श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1406 कवि कीरत जो संत चरन मुड़ि लागहि तिन्ह काम क्रोध जम को नही त्रासु ॥ जिव अंगदु अंगि संगि नानक गुर तिव गुर अमरदास कै गुरु रामदासु ॥१॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। त्रासु = डर। जिव = जैसे। अंगि संगि नानक गुर = गुरू नानक के सदा साथ। अर्थ: हे कवि कीरत! जो मनुष्य उस संत (गुरू रामदास जी) के चरणों में लगते हैं, उनको काम, क्रोध और जमों का डर नहीं रहता। जैसे (गुरू) अंगद (साहिब जी) सदा गुरू नानक देव जी के साथ (रहे, भाव, सदा गुरू नानक देव जी की हजूरी में रहे), वैसे (ही) गुरू रामदास (जी) गुरू अमरदास (जी) के (साथ रहे)।1। जिनि सतिगुरु सेवि पदारथु पायउ निसि बासुर हरि चरन निवासु ॥ ता ते संगति सघन भाइ भउ मानहि तुम मलीआगर प्रगट सुबासु ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरू रामदास जी) ने। पदारथ = नाम पदार्थ। निसि बासुर = रात दिन। निसि = रात। बासुर = दिन। तां ते = उस (गुरू रामदास जी) से। सघन = बेअंत। भाइ = प्रेम में। मलीआगर = मलय पहाड़ पर उगा हुआ चँदन (मलय+अग्र)। अर्थ: जिस (गुरू रामदास जी) ने सतिगुरू (अमरदास जी) को सिमर के नाम पदार्थ पाया है, और आठों पहर जिसका हरी के चरणों में निवास रहता है, उस (गुरू रामदास जी) से बेअंत संगतें प्रेम में (मस्त हो के) भउ मनाती हैं (और कहती हैं) - ("हे गुरू रामदास जी!) आप प्रत्यक्ष रूप से चँदन सी मीठी वासना वाले हो।" ध्रू प्रहलाद कबीर तिलोचन नामु लैत उपज्यो जु प्रगासु ॥ जिह पिखत अति होइ रहसु मनि सोई संत सहारु गुरू रामदासु ॥२॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: जु प्रगासु = जो प्रकाश। जिह पिखत = जिसको देखते हुए। रहसु = खिलाव। मनि = मन में। संत सहारु = संतों का आसरा। अर्थ: नाम सिमर के ध्रुपव, प्रहलाद, कबीर और त्रिलोचन को जो रौशनी (दिखी थी) और जिसको देख-देख के मन में बड़ा आनंद होता है, वह संतों का आसरा गुरू रामदास ही है।2। नानकि नामु निरंजन जान्यउ कीनी भगति प्रेम लिव लाई ॥ ता ते अंगदु अंग संगि भयो साइरु तिनि सबद सुरति की नीव रखाई ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: नानकि = नानक ने। जान्उ = पहचाना है। ता ते = उस (गुरू नानक) से। साइरु = समुंद्र। तिनि = उस (गुरू अंगद देव जी) ने। वरखाई = बरखा। अर्थ: (गुरू) नानक (देव जी) ने निरंजन का नाम पहचाना, प्रेम से बिरती जोड़ के भगती की। उनसे समुंद्र-रूप गुरू अंगद देव जी (हुए, जो) सदा उनकी हजूरी में टिके और जिन्होंने 'शबद सुरति' की बरखा की (भाव, शबद के ध्यान की खुली बाँट बाँटी)। गुर अमरदास की अकथ कथा है इक जीह कछु कही न जाई ॥ सोढी स्रिस्टि सकल तारण कउ अब गुर रामदास कउ मिली बडाई ॥३॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: जीह = जीभ। तारण कउ = तैराने के लिए। अर्थ: गुरू अमरदास जी की कथा कथन से परे है, (गुरू अमरदास जी की ऊँची आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती), मेरी एक जीभ है, इससे कुछ कही नहीं जा सकती। अब (गुरू अमरदास जी से) सारी सृष्टि को तैराने के लिए सोढी गुरू रामदास (जी) को वडिआई मिली है।3। हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई ॥ माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: बिखु = जहर। बिखै बिखु = जहर ही जहर। बिखै बिखु खाई = हमने सिर्फ जहर ही खाया है। पै = पड़ कर। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री। सउ = साथ। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अर्थ: हम अवगुणों से भरे पड़े हैं, (हमारे में) एक भी गुण नहीं है, अमृत (-नाम) को छोड़ के हमने सिर्फ जहर ही खाया है। माया के मोह में और भरमों में पड़ कर हम (सही जीवन-राह से) भूले हुए हैं, और स्त्री-पुत्र से हमने प्यार डाला हुआ है। इकु उतम पंथु सुनिओ गुर संगति तिह मिलंत जम त्रास मिटाई ॥ इक अरदासि भाट कीरति की गुर रामदास राखहु सरणाई ॥४॥५८॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: तिह मिलंत = उसमें मिल के। त्रास = डर। भाट = भॅट। गुर = हे गुरू! अर्थ: हमने सतिगुरू की संगति वाला एक उक्तम राह सुना है, उसमें मिल के हमने जमों का त्रास मिटा लिया है। 'कीरत' भॅट की अब एक विनती है कि हे गुरू रामदास जी! अपनी शरण में रखो।4।58। ( भॅट कीरत के 4 सवईऐ) मोहु मलि बिवसि कीअउ कामु गहि केस पछाड़्यउ ॥ क्रोधु खंडि परचंडि लोभु अपमान सिउ झाड़्यउ ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: मलि = मल के, मसल के। बिवसि कीअउ = काबू कर लिया है। गहि केस = केसों से पकड़ कर। पछाढ़उ = जमीन पर पटका है। खंडि = टुकड़े टुकड़े कर के। परचंडि = (अपने) तेज पताप से। अपमान सिउ = निरादरी से। झाढ़उ = दुत्कारा है। अर्थ: (हे गुरू रामदास जी!) आप ने 'मोह' को मसल के काबू में कर लिया है, और 'काम' को केसों से पकड़ के जमीन पर दे पटका है। (आपने) 'क्रोध' को (अपने) तेज-प्रताप से टुकड़े-टुकड़े कर दिया है, और 'लोभ' को आप ने निरादरी से परे दुत्कारा है। जनमु कालु कर जोड़ि हुकमु जो होइ सु मंनै ॥ भव सागरु बंधिअउ सिख तारे सुप्रसंनै ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: कर जोड़ि = हाथ जोड़ के। भव सागरु = संसार समुंद्र को। सुप्रसंनै = सदा प्रसन्न रहने वाले (गुरू) ने। अर्थ: 'जनम' और 'मरन' हाथ जोड़ के आप का जो हुकम होता है उसको मानते हैं, आप ने संसार-समुंद्र को बाँध दिया है, और आप ने, जो सदा प्रसन्न रहने वाले हो, सिख (इस संसार-समुंद्र से) तैरा लिए हैं। सिरि आतपतु सचौ तखतु जोग भोग संजुतु बलि ॥ गुर रामदास सचु सल्य भणि तू अटलु राजि अभगु दलि ॥१॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। आतपतु = छत्र (आतप = धूप। आतपात्, त्रायते इति)। सचौ = सच्चा, अटल। जोग भोग संजुतु = जोग और राज भोगने वाले। बलि = बल वाला। सल् = हे सल् कवि! अटलु राजि = अटल राज वाला। अभगु दलि = अभॅग दल वाला, ना हारने वाली फौज वाला। अर्थ: (आप के) सिर पर छत्र है, (आप का) तख़्त सदा स्थिर है, आप राज और जोग दोनों भोगते हो, और बली हो। हे सॅल् कवि! तू सच कह "हे गुरू रामदास! तू अटल राज वाला और (दैवी संपती रूप) ना नाश होने वाली फौज वाला है"।1। तू सतिगुरु चहु जुगी आपि आपे परमेसरु ॥ सुरि नर साधिक सिध सिख सेवंत धुरह धुरु ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: चहु जुगी = चारों ही जुगों में रहने वाला, सदा स्थिर। आपे = आप ही। धुरहु धुरु = धुर से ही, आदि से ही। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = जोग साधना में पुगे हुए जोगी। अर्थ: हे गुरू रामदास! तू चारों जुगों में ही स्थिर गुरू है, (मेरी नज़रों में तो) तू ही परमेश्वर है। देवता, मनुष्य, साधक, सिद्ध और सिख, आदि से ही तुझे सेवते आए हैं। आदि जुगादि अनादि कला धारी त्रिहु लोअह ॥ अगम निगम उधरण जरा जमिहि आरोअह ॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: उधरण = बचाने वाले। अगम निगम = वेद शास्त्र। जरा = बुढ़ापा। जंमिहि = जम पर। आरोअह = सवार हो। अर्थ: (आप) आदि से हो, जुगादि से हो, और अनादि हो। तीनों लोकों में ही (आप ने अपनी) सक्ता धारी हुई है। (मेरे लिए तो आप ही हो जिसने) वेद-शास्त्रों को बचाया था (वराह-रूप हो के)। आप बुढ़ापे और जमों पर सवार हो (भाव, आप को इनका डर नहीं है)। गुर अमरदासि थिरु थपिअउ परगामी तारण तरण ॥ अघ अंतक बदै न सल्य कवि गुर रामदास तेरी सरण ॥२॥६०॥ {पन्ना 1406} पद्अर्थ: गुर अमरदासि = गुरू अमरदास (जी) ने। थिरु थपिअउ = अटल कर दिया है। परगामी = पारग्रामी, मुक्त। तरण = जहाज। अघ = पाप। अंतक = जम। बदै न = परवाह नहीं करता, नहीं डरता। अर्थ: (आप को) गुरू अमरदास (जी) ने अटल कर दिया है, आप मुक्त हो और औरों के उद्धार के लिए जहाज़ हो। हे गुरू रामदास! सॅल् कवि (कहता है) - जो मनुष्य तेरी शरण आया है, वह पापों और जमों की परवाह नहीं करता (से नहीं डरता)।2।60। (सल् कवि के 2 सवईऐ) महले चौथे के सारे 60 सवईयों का वेरवा: कवि कल्सहार.....13......./13/ –––०––– सवईए महले पंजवे के ५ अर्थ: गुरू अरजन साहिब जी की उस्तति में उचारे हुए सवईए। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिमरं सोई पुरखु अचलु अबिनासी ॥ जिसु सिमरत दुरमति मलु नासी ॥ सतिगुर चरण कवल रिदि धारं ॥ गुर अरजुन गुण सहजि बिचारं ॥ {पन्ना 1406-1407} पद्अर्थ: सिमरं = मैं सिमरता हूँ। धारं = धारता हूँ। रिदि = हृदय में। बिचारं = विचारता हूँ। सहजि = सहज से, प्रेम से, आत्मिक अडोलता में (टिक के)। अर्थ: मैं उस अविनाशी और अटल अकाल-पुरख को सिमरता हूँ, जिसका सिमरन करने से दुर्मति की मैल दूर हो जाती है। मैं सतिगुरू के कँवलों जैसे चरन हृदय में टिकाता हूँ, और प्रेम से गुरू अरजन देव जी के गुण विचारता हूँ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |