श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1405 तार्यउ संसारु माया मद मोहित अम्रित नामु दीअउ समरथु ॥ फुनि कीरतिवंत सदा सुख स्मपति रिधि अरु सिधि न छोडइ सथु ॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: मद = अहंकार। सथु = साथ। कीरति = शोभा। संपति = सम्पक्ति, धन। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। अर्थ: (गुरू रामदास जी ने) माया के मद में मोहे हुए सेसार का उद्धार किया है, (आप ने जीवों को) समर्था वाला अमृत नाम बख्शा है, आप सदा सुख, धन और शोभा के मालिक हैं, रिद्धी और सिद्धी आपका साथ नहीं छोड़ती। दानि बडौ अतिवंतु महाबलि सेवकि दासि कहिओ इहु तथु ॥ ताहि कहा परवाह काहू की जा कै बसीसि धरिओ गुरि हथु ॥७॥४९॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: दानि = दानी। अतिवंतु = अत्यंत। सेवक दासि = सेवक दास (मथुरा) ने। कहिओ = कहा है। तथु = सच। ताहि = उस (मनुष्य) को। कहा = कहाँ? बसीसि = सिर पर। गुरि = गुरू ने। अर्थ: (गुरू रामदास) बड़ा दानी है और अत्यंत महाबली है, सेवक दास (मथुरा) ने यह सच कहा है। जिसके सिर पर गुरू (रामदास जी) ने हाथ रखा है, उसको किसी की क्या परवाह है?।7।49। भॅट मथुरा के 7 सवईऐ। तीनि भवन भरपूरि रहिओ सोई ॥ अपन सरसु कीअउ न जगत कोई ॥ आपुन आपु आप ही उपायउ ॥ सुरि नर असुर अंतु नही पायउ ॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: भरपूरि रहिओ = व्यापक है। सोई = वह अकाल पुरख। सहसु = सदृष्य, जैसा। आपुन आप = अपना आप। उपायउ = पैदा किया। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। असुर = दैत्य। आप ही = खुद ही। अर्थ: (जो) अकाल-पुरख स्वयं ही तीनों भवनों में व्यापक है, जगत का कोई दूसरा जीव (जिसने) अपने जैसा पैदा नहीं किया, अपना आप (जिसने) आप ही पैदा किया है, देवते, मनुष्य, दैत्य, किसी ने (जिसका) अंत नहीं पाया। पायउ नही अंतु सुरे असुरह नर गण गंध्रब खोजंत फिरे ॥ अबिनासी अचलु अजोनी स्मभउ पुरखोतमु अपार परे ॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: संभउ = (स्वयंभुं) अपने आप से प्रकट होने वाला। अर्थ: देवते, दैत्य, मनुष्य, गण, गंधर्व- सब जिसको खोजते फिरते हैं, (किसी ने जिसका) अंत नहीं पाया, जो अकाल-पुरख अविनाशी है, अडोल है, जूनियों से रहित है, अपने आप से प्रकट हुआ है, उक्तम पुरख है और बहुत बेअंत है। करण कारण समरथु सदा सोई सरब जीअ मनि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥१॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: करण = जगत। करण कारण = सृष्टि का मूल। सरब जीअ = सारे जीवों ने। मनि = मन में। जयो जय = जै जैकार हो रही है। महि = जगत में। हरि परम पदु = (उपरोक्त) हरी की ऊँची पदवी। अर्थ: (जो) हरी सृष्टि का मूल है, (जो) स्वयं ही सदा समर्थ है, सारे जीवों ने (जिसको) मन में सिमरा है, हे गुरू रामदास जी! (आपकी) जगत में जै-जैकार हो रही है कि आप ने ऊँची पदवी पा ली है।1। सतिगुरि नानकि भगति करी इक मनि तनु मनु धनु गोबिंद दीअउ ॥ अंगदि अनंत मूरति निज धारी अगम ग्यानि रसि रस्यउ हीअउ ॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: सतिगुरि नानकि = सतिगुरू नानक ने। इक मनि = एकाग्र मन हो के। दीअउ = अर्पण कर दिया। अंगदि = अंगद ने। अनंत मूरति = बेअंत आकारों वाला, सरगुण हरी। निज धारी = अपने अंदर धारण की। अगम ग्यानि = अगम हरी के ज्ञान से। रसि = प्रेम में। रस्यउ = रस गया, भीग गया। हीअउ = (गुरू अंगद जी का) हृदय। अगम = अपहुँच। अर्थ: गुरू नानक देव जी ने एक-मन हो के भगती की, और (अपना) तन-मन-धन गोबिंद को अर्पित कर दिया। (गुरू) अंगद (साहिब जी) ने 'अनंत मूरति' हरी को अपने अंदर टिकाया, अपहुँच हरी के ज्ञान की बरकति से आपका हृदय प्रेम में भीग गया। गुरि अमरदासि करतारु कीअउ वसि वाहु वाहु करि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥२॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: गुरि अमरदासि = गुरू अमरदास (जी) ने। वसि = वश में। वाहु वाहु करि = 'तू धन्य है, तू धन्य है' कह के। परम = सबसे ऊँचा। पदु = दर्जा। हरि परम पदु = प्रभू (के मिलाप) का सबसे ऊँचा दर्जा। अर्थ: गुरू अमरदास जी ने करतार को अपने वश में किया। 'तू धन्य है, तू धन्य है' - ये कह के आप ने करतार को सिमरा। हे गुरू रामदास जी! आप की भी जगत में जय-जयकार हो रही है, आप ने अकाल-पुरख के मिलाप का सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लिया है।2। नारदु ध्रू प्रहलादु सुदामा पुब भगत हरि के जु गणं ॥ अ्मबरीकु जयदेव त्रिलोचनु नामा अवरु कबीरु भणं ॥ तिन कौ अवतारु भयउ कलि भिंतरि जसु जगत्र परि छाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥३॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: पुब = पूर्बले (जुगों के)। गणं = गिने जाते हैं। अवरु = और अन्य। भणं = कहे जाते हैं। अवतारु = जनम। कलि भिंतरि = कलिजुग में। छाइयउ = बिखरा है। अर्थ: नारद, धु्रव, प्रहलाद, सुदामा और अंबरीक- जो हरी के पूर्बले जुगों के भगत गिने जाते हैं; जैदेव, त्रिलोचन, नामा और कबीर, जिनका जनम कलियुग में हुआ है- इन सभी का यश जगत में (हरी का भगत होने के कारण ही) पसरा हुआ है। हे गुरू रामदास जी! आप जी की भी जय-जयकार जगत में हो रही है, कि आप ने हरी (के मिलाप) की परम पदवी पाई है।3। मनसा करि सिमरंत तुझै नर कामु क्रोधु मिटिअउ जु तिणं ॥ बाचा करि सिमरंत तुझै तिन्ह दुखु दरिद्रु मिटयउ जु खिणं ॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: मनसा = मन की बिरती। तिणं = उनका। बाचा = बचन। खिंणं = छिन में। अर्थ: जो मनुष्य (हे सतिगुरू!) तुझे मन जोड़ के सिमरते हैं, उनका काम और क्रोध मिट जाता है। जो जीव आप को वचनों द्वारा (भाव, जीभ से) सिमरते हैं, उनका दुख और दरिद्र छिन में दूर हो जाता है। करम करि तुअ दरस परस पारस सर बल्य भट जसु गाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥४॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: करम करि = कर्मों द्वारा (भाव, शरीर की इन्द्रियां बरत के)। पारस सर = (वह) पारस समान (हो जाते हैं)। सर = बराबर, जैसे। तुअ = तव, तेरा। अर्थ: हे गुरू रामदास जी! बल् भॅट (आप का) यश गाता है (और कहता है कि) जो मनुष्य आप के दर्शन शारीरिक इन्द्रियों से परसते हैं, वे पारस समान हो जाते हैं। हे गुरू रामदास जी! आप की जय-जयकार जगत में हो रही है कि आपने हरी की उच्च पदवी पा ली है।4। जिह सतिगुर सिमरंत नयन के तिमर मिटहि खिनु ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिदै हरि नामु दिनो दिनु ॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: नयन = नेत्र, आँखें। तिमर = अंधेरा। रिदै = हृदय में। अर्थ: जिस गुरू का सिमरन करने से, आँखों का अंधेरा छिन में मिट जाता है, जिस गुरू का सिमरन करने से हृदय में हरी का नाम दिनो-दिन (ज्यादा पैदा होता है); जिह सतिगुर सिमरंथि जीअ की तपति मिटावै ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिधि सिधि नव निधि पावै ॥ {पन्ना 1405} अर्थ: जिस गुरू को सिमरने से (जीव) हृदय की तपश को मिटाता है, जिस गुरू को याद करके (जीव) रिद्धियां-सिद्धियां और नौ-निधियां पा लेता है; सोई रामदासु गुरु बल्य भणि मिलि संगति धंनि धंनि करहु ॥ जिह सतिगुर लगि प्रभु पाईऐ सो सतिगुरु सिमरहु नरहु ॥५॥५४॥ {पन्ना 1405} पद्अर्थ: भणि = कह। लगि = (चरणों में) लग के। नरहु = हे मनुष्यो! अर्थ: हे बल् (कवि!) कह- हे जनो! जिस गुरू रामदास के चरणों में लग के प्रभू को मिलते हैं, उस गुरू को सिमरो और संगति में मिल के उसको कहो- 'तू धन्य है, तू धन्य है'।5।54। जिनि सबदु कमाइ परम पदु पाइओ सेवा करत न छोडिओ पासु ॥ ता ते गउहरु ग्यान प्रगटु उजीआरउ दुख दरिद्र अंध्यार को नासु ॥ {पन्ना 1405-1406} पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरू रामदास जी) ने। पासु = पासा, साथ। ता ते = उस (गुरू रामदास जी) से। गउहरु = मोती (के जैसा उज्जवल)। ग्यान उजीआरउ = ज्ञान की रौशनी। अंध्यार = अंधेरा। को = का। अर्थ: जिस (गुरू रामदास जी) ने शबद को कमा के ऊँची पदवी पाई, और (गुरू अमरदास जी की) सेवा करते हुए साथ नहीं छोड़ा, उस (गुरू) से मोती-वत् उज्जवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट हुआ, और दरिद्रता व अंधकार का नाश हो गया। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |