श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतगुरि दयालि हरि नामु द्रिड़्हाया तिसु प्रसादि वसि पंच करे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥३॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: सतिगुरि दयालि = दयालु गुरू (अमरदास जी) ने। द्रिढ़ाया = (गुरू रामदास जी को) दृढ़ करवाया है। तिसु प्रसादि = उस (नाम) की कृपा से। पंच = कामादिक पाँचों (विकार)। वसि करे = (गुरू रामदास जी ने) काबू किए हैं।

अर्थ: दयालु गुरू (अमरदास जी) ने (गुरू रामदास जी को) नाम दृढ़ करवाया है (भाव, जपाया है); उस नाम की बरकति से (गुरू रामदास जी ने) कामादिक पाँचों को अपने काबू किया हुआ है। हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र गुरू रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-अमृत से) भरने वाले हैं।3।

अनभउ उनमानि अकल लिव लागी पारसु भेटिआ सहज घरे ॥ सतगुर परसादि परम पदु पाया भगति भाइ भंडार भरे ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: अनभउ = ज्ञान (अनुभव)। उनमनि = अनुमान से, विचारों से। अकल = (नास्ती कला अवयवो यस्य। not in parts, epithet of the Supreme Spirit) एक रस व्यापक हरी। पारसु = (गुरू अमर दास जी)। भेटिआ = मिला। सहज घरे = शांति के घर में। परसादि = कृपा से। भगति भाइ = भगती के प्यार से। भंडार = खजाने।

अर्थ: (गुरू रामदास जी को) विचार द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है, (आपकी) बिरती एक-रस व्यापक हरी के साथ जुड़ी हुई है। (गुरू रामदास जी को गुरू अमरदास) पारस मिल गया है (जिसकी बरकति से गुरू रामदास) सहज अवस्था में पहुँच गया है। सतिगुरू (अमरदास जी) की कृपा से (गुरू रामदास जी ने) ऊँची पदवी पाई है और भगती के प्यार से (आप के) खजाने भरे हुए हैं।

मेटिआ जनमांतु मरण भउ भागा चितु लागा संतोख सरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥४॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: जनमांतु = जनम और अंत, जनम और मरण। मरण भउ = मौत का डर। संतोख सरे = संतोख के सरोवर में, अकाल पुरख में।

अर्थ: गुरू रामदास जी ने (अपना) जनम-मरण मिटा लिया हुआ है, (गुरू रामदास जी का) मौत का डर दूर हो चुका है और (उनका) चिक्त संतोख के सरोवर अकाल पुरख में जुड़ा रहता है। हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र गुरू रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-अमृत से) भरने वाले हैं।4।

अभर भरे पायउ अपारु रिद अंतरि धारिओ ॥ दुख भंजनु आतम प्रबोधु मनि ततु बीचारिओ ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: अभर भरे = ना भरों को भरने वाला, खाली हृदयों को भरने वाला हरी। पायउ = प्राप्त किया है। अपार = बेअंत हरी। रिद अंतिर = हृदय में। धारिओ = टिकाया है। ततु = सारी सृष्टि का आरम्भ। आतम प्रबोधु = आत्मा को जगाने वाला हरी। बीचारिओ = सिमरा है।

अर्थ: (गुरू रामदास जी ने) खाली हृदयों को भरने वाला हरी पा लिया है, (आप ने बेअंत हरी को अपने) हृदय में बसा लिया है, (और अपने) मन में (उस) अकाल-पुरख को सिमरा है (जो) दुखों का नाश करने वाला है और आत्मा को जगाने वाला है।

सदा चाइ हरि भाइ प्रेम रसु आपे जाणइ ॥ सतगुर कै परसादि सहज सेती रंगु माणइ ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: चाइ = चाव में, खुशी में। हरि भाइ = हरी के प्यार में। जाणइ = जाने, जानता है। सतगुर कै परसादि = गुरू (अमरदास जी) की कृपा से। माणइ = माणता है। सहज सेती = आत्मिक अडोलता से।

अर्थ: (गुरू रामदास) नित्य खुशी में (रहता है), हरी के प्यार में (मस्त है और हरी के) प्यार के स्वाद को वह स्वयं ही जानता है। (गुरू रामदास) सतगुरू (अमरदास जी) की कृपा द्वारा आत्मिक अडोलता से आनंद पा रहा है।

नानक प्रसादि अंगद सुमति गुरि अमरि अमरु वरताइओ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तैं अटल अमर पदु पाइओ ॥५॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: नानक प्रसादि = (गुरू) नानक की कृपा से। अंगद सुमति = (गुरू) अंगद (देव जी) द्वारा दी सुमति से। गुरि अमरि = गुरू अमरदास ने। अमरु = (अकाल-पुरख का) हुकम। वरताइओ = कमाया है, प्रयोग में लाए हैं। गुर रामदास = हे गुरू रामदास! कल्चरै = कल् उचरै, कलसहार कहता है।

अर्थ: कवि कलसहार कहता है- (गुरू) नानक जी की कृपा से (और गुरू) अंगद जी की बख्शी सुंदर बुद्धि से, गुरू अमरदास जी ने अकाल-पुरख का हुकम प्रयोग में लाया है, (कि) हे गुरू रामदास जी! तू सदा-स्थिर रहने वाले अविनाशी हरी की पदवी प्राप्त कर ली है।5।

संतोख सरोवरि बसै अमिअ रसु रसन प्रकासै ॥ मिलत सांति उपजै दुरतु दूरंतरि नासै ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: सरोवरि = सरोवर में। बसै = (गुरू रामदास) बसता है। अमिअ रसु = नाम अमृत का स्वाद। रसन = जीभ से। प्रकासै = प्रकट करता है। मिलत = (गुरू अमरदास जी को) मिलने से। सांति = ठंड। दुरतु = पाप। दूरंतरि = दूर से ही। नासै = नाश हो जाता है।

अर्थ: (गुरू रामदास) संतोख के सरोवर में बसता है, (और अपनी) जीभ से नाम-अमृत के स्वाद को प्रकट करता है। (गुरू रामदास जी के) दर्शन करने से (हृदय में) ठंढ पैदा होती है और पाप दूर से ही (देख के) नाश हो जाते हैं।

सुख सागरु पाइअउ दिंतु हरि मगि न हुटै ॥ संजमु सतु संतोखु सील संनाहु मफुटै ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंद्र (प्रभू मिलाप)। दिंतु = दिया हुआ, (गुरू रामदास जी का) बख्शा हुआ। हरि मगि = हरी के राह में। न हूटै = थकता नहीं। मफूटै = नहीं फूटता, नहीं टूटता। संनाहु = संजोअ। सील = मीठा स्वभाव।

अर्थ: (गुरू रामदास जी ने गुरू अमरदास जी का) दिया हुआ सुखों का सागर (प्रभू-मिलाप) प्राप्त किया है, (तभी गुरू रामदास) हरी के राह में (चलते हुए) थकते नहीं हैं। (गुरू रामदास जी का) संजम सत संतोख और मीठा स्वभाव-रूपी संजोअ (ऐसा है कि वह) टूटता नहीं है; (भाव, आप इतने गुण समपन्न हैं)।

सतिगुरु प्रमाणु बिध नै सिरिउ जगि जस तूरु बजाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै अभै अमर पदु पाइअउ ॥६॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: सतिगुरु प्रमाणु = गुरू अमरदास जी के तुल्य। बिधनै = बिधना ने, करतार ने। सिरिउ = (गुरू रामदास जी को) बनाया है। जगि = जगत ने। जस तूरु = शोभा का बाजा।

अर्थ: (गुरू रामदास जी को) करतार ने गुरू (अमरदास जी) के तुल्य बनाया है, जगत ने (आप की) शोभा का बाजा बजाया है। कवि कलसहार कहता है- 'हे गुरू रामदास! तूने निरभउ और अविनाशी हरी की पदवी पा ली है'।6।

जगु जितउ सतिगुर प्रमाणि मनि एकु धिआयउ ॥ धनि धनि सतिगुर अमरदासु जिनि नामु द्रिड़ायउ ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: जितउ = जीता है। सतिगुर प्रमाणि = गुरू (अमरदास जी) की तरह। जिनि = जिसने।

अर्थ: (गुरू रामदास जी ने) गुरू (अमरदास जी) की तरह जगत को जीता है और (अपने) मन में एक (अकाल-पुरख) को सिमरा है। सतिगुरू अमरदास धन्य है, जिसने (गुरू रामदास जी को) नाम दृढ़ कराया है।

नव निधि नामु निधानु रिधि सिधि ता की दासी ॥ सहज सरोवरु मिलिओ पुरखु भेटिओ अबिनासी ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: नवनिधि = नौ निद्धियां। निधान = खजाना। ता की = गुरू (रामदास जी) की। सहज सरोवरु = सहज अवस्था का समुंद्र, शांति का समुंद्र अकाल-पुरख। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू।

अर्थ: (गुरू रामदास जी को) नाम-खजाना मिल गया है, (मानो) नौ निधियां प्राप्त हो गई हैं। सभ रिद्धियां और सिद्धियां उसकी दासियां हैं। (गुरू रामदास जी को) शांति का सरोवर हरी मिल गया है, अविनाशी सर्व-व्यापक प्रभू मिल गया है।

आदि ले भगत जितु लगि तरे सो गुरि नामु द्रिड़ाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै हरि प्रेम पदारथु पाइअउ ॥७॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: आदि ले = आदि से ले के। जितु लगि = जिस (नाम) में लग के। सो = वह (नाम)। गुरि = गुरू (अमरदास जी) ने।

अर्थ: जिस (नाम) में लग के आदि से ही भगतों का उद्धार होता आया है, वह नाम गुरू (अमरदास जी) को दृढ़ करवाया है। कवि कल्सहार कहता है- 'हे गुरू रामदास जी! तूने अकाल-पुरख के प्यार का (उक्तम) पदार्थ पा लिया है'।7।

प्रेम भगति परवाह प्रीति पुबली न हुटइ ॥ सतिगुर सबदु अथाहु अमिअ धारा रसु गुटइ ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: प्रेम भगति = प्यार भरी भगती। परवाह = प्रवाह, बहाव, चश्में। पुबली = पूर्बली। हुटइ = हुटती, खत्म होती। अथाहु = गहरा। अमिअ धारा रसु = नाम अमृत की धाराओं का स्वाद। गुटइ = गट गट करके पीता है।

अर्थ: (गुरू रामदास जी के हृदय में) अकाल पुरख की प्यार भरी भगती के चश्मे चल रहे हैं। (गुरू रामदास जी की अकाल-पुरख के साथ जो) पहले की प्रीति (है, वह) खत्म नहीं होती; गुरू (अमरदास जी) का (जो) अथाह शबद (है, उस द्वारा गुरू रामदास) नाम-अमृत की धाराओं का स्वाद गट-गट करके ले रहा है।

मति माता संतोखु पिता सरि सहज समायउ ॥ आजोनी स्मभविअउ जगतु गुर बचनि तरायउ ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: सरि सहज = सहज के सरोवर में, आत्मिक अडोलता के सरोवर में। समायउ = लीन हुआ है। आजोनी = जूनियों से रहत। संभविअउ = अपने आप से प्रकाश करने वाला। गुर बचनि = सतिगुरू के वचनों द्वारा।

अर्थ: (ऊँची) मति (गुरू रामदास जी की) माता है और संतोख (आप का) पिता है (भाव, आप इन गुणों में जन्में-पले हैं, आप ऊँची बुद्धि वाले और पूर्ण संतोखी हैं)। (गुरू रामदास) सदा शान्ति के सरोवर में डुबकी लगाए रखता है। (गुरू रामदास) जूनियों से रहित और स्वै-प्रकाश हरी का रूप है। संसार को (आप ने) सतिगुरू के वचनों से तैरा दिया है।

अबिगत अगोचरु अपरपरु मनि गुर सबदु वसाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै जगत उधारणु पाइअउ ॥८॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: अबिगत = अव्यक्त, अदृष्य। अगोचरु = जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है। अपर = परे से परे, बेअंत। जगत उधारणु = संसार का उद्धार करने वाला अकाल-पुरख।

अर्थ: (गुरू रामदास) अदृष्य अगोचर और बेअंत हरी का रूप है। (आप ने अपने) मन में सतिगुरू का शबद बसाया है। कवि कलसहार कहता है- 'हे गुरू रामदास! तूने जगत का उद्धार करने वाला अकाल-पुरख पा लिया है'।8।

जगत उधारणु नव निधानु भगतह भव तारणु ॥ अम्रित बूंद हरि नामु बिसु की बिखै निवारणु ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: नव निधानु = नौ (निधियों) का खजाना। भगतह = भगतों को। भव = संसार सागर। तारणु = तैराने योग्य, उद्धार करने योग्य। हरी नामु = हरी का नाम। बिसु = विश्व, सारा संसार। बिखै = विष, जहर। निवारणु = दूर करने के समर्थ।

अर्थ: (सतिगुरू रामदास जी के पास) हरी का नाम, (मानो), अमृत की बूँद है, जो संसार को तारने-योग्य है, जो नौ निधियों का भंडार है, जो भगत-जनों को संसार-सागर से पार करने के समर्थ है और जो सारे संसार के विष को दूर करने योग्य है।

सहज तरोवर फलिओ गिआन अम्रित फल लागे ॥ गुर प्रसादि पाईअहि धंनि ते जन बडभागे ॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: तरोवर = श्रेष्ठ वृक्ष। पाईअहि = मिलते हैं। धंनि = भाग्यों वाले। ते जन = वे लोग।

अर्थ: गुरू रामदास आत्मिक अडोलता का श्रेष्ठ वृक्ष है जो फला-फुला हुआ है, (इस वृक्ष को) ज्ञान देने वाले अमृत फल लगे हुए हैं। (यह फल) गुरू की कृपा से मिलते हैं, और वह मनुष्य धन्य और अति भाग्याशाली हैं, (जिनको यह फल प्राप्त हुए हैं)।

ते मुकते भए सतिगुर सबदि मनि गुर परचा पाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै सबद नीसानु बजाइअउ ॥९॥ {पन्ना 1397}

पद्अर्थ: ते मुकते = वह मनुष्य तैर गए हैं। सबदि = शबद की बरकति से। मनि = मन में। गुर परचा = गुरू के साथ प्यार। सबद नीसानु = शबद का नगारा।

अर्थ: वह मनुष्य सतिगुरू के शबद की बरकति से मुक्त हो गए हैं, जिन्होंने अपने मन में गुरू (रामदास जी) के साथ प्यार डाला है। कवि कलसहार कहता है- 'हे गुरू रामदास! तूने शबद का नगारा बजाया है'।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh