श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अंतु न पावत देव सबै मुनि इंद्र महा सिव जोग करी ॥ फुनि बेद बिरंचि बिचारि रहिओ हरि जापु न छाड्यिउ एक घरी ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: सबै = सारे। जोग = जोग साधना। करी = की। फुनि = और। बिरंचि = ब्रहमा। न छाडिउ = नहीं छोड़ा।

अर्थ: इन्द्र और शिव जी ने जोग-साधना की, ब्रहमा बेद विचार के थक गया, उसने हरी का जाप एक घड़ी ना छोड़ा, पर इन सभी देवताओं और मुनियों ने (गुरू अरजुन का) अंत नहीं पाया।

मथुरा जन को प्रभु दीन दयालु है संगति स्रिस्टि निहालु करी ॥ रामदासि गुरू जग तारन कउ गुर जोति अरजुन माहि धरी ॥४॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: को = का। करी = की है। रामदासि गुरू = गुरू रामदास ने। गुर जोति = गुरू वाली जोति।

अर्थ: दास मथुरा का प्रभू (गुरू अरजुन) दीनों पर दया करने वाला है, आपने संगत को और सृष्टि को निहाल किया है। गुरू रामदास जी ने जगत के उद्धार के लिए गुरू वाली जोति गुरू अरजुन में रख दी।4।

जग अउरु न याहि महा तम मै अवतारु उजागरु आनि कीअउ ॥ तिन के दुख कोटिक दूरि गए मथुरा जिन्ह अम्रित नामु पीअउ ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: अउरु न = कोई और नहीं। जग महा तम मै = जगत के बड़े अंधेरे में। तम = अंधेरा। मै = में। उजागरु = बड़ा, मशहूर। आनि = ला के। कोटिक = करोड़ों। जिन् = जिन्होंने।

अर्थ: जगत के इस घोर अंधेरे में (गुरू अरजुन के बिना) कोई और (रखवाला) नहीं है, उसी को (हरी ने) ला के उजागर अवतार बनाया है। हे मथुरा! जिन्होंने (उससे) नाम-अमृत पिया है उनके करोड़ों दुख दूर हो गए हैं।

इह पधति ते मत चूकहि रे मन भेदु बिभेदु न जान बीअउ ॥ परतछि रिदै गुर अरजुन कै हरि पूरन ब्रहमि निवासु लीअउ ॥५॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: पधति = पद्धति, रास्ता। ते = से। मत = कहीं। चूकहि = चूक जाए। भेदु = फर्क, दूरी। बीअउ = दूसरा। रिदै = हृदय में।

अर्थ: हे मेरे मन! कहीं इस राह से भटक ना जाना, कहीं ये दूरी ना समझना, कि गुरू अरजुन (हरी से अलग) दूसरा है। पूरन ब्रहम हरी ने गुरू अरजन के हृदय में प्रत्यक्ष तौर पर निवास किया है।5।

जब लउ नही भाग लिलार उदै तब लउ भ्रमते फिरते बहु धायउ ॥ कलि घोर समुद्र मै बूडत थे कबहू मिटि है नही रे पछुतायउ ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: जब लउ = जब तक। लिलार भाग = माथे के भाग्य। उदै = उदय, जागे। बहु धायउ = बहुत दौड़ते। घोर = डरावना। बूडत थे = डूब रहे थे। पछुतायउ = पछताना। रे = हे भाई!

अर्थ: हे भाई! जब तक माथे के भाग्य नहीं थे जागे, तब तक बहुत भटकते फिरते और भागते फिरते थे, पछतावा किसी भी वक्त नहीं मिटता था।

ततु बिचारु यहै मथुरा जग तारन कउ अवतारु बनायउ ॥ जप्यउ जिन्ह अरजुन देव गुरू फिरि संकट जोनि गरभ न आयउ ॥६॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: ततु बिचारु = सच्ची विचार। यहै = यही है। संकट = दुख।

अर्थ: पर, हे मथुरा! अब सच्ची विचार ये है कि जगत के उद्धार के लिए (हरी ने गुरू अरजुन) अवतार बनाया है, जिन्होंने गुरू अरजुन देव (जी) को जपा है, वे पलट के गर्भ जोनि और दुखों में नहीं आए।6।

कलि समुद्र भए रूप प्रगटि हरि नाम उधारनु ॥ बसहि संत जिसु रिदै दुख दारिद्र निवारनु ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: कलि = कलजुग। जिसु रिदै = जिस हृदय में।

अर्थ: कलजुग के समुंद्र से तैराने के लिए गुरू अरजुन देव जी हरी का नाम-रूप प्रकट हुए हैं, आप के हृदय में संत (शांति के श्रोत प्रभू जी) बसते हैं, आप दुखों-दरिद्रों के दूर करने वाले हैं।

निरमल भेख अपार तासु बिनु अवरु न कोई ॥ मन बच जिनि जाणिअउ भयउ तिह समसरि सोई ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: भेख = स्वरूप। निरमल = पवित्र। अपार = बेअंत प्रभू का। जिनि = जिस ने। समसरि = जैसा।

अर्थ: उस (गुरू अरजुन) के बिना और कोई नहीं है, आप अपार हरी का निर्मल रूप हैं। जिस (मनुष्य) ने मन और वचनों से हरी को पहचाना है, वह हरी जैसा ही हो गया है।

धरनि गगन नव खंड महि जोति स्वरूपी रहिओ भरि ॥ भनि मथुरा कछु भेदु नही गुरु अरजुनु परतख्य हरि ॥७॥१९॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: धरनि = धरती। गगन = आकाश। महि = में। भरि = व्यापक। परतख्य = प्रतक्ष्य, साक्षात तौर पर।

अर्थ: (गुरू अरजुन ही) जोति-रूप हो के धरती आकाश और नौ-खण्डों में व्याप रहा है। हे मथुरा! कह- गुरू अरजुन साक्षात अकाल पुरख है। कोई फर्क नहीं है।7।19।

(मथुरा भॅट के 7 सवईऐ)

अजै गंग जलु अटलु सिख संगति सभ नावै ॥ नित पुराण बाचीअहि बेद ब्रहमा मुखि गावै ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: अजै = ना जीते जाने वाला, ईश्वरीय। गंग जलु = गंगा का जल। अटलु = सदा स्थिर रहने वाला। नावै = स्नान करती है। बाचीअहि = पढ़े जाते हैं। मुखि = मुँह से। गावै = गाता है। पुराण = ब्यास ऋषि की लिखी हुई अठारह धर्म पुस्तकें।

अर्थ: (गुरू अरजुन देव जी की दरगाह में) कभी ना खत्म होने वाला (नाम-रूप) गंगा जल (बह रहा है, जिसमें) सारी संगति स्नान करती है। (आपकी हजूरी में इतने महा ऋषि ब्यास की लिखी हुई धर्म पुस्तकें) पुराण सदा पढ़े जाते हैं और ब्रहमा (भी आपकी हजूरी में) मुँह से वेदों को गा रहा है (भाव, ब्यास और ब्रहमा जैसे बड़े-बड़े देवते और विद्वान ऋषि भी गुरू अरजुन के दर पर हाजिर रहने में अपने अच्छे भाग्य समझते हैं। मेरे लिए तो गुरू की बाणी ही पुराण और वेद है)।

अजै चवरु सिरि ढुलै नामु अम्रितु मुखि लीअउ ॥ गुर अरजुन सिरि छत्रु आपि परमेसरि दीअउ ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: ढुलै = झूल रहा है। गुरू अरजुन सिरि = गुरू अरजुन के सिर पर। परमेसरि = परमेश्वर ने।

अर्थ: (आप के) सिर पर ईश्वरीय चवर झूल रहा है, आप ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम मुँह से (सदा) उचारा है। गुरू अरजन देव जी के सिर पर यह छत्र परमेश्वर ने स्वयं बख्शा है।

मिलि नानक अंगद अमर गुर गुरु रामदासु हरि पहि गयउ ॥ हरिबंस जगति जसु संचर्यउ सु कवणु कहै स्री गुरु मुयउ ॥१॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। हरि पहि = हरी के पास। हरि बंस = हे हरिबंस कवि! जगति = संसार में। संचर्उ = पसरा हुआ है। मिलि गुर = गुरू को मिल के। मुयउ = मरा हुआ है।

अर्थ: गुरू नानक, गुरू अंगद और गुरू अमरदास जी को मिल के, गुरू रामदास जी हरी में लीन हो गए हैं। हे हरिबंस! जगत में सतिगुरू जी की शोभा पसर रही है। कौन कहता है, कि गुरू रामदास जी मर गए हैं?

देव पुरी महि गयउ आपि परमेस्वर भायउ ॥ हरि सिंघासणु दीअउ सिरी गुरु तह बैठायउ ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: देव पुरी = हरी का देश, सचखंड। भायउ = अच्छा लगा। हरि = हरी ने। सिंघासणु = तख़्त। तह = वहाँ।

अर्थ: (गुरू रामदास) सचखण्ड में गए हैं हरी को यही रज़ा ठीक लगी है। हरी ने (आप को) तख्त दिया है और उस पर श्री गुरू (रामदास जी) को बैठाया है।

रहसु कीअउ सुर देव तोहि जसु जय जय ज्मपहि ॥ असुर गए ते भागि पाप तिन्ह भीतरि क्मपहि ॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: रहसु = खुशी, मंगल। सुरदेव = देवताओं ने। तोहि जसु = तेरा यश। असुर = दैत्य। ते = वह सारे।

अर्थ: देवताओं ने मंगलचार किया है, तेरा यश और जय-जयकार कर रहे हैं। वह (सारे) दैत्य (वहाँ से) भाग गए हैं, (उनके अपने) पाप उनके अंदर काँप रहे हैं।

काटे सु पाप तिन्ह नरहु के गुरु रामदासु जिन्ह पाइयउ ॥ छत्रु सिंघासनु पिरथमी गुर अरजुन कउ दे आइअउ ॥२॥२१॥९॥११॥१०॥१०॥२२॥६०॥१४३॥ {पन्ना 1409}

पद्अर्थ: तिन नरहु के = उन मनुष्यों के। के आइअउ = दे के आ गया है।

अर्थ: उन मनुष्यों के पाप कट गए हैं, जिन को गुरू रामदास मिल गया है। गुरू रामदास धरती का छत्र और सिंहासन गुरू अरजुन साहिब जी को दे आया है।2।21।

नोट: ये दोनों सवईए 'हरिबंस' भॅट के हैं। पहले सवईए में गुरू अरजन साहिब जी के दरबार की महिमा की है। हिन्दू मत में गंगा, पुराण और वेदों की महानता मानी गई है। भॅट जी के हृदय पर सतिगुरू जी का दरबार देख के यह प्रभाव पड़ता है कि नाम अमृत, मानो, गंगा जल है। पुराण और वेद भी गुरू-दर की शोभा कर रहे हैं। उसी तरह का ख्याल है, जैसे बाबा लहणा जी ने वैश्णों देवी को गुरू नानक के दर पर झाड़ू लगाते हुए देखा। भॅट हरिबंस के हृदय में पहले गंगा, पुराण और वेदों की इज्जत थी, गुरू का दर देख के प्रतीत हुआ कि इस दर के तो वो भी सेवक हैं।

(हरिबंस भॅट के 2 सवईऐ)

सारा वेरवा:

कल्सहार------------12
मथुरा---------------07
हरिबंस-------------02
कुल----------------21

आखिरी अंकों का वेरवा;
सवईए श्री मुख बाक्---------------09
सवईए श्री मुख बाक्---------------11
सवईए महले पहले के-------------10
सवईए महले दूजे के--------------10
सवईए महले तीजे के-------------22
सवईए महले चौथे के-------------60
सवईए महले पंजवे के-------------21
कुल जोड़ -------------------------143

अंक 122 में गुरू अरजुन साहिब की उस्तति में उचारे 21 सवईयों का जोड़ नहीं दिया गया है।

सारे भॅटों का वेरवा;

. . . . . महला१, म:२, म:३, म:४, म:५
कल्सहार ...10....10....9...13...12....58
जालप---------5---------------5
कीरत---------4-------4-------8
भिखा---------2----------------2
सल्-----------1-------2--------3
भल्-----------1-----------------1
नल्------------6---------------16
गयंद---------13---------------13
मथुरा---------7------7--------14
बल्------------5-----------------5
हरिबंस--------2-----------------2
......... 10...10...22...60...21...123

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