श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1411 अगनि मरै जलु लोड़ि लहु विणु गुर निधि जलु नाहि ॥ जनमि मरै भरमाईऐ जे लख करम कमाहि ॥ जमु जागाति न लगई जे चलै सतिगुर भाइ ॥ नानक निरमलु अमर पदु गुरु हरि मेलै मेलाइ ॥९॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: अगनि = आग। लोड़ि लहु = ढूँढ लो। निधि = सरोवर, नाम का सरोवर। जनमि मरै = जनम मरन के चक्कर में पड़ जाता है। भरमाईअै = जूनों में भटकाया जाता है। कमाहि = कमाते रहें (बहुवचन)। जागाति = जागाती, मसूलिया। न लगई = (अपना) वार नहीं कर सकता। सतिगुर भाइ = गुरू की रजा में। अमर पदु = आत्मिक जीवन वाला दर्जा।9। अर्थ: हे भाई! (गुरू की शरण पड़ कर नाम-) जल ढूँढ ले (इस नाम-जल की बरकति से) तृष्णा की आग बुझ जाती है। (पर) गुरू (की शरण) के बिना नाम-सरोवर का यह जल मिलता नहीं। (इस जल के बिना) मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है, अनेकों जूनियों में घुमाया जाता है। हे भाई! जो मनुष्य (नाम को भुला के और) लाखों करम कमाते रहें (तो भी यह अंदरूनी आग नहीं मरती)। अगर मनुष्य गुरू की रज़ा में चलता रहे, तो जमराज मसूलिया (उस पर) अपना वार नहीं कर सकता। हे नानक! गुरू (मनुष्य) को पवित्र ऊँचा आत्मिक दर्जा बख्शता है, गुरू (मनुष्य को) परमात्मा के साथ मिला देता है।9। कलर केरी छपड़ी कऊआ मलि मलि नाइ ॥ मनु तनु मैला अवगुणी चिंजु भरी गंधी आइ ॥ सरवरु हंसि न जाणिआ काग कुपंखी संगि ॥ साकत सिउ ऐसी प्रीति है बूझहु गिआनी रंगि ॥ संत सभा जैकारु करि गुरमुखि करम कमाउ ॥ निरमलु न्हावणु नानका गुरु तीरथु दरीआउ ॥१०॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: केरी = की। मलि मलि = मलमल के बड़े शौक से। कऊआ = (विकारों की कालिख से) काले हुए मन वाला मनुष्य। नाइ = नहाता है। अवगुणी = विकारों से। गंधी = बदबू से। आइ = आ के। हंसि = (परमात्मा की अंश जीव-) हँस ने। कुपंखी = बुरे पक्षी। संगि = साथ। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। गिआनी = हे ज्ञानवान! हे आत्मिक जीवन की सूझ वाले! रंगि = (प्रभू के प्यार-) रंग में। संत सभा = साध-संगति में। जैकारु = (परमात्मा की) सिफत सालाह। गुरमुखि करम = गुरू के सन्मुख रहने वाले करम। निरमलु = पवित्र। नावणु = स्नान।10। अर्थ: हे भाई! (विकारों की कालिख से) काले हुए मन वाला मनुष्य (विकारों के) कलॅर की छपड़ी में बड़े शौक से स्नान करता रहता है (इसलिए उसका) मन (उसका) तन विकारों (की मैल) से मैला हुआ रहता है (जैसे कौए की) चोंच गंदगी से भरी रहती है (वैसे ही विकारी मनुष्य का मुँह भी निंदा आदि के गंद से ही भरा रहता है)। हे भाई! बुरे पंछी कौओं की संगति में (विकारी बँदों की सोहबत में परमात्मा की अंश जीव-) हँस ने (गुरू-) सरोवर (की कद्र) ना समझी। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों के जोड़ी हुई प्रीत ऐसी ही होती है। हे आत्मिक जीवन की सूझ हासिल करने के चाहवान मनुष्य! परमात्मा के प्रेम में टिक के (जीवन-राह को) समझ। साध-संगति में टिक के परमात्मा की सिफत-सालाह करा कर, गुरू के सन्मुख रखने वाले करम कमाया कर- यही है पवित्र स्नान। हे नानक! गुरू ही तीर्थ है गुरू ही दरिया है (गुरू में डुबकी लगाए रखनी ही पवित्र स्नान है)।10। जनमे का फलु किआ गणी जां हरि भगति न भाउ ॥ पैधा खाधा बादि है जां मनि दूजा भाउ ॥ वेखणु सुनणा झूठु है मुखि झूठा आलाउ ॥ नानक नामु सलाहि तू होरु हउमै आवउ जाउ ॥११॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: जनमे का = पैदा होने का, मानस जनम हासिल किए का। गणी = मैं गिनूँ। किआ गणी = मैं क्या गिनूँ? मैं क्या बताऊँ? जां = जब। भाउ = प्रेम, प्यार। पैधा = पहना हुआ। बादि = व्यर्थ। मनि = मन में। दूजा भाउ = परमात्मा के बिना और का प्रेम। झूठु = नाशवंत जगत। मुखि = मुँह से। आलाउ = अलाप, बोल। सलाहि = सलाहा कर। आवउ जाउ = आना जाना, जनम मरन का चक्कर।11। अर्थ: हे भाई! जब तक (मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की भगती नहीं, परमात्मा का प्रेम नहीं, तब तक उसके मनुष्य जन्म हासिल किए का कोई लाभ नहीं। जब तक (मनुष्य के) मन में परमात्मा के बिना और-और मोह-प्यार बसता है, तब तक उसका पहना (हुआ कीमती कपड़ा उसका) खाया हुआ (कीमती भोजन सब) व्यर्थ जाता है (क्योंकि वह) नाशवंत जगत को ही दृष्टि में रखता, नाशवंत जगत को ही कानों में बसाए रखता है, नाशवंत जगत की बातें ही मुँह से करता रहता है। हे नानक! तू (सदा परमात्मा की) सिफत-सालाह करता रह। (सिफत-सालाह को भुला के) और (सारा उद्यम) अहंकार के कारण जनम-मरण के चक्कर बनाए रखते हैं।11। हैनि विरले नाही घणे फैल फकड़ु संसारु ॥१२॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: हैनि = हैं (बहुवचन)। घणे = बहुत सारे। फैल = दिखावे के काम। फकड़ु = गंदे मंदे बोल। संसारु = जगत।12। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की सिफतसालाह करने वाले मनुष्य) कोई विरले-विरले (बहुत कम) हैं, ज्यादा नहीं हैं। (आम तौर पर) जगत दिखावे के काम ही (करता रहता है, आत्मिक जीवन को) नीचा करने वाले बोल ही (बोलता रहता है)।12। नानक लगी तुरि मरै जीवण नाही ताणु ॥ चोटै सेती जो मरै लगी सा परवाणु ॥ जिस नो लाए तिसु लगै लगी ता परवाणु ॥ पिरम पैकामु न निकलै लाइआ तिनि सुजाणि ॥१३॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: तुरि = (तुर = speed. तुरंग: तुरेणगच्छति) तुरंत, जल्दी ही। मरै = स्वै भाव मर जाता है। जीवण ताणु = (स्वार्थ भरे) जीवन का जोर। सेती = साथ। लगी = लगी हुई चोट। जिस नो: संबंधक 'नो' के कारण शब्द 'जिसु' की 'ु' की मात्रा उड़ गई है। ता = तो, तब। परवाणु = (प्रभू के दर पर) कबूल, प्रवान। पैकामु = तीर। पिरम पैकामु = प्रेम का तीर। तिनि = उस (परमात्मा) ने। सुजाणि = समझदार (प्रभू) ने। तिनि सुजाणि = उस सियाने (परमात्मा) ने।13। अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम की चोट) लगती है (वह मनुष्य) तुरंत स्वैभाव की ओर से मर जाता है (उसके अंदर से स्वार्थ खत्म हो जाता है), (उसके अंदर स्वार्थ के) जीवन का जोर नहीं रह जाता। हे भाई! जो मनुष्य (प्रभू-चरनों की प्रीत की) चोट से स्वै भाव की ओर से मर जाता है (उसका जीवन प्रभू-दर पर कबूल हो जाता है) वही लगी हुई चोट (प्रभू-दर पर) प्रवान होती है। पर, हे भाई! (यह प्रेम की चोट) उस मनुष्य को ही लगती है जिसको (परमात्मा आप) लगाता है (जब यह चोट परमात्मा की ओर से लगती है) तब ही यह लगी हुई (चोट) कबूल होती है (सफल होती है)। हे भाई! उस समझदार (तीरंदाज-प्रभू) ने (जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम का तीर) भेद दिया; (उस हृदय में से यह) प्रेम का तीर फिर नहीं निकलता।13। भांडा धोवै कउणु जि कचा साजिआ ॥ धातू पंजि रलाइ कूड़ा पाजिआ ॥ भांडा आणगु रासि जां तिसु भावसी ॥ परम जोति जागाइ वाजा वावसी ॥१४॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: भांडा = शरीर बर्तन। धोवै कउणु = कौन धो सकता है? कौन शुद्ध पवित्र कर सकता है? कोई पवित्र नहीं कर सकता। जि = जो शरीर बर्तन। कचा = कच्चा। कचा भांडा = कच्चा घड़ा (कच्चे घड़े को पानी में धोने से उसकी मिट्टी पानी में खुर-खुर के बर्तन को कीचड़ से लबेड़ती जाएगी। शरीर कच्चा बर्तन है, इसको सदा विकारों का कीचड़ लगा रहता है। तीर्थ-स्नान आदि से ये कीचड़ नहीं उतर सकता)। धातू पंजि = (हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश) पाँच तत्व। कूड़ा पाजिआ = नाशवंत खिलौना सा बनाया गया है। आणगु = लाएगा। आणगु रासि = (गुरू) शुद्ध पवित्र कर देगा। जां = जब। तिसु = उस (परमात्मा) को। परम = सबसे ऊँची। वाजा = रॅबी जोति का बाजा। वावसी = बजाएगा।14। अर्थ: हे भाई! (तीर्थ-स्नान आदि से) कोई भी मनुष्य शरीर-घड़े को पवित्र नहीं कर सकता, क्योंकि ये बनाया ही ऐसा है कि इसको विकारों का कीचड़ हमेशा लगा रहता है। (हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश) पाँच तत्व इकट्ठे करके यह शरीर-बर्तन एक नाशवंत सा खिलौना बनाया गया है। हाँ, हे भाई! जब उस परमात्मा की रज़ा होती है (मनुष्य को गुरू मिलता है, गुरू मनुष्य के) शरीर-बर्तन को पवित्र कर देता है। (गुरू मनुष्य के अंदर) सबसे ऊँची रॅबी-जोति जगा के (रॅबी जोति का) बाजा बजा देता है। (रॅबी-जोति का रॅबी-सिफत सालाह का इतना प्रबल प्रभाव बना देता है कि मनुष्य के अंदर विकारों का शोर सुना ही नहीं जाता। विकारों की कोई पेश नहीं चलती कि कुकर्मों का कोई कीचड़ बिखेर सकें)।14। मनहु जि अंधे घूप कहिआ बिरदु न जाणनी ॥ मनि अंधै ऊंधै कवल दिसनि खरे करूप ॥ इकि कहि जाणनि कहिआ बुझनि ते नर सुघड़ सरूप ॥ इकना नादु न बेदु न गीअ रसु रसु कसु न जाणंति ॥ इकना सिधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥ नानक ते नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंत ॥१५॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। अंधे घूप = घुप अंधे, बहुत ही मूर्ख। बिरदु = (इन्सानी) फर्ज। कहिआ = बताने पर भी, कहने पर भी। मनि अंधै = अंधे मन के कारण। ऊंधै कवल = उल्टे हुए (हृदय-) कंवल के कारण। खरे करूप = बहुत कोझे। कहि जाणनि = बात करनी जानते हैं। सुघड़ = सुचज्जे। नाद रसु = नाद का रस। बेद रसु = गीत का रस। रसु कसु = कसैला रस। सिधि = सिद्धि। बुधि = अकल। सर = सार, समझ। भउ = भेद। अखर का भेउ = पढ़ने की जाच। असलि खर = निरे गधे (खर = गधे)। जि = जो मनुष्य। गरबु = अहंकार।15। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मन से घोर अंधे हैं (महा मूर्ख हैं) वे बताने पर भी (इन्सानी) फर्ज नहीं जानते। मन अंधा होने के कारण, हृदय केवल (धर्म की ओर से) उलटा होने के कारण वे लोग बहुत ही कोझे (विचलित जीवन वाले) लगते हैं। कई मनुष्य ऐसे होते हैं जो (खुद) बात करनी भी जानते हैं, और किसी का कहा भी समझते हें, वे मनुष्य सुचॅजे और सुंदर भी लगते हैं। कई लोगों को ना जोगियों के नाद का रस, ना वेद का शौक, ना राग की खींच- किसी भी तरह की कोमल कला की ओर उनकी रुचि ही नहीं है, ना (विचारों में) सफलता, ना सुचॅजी बुद्धि, ना अकल की सार है, और एक अक्षर भी पढ़ना नहीं जानते (फिर भी, अकड़ ही अकड़ दिखाते हैं)। हे नानक! जिनमें कोई गुण ना हो, और अहंकार किए जाएं, वह मनुष्य केवल गधे हैं।15। नोट: यह शलोक 'सारग की वार' की पौड़ी नं: 32 के साथ थोड़ा सा फर्क रख के दूसरा शलोक है। देखें सफा 1246 (मूल)। सो ब्रहमणु जो बिंदै ब्रहमु ॥ जपु तपु संजमु कमावै करमु ॥ सील संतोख का रखै धरमु ॥ बंधन तोड़ै होवै मुकतु ॥ सोई ब्रहमणु पूजण जुगतु ॥१६॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: बिंदै = (विद् = to know) जानता है, जान पहचान पैदा करता है, गहरी सांझ डालता है। ब्रहमु = परमात्मा। संजमु = इन्द्रियों को वश में रखने का यतन। सील = अच्छा मीठा स्वभाव। संतोख = माया की तृष्णा के प्रति तृप्ति। रखै = रखता है, निबाहता है। बंधन = माया के मोह के फंदे। मुकतु = माया के मोह से आजाद। पूजण जुगतु = पूजने के लायक।16। अर्थ: हे भाई! (हमारी नजरों में) वह (मनुष्य असल) ब्राहमण है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, जो यही जप-कर्म करता है, यही तप कर्म करता है, यही संजम करम करता है (जो परमात्मा की भगती को ही जप-तप-संजम समझता है) जो मीठे स्वभाव और संतोख का फर्ज निभाता है, जो माया के मोह के फंदों को तोड़ लेता है और माया के मोह से आजाद हो जाता है। हे भाई! वही ब्राहमण आदर-सत्कार का हॅकदार है।16। खत्री सो जु करमा का सूरु ॥ पुंन दान का करै सरीरु ॥ खेतु पछाणै बीजै दानु ॥ सो खत्री दरगह परवाणु ॥ लबु लोभु जे कूड़ु कमावै ॥ अपणा कीता आपे पावै ॥१७॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: सूरु = सूरमा। करमा का सूरु = (कामादिक बली शूरवीरों के मुकाबले पर) नेक कर्म करने वाला सूरमा। पुंन = पुन्य, भले कर्म बाँटने। सरीरु = (भाव,) अपना जीवन। खेतु = शरीर खेत। दानु = नाम की दाति। दरगह = परमात्मा की हजूरी में। आपे = आप ही।17। अर्थ: हे भाई! (हमारी नजरों में) वही मनुष्य खत्री है जो (कामादिक वैरियों को खत्म करने के लिए) नेक कर्म करने वाला शूरवीर बनता है, जो अपने शरीर को (अपने जीवन को, औरों में) भले कर्म बाँटने के लिए वसीला बनाता है, जो (अपने शरीर को किसान के खेत की तरह) खेत समझता है (और, इस खेत में परमात्मा के नाम की) दाति (नाम-बीज) बीजता है। हे भाई! ऐसा खत्री परमात्मा की हजूरी में कबूल होता है। पर जो मनुष्य लब-लोभ और अन्य ठॅगी आदि करता रहता है (वह जनम का चाहे खत्री ही हो) वह मनुष्य (लब आदि) किए हुए कर्मों का फल खुद ही भुगतता है (वह मनुष्य कामादिक विकारों का शिकार हुआ ही रहता है, वह नहीं है सूरमा)।17। तनु न तपाइ तनूर जिउ बालणु हड न बालि ॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ अंदरि पिरी सम्हालि ॥१८॥ {पन्ना 1411} पद्अर्थ: जिउ = की तरह। सिरि = सिर ने। पैरी = पैरों ने। फेड़िआ = बिगाड़ा। अंदरि = अपने हृदय में ही। पिरी = प्रीतम प्रभू को। समालि = संभाल के रख। अर्थ: हे भाई! (अपने) शरीर को (धूणियों से) तंदूर की तरह ना जला, और, हड्डियों को (धूणियों के साथ) इस तरह ना जला जैसे ये ईधन है। (तेरे) सिर ने (तेरे) पैरों ने कुछ नहीं बिगाड़ा (इनको धूणियों के साथ क्यों दुखी करता है? इनको दुखी ना कर) परमात्मा (की याद) को अपने हृदय में संभाल के रख।18। नोट: यह शलोक थोड़े से ही फर्क के साथ फरीद जी के शलोकों में भी नंबर 120 पर दर्ज है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |