पूरब (देश) में। पस्चमि = पश्चिम (देश) में। अर्थ: (जैसे) स्वर्ग के वृक्ष (मौलसरी) की शाखाएं (पसर के सुगंधी बिखेरती हैं), (वैसे ही) परमात्मा के नाम की वडिआई-रूप सूरज की किरण के जगत में (प्रकाश करने के कारण) उक्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम देश में (भाव, हर तरफ) लोक नाम का यश उचार रहे हैं। जनमु त इहु सकयथु जितु नामु हरि रिदै निवासै ॥ सुरि नर गण गंधरब छिअ दरसन आसासै ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: त = तो। सकयथु = सकार्थ, सफल। जितु = जिस (जनम) में। रिदै = हृदय में। निवासै = बस जाए। छिअ दरसन = जोगी जंगम आदि छे भेष। आसासै = (आसासहि) कामना रखते हैं। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। गंधरब = गंर्धव, देवताओं के रागी। अर्थ: वही जनम सकार्थ है जिस में परमात्मा का नाम हृदय में बसे। इस नाम की देवता, मनुष्य, गण, गंधर्व और छह भेष कामना करते हैं। भलउ प्रसिधु तेजो तनौ कल्य जोड़ि कर ध्याइअओ ॥ सोई नामु भगत भवजल हरणु गुर अमरदास तै पाइओ ॥५॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: भलउ प्रसिधु = भल्लों की कुल में प्रसिद्ध। तेजो तनौ = तेज भान जी का पुत्र। जोड़ि कर = हाथ जोड़ के। भगत भवजल हरणु = भगतों का जनम मरण दूर करने वाला। गुर अमरदास = हे गुरू अमरदास! तै = तूं। अर्थ: तेज भान जी के पुत्र, भल्लों की कुल में अग्रणीय (गुरू अमरदास जी को) कल् कवि हाथ जोड़ के आराधता है (और कहता है) - 'हे गुरू अमरदास! भगतों का जनम-मरण काटने वाला वही नाम तूने पा लिया है।'।5। नामु धिआवहि देव तेतीस अरु साधिक सिध नर नामि खंड ब्रहमंड धारे ॥ जह नामु समाधिओ हरखु सोगु सम करि सहारे ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: तेतीस = तैंतिस करोड़। नामि = नाम ने। धारे = टिकाए हुए हैं। जह = जिन्होंने। समाधिओ = जपा है। हरखु सोगु = खुशी और ग़मी, आनंद और चिंता। सम करि = एक समान करके, एक समान। सहारे = सहे हैं। अर्थ: परमात्मा के नाम को तैंतिस करोड़ देवते साधिक-सिद्ध और मनुष्य ध्याते हैं। हरी के नाम ने सारे ही खंड-ब्रहिमण्ड (भाव, सारे लोक) टिकाए हुए हैं। जिन्होंने हरी नाम को सिमरा है, उन्होंने खुशी और चिंता को एक-समान सहा है। नामु सिरोमणि सरब मै भगत रहे लिव धारि ॥ सोई नामु पदारथु अमर गुर तुसि दीओ करतारि ॥६॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: सिरोमणि = श्रेष्ठ, उक्तम। सरब मै = सभी में व्यापक। लिव धारि = लिव लगा के, बिरती जोड़ के। रहे = टिक रहे हैं। पदारथु = वस्तु। अमर गुर = हे गुरू अमरदास! तुसि = प्रसन्न हो के। करतारि = करतार ने। अर्थ: (सारे पदार्थों में से) सर्व-व्यापक हरी का नाम-पदार्थ उक्तम है, भगत जन इस नाम में बिरती जोड़ के टिक रहे हैं। हे गुरू अमरदास! वही पदार्थ करतार ने प्रसन्न हो के (तुझे) दिया है। सति सूरउ सीलि बलवंतु सत भाइ संगति सघन गरूअ मति निरवैरि लीणा ॥ जिसु धीरजु धुरि धवलु धुजा सेति बैकुंठ बीणा ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: सति सूरउ = सति का सूरमा। सील = मीठा स्वभाव। बलवंत सत भाइ = शांत स्वभाव में बलवान। संगति सघन = सघन संगति वाला, बड़ी संगतों वाला। गरूआ मति = गहरी मति वाला। निरवैरि = निर्वैर (हरी) में। धुरि = धुर से। धीरजु धवलु धुजा = धीरज (रूपी) सफेद झण्डा। सेति बैकुंठ = बैकुंठ के पुल पर। बीणा = बना हुआ है। धवलु = सफेद। धुजा = झण्डा। अर्थ: (गुरू अमरदास) सत्य का सूरमा है (भाव, नाम का पूरन रसिया), सीलवंत है, शांत-स्वभाव में बलवान है, बड़ी संगति वाला है, गहरी मति वाला है और निर्वैर हरी में जुड़ा हुआ है; जिसका (भाव, गुरू अमरदास जी का) धुर दरगाह से धाीरज रूपी झण्डा बैकुंठ के पुल पर बना हुआ है (भाव, गुरू अमरदास जी की धाीरज से शिक्षा ले के सेवक जन संसार से पार लांघ के मुक्त होते हैं। गुरू अमरदास जी का धीरज सेवकों का, झण्डा-रूप हो के, अगवाई कर रहा है)। परसहि संत पिआरु जिह करतारह संजोगु ॥ सतिगुरू सेवि सुखु पाइओ अमरि गुरि कीतउ जोगु ॥७॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: परसहि संत = संत जन परसते हैं। पिआरु = प्यार रूप गुरू अमरदास जी को। जिह = जिस गुरू अमरदास जी का। करतारह संजोगु = करतार के साथ मिलाप। सेवि = सिमर के, सेवा करके। अमरि गुरि = गुरू अमर (दास जी) ने। जोगु = योग्य, लायक। अर्थ: जिस (गुरू अमरदास जी) का करतार से संजोग बना हुआ है,, उस प्यार-स्वरूप गुरू को संत-जन परसते हैं, सतिगुरू को सेव के सुख पाते हैं, क्योंकि गुरू अमरदास जी ने उनको इस योग्य बना दिया।7। नामु नावणु नामु रस खाणु अरु भोजनु नाम रसु सदा चाय मुखि मिस्ट बाणी ॥ धनि सतिगुरु सेविओ जिसु पसाइ गति अगम जाणी ॥ {पन्ना 1393} पद्अर्थ: नावणु = (तीर्थों का) स्नान। चाय = चाव, उत्साह। मुखि = मुँह में। मिस्ट = मीठी। धनि सतिगुरु = धन्य गुरू (अंगद देव) जी। जिसु पसाइ = जिसकी कृपा से। गति गम = अगम हरी की गति। अगम = अपहुँच। अर्थ: (गुरू अमरदास के लिए) नाम ही स्नान है, नाम ही रसों का खाना-पीना है, नाम का रस ही (उनके लिए) उत्साह देने वाला है और नाम ही (उनके) मुख में मीठे वचन हैं। गुरू (अंगद देव) धन्य हैं (जिनकी गुरू अमरदास जी ने) सेवा की है और जिस की कृपा से उन्होंने अपहुँच प्रभू का भेद पाया है। कुल स्मबूह समुधरे पायउ नाम निवासु ॥ सकयथु जनमु कल्युचरै गुरु परस्यिउ अमर प्रगासु ॥८॥ {पन्ना 1393-1394} पद्अर्थ: कुल संबूह = कुलों के समूह, सारी कुलें। समुधरे = उद्धार कर दी हैं। पायउ = प्राप्त किया है। नाम निवासु = (हृदय में) नाम का निवास। सकयथु = सकार्थ, सफल। कल्हुचरै = (कल्ह+उचरै) कल् कहता है। परसि्उ = (जिसने परसा है), सेवा की है। अमर प्रगासु = प्रकाश स्वरूप अमरदास जी को। अर्थ: (गुरू अमरदास जी ने) कई कुलों का उद्धार कर दिया, (आपने अपने हृदय में) नाम का निवास प्राप्त किया है। कवि कल्सहार कहता है- 'उस मनुष्य का जन्म सकार्थ है जिसने प्रकाश-स्वरूप गुरू अमरदास जी की सेवा की है'।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |