श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1394 बारिजु करि दाहिणै सिधि सनमुख मुखु जोवै ॥ रिधि बसै बांवांगि जु तीनि लोकांतर मोहै ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: बारिजु = कमल, पदम। करि = हाथ में। दाहिणै करि = दाहिने हाथ में। सिधि = सिद्धि। सनमुख = सामने हो के। जोवै = ताक रही है। बांवांगि = बाएं हाथ में। तीनि लोकांतर = तीन लोगों को। मोहै = मोह रही है। अर्थ: (गुरू अमरदास जी के) दाएं हाथ में पदम है; सीधे (उनके) मुँह के सामने हो के ताक रही है; (आप के) बाएं अंग में रिद्धि बस रही है, जो तीन लोगों को मोहती है। रिदै बसै अकहीउ सोइ रसु तिन ही जातउ ॥ मुखहु भगति उचरै अमरु गुरु इतु रंगि रातउ ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। अकहीउ = जिसका वर्णन नहीं हो सकता। सोइ रसु = वह आनंद। तिन ही = तिनि ही, उसने ही, उस (गुरू अमरदास) ने ही। जातउ = जाना है। बितु रंगि रातउ = इस रंग में रंगा हुआ। अर्थ: (गुरू अमरदास जी के) हृदय में अकथ हरी बस रहा है, इस आनंद को उस (गुरू अमरदास जी) ने आप ही जाना है। इस रंग में रति हुआ गुरू अमरदास अपने मुख से (अकाल-पुरख की) भगती उचार रहा है। मसतकि नीसाणु सचउ करमु कल्य जोड़ि कर ध्याइअउ ॥ परसिअउ गुरू सतिगुर तिलकु सरब इछ तिनि पाइअउ ॥९॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। सचउ करमु = सच्ची बख्शिश, सदा कायम रहने वाली बख्शिश। जोड़ि कर = हाथ जोड़ कर (शब्द 'कर' बहुवचन)। ध्याइअउ = (गुरू अमरदास जी को) सिमरता है। परसिअउ = (जिस ने) परसिया है, सेवा की है। सतिगुर तिलकु = शिरोमणि गुरू। तिनि = उस (मनुष्य) ने। अर्थ: (गुरू अमरदास जी के) माथे पर (परमात्मा की) सच्ची बख्शिश-रूप निशान है। हे कल् कवि! हाथ जोड़ के (इस सतिगुरू को) जिस मनुष्य ने ध्याया है और इस शिरोमणी सतिगुरू की सेवा की है, उसने अपनी सारी मनो-कामनाएं पूरी कर ली हैं।9। नोट: यह 9 सवईऐ भॅट कल्सहार (कल्) के उचारे हुए हैं। चरण त पर सकयथ चरण गुर अमर पवलि रय ॥ हथ त पर सकयथ हथ लगहि गुर अमर पय ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: त = तो। पर = भली प्रकार, अच्छी तरह। सकयथ = सकार्थ, सफल। चरण = (जो) चरण। गुर अमर पवलि = गुरू अमर (दास के) राह में। रय = रफतार, चाल। चरण रय = जिन चरणों की चाल है (भाव, जो चरण चलते हैं)। गुर अमर पय = गुरू अमरदास जी के पैरों पर। अर्थ: वही चरण अच्छी तरह सकार्थ हैं, जो चरन गुरू अमरदास जी के राह पर चलते हैं। वही हाथ सफल हैं, जो हाथ गुरू अमरदास जी के चरणों पर लगते हैं। जीह त पर सकयथ जीह गुर अमरु भणिजै ॥ नैण त पर सकयथ नयणि गुरु अमरु पिखिजै ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: जीह = जीभ। गुर अमर = गुरू अमरदास जी को। भणिजै = उचारती है, सलाहती है। नैण = आँखें। नयणि = नैणीं, आँखों से। पिखिजै = देखिए। अर्थ: वही जीभ सकार्थ है, जो गुरू अमरदास जी को सराहती है। वही आँखें सफल हैं जिन आँखों से गुरू अमरदास जी को देखें। स्रवण त पर सकयथ स्रवणि गुरु अमरु सुणिजै ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: स्रवण = कान। स्रवणि = कानों से। गुरु अमरु = गुरू अमरदास जी को (भाव, गुरू अमरदास जी की शोभा को)। सुणिजै = सुनें। अर्थ: वही कान सफल हैं, जिन कानों से गुरू अमरदास जी की शोभा सुनी जाती है। सकयथु सु हीउ जितु हीअ बसै गुर अमरदासु निज जगत पित ॥ सकयथु सु सिरु जालपु भणै जु सिरु निवै गुर अमर नित ॥१॥१०॥ {पन्ना 1394} नोट: जालप भॅट का यह पहला सवईया है। कुल जोड़ 10 है। पद्अर्थ: जीउ = हृदय। जितु हीअ = जिस हृदय में। निज = अपना। जगत पित = जगत का पिता। जालपु भणै = जालप (कवि) कहता है। नित = सदा। अर्थ: वही हृदय सकार्थ है, जिस हृदय में जगत का पिता प्यारा गुरू अमरदास जी बसता है। जालप कवि कहता है- 'वही सिर सफल है, जो सिर सदा गुरू अमरदास जी के आगे झुकता है'। ति नर दुख नह भुख ति नर निधन नहु कहीअहि ॥ ति नर सोकु नहु हूऐ ति नर से अंतु न लहीअहि ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: ति नर = उन मनुष्यों को। निधन = निर्धन, कंगाल। नहु = नहीं। कहीअहि = कहे जा सकते। सोक = चिंता। हूअै = होता। ति नर से = वे मनुष्य ऐसे हैं कि। अर्थ: उन मनुष्यों को ना कोई दुख है ना भूख, वे मनुष्य कंगाल नहीं कहे जा सकते; उन मनुष्यों को कोई चिंता नहीं व्यापती; वे मनुष्य ऐसे हैं कि उनका अंत नहीं पाया जा सकता। ति नर सेव नहु करहि ति नर सय सहस समपहि ॥ ति नर दुलीचै बहहि ति नर उथपि बिथपहि ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: सेव = मुथाजी (गुलामी)। नहु करहि = नहीं करते। सय सहस = सैकड़ों हजारों (पदार्थ)। समपहि = समर्पण करते हैं, देते हैं। दुलीचै = गलीचे पर। उथपि = (अवगुणों को हृदय में से) उखाड़ के। बिथपहि = (शुभ गुणों को हृदय में) टिकाते हैं। अर्थ: वे मनुष्य किसी की मुथाजी नहीं करते, वे मनुष्य (तो स्वयं) सैकड़ों-हजारों (पदार्थ और मनुष्यों को) देते हैं; गलीचे पर बैठते हैं (भाव, राज भोगते हैं) और वे मनुष्य (अवगुणों को हृदय में से) उखाड़ के (शुभ गुणों को हृदय में) बसाते हैं। सुख लहहि ति नर संसार महि अभै पटु रिप मधि तिह ॥ सकयथ ति नर जालपु भणै गुर अमरदासु सुप्रसंनु जिह ॥२॥११॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: लहहि = लेते हैं। अभै पटु = अभयता (निर्भयता) का वस्त्र (ओढ़ के रखते हैं)। रिपु = वैरी (कामादिक)। रिप मधि = (कामादिक) वैरियों के बीच। तिह = वह मनुष्य। सकयथ = सफल। जिह = जिन पर। अर्थ: वह मनुष्य संसार में सुख पाते हैं, (कामादिक) वैरियों के बीच निर्भयता का वस्त्र पहने रखते हैं (भाव, निडर रहते हैं)। जालप कवि कहता है- 'जिन मनुष्यों पर गुरू अमरदास जी प्रसन्न हैं, वे मनुष्य सफल हैं (भाव, उनका जनम सफल है)।2।11। तै पढिअउ इकु मनि धरिअउ इकु करि इकु पछाणिओ ॥ नयणि बयणि मुहि इकु इकु दुहु ठांइ न जाणिओ ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: तै = तू (हे गुरू अमरदास!)। इकु = एक अकाल-पुरख को। मनि = मन में। करि इकु = अकाल-पुरख को उपमा रहित जान के, ये जान के कि अकाल-पुरख के बिना और कोई नहीं है। नयणि = आँखों में। बयणि = वचनों में। मुहि = मुँह में। इकु इकु = केवल एक अकाल-पुरख। दुहु = दूसरा पन, द्वैत। ठांइ = (हृदय रूप) जगह में। अर्थ: (हे गुरू अमरदास!) तूने एक अकाल-पुरख को ही पढ़ा है, तूने (अपने) मन में एक को ही सिमरा है, और यही निश्चय किया है कि अकाल-पुरख स्वयं ही स्वयं है (भाव, कोई उस जैसा नहीं है); (तेरी) दृष्टि में, (तेरे) वचनों में और (तेरे) मुँह में केवल अकाल-पुरख ही अकाल-पुरख है, तूने द्वैत को (भाव, इस ख्याल को कि अकाल-पुरख के बिना कोई और भी दूसरा है) अपने हृदय में समझा ही नहीं है। सुपनि इकु परतखि इकु इकस महि लीणउ ॥ तीस इकु अरु पंजि सिधु पैतीस न खीणउ ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: सुपनि = सपने में। परतखि = प्रत्यक्ष तौर पर, जागते हुए। तीस = तीस (दिनों में, भाव, महीने साल सदियों जुगों में)। पंजि = पाँच तत्वों के समूह में, (भाव, सारी सृष्टि में)। सिधु = प्रकट, जहूर हरी। पैतीस = पैंतिस अक्षरों में (भाव, बाणी में)। न खीउण = जो क्षीण नहीं है, जो नाश होने वाला नहीं है, अविनाशी अकाल-पुरख। अर्थ: जो अकाल-पुरख तीसों (दिनों में, भाव, महीने साल सदियों जुगों में सदा हर समय) में एक ही है, जो अकाल-पुरख पाँच-तत्वों के समूह में, (भाव, सारी सृष्टि में) प्रकट है, जो अविनाशी प्रभू पैंतिस अक्षरों में (भाव, सारी बाणी में इन अक्षरों द्वारा लिखती रूप में आई है) मौजूद है, उस एक को, (हे गुरू अमरदास!) तू सपने में भी और जागते हुए भी (सिमरता है), तू उस एक में ही (सदा) लीन रहता है। इकहु जि लाखु लखहु अलखु है इकु इकु करि वरनिअउ ॥ गुर अमरदास जालपु भणै तू इकु लोड़हि इकु मंनिअउ ॥३॥१२॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: इकहु = एक (अकाल-पुरख) से। लाखु = लाखों जीव। लखहु = लाखों जीवों से। अलखु = जो ना लखा जा सके। वरनिअउ = तूने वर्णन किया है। गुर अमरदास = हे गुरू अमरदास! लोड़हि = लोचता है। अर्थ: जिस एक हरी से लाखों जीव बने हैं, और जो इन लाखों जीवों की समझ से परे है, उस एक को (हे गुरू अमरदास!) तू एक (अद्वितीय) करके ही वर्णन किया है। जालप भॅट कहता है - 'हे गुरू अमरदास! तू एक अकाल-पुरख को ही माँगता है और एक को ही मानता है'।3।12। जि मति गही जैदेवि जि मति नामै समाणी ॥ जि मति त्रिलोचन चिति भगत क्मबीरहि जाणी ॥ रुकमांगद करतूति रामु ज्मपहु नित भाई ॥ अमरीकि प्रहलादि सरणि गोबिंद गति पाई ॥ तै लोभु क्रोधु त्रिसना तजी सु मति जल्य जाणी जुगति ॥ गुरु अमरदासु निज भगतु है देखि दरसु पावउ मुकति ॥४॥१३॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: जि = जो। गही = ली, सीखी। जैदेवि = जैदेव ने। नामै = नाम देव ने। संमाणी = समाई हुई थी, रची हुई थी। त्रिलोचन चिति = त्रिलोचन के चिक्त में। कंबीरहि = कबीर ने। रुकमांगद = एक राजा था। रुकमांगद करतूति = रुकमांगद राजा का ये रोज का काम था। जंपहु = जपो। भाई = हे सज्जन! प्रहलादि = प्रहलाद ने। सरणि गोबिंद = गोबिंद की शरण पड़ कर। तै = (हे गुरू अमरदास जी!) तू। तजी = त्याग दी। सु मति जाणी जुगति = उस मति की जुगति जानी। जल् = हे जल्! हे जालप! निज भगतु = अकाल-पुरख का अपना भगत। देखि = देख के। पावउ = मैं प्राप्त करता हूं। अर्थ: जो मति जैदेव ने सीखी, जो मति नामदेव में समाई हुई थी, जो मति त्रिलोचक के हृदय में थी, जो मति भगत कबीर ने समझी थी, जिस मति का सदका रुकमांगद का ये काम था (कि खुद जपता था और औरों को कहता था) हे भाई! नित्य राम को सिमरो, जिस मति द्वारा अंबरीक और प्रहलादि ने गोबिंद की शरण पड़ कर ऊँची आत्मिक अवस्था पाई थी (हे गुरू अमरदास!) जल् (कहता है) तूने उस मत की जुगती जान ली है तूने लोभ, क्रोध और तृष्णा त्याग दी है।? गुरू अमरदास अकाल-पुरख का प्यारा भगत है। मैं (उसके) दर्शन देख के विकारों से खलासी हासिल करता हूँ।4।13। गुरु अमरदासु परसीऐ पुहमि पातिक बिनासहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ सिध साधिक आसासहि ॥ {पन्ना 1394} पद्अर्थ: पुहमि = पुढवी, पृथ्वी। पुहमि पातिक = धरती के ताप। बिनासहि = नाश हो जाते हैं। आसासहि = लोचते हैं, चाहते हैं। अर्थ: (हे भाई! आओ) गुरू अमरदास (जी के चरनों) को परसें, (गुरू अमरदास के चरन परसने से) धरती के पाप दूर हो जाते हैं। गुरू अमरदास जी को परसें, (गुरू अमरदास के चरन परसन को) सिद्ध और साधिक लोचते हैं। गुरु अमरदासु परसीऐ धिआनु लहीऐ पउ मुकिहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ अभउ लभै गउ चुकिहि ॥ {पन्ना 1394-1395} पद्अर्थ: पउ = पंध, सफर (भाव, जनम मरन)। ('पउ पंध मोकले होण' ये पंजाबी का एक मुहावरा है जिसका अर्थ है 'रास्ता आसान हो')। अभउ = निर्भय हरी। गऊ = गवन जनम मरन, भटकना। अर्थ: गुरू अमरदास (जी के चरणों) को परसें, (इस तरह परमात्मा वाला) ध्यान प्राप्त होता है (भाव, परमात्मा में बिरती जुड़ती है) और (जनम-मरण के) सफर समाप्त हो जाते हैं। गुरू अमरदास जी को परसें, (इस तरह) निर्भउ अकाल-पुरख मिल जाता है और जनम-मरण के चक्र समाप्त हो जाते हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |