श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1408 भै निरभउ माणिअउ लाख महि अलखु लखायउ ॥ अगमु अगोचर गति गभीरु सतिगुरि परचायउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: भै निरभउ = अकाल पुरख जो भय रहित है। लाख महि = लाखों जीवों में व्यापक। लखायउ = दिखाया है। अगोचर गति = जिसकी गति अगोचर है, जिसकी अवस्था इन्द्रियों की पहुँच से परे है। सतिगुरि = गुरू (रामदास जी) ने। परचायउ = उपदेश दिया है। अर्थ: (गुरू अरजन देव जी ने) उस हरी को माणा है, जिसको कोई डर छू नहीं सकता, और जो लाखों में रमा हुआ है। गुरू (रामदास जी) ने आपको उस हरी का उपदेश दिया है जो अगम है, गंभीर है और जिसकी हस्ती इन्द्रियों की पहुँच से परे है। गुर परचै परवाणु राज महि जोगु कमायउ ॥ धंनि धंनि गुरु धंनि अभर सर सुभर भरायउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: गुर परचै = गुरू के उपदेश के कारण। अभर = खाली, (अ+भर)। सर = (हृदय = रूप) सरोवर। सुभर = नाको नाक। अर्थ: गुरू के उपदेश के कारण आप (प्रभू की हजूरी में) कबूल हो गए हो, आप ने राज में जोग कमाया है। गुरू अरजन देव धन्य हैं। खाली हृदयों को आप ने (नाम-अमृत से) नाको-नाक भर दिया है। गुर गम प्रमाणि अजरु जरिओ सरि संतोख समाइयउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै सहजि जोगु निजु पाइयउ ॥८॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: गम = (गम्य) पहुँच। प्रमाणु = दर्जा, तोल। गुरगम प्रमाणु = गुरू का पहुँचने योग्य दर्जा। गुरगम प्रमाणि = गुरू के पहुँचने योग्य दर्जे के कारण, भाव, गुरू वाली पदवी प्राप्त कर लेने के कारण। सरि = सर में। सहजि = आत्मिक अडोलता से। निजु जोगु = स्वै स्वरूप, असली मिलाप। अर्थ: गुरू वाली पदवी प्राप्त कर लेने के कारण आप ने अजर अवस्था को जरा है, और आप संतोख के सरोवर में लीन हो गए हैं। कवि 'कल्' कहता है- 'हे गुरू अरजुन (देव जी)! तूने आत्मिक अडोलता में टिक के (अकाल-पुरख से) असली कृपा प्राप्त कर ली है'।8। अमिउ रसना बदनि बर दाति अलख अपार गुर सूर सबदि हउमै निवार्यउ ॥ पंचाहरु निदलिअउ सुंन सहजि निज घरि सहार्यउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रसना = जीभ से। बदनि = मुख से। बर दाति = वर की बख्शिश। गुर सूर = हे सूरमे गुरू! सबदि = शबद द्वारा। पंचारहु = पाँच (ज्ञानेंन्द्रियों) को हरण करने वाले, (अज्ञान) को। सहार्उ = धारण किया, जरा है। अर्थ: हे अलख! हे अपार! हे सूरमे गुरू! आप जीभ से अमृत (बरसाते हो) और मुँह से वर की बख्शिश करते हो, शबद द्वारा आपने अहंकार दूर किया है। अज्ञान को आपने नाश कर दिया है और आत्मिक अडोलता से अफुर निरंकार को अपने हृदय में टिकाया है। हरि नामि लागि जग उधर्यउ सतिगुरु रिदै बसाइअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै जनकह कलसु दीपाइअउ ॥९॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: कलसु = कलश, घड़ा, सुनहरी गागर आदि जो मन्दिरों के ऊपर लगाई जाती है, यह मन्दिर का निशान होता है। जनकह कलसु = जनक का कलश, ज्ञान का कलश, ज्ञान-रूप कलश। दीपाइअउ = चमका है। अर्थ: हे गुरू अरजुन! हरी-नाम में जुड़ के (आपने) जगत को बचा लिया है; (आप ने) सतिगुरू को हृदय में बसाया है। कल् कवि कहता है- आपने ज्ञान-रूप कलश को चमकाया है।9। सोरठे ॥ गुरु अरजुनु पुरखु प्रमाणु पारथउ चालै नही ॥ नेजा नाम नीसाणु सतिगुर सबदि सवारिअउ ॥१॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: प्रमाणु = तोल, दर्जा। पुरखु प्रमाणु = अकाल पुरख रूप। पारथउ = (पार्थ) अर्जुन (पांडव कुल का)। चालै नही = हिलता नहीं, घबराता नहीं। नाम नीसाणु = नाम का प्रकाश। सतिगुर सबदि = सतिगुरू के शबद की बरकति से। अर्थ: गुरू अरजुन (देव जी) अकाल-पुरख-रूप है, अर्जुन की तरह कभी घबराने वाले नहीं हैं (भाव, जैसे अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्ध में वैरियों के दलों से नहीं घबराते थे, वैसे ही गुरू अरजुन देव जी कामादिक वैरियों से नहीं घबराते; संस्कृत-पार्थ - a metronymic of Arjuna) नाम का प्रकाश आपका नेजा है (हथियार है), गुरू के शबद ने आपको सुंदर बनाया हुआ है।1। भवजलु साइरु सेतु नामु हरी का बोहिथा ॥ तुअ सतिगुर सं हेतु नामि लागि जगु उधर्यउ ॥२॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: साइरु = समुंद्र। सेतु = पुल। बोहिथा = जहाज। तुअ = तेरा। सं = साथ। हंतु = प्यार। उधर्उ = (संसार समुंद्र से) उद्धार कर लिया है, बचा लिया है। अर्थ: संसार समुंद्र है, अकाल-पुरख का नाम पुल है और जहाज है। आपका गुरू से प्यार है। (अकाल-पुरख के) नाम में जुड़ के आप ने जगत को (संसार-समुंद्र से) बचा लिया है।2। जगत उधारणु नामु सतिगुर तुठै पाइअउ ॥ अब नाहि अवर सरि कामु बारंतरि पूरी पड़ी ॥३॥१२॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: तुठै = प्रसन्न होने से। अवर सरि = किसी और के साथ। बारंतरि = दर पर। पूरी पड़ी = कारज रास हो गए हैं। अर्थ: जगत को तैराने वाला नाम आपने गुरू के प्रसन्न होने पर प्राप्त किया है। हमें अब किसी से कोई सरोकार नहीं। (गुरू अरजुन देव जी के) दर पर ही हमारे सारे कारज रास हो गए हैं।3।12। (कल्सहार के 12 सवईऐ और सोरठे मिले जुले) जोति रूपि हरि आपि गुरू नानकु कहायउ ॥ ता ते अंगदु भयउ तत सिउ ततु मिलायउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: जोति = प्रकाश। तत = जोति। अर्थ: प्रकाश-रूप हरी ने अपने आप को गुरू नानक कहलवाया। उस (गुरू नानक देव जी) से (गुरू अंगद प्रकट हुआ), (गुरू नानक देव जी की) जोति (गुरू अंगद जी की) जोति के साथ मिल गई। अंगदि किरपा धारि अमरु सतिगुरु थिरु कीअउ ॥ अमरदासि अमरतु छत्रु गुर रामहि दीअउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: अमरतु = अमरदास वाला। अर्थ: (गुरू) अंगद (देव जी) ने कृपा करके अमरदास जी को गुरू स्थापित किया; (गुरू) अमरदास (जी) ने अपने वाला छत्र गुरू रामदास (जी) को दे दिया। गुर रामदास दरसनु परसि कहि मथुरा अम्रित बयण ॥ मूरति पंच प्रमाण पुरखु गुरु अरजुनु पिखहु नयण ॥१॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: अंम्रित बयण = (गुरू अरजन देव जी के) आत्मिक जीवन देने वाले वचन। पंच = पाँचवीं। प्रमाण पुरखु = अकाल पुरख रूप। पिखहु = देखो। नयण = आँखों से। कहि = कहे, कहता है। अर्थ: मथुरा कहता है- 'गुरू रामदास (जी) का दर्शन कर के (गुरू अरजन देव जी के) वचन आत्मिक जीवन देने वाले हो गए हैं। पाँचवें स्वरूप अकाल-पुरख रूप गुरू अरजुन देव जी को आँखों से देखो।1। सति रूपु सति नामु सतु संतोखु धरिओ उरि ॥ आदि पुरखि परतखि लिख्यउ अछरु मसतकि धुरि ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: उरि = हृदय में। आदि पुरखि = अकाल पुरख ने। मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर से, आदि से। अछरु = अक्षर, लेख। अर्थ: (गुरू अरजुन देव जी ने) संत-संतोख हृदय में धारण किया है, और उस हरी को अपने अंदर बसाया है जिसका रूप सति है और नाम सदा-स्थिर है। प्रत्यक्ष तौर पर अकाल पुरख ने धुर से ही आप के माथे पर लेख लिखा है। प्रगट जोति जगमगै तेजु भूअ मंडलि छायउ ॥ पारसु परसि परसु परसि गुरि गुरू कहायउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: भूअ मंडलि = धरती पर। छायउ = बिखरा हुआ है। परसु = परसने योग्य गुरू को। गुरि = गुरू से, गुरू के द्वारा। कहायउ = कहलवाया। अर्थ: (आप के अंदर) प्रतयक्ष तौर पर (हरी की) जोति जगमग-जगमग कर रही है, (आपका) तेज धरती पर छाया हुआ है। पारस (गुरू) को और परसने-योग्य (गुरू) को छू के (आप) गुरू से गुरू कहलवाए। भनि मथुरा मूरति सदा थिरु लाइ चितु सनमुख रहहु ॥ कलजुगि जहाजु अरजुनु गुरू सगल स्रिस्टि लगि बितरहु ॥२॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: भनि = कह। मूरति = स्वरूप में। थिरु चितु लाइ = मन भली प्रकार जोड़ के। कलिजुगि = कलजुग में। सगल स्रिस्टि = हे सारी सृष्टि! (भाव, हे दुनिया के लोगो)! बितरहु = तैरो। अर्थ: हे मथुरा! कह- (गुरू अरजुन देव जी के) स्वरूप में मन भली प्रकार जोड़ के सन्मुख रहो। गुरू अरजन कलियुग में जहाज है। हे दुनिया के लोगो! उसके चरणों में लग के (संसार-सागर) से सही-सलामत पार हो जाओ।2। तिह जन जाचहु जगत्र पर जानीअतु बासुर रयनि बासु जा को हितु नाम सिउ ॥ परम अतीतु परमेसुर कै रंगि रंग्यौ बासना ते बाहरि पै देखीअतु धाम सिउ ॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: जन = हे लोगो! तिह जाचहु = उससे माँगो। जगत्र पर = सारे संसार में। जानीअतु = प्रकट है। बासुर = दिन। रयनि = रात। बासु = वासा। हितु = प्यार। सिउ = साथ। संगि = प्रेम में। ते = से। पै = परंतू। धाम = घर। अर्थ: हे लोगो! उस गुरू के दर से माँगो, जो सारे संसार में प्रकट है और दिन-रात जिसका प्यार और वासा नाम के साथ है, जो पूरन वैरागवान है, हरी के प्यार में भीगा हुआ है, वाशना से परे है; पर वैसे गृहस्थ में देखा जाता है। अपर पर्मपर पुरख सिउ प्रेमु लाग्यौ बिनु भगवंत रसु नाही अउरै काम सिउ ॥ मथुरा को प्रभु स्रब मय अरजुन गुरु भगति कै हेति पाइ रहिओ मिलि राम सिउ ॥३॥ {पन्ना 1408} पद्अर्थ: अपर परंपर पुरख = बेअंत हरी। रसु = स्वाद, प्यार। अउरै काम सिउ = किसी और काम से। राम पाइ सिउ मिलि रहिओ = हरी के चरणों में जुड़ रहा है। अर्थ: (जिस गुरू अरजुन का) प्यार बेअंत हरी के साथ लगा हुआ है, और जिसको हरी के बिना किसी और काम के साथ कोई सरोकार नहीं है, वह वह गुरू अरजुन ही मथुरा के सर्व-व्यापक प्रभू हैं, वह भगती की खातिर हरी के चरणों में जुड़ा हुआ है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |