श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इकु बिंनि दुगण जु तउ रहै जा सुमंत्रि मानवहि लहि ॥ जालपा पदारथ इतड़े गुर अमरदासि डिठै मिलहि ॥५॥१४॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: इकु = अकाल-पुरख को। बिंनि = बीन के, जान के, पहचान के। दुगण = दूसरा भाव, दोचिक्तापन, ये मानना कि परमात्मा के बिना और कोई दूसरा भी है। जु = जो (मान्यता है)। तउ = तब। रहै = दूर होती है। जा = जब। सुमंत्रि = (सतिगुरू के) श्रेष्ठ मंत्र द्वारा। इतड़े = इतने पदार्थ।

अर्थ: जो दूसरा भाव है वह तब ही दूर होता है जब मनुष्य गुरू के श्रेष्ठ उपदेश से एक परमात्मा को पहचान के प्राप्त कर लेते हैं। हे जालप! यह सारे पदार्थ (जो ऊपर बताए गए हैं) सतिगुरू अमदास जी को देखने से मिल जाते हैं।5।14।

नोट: ये पाँच सवईऐ भॅट जालप के उचारे हुए हैं।

सचु नामु करतारु सु द्रिड़ु नानकि संग्रहिअउ ॥ ता ते अंगदु लहणा प्रगटि तासु चरणह लिव रहिअउ ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: द्रिढ़ ु = पक्की तौर पर, अच्छी तरह। नानकि = (गुरू) नानक ने। संग्रहिअउ = ग्रहण किया है। ता ते = उनसे (भाव, गुरू नानक जी से)। प्रगटि = प्रकट हो के, रौशनी ले के। तासु चरणह = गुरू नानक देव जी के चरणों में।

अर्थ: (गुरू) नानक (देव जी) ने अकाल पुरख का नाम जो सदा-स्थिर रहने वाला है, पक्के तौर पर ग्रहण किया, उनसे लहणा जी गुरू अंगद देव जी हो के प्रकट हुए और उन्होंने गुरू नानक देव जी के चरणों में अपनी बिरती लगा के रखी।

तितु कुलि गुर अमरदासु आसा निवासु तासु गुण कवण वखाणउ ॥ जो गुण अलख अगम तिनह गुण अंतु न जाणउ ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: तितु कुलि = उस कुल में (भाव, गुरू नानक देव और गुरू अंगद देव जी की कुल में)। आसा निवासु = आशाओं का निवास, आशा का ठिकाना (भाव, आशाएं पूरी करने वाला)। तासु = (तस्य) उसके। तासु गुण कवण = उस (गुरू अमरदास जी) के कौन से गुण? वखाणउ = मैं बखान करूँ। तिनह गुण अंतु = उन गुणों का अंत। न जाणउ = मैं नहीं जानता। अलख = बयान से परे। अगंम = अपहुँच।

अर्थ: उस कुल में गुरू अमरदास, आशाएं पूरी करने वाले, (प्रकट हुए)। मैं उनके कौन से गुण बयान करूँ? वे गुण अलख और अगम हैं, मैं उन गुणों का अंत नहीं जानता।

बोहिथउ बिधातै निरमयौ सभ संगति कुल उधरण ॥ गुर अमरदास कीरतु कहै त्राहि त्राहि तुअ पा सरण ॥१॥१५॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: बोहिथउ = जहाज। बिधातै = करतार ने। निरमयौ = बनाया है। उधरण = उद्धार के लिए। गुरु अमरदास = हे गुरू अमरदास जी! कीरतु कहै = कीरत (भॅट) कहता है। त्राहि = रक्षा कर, बचा ले। तुअ पा = तेरे चरनों की।

अर्थ: सारी संगति और सारी कुलों के उद्धार के लिए करतार ने (गुरू अमरदास जी को) एक जहाज बनाया है; कीरत (भॅट) कहता है- 'हे गुरू अमरदास (जी)! मेरी रक्षा कर, मुझे बचा ले, मैं तेरे चरणों की शरण पड़ा हूँ'।1।15।

नोट: भॅट 'कीरत' का यह पहला सवईया है। अब तक;
कल्सहार के सवईए-----9
जालप के----------------5
कीरत के-----------------1
कुल--------------------15


आपि नराइणु कला धारि जग महि परवरियउ ॥ निरंकारि आकारु जोति जग मंडलि करियउ ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: कला धारि = सक्तिआ रच के। जग महि = जगत में। परवरियउ = प्रवृक्त हुआ है। निरंकारि = निरंकार ने। आकारु = आकार रूप हो के, सरूप धार के। जग मंडलि = जगत के मंडल में। जोति करियउ = जोति प्रकट की है।

अर्थ: (गुरू अमरदास) स्वयं ही नारायण रूप है, जो अपनी सक्तिया रच के जगत में प्रवृक्त हुआ है। निरंकार ने (गुरू अमरदास जी का) आकार-रूप हो के (रूप धारण करके) जगत में जोति प्रकट की है।

जह कह तह भरपूरु सबदु दीपकि दीपायउ ॥ जिह सिखह संग्रहिओ ततु हरि चरण मिलायउ ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: जह कह = जहाँ कहाँ। तह = वहाँ ही। भरपूरु = व्यापक, हाजिर नाजिर। सबदु = शबद को। दीपक = दीए से (भाव, गुरू अमरदास जी रूपी दीए से)। दीपायउ = जगाया है, प्रकाशा है, प्रकट किया है। जिह सिखह = जिन सिखों ने। ततु = तुरन्त, तत्काल।

अर्थ: (निरंकार ने) अपने शबद (-नाम) को, जो हर जगह हाजर-नाजर है, (गुरू अमरदास जी-रूप) दीपक द्वारा प्रकटाया है। जिन सिखों ने इस शबद को ग्रहण किया है, (गुरू अमरदास जी ने) तुरंत (उनको) हरी के चरणों में जोड़ दिया है।

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ अंगद लहणे संगि हुअ ॥ गुर अमरदास तारण तरण जनम जनम पा सरणि तुअ ॥२॥१६॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: नानक कुलि = (गुरू) नानक (देव जी) की कुल में। निंमलु = निरमल। अवतरि्यय्उ = अवतरियउ, अवतार हुआ। लहणे जी के साथ हो के, साथ मिल के। तारण तरण = तैराने के लिए जहाज। पा सरणि तुअ = तेरे चरनों की शरण (रहूँ)। तरण = जहाज।

अर्थ: लहणे जी (भाव,) गुरू अंगद देव जी के साथ मिल के (गुरू अमरदास) गुरू नानक देव जी की कुल में निर्मल अवतार हुआ है। हे गुरू अमरदास जी! हे संसार से तैराने को जहाज! मैं हरेक जनम में तेरे चरनों की शरण (रहूँ)।2।16।

जपु तपु सतु संतोखु पिखि दरसनु गुर सिखह ॥ सरणि परहि ते उबरहि छोडि जम पुर की लिखह ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: पिखि = देख के। गुर दरसनु = सतिगुरू (अमरदास जी) के दर्शन। सिखह = सिखों को। परहि = पड़ते हैं। उबरहि = पार उतर जाते हैं। छोडि = छोड़ के। लिखह = लिखत। जम पुर की = जम पुरी की।

अर्थ: सतिगुरू (अमरदास जी) के दर्शन करके सिखों को जप-तप-संतोख (प्राप्त होते हैं)। जो मनुष्य (गुरू की) शरण पड़ते हैं, वह जम-पुरी की लिखत को छोड़ के पार लांघ जाते हैं।

भगति भाइ भरपूरु रिदै उचरै करतारै ॥ गुरु गउहरु दरीआउ पलक डुबंत्यह तारै ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: भगति भाइ = भगती के प्रेम में। रिदै = हृदय में। उचरै = (गुरू अमरदास) सिमरता है। करतारै = करतार को। गउहरु = गहर, गंभीर। दरआउ = दरिया दिल, सखी। पलक = पल में। डुबंतह = डूबते हुए को।

अर्थ: (गुरू अमरदास अपने) हृदय में (करतार की) भगती के प्रेम में भरा हुआ है, और करतार को सिमरता है; सतिगुरू (अमरदास) गंभीर है, दरिया-दिल है, डूबते हुए जीवों को पल भर में तैरा देता है।

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ गुण करतारै उचरै ॥ गुरु अमरदासु जिन्ह सेविअउ तिन्ह दुखु दरिद्रु परहरि परै ॥३॥१७॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: नानक कुलि = (गुरू) नानक के कुल में। निंमलु = निर्मल। गुण करतारै = करतार के गुणों को। जिन् = जिन मनुष्यों को। तिन् = उनका। परहरि परै = दूर हो जाता है।

अर्थ: (गुरू) नानक (देव जी) की कुल में (गुरू अमरदास जी) निर्मल अवतार हुआ है, जो करतार के गुणों को उचारता है। जिन मनुष्यों ने गुरू अमरदास जी की सेवा की है, उनका दुख और दरिद्रता दूर हो जाती है।3।17।

चिति चितवउ अरदासि कहउ परु कहि भि न सकउ ॥ सरब चिंत तुझु पासि साधसंगति हउ तकउ ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चितवउ = चितवता हूँ, विचारता हूँ। कहउ = कहता हूं, मैं कहूँ। सरब चिंत = सारे फिकर। तुझु पासि = तेरे पास। हउ = मैं।

अर्थ: (हे गुरू अमरदास जी!) मैं चिक्त में सोचें सोचता हूँ कि (एक) विनती कहूँ; पर मैं कह भी नहीं सकता; (हे सतिगुरू!) मेरी सारी चिंताएं तेरे हवाले हैं (भाव, तुझे ही मेरे सारे फिकर हैं), मैं साध-संगत (का आसरा) ताकता हूँ।

तेरै हुकमि पवै नीसाणु तउ करउ साहिब की सेवा ॥ जब गुरु देखै सुभ दिसटि नामु करता मुखि मेवा ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: तेरै हुकमि = (हे सतिगुरू!) तेरी रजा में। नीसाणु = प्रवानगी। पवै = मिले। तउ = तब। सुभ दिसटि = मेहर की नजर करके। नामु मेवा = नाम रूप फल। करता = करतार का। मुखि = मुँह में।

अर्थ: (हे गुरू अमरदास जी!) अगर तेरी रज़ा में प्रवानगी मिल जाए, तो मैं मालिक-प्रभू की सेवा करूँ। जब सतिगुरू (अमरदास) मेहर की नजर से ताकता है, तो करतार का नाम-रूप फल मुँह में (भाव, खाने को) मिलता है।

अगम अलख कारण पुरख जो फुरमावहि सो कहउ ॥ गुर अमरदास कारण करण जिव तू रखहि तिव रहउ ॥४॥१८॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: अगम = हे अगम हरी रूप सतिगुरू! फुरमावहि = तू हुकम करता है। कारण करण = सृष्टि का कर्ता। अगम = अपहुँच। अलख = जिसका स्वरूप बताया ना जा सके। करण = सृष्टि। कारण = (सृष्टि का) मूल। पुरख = सर्व व्यापक।

अर्थ: हे अगम-रूप सतिगुरू! हे अलख-हरी-रूप गुरू! हे कारण पुरख-रूप गुरू अमरदास जी! जो तू हुकम करता है, मैं वही कहता हूं। हे सृष्टि के कर्ता-रूप गुरू अमरदास जी! जैसे तू मुझे रखता है वैसे ही मैं रहता हूँ।4।18।

नोट: ये चार सवईए भॅट कीरत के उचारे हुए हैं।

भिखे के॥

भिखे के ॥ गुरु गिआनु अरु धिआनु तत सिउ ततु मिलावै ॥ सचि सचु जाणीऐ इक चितहि लिव लावै ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: तत सिउ = परमात्मा के साथ (जो सबका मूल है)। ततु = आत्मा को। गुरु = गुरू (अमरदास जी)। सचि = सच में, सदा स्थिर अकाल पुरख में (जुड़ने के कारण)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला अकाल पुरख रूप। इक चितहि = एकाग्र मन हो के।

अर्थ: सतिगुरू अमरदास ज्ञान-रूप और ध्यान रूप है (भाव, पूर्ण ज्ञान वाला और दृढ़ ध्यान वाला है); (गुरू अमरदास ने) अपनी आत्मा को हरी के साथ मिला लिया है। सदा-स्थिर हरी में जुड़ने के कारण सतिगुरू को हरी-रूप ही समझना चाहिए, (गुरू अमरदास) एकाग्र मन हो के (हरी में) लिव लगा रहा है।

काम क्रोध वसि करै पवणु उडंत न धावै ॥ निरंकार कै वसै देसि हुकमु बुझि बीचारु पावै ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: पवणु = चंचल मन। उडंत = भटकता। धावै = दौड़ता। देसि = देश में। बुझि = समझ के, पहचान के। बीचारु = ज्ञान।

अर्थ: गुरू अमरदास काम क्रोध को अपने वश में किए रखता है, (उनका) मन भटकता नहीं है। (गुरू अमरदास) निरंकार के देश में टिक रहा है, (प्रभू का) हुकम पहचान के (उन्होंने) ज्ञान प्राप्त किया है।

कलि माहि रूपु करता पुरखु सो जाणै जिनि किछु कीअउ ॥ गुरु मिल्यिउ सोइ भिखा कहै सहज रंगि दरसनु दीअउ ॥१॥१९॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: कलि माहि = कलियुग में। सो = वह अकाल पुरख। जिनि = जिस (अकाल पुरख) ने। किछु = यह अलख करिश्मा (भाव, इस तरह के गुरू को संसार में भेजने का करिश्मा)। सोइ = वह (गुरू अमरदास)। दीअउ = दिया है। सहज = आत्मिक अडोलता, पूर्ण खिड़ाव।

अर्थ: कलजुग में (गुरू अमरदास) करता पुरख-रूप है; (इस करिश्मे को) वह करतार ही जानता है जिसने यह आश्चर्यजनक करिश्मा किया है। भिॅखा कवि कहता है- 'मुझे वह गुरू (अमरदास) मिल गया है, (उन्होंने) पूर्ण खिलाव के रंग में मुझे दर्शन दिया है'।1।19।

रहिओ संत हउ टोलि साध बहुतेरे डिठे ॥ संनिआसी तपसीअह मुखहु ए पंडित मिठे ॥ {पन्ना 1395}

पद्अर्थ: हउ = मैं। टोलि रहिओ = ढूँढ ढूँढ के थक गया हूँ। डिठे = मैंने देखे हैं। तपसीअह = तपस्वी लोग। ऐ = यह। मुखहु मिठे पंडित = मुँह से मीठे पंडित।

अर्थ: मैं संतों को तलाश्ता-तलाशता थक गया हूँ, मैंने कई साध (भी) देखे हैं, कई सन्यासी, कई तपस्वी और कई ये मुँह के मीठे पंडित (भी) देखे हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh