श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1400 गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥ तारण तरण सम्रथु कलिजुगि सुनत समाधि सबद जिसु केरे ॥ फुनि दुखनि नासु सुखदायकु सूरउ जो धरत धिआनु बसत तिह नेरे ॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: तारण तरण = तैराने के लिए जहाज। तरण = जहाज। सम्रथु = समर्थ। कलिजुगि = कलयुग में। सुनत = सुनते हुए। सबद जिसु केरे = जिस गुरू के शबद। केरे = के। समाधि = समाधि (में जुड़ा जाया जाता है)। फुनि = फिर। दुखनि नासु = दुखों का नाश करने वाला। सूरउ = सूरमा। तिह नेरे = उस मनुष्य के पास। अर्थ: हे मेरे मन! 'गुरू' 'गुरू' जप। जिस गुरू की बाणी सुन के समाधि (में लीन हो जाया जाता है), वह गुरू कलियुग में (संसार-सागर से) तैरा लेने के लिए समर्थ जहाज है। वह गुरू दुखों का नाश करने वाला है, सुखों के देने वाला शूरवीर है। जो मनुष्य उसका ध्यान धरता है, वह गुरू उसके अंग-संग बसता है। पूरउ पुरखु रिदै हरि सिमरत मुखु देखत अघ जाहि परेरे ॥ जउ हरि बुधि रिधि सिधि चाहत गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥५॥९॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: पूरउ = पूरा। रिदै = दिल में। मुखु = (उस गुरू का) मुँह। अघ = पाप। जाहि परेरे = दूर हो जाते हैं। जउ = यदि। हरि बुधि = ईश्वरीय बुद्धि। अर्थ: सतिगुरू पूरन पुरख है, गुरू हृदय में हरी को सिमरता है, (उसका) मुख देखने से पाप दूर हो जाते हैं। हे मेरे मन! यदि तू ईश्वरीय बुद्धि, रिद्धियां और सिद्धियां चाहता है, तो 'गुरू' 'गुरू' जप।5।9। गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥ हुती जु पिआस पिऊस पिवंन की बंछत सिधि कउ बिधि मिलायउ ॥ पूरन भो मन ठउर बसो रस बासन सिउ जु दहं दिसि धायउ ॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: गुरू मुख = सतिगुरू का मुँह। गुरू सुखु = बड़ा आनंद। गरू = (गरीयस् = Compare of गुरु)। पायउ = मिला है, लिया है। हुती जु पिआस = जो प्यास (लगी हुई) थी। पिऊस = (पीयुष) अमृत। पिवंन की = पीने की। बंछत = मन इच्छत। कउ = के लिए। बिधि = ढंग! मिलायउ = मिला दिया है, बना दिया है। भो = हो गया है। ठउर बसो = जगह बस गया है, टिक गया है। रस बासन सिउ = रसों व वासना से। जु = जो मन। दहं दिसि = दसों तरफ। धायउ = दौड़ता है। अर्थ: सतिगुरू (अमरदास जी) के दर्शन कर के (गुरू रामदास जी ने) बड़ा आनंद पाया है। (आप को) अमृत पीने की जो तमन्ना लगी हुई थी, उस मन-इच्छित (चाहत की) सफलता का ढंग (हरी ने) बना दिया है। (संसारी जीवों का) जो मन रसों-वासनाओं के पीछे दसों-दिशाओं में दौड़ता है आप का वह मन तृप्त हो गया है और टिक गया है। गोबिंद वालु गोबिंद पुरी सम जल्यन तीरि बिपास बनायउ ॥ गयउ दुखु दूरि बरखन को सु गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥६॥१०॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: गोबिंद पुरी सम = हरी के नगर समान, बैकुंठ समान। सम = बराबर, जैसा। जल्न तीरि बिपास = ब्यास के जल के किनारे पर। बरखन को दुखु = वर्षों का दुख। तीरि = किनारे पर। अर्थ: (जिस सतिगुरू अमरदास जी ने) बैकुंठ जैसा गोइंदवाल ब्यास के पानी के किनारे पर बना दिया है, उस गुरू का मुँह देख के (गुरू रामदास जी ने) बड़ा आनंद पाया है, (आप का, जैसे) वर्षों का दुख दूर हो गया है।6।10। समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥ गुरि कीनी क्रिपा हरि नामु दीअउ जिसु देखि चरंन अघंन हर्यउ ॥ निसि बासुर एक समान धिआन सु नाम सुने सुतु भान डर्यउ ॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। गुरि = सतिगुरू ने। जिसु देखि चरंन = जिस (गुरू) के चरणों को देख के। अघंन = पाप। हर्यउ = दूर हो गए। निसि बासुर = रात दिन। बासुर = दिन। ऐक समान = एक रस। सुतु भान = सूरज का पुत्र, जम। भान = सूरज। सुने = सन के। अर्थ: समर्थ गुरू (अमरदास जी) ने (गुरू रामदास जी के) सिर पर हाथ रखा है। जिस (गुरू अमरदास जी) के दर्शन करने से पाप दूर हो जाते हैं, उस गुरू ने मेहर की है, (गुरू रामदास जी को) हरी का नाम बख्शा है; (उस नाम में गुरू रामदास जी का) दिन-रात एक-रस ध्यान रहता है, उस नाम को सुनने से जम-राज (भी) डरता है (भाव, नजदीक नहीं आता)। भनि दास सु आस जगत्र गुरू की पारसु भेटि परसु कर्यउ ॥ रामदासु गुरू हरि सति कीयउ समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥७॥११॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: भनि = कह। दास = हे दास (नॅल्) कवि! जगत्र गुरू = जगत के गुरू। पारसु भेटि = पारस (गुरू अमरदास जी) को मिल के। परसु = परसन योग (पारसु)। कर्यउ = किया गया है। सति = अटल। अर्थ: हे दास नॅल! कवि! कह- 'गुरू रामदास जी को केवल जगत के गुरू की ही आस है, पारस (गुरू अमरदास जी) को मिल के आप भी परसन-योग (पारस ही) हो गए हैं। हरी ने गुरू रामदास जी को अटल कर रखा है, (क्योंकि) समर्थ गुरू (अमरदास जी) ने (उनके) सिर पर हाथ रखा हुआ है'।7।11। अब राखहु दास भाट की लाज ॥ जैसी राखी लाज भगत प्रहिलाद की हरनाखस फारे कर आज ॥ फुनि द्रोपती लाज रखी हरि प्रभ जी छीनत बसत्र दीन बहु साज ॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: फारे = फाड़ दिया। कर = हाथ। कर आज = हाथों के नाखूनों से। छीनत = छीनते हुए। दीन = दिया। साज = समान। अर्थ: (हे सतिगुरू जी!) अब इस दास (नॅल्) भॅट की लाज रख लो, जैसे (आप ने) प्रहलाद भगत की इज्जत रखी थी और हर्णाक्षस को हाथों के नाखूनों से मार दिया था। और, हे हरी-प्रभू जी! द्रोपदी की (भी) आपने इज्जत बचाई, जब उसके वस्त्र छीने जा रहे थे, (आपने) उसको बहुत सम्मान बख्शा था। सोदामा अपदा ते राखिआ गनिका पड़्हत पूरे तिह काज ॥ स्री सतिगुर सुप्रसंन कलजुग होइ राखहु दास भाट की लाज ॥८॥१२॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: अपदा = बिपता, कष्ट। राखिआ = बचाया। गनिका = कंजरी। पूरे = पूरे किए, सफल किए। तिह काज = उस (गनिका) के काम। सतिगुर = हे सतिगुरू! सुप्रसंन होइ = प्रसन्न हो के। लाज = इज्जत। अर्थ: हे सतिगुरू जी! सुदामे को (आपने) बिपता से बचाया, (राम नाम) पढ़ती गनिका का काम सफल किया। अब कलियुग के समय इस सेवक (नॅल्) भॅट पर (भी) प्रसन्न हो के इसकी लाज रखो।8।12। झोलना ॥ गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥ सबदु हरि हरि जपै नामु नव निधि अपै रसनि अहिनिसि रसै सति करि जानीअहु ॥ फुनि प्रेम रंग पाईऐ गुरमुखहि धिआईऐ अंन मारग तजहु भजहु हरि ग्यानीअहु ॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: झोलना = छंद। अपै = अरपे, अर्पित करता है। रसनि = जीभ से। अहिनिसि = दिन रात (भाव, हर वक्त)। रसै = आनंद लेता है, सिमरता है। सति करि = ठीक, सच कर के। जानीअहु = जानो, समझो। प्रेम रंग = प्रेम की रंगण। गुरमुखहि = गुरू के सन्मुख हो के। अंन मारग = और रास्ते, और पंथ। तजहु = छोड़ो। ग्यानीअहु = हे ज्ञानियो! हे ज्ञान वाले सज्जनो! अर्थ: हे प्राणियो! नित्य 'गुरू' 'गुरू' जपो। (ये बात) सच जानो, कि (सतिगुरू स्वयं) हरी-शबद जपता है, (औरों को) नाम-रूपी नौ-निद्धियां बख्शता है, और हर वक्त जीभ से (नाम का) आनंद ले रहा है। (अगर) गुरू की शिक्षा ले के (हरी को) सिमरें, तो हरी के प्रेम का रंग प्राप्त होता है, (इसलिए) हे ज्ञानवानों! और रास्ते छोड़ दो, और हरी को सिमरो। बचन गुर रिदि धरहु पंच भू बसि करहु जनमु कुल उधरहु द्वारि हरि मानीअहु ॥ जउ त सभ सुख इत उत तुम बंछवहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥१॥१३॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: रिदि = हृदय में। बचन गुर = सतिगुरू के वचन। पंच भू = मन। बसि करहु = वश में करो, काबू करो। उधरहु = तैरा लो, सफल कर लो। द्वारि हरि = हरी के दर पर, हरी की दरगाह में। मानीअहु = मान पाओगे। जउत = यदि। इत उत = यहाँ वहाँ के, इस संसार के और परलोक के। सब सुख बंछवहु = तुम सारे सुख चाहते हो। अर्थ: (हे प्राणियो!) सतिगुरू के वचनों को हृदय में टिकाओ (और इस तरह) अपने मन को काबू करो, अपने जनम और कुल को सफल करो, हरी के दर पर आदर पाओगे। अगर तुम परलोक के सारे सुख चाहते हो, तो हे प्राणियो! सदा गुरू गुरू जपो।1।13। गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपि सति करि ॥ अगम गुन जानु निधानु हरि मनि धरहु ध्यानु अहिनिसि करहु बचन गुर रिदै धरि ॥ फुनि गुरू जल बिमल अथाह मजनु करहु संत गुरसिख तरहु नाम सच रंग सरि ॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: सति करि = श्रद्धा से, दृढ़ करके। अगम गुन निधानु = बेअंत गुणों का खजाना। जानु = जाननेवाला। मनि = मन में। धरि = धर के। बिमल = निर्मल, शुद्ध। अथाह = गंभीर। मजनु = स्नान। गुरसिख = हे गुरसिखो! रंगि सरि = प्रेम के सरोवर। तरहु = तैरो। अर्थ: हे संतजनो! हे गुरसिखो! श्रद्धा से गुरू गुरू जपो। सतिगुरू के वचन हृदय में बसा के (घट-घट की) जाननेवाले और बेअंत गुणों के खजाने हरी को मन में बसाओ, और दिन-रात उसी का ध्यान धरो। फिर सतिगुरू-रूपी निर्मल और गंभीर जल में डुबकी लगाओ, और सच्चे नाम के प्रेम में तैराकी करो। सदा निरवैरु निरंकारु निरभउ जपै प्रेम गुर सबद रसि करत द्रिड़ु भगति हरि ॥ मुगध मन भ्रमु तजहु नामु गुरमुखि भजहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु सति करि ॥२॥१४॥ {पन्ना 1400} पद्अर्थ: जपै = (जो गुरू) जपता है। रसि = आनंद में। भगति हरि = हरी की भगती। मुगध मन = हे मूर्ख मन! गुरमुखि = गुरू से। अर्थ: (जो गुरू रामदास) सदा निर्वैर और निर्भय निरंकार को जपता है, और सतिगुरू के शबद के प्रेम के आनंद में हरी की भगती दृढ़ करता है, उस गुरू के सन्मुख हो के हे मूर्ख मन! (हरी का) नाम जप, और भ्रम छोड़ दे, श्रद्धा से 'गुरू' 'गुरू' कर।2।14। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |