श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बरसु एकु हउ फिरिओ किनै नहु परचउ लायउ ॥ कहतिअह कहती सुणी रहत को खुसी न आयउ ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: नहु = नही। परचउ = तसल्ली। किनै...लायउ = किसी ने मेरी निशा नहीं की (कहीं मेरी संतुष्टि नहीं हुई)। कहतिअह कहती = कहते कहते। रहत को = रहत देख के। खुसी = आनंद। रहत को खुसी = रहत का आनंद।

अर्थ: मैं एक साल से फिरता रहा हूँ, किसी ने मेरी निशा नहीं की।; बल्कि (मुँह से) कहते ही कहते (भाव, औरों को उपदेश करते ही) सुने हैं, पर किसी की रहत देख के मुझे आनंद नहीं आया।

हरि नामु छोडि दूजै लगे तिन्ह के गुण हउ किआ कहउ ॥ गुरु दयि मिलायउ भिखिआ जिव तू रखहि तिव रहउ ॥२॥२०॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। दूजै = दूसरे पन में, द्वैत में, अकाल-पुरख को छोड़ के किसी और में, माया में। गुर = हे सतिगुर (अमरदास जी)! दयि = प्यारे (अकाल-पुरख) ने। भिखिआ = भिखे भॅट को। रहउ = मैं रहता हूँ।

अर्थ: उन लोगों के गुण मैं क्या कहूँ, जो हरी के नाम को छोड़ के दूसरे (भाव, माया के प्यार) में लगे हुए हैं? हे गुरू (अमरदास)! प्यारे (हरी) ने मुझे, भिखे को, तुझसे मिला दिया है, जैसे तू रखेगा वैसे मैं रहूँगा।2।20।

नोट: यह दोनों सवईऐ भॅट भिखे के उचारे हुए हैं।

पहिरि समाधि सनाहु गिआनि है आसणि चड़िअउ ॥ ध्रम धनखु कर गहिओ भगत सीलह सरि लड़िअउ ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: पहिरि = पहन के। समाधि सनाहु = समाधि रूप संनाह। संनाहु = संजोअ, लोहे की वर्दी। है = (हय) घोड़ा। गिआन है = ज्ञान रूप (हय) घोड़े पर। आसणि चढ़िआउ = आसन पर बैठा है, आसन जमाया हुआ है। ध्रंम धनखु = धर्म का धनुष। कर = हाथों में। रहिओ = पकड़ा हुआ है। भगत सील = भगतों वाला शील (स्वभाव)। भगत सीलह = भगतों वाले शील के। सरि = तीर से। समाधि = प्रभू चरणों में सुरति जोड़नी।

अर्थ: समाधि-रूप संनाह (जिरह बख्तर) पहन के ज्ञान-रूप घोड़े पर (गुरू अमरदास जी ने) आसन जमाया हुआ है। धर्म का धनुष हाथों में पकड़ कर (गुरू अमरदास) भगतों वाले सील रूप तीर से (कामादिक वैरियों से) लड़ रहा है।

भै निरभउ हरि अटलु मनि सबदि गुर नेजा गडिओ ॥ काम क्रोध लोभ मोह अपतु पंच दूत बिखंडिओ ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: भै = (हरी का) भय रखने के कारण। मनि = मन में। सबदि गुर = सतिगुरू के शबद द्वारा। अपतु = आपा भाव, अहंकार। बिखंडिओ = नाश कर दिए हैं। दूत = वैरी।

अर्थ: हरी का भय रखने के कारण (गुरू अमरदास जी) निरभउ हैं, सतिगुरू के शबद की बरकति से हरी को (गुरू अमरदास ने) मन में धारा है- यह (गुरू अमरदास ने मानो), नेजा गाड़ा हुआ है और काम, क्रोध लोभ, मोह, अहंकार, इन पाँचों वैरियों का नाश कर दिया है।

भलउ भूहालु तेजो तना न्रिपति नाथु नानक बरि ॥ गुर अमरदास सचु सल्य भणि तै दलु जितउ इव जुधु करि ॥१॥२१॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: भलउ = भल्लों की कुल में। भूहालु = भुपालु, राजा। भलउ भूहालु = भल्लों की कुल का शिरोमणी। तेजो तना = हे तेजभान जी के पुत्र! न्रिपति नाथु = राजाओं का राजा। नानक बरि = (गुरू) नानक (देव जी) के वर से। भणि = कह। तै = आप ने, तू। इव = इस तरह। करि = कर के। दलु = फौज।

अर्थ: तेजभान जी के पुत्र हे गुरू अमरदास जी! तू भल्लों की कुल में शिरोमणि है और (गुरू) नानक (देव जी) के वर से राजाओं का राजा है। हे सल् कवि! (ऐसा) कह- 'हे गुरू अमरदास! तू इस तरह युद्ध कर के (इन विकारों का) दल जीत लिया है।1।21।

नोट: ये एक सवईया भॅट सल् का है।

घनहर बूंद बसुअ रोमावलि कुसम बसंत गनंत न आवै ॥ रवि ससि किरणि उदरु सागर को गंग तरंग अंतु को पावै ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: घनहर = बादल। बूँद = बूँद। घनहर बूँद = बादलों की बूँदें। बसुअ = बसुधा, धरती। रोमावलि = रोमों की पंक्ति। बसुअ रोमावलि = धरती की रोमावली, बनस्पति। कुसम = फूल। बसंत = बसंत ऋतु के। गनंत = गिनते हुए। रवि = सूरज। ससि = चंद्रमा। गंग तरंग = गंगा की लहरें। को = कौन? पावै = पा सकता है।

अर्थ: बादलों की बूँदें, धरती की बनस्पति, बसंत के फूल- इनकी गिनती नहीं हो सकती। सूरज और चँद्रमा की किरणें, समुंद्र का पेट गंगा की लहरें- इनका अंत कौन पा सकता है?

रुद्र धिआन गिआन सतिगुर के कबि जन भल्य उनह जुो गावै ॥ भले अमरदास गुण तेरे तेरी उपमा तोहि बनि आवै ॥१॥२२॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: रुद्र = शिव। रुद्र धिआन = शिव जी वाले ध्यान से (भाव, पूरन अडोल समाधि लगा के)। भल् = हे भल्! उनह = (बादलों की बूँदें, बनस्पति, बसंत के फूल, सूरज चँद्रमा की किरणें, समुंद्र की थाह, और गंगा की लहरें) इन सभी को। जुो गावै = जो कोई वर्णन कर ले तो चाहे कर ले। तोहि = तुझे ही। बनि आवै = फबती है। उपमा = बराबर की चीज। तेरी उपमा तोहि बनि आवै = तेरे जैसा तू खुद ही है तेरे बराबर का तुझे ही बताएं तो बात फबती है। जुो = (असली शब्द है 'जो' यहाँ पढ़ना है 'जु')।

अर्थ: शिव जी की तरह पूर्ण समाधि लगा के और सतिगुरू के बख्शे हुए ज्ञान द्वारा, हे भॅल् कवि! उन उपरोक्त बताए पदार्थों को चाहे कोई मनुष्य वर्णन कर सके, पर भॅलों की कुल में प्रकट हुए हे गुरू अमरदास जी! तेरे गुण वर्णन नहीं हो सकते। तेरे जैसा तू खुद ही है।1।22।

नोट: इन उपरोक्त अंकों को विचारने की जरूरत है। अंक १- यह भॅट भॅल् का सवईया है।

अंक २२- गुरू अमरदास जी की उस्तति में उचारे हुए सारे सवईयों का जोड़ 22 है जिनका वेरवा इस प्रकार है;

कल्सहार---------------9
जालप के---------------5
कीरत के---------------4
भिखे के----------------2
सल् का----------------1
भॅल् का----------------1
जोड़ -----------------22

और अब तक के सारे ही सवईयों की गिनती लें तो इस प्रकार है;

श्री मुखवाक महला ५----09
श्री मुखबाक् ५------------11
महले पहले के-----------10
महले दूजे के-------------10
महले तीजे के------------22
कुल जोड़ ---------------62

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सवईए महले चउथे के ४

अर्थ: गुरू रामदास जी की उस्तति में उचारे हुए सवईऐ।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इक मनि पुरखु निरंजनु धिआवउ ॥ गुर प्रसादि हरि गुण सद गावउ ॥ गुन गावत मनि होइ बिगासा ॥ सतिगुर पूरि जनह की आसा ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: इक मनि = एकाग्र मन से। निरंजनु = अंजनु (माया) से रहत। धिआवउ = मैं ध्याऊँ। हरि गुण = हरी के गुण। गावउ = मैं गाऊँ। गावत = गाते हुए। मनि = मन में। बिगासा = खिलाव, आनंद, खुशी। सतिगुर = हे सतिगुरू! पूरि = पूरी कर। जनह की = दास की।

अर्थ- हे सतिगुरू! मुझ दास की आस पूरी कर (कि), मैं एकाग्र-मन हो के माया के रहत अकाल-पुरख को सिमरूँ, गुरू की कृपा से सदा हरी के गुण गाऊँ और गुण गाते-गाते मेरे मन में खिलाव पैदा हो।

सतिगुरु सेवि परम पदु पायउ ॥ अबिनासी अबिगतु धिआयउ ॥ तिसु भेटे दारिद्रु न च्मपै ॥ कल्य सहारु तासु गुण ज्मपै ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: सेवि = सेव के, सेवा करके। परम पदु = ऊँची पदवी, ऊँचा दर्जा। पायउ = पाया है (जिस गुरू रामदास जी ने)। अबिगतु = अव्यक्त, अदृष्य अकाल पुरख। तिसु = उस (गुरू रामदास) को। भेटे = मिलने से, चरनी लगने से। चंपै = चिपकता। दारिद्रु = दलिद्रता, गरीबी। तासु = उस (गुरू रामदास जी) के।

अर्थ: (जिस गुरू रामदास जी ने) गुरू (अमरदास जी) की सेवा करके ऊँची पदवी पाई है, और अविनाशी व अदृष्य हरी को सिमरा है, उस (गुरू रामदास) की चरनीं लगने से, दरिद्रता नहीं चिपकती, कॅलसहार कवि उस (गुरू रामदास जी) के गुण गाता है।

ज्मपउ गुण बिमल सुजन जन केरे अमिअ नामु जा कउ फुरिआ ॥ इनि सतगुरु सेवि सबद रसु पाया नामु निरंजन उरि धरिआ ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: जंपउ = मैं जपता हूँ। बिमलु = निर्मल। सुजन = श्रेष्ठ। जन केरे = जन के। केरे = के। अमिअ नामु = अमृतमयी नाम। जा कउ = जिस (गुरू रामदास जी) को। फुरिआ = अनुभव हुआ। इनि = इस (गुरू रामदास जी) ने। सबद रसु = सबद का आनंद। नामु निरंजन = निरंजन का नाम। उरि = हृदय में। धरिआ = टिकाया है।

अर्थ: मैं उस श्रेष्ठ जन (गुरू रामदास जी) के निर्मल गुण गाता हूँ, जिसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम अनुभव हुआ है, इस (गुरू रामदास जी) ने (अमरदास जी) को सेव के सबद का आनंद प्राप्त किया है और निरंजन का नाम हृदय में टिकाया है।

हरि नाम रसिकु गोबिंद गुण गाहकु चाहकु तत समत सरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥१॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: रसिकु = रसिया, प्रेमी। गुण गाहकु = गुणों का गाहक। चाहकु तत = हरी को चाहने वाला। समत = समदृष्टता, समदर्शी, सबको एक प्यार भाव से देखने वाला। सरे = सरोवर। ठकुर = ठाकुर (आदर का पद है)। हरदास तने = हर दास का पुत्र। अभर = ना भरे हुए, खाली। भरे = भरने वाला।

अर्थ: हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र, गुरू रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-जल से) भरने वाले हैं। (गुरू रामदास) अकाल पुरख के नाम का रसिया है, गोबिंद के गुणों का गाहक है, अकाल-पुरख से प्यार करने वाला है, और सम-श्रेष्ठता का सरोवर है।1।

छुटत परवाह अमिअ अमरा पद अम्रित सरोवर सद भरिआ ॥ ते पीवहि संत करहि मनि मजनु पुब जिनहु सेवा करीआ ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: अमिअ = अमृत का। अमरा पद = अमर (अटल) पदवी देने वाला। अमृत सरोवर = अमृत का सरोवर। सद = सदा। ते संत = वह संत (बहुवचन)। पीवहि = पीते हैं। करहि = करते हैं। मनि = मन में। मजनु = स्नान। पुब = पूर्बले जनम की। जिनहु = जिन्होंने। करीआ = की है।

अर्थ: (गुरू रामदास) अमृत का सरोवर (है, जो) सदा भरा रहता है (और जिसमें से) अटल पदवी देने वाले अमृत के चश्मे चल रहे हैं। (इस अमृत को) वे संत-जन पीते हैं (और) अंतरात्मे स्नान करते हैं, जिन्होंने पूर्बले जन्मों में कोई सेवा की हुई है।

तिन भउ निवारि अनभै पदु दीना सबद मात्र ते उधर धरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥२॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: तिन = उन (संत जनों) का। निवारि = दूर कर के। अनभै पदु = निर्भयता का दर्जा। सबद मात्र = अपना शबद सुनाते ही। उधर धरे = उद्धार कर दिया, पार कर दिए।

अर्थ: (गुरू रामदास जी ने) उन (संत-जनों) का भय दूर कर के, उनको निर्भयता की पदवी बख्श दी है, और अपना शबद सुनाते हुए ही उनका पार उतार दिया है। हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र गुरू रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-अमृत से) भरने वाले हैं।2।

सतगुर मति गूड़्ह बिमल सतसंगति आतमु रंगि चलूलु भया ॥ जाग्या मनु कवलु सहजि परकास्या अभै निरंजनु घरहि लहा ॥ {पन्ना 1396}

पद्अर्थ: सतिगुर मति = सतिगुरू की बुद्धि। गूढ़ = गहरी। बिमल = निर्मल। आतमु = आत्मा। रंगि = (हरी के) प्यार में। चलूलु = गाढ़े रंग वाला। भया = हो गया है। सहजि = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोलता के कारण। प्रकासा = प्रकाश्या, खिल उठा है। अभै = निर्भउ। घरहि = (हृदय रूप) घर में ही। लहा = मिल गया है।

अर्थ: गुरू (रामदास जी) की मति गहरी है, (आप की) निर्मल सत्संगति है; (और आप की) आत्मा हरी के प्यार में गाढ़ी रंगी हुई है। (सतिगुरू रामदास जी का) मन जागा हुआ है, (उनके हृदय का) कमल फूल आत्मिक अडोलता में खिला हुआ है और (उन्होंने) निर्भय हरी को हृदय में ही पा लिया है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh