श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1398 सेज सधा सहजु छावाणु संतोखु सराइचउ सदा सील संनाहु सोहै ॥ गुर सबदि समाचरिओ नामु टेक संगादि बोहै ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: सधा = श्रद्धा, सिदक। सहजु = शांति, टिकाव, आत्मिक अडोलता। छावाणु = शामियाना। सराइचउ = कनात। सदा सील = सदा मीठे स्वभाव वाला रहना। संनाहु = संजोअ। सोहै = सुंदर लगता है, शोभता है। गुर सबदि = गुरू के शबद से। समाचरिओ = कमाया है। टेक = (सतिगुरू का) आसरा। संगादि = संगी आदि को। बोहै = सुगंधित करता है। अर्थ: (गुरू रामदास जी ने) श्रद्धा को (परमात्मा के लिए) सेज बनाई है, (आप के) हृदय का टिकाव शामियाना है, संतोख कनात है और नित्य का मीठा स्वभाव संजोअ है। गुरू (अमरदास जी) के शबद की बरकति से (आप ने) कमाया है, (गुरू की) टेक (आप के) संगी आदिक को सुगंधित कर रही है। अजोनीउ भल्यु अमलु सतिगुर संगि निवासु ॥ गुर रामदास कल्युचरै तुअ सहज सरोवरि बासु ॥१०॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: अजोनीउ = जूनों से रहित। भल् = भला। अमलु = (अ+मलु) निर्मल, शुद्ध। तुअ = तेरा। बास = बसेरा, ठिकाना। सहज सरोवरि = आत्मिक अडोलता के सर में। अर्थ: गुरू रामदास जनम (मरन) से रहित है, भला है और शुद्ध आत्मा है। कवि कलसहार कहता है- 'हे गुरू रामदास! तेरा वासा आत्मिक अडोलता के सरोवर में है'।10। गुरु जिन्ह कउ सुप्रसंनु नामु हरि रिदै निवासै ॥ जिन्ह कउ गुरु सुप्रसंनु दुरतु दूरंतरि नासै ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: जिन कउ = जिन मनुष्यों पर। रिदै = (उनके) हृदय में। निवासै = बसाता है। दुरतु = पाप। दूरंतरि = दूर से ही। अर्थ: जिन मनुष्यों पर सतिगुरू प्रसन्न होता है, (उनके) हृदय में अकाल-पुरख का नाम बसाता है। जिन पर गुरू प्रसन्न होता है (उन से) पाप दूर से (देख कर) भाग जाते हैं। गुरु जिन्ह कउ सुप्रसंनु मानु अभिमानु निवारै ॥ जिन्ह कउ गुरु सुप्रसंनु सबदि लगि भवजलु तारै ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: निवारै = दूर करता है। सबदि लगि = शबद में जुड़ के। भवजलु = संसार सागर। तारै = पार लगा देता है। अर्थ: जिन पर सतिगुरू खुश होता है, उन मनुष्यों का अहंकार दूर कर देता है। जिन पर गुरू मेहर करता है, उन मनुष्यों को शबद में जोड़ के इस संसार-सागर से पार लंघा देता है। परचउ प्रमाणु गुर पाइअउ तिन सकयथउ जनमु जगि ॥ स्री गुरू सरणि भजु कल्य कबि भुगति मुकति सभ गुरू लगि ॥११॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: परचउ = उपदेश। प्रमाणु = प्रमाणिक, जाना माना। गुर = गुरू का। तिन जनमु = उनका जनम। सकयथउ = सफल। जगि = जगत में। भजु = पड़। कल् कबि = हे कवि कलसहार! भुगति = पदार्थ। गुरू लगि = गुरू की शरण पड़ने से। अर्थ: जिन मनुष्यों ने सतिगुरू का प्रमाणिक उपदेश प्राप्त किया है, उनका पैदा होना जगत में सफल हो गया है। हे कवि कलसहार! सतिगुरू की शरण पड़, गुरू की शरण पड़ने से ही मुक्ति के सारे पदार्थ (मिल सकते हैं)।11। सतिगुरि खेमा ताणिआ जुग जूथ समाणे ॥ अनभउ नेजा नामु टेक जितु भगत अघाणे ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरू (रामदास जी) ने। खेमा = चंदोवा। जुग जूथ = जुगों के समूह, सारे जुग। समाणे = समा गए हैं (भाव, चंदोए के नीचे आ गए हैं)। अनभउ = अनुभव, ज्ञान। जितु = जिससे। अघाणे = तृप्त हो गए हैं। अर्थ: सतिगुरू (रामदास जी) ने (अकाल-पुरख की सिफतसालाह रूप) चँदोआ ताना हुआ है, सारे जुग (भाव, सारे जुगों के जीव) उसके नीचे आ टिके हैं (भाव, सारे जीव हरी-जश करने लग गए हैं)। ज्ञान (आपके हाथ में) नेजा (भाला हथियार) है, अकाल-पुरख का नाम (आपका) आसरा है, जिसकी बरकति से सारे तृप्त हो रहे हैं। गुरु नानकु अंगदु अमरु भगत हरि संगि समाणे ॥ इहु राज जोग गुर रामदास तुम्ह हू रसु जाणे ॥१२॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: हरि संगि = अकाल-पुरख में। समाणे = लीन हो गए हैं। गुर रामदास = हे गुरू रामदास! तुम् हू = आप ने भी। राज जोग रसु = राज योग का स्वाद। जाणे = जाना है। अर्थ: (हरी-नाम रूपी टेक की बरकति से) गुरू नानक देव जी, गुरू अंगद साहिब, गुरू अमरदास जी व अन्य भगत अकाल-पुरख में लीन हो गए हैं। हे गुरू रामदास जी! आप ने भी राज-जोग के इस स्वाद को पहचाना है।12। जनकु सोइ जिनि जाणिआ उनमनि रथु धरिआ ॥ सतु संतोखु समाचरे अभरा सरु भरिआ ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: सोइ = वह है। जिनि = जिस ने। जाणिआ = (अकाल-पुरख को) पहचान लिया है। उनमनि = उनमन में, पूर्ण खिलाव में। रथु = मन का प्रवाह। धरिआ = रखा है, टिकाया है। समाचरे = एकत्र किए हैं, कमाए हैं। अभरा = ना भरा हुआ। सरु = तालाब। अभरा सरु = वह तालाब जो भरा ना जा सके, ना तृप्त होने वाला मन। भरिआ = पूर्ण किया, तृप्त किया, संतुष्ट किया। अर्थ: जनक वह है जिस ने (अकाल-पुरख को) जान लिया है, जिसने अपने मन की बिरती को पूर्ण खिलाव में टिकाया हुआ है, जिसने सत और संतोख (अपने अंदर) इकट्ठे किए हैं, और जिसने इस ना तृप्त होने वाले मन को संतुष्ट कर लिया है। अकथ कथा अमरा पुरी जिसु देइ सु पावै ॥ इहु जनक राजु गुर रामदास तुझ ही बणि आवै ॥१३॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: अकथ = जिसका वर्णन ना किया जा सके। अमरा पुरी = सदा अटल रहने वाली पुरी, सदा स्थिर रहने वाला ठिकाना, अडोल आत्मिक अवस्था। अकथ कथा अमरा पुरी = सहज अवस्था की यह गुझी हुई बात। जिसु = जिस मनुष्य को। देइ = (अकाल-पुरख को) देता है। बणि आवै = फबता है, शोभता है। अर्थ: अडोल आत्मिक अवस्था की (भाव, जनक वाली) यह (उपरोक्त) गूझी बात जिस मनुष्य को अकाल-पुरख बख्शता है, वही प्राप्त करता है (भाव, इस तरह की जनक-पदवी हरेक को नहीं मिलती)। हे गुरू रामदास! ये जनक-राज तुझे ही शोभा देता है (भाव, इस आत्मिक अडोलता का तू ही अधिकारी है)।13। भॅट कलसहार के ये 13 सवईए हैं। सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिड़्हु तिन्ह जन दुख पापु कहु कत होवै जीउ ॥ तारण तरण खिन मात्र जा कउ द्रिस्टि धारै सबदु रिद बीचारै कामु क्रोधु खोवै जीउ ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: जपै = (जो जो मनुष्य) जपता है। द्रिढ़ु = सिदक से, पक्के तौर पर। मनि = मन में। ऐक लिव = एकाग्र चिक्त हो के, बिरती जोड़ के। तिन् जन = उन मनुष्यों को। कहु = बताओ। कत = कब? द्रिस्टि धारै = मेहर की नजर से देखता है। रिद = हृदय में। खोवै = नाश कर देता है। तारण तरण = संसार के उद्धार के लिए जहाज। तरण = जहाज़। अर्थ: जो जो मनुष्य सतिगुरू का नाम, बिरती जोड़ के श्रद्धा से जपता है, बताओ जी, उनको कलेश और पाप कब छू सकता है? (सतिगुरू, जो) जगत के उद्धार के लिए (मानो) जहाज (है) जिस मनुष्य पर छिन भर के लिए भी मेहर की नजर करता है, वह मनुष्य (गुरू के) शबद को हृदय में विचारता है और (अपने अंदर से) काम-क्रोध को गवा देता है। जीअन सभन दाता अगम ग्यान बिख्याता अहिनिसि ध्यान धावै पलक न सोवै जीउ ॥ जा कउ देखत दरिद्रु जावै नामु सो निधानु पावै गुरमुखि ग्यानि दुरमति मैलु धोवै जीउ ॥ सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिड़ु तिन जन दुख पाप कहु कत होवै जीउ ॥१॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: जीअन सभन = सारे जीवों का। अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके। बिख्याता = विख्यात करने वाला, प्रकट करने वाला। अहिनिसि = दिन रात, हर वक्त। अहि = दिन। निसि = रात। धावै = धारे। न सोवै = नहीं सोता, गाफिल नहीं होता। जा कउ = जिस मनुष्य का। देखत = (गुरू को) देखते हुए। ग्यानि = (गुरू के) ज्ञान से। अर्थ: (सतिगुरू रामदास) सारे जीवों का दाता है, अगम हरी के ज्ञान को प्रकट करने वाला है; दिन-रात हरी का ध्यान धारता है और एक छिन-पल के लिए भी गाफ़ल नहीं होता। जो गुरमुख (गुरू रामदास जी के दिए) ज्ञान से अपनी दुमर्ति की मैल धोता है, नाम-रूपी खजाना हासिल कर लेता है और उसका दरिद्र आपके दर्शन करने से दूर जाता है। जो जो मनुष्य सतिगुरू (रामदास जी) का नाम बिरती जोड़ के मन में श्रद्धा से जपता है, बताओं जी, उनको पाप-कलेश छू सकता है? धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है ॥ जा की सेवा सिध साध मुनि जन सुरि नर जाचहि सबद सारु एक लिव लाई है ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: पाई है = प्राप्त करने से, मिलने से। जा की = जिस गुरू रामदास जी की। जाचहि = माँगते हैं। सुरि = देवते। सारु = श्रेष्ठ। अर्थ: पूरे गुरू (रामदास जी) को मिलने से सारे धर्म-कर्म (प्राप्त हो जाते हैं); सिद्ध, साधु, मुनि लोक, देवते ओर मनुष्य इस (गुरू रामदास की) सेवा मांगते हैं, (आपका) शबद श्रेष्ठ है और (आप ने) एक (अकाल-पुरख) के साथ बिरती जोड़ी हुई है। फुनि जानै को तेरा अपारु निरभउ निरंकारु अकथ कथनहारु तुझहि बुझाई है ॥ भरम भूले संसार छुटहु जूनी संघार जम को न डंड काल गुरमति ध्याई है ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: को = कौन? तेरा = तेरा (अंत)। कथनहारु = कथन योग्य। तुझहि = तुझे ही। बुझाई है = समझ आई है, ज्ञान प्राप्त हुआ है। संसार = हे संसार! हे संसारी जीव! संघार = मरन, मौत। छुटहु = बच जाओ। डंड काल = दण्ड, सजा। ध्याई है = ध्याईये, ध्याएं, सिमरें। अर्थ: (हे गुरू रामदास!) कौन तेरा (अंत) पा सकता है? तू बेअंत, निर्भय, निरंकार (का रूप) है। कथन-योग अकॅथ हरी का ज्ञान तुझे ही मिला है। भ्रमों में भूले हुए हे संसारी जीव! (तू) गुरू (रामदास जी) की मति ले के (प्रभू का नाम) सिमर, तू जनम-मरण से बच जाएगा, और जम की मार भी नहीं पड़ेगी। मन प्राणी मुगध बीचारु अहिनिसि जपु धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है ॥२॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: मुगघ = मूर्ख। बाचारु = विचार कर, सोच। अहिनिसि = दिन रात, हर वक्त। जपु = सिमर। अर्थ: हे मूर्ख मन! हे मूर्ख जीव! विचार कर के दिन-रात (नाम) सिमर। पूरे सतिगुरू (रामदास जी) को मिलने से (सारे) धर्म-कर्म (प्राप्त) हो जाते हैं।2। हउ बलि बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर ॥ कवन उपमा देउ कवन सेवा सरेउ एक मुख रसना रसहु जुग जोरि कर ॥ {पन्ना 1398} पद्अर्थ: हउ = मैं। बलि बलि जाउ = कुर्बान जाऊँ, सदके जाऊँ। देउ = मैं दूँ। सरेउ = मैं करूँ। रसना = जीभ से। रसहु = जपो। जुग कर = दोनों हाथ। जोरि = जोड़ कर। ऐक मुख = सन्मुख हो के। अर्थ: सच्चे सतिगुरू (रामदास जी) के नाम से सदके जाऊँ। मैं कौन सी उपमा दूँ (भाव, क्या कहूँ कैसा है), मैं कौन सी सेवा करूँ? (हे मेरे मन!) दोनों हाथ जोड़ के सन्मुख हो के जीभ से सिमर (बस, यही उपमा और यही सेवा है)। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |