श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1412 सभनी घटी सहु वसै सह बिनु घटु न कोइ ॥ नानक ते सोहागणी जिन्हा गुरमुखि परगटु होइ ॥१९॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: घट = शरीर। सभनी घटी = सारे शरीरों में। सहु = पति प्रभू। सह बिनु = पति प्रभू के बिना। नानक = हे नानक! ते = वह जीव सि्त्रयां। सोहागणी = पति वाली। गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू की शरण पड़ कर।19। अर्थ: हे भाई! प्रभू-पति सारे शरीरों में बसता है। कोई भी शरीर (ऐसा) नहीं है जो पति-प्रभू के बिना हो (जिसमें पति-प्रभू ना बसता हो। पर बसता है गुप्त)। हे नानक! वह जीव-सि्त्रयां भाग्यशाली हैं जिनके अंदर (वह पति'-प्रभू) गुरू के माध्यम से प्रकट हो जाता है।19। जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ ॥ सिरु धरि तली गली मेरी आउ ॥ इतु मारगि पैरु धरीजै ॥ सिरु दीजै काणि न कीजै ॥२०॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: जउ = अगर। तउ = तुझे, तेरा। चाउ = शौक। धरि = धर के, रख के। सिरु = (भाव,) अहंकार। इतु = इस में। मारगि = रास्ते में। इतु मारगि = इस रास्ते में, (प्रेम के) इस राह पर। धरीजै = धरना चाहिए। काणि = झिझक। न कीजै = नहीं करनी चाहिए।20। अर्थ: हे भाई! अगर तुझे (प्रभू-प्रेम की) खेल-खलने का शौक है, तो (अपना) सिर तली पर रख के मेरी गली में आ (लोक-लाज छोड़ के अहंकार दूर कर के आ)। (प्रभू-प्रीति के) इस रास्ते पर (तब ही) पैर धरा जा सकता है (जब) सिर भेटा किया जाए, पर कोई झिझक ना की जाए (अर्थात, जब बिना किसी झिझक के लोक-लाज और अहंकार छोड़ा जाए)।20। नालि किराड़ा दोसती कूड़ै कूड़ी पाइ ॥ मरणु न जापै मूलिआ आवै कितै थाइ ॥२१॥ गिआन हीणं अगिआन पूजा ॥ अंध वरतावा भाउ दूजा ॥२२॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: किराड़ = माया के मोह में फसे हुए मनुष्य, हर वक्त माया की गिनती-मिणती करने वाले मनुष्य। दोसती = मित्रता। कूड़ै = झूठ के कारण, माया के मोह के कारण। पाइ = पायां, (दोस्ती की) पायां। कूड़ी = जिस पर ऐतबार ना हो सके। न जापै = (ये बात) नहीं सूझती। कितै थांइ = किसी भी जगह पर। आवै = आ जाती है। मरणु = मौत।21। अर्थ: हे भाई! अगर हर वक्त माया की गिनती गिनने वाले मनुष्य के साथ दोस्ती बनाई जाए, (तो उस किराड़ के अंदरूनी) माया के मोह के कारण (उसकी दोस्ती की) पायां भी ऐतबार-योग्य नहीं होती। हे मूलिया! (माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य सदा मौत से बचे रहने के उपाय करता रहता है, पर उसको ये बात) सूझती ही नहीं कि मौत किसी भी जगह पर (किसी भी वक्त) आ सकती है।21। पद्अर्थ: गिआन = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। हीणं = हीन। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंध = अंधा, आत्मिक जीवन से अंधा बनाए रखने वाला। वरतारा = वरतण व्यवहार। भाउ = प्यार। भाउ दूजा = परमात्मा के बिना और प्यार, माया का मोह।22। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित होते हैं, वह आत्मिक जीवन से बेसमझी को ही सदा पसंद करते हैं। हे भाई! (जिन मनुष्यों के अंदर) माया का मोह (टिका रहता है, उनका) वर्तण-व्यवहार (आत्मिक जीवन के पक्ष से) अंधा (बनाए रखने वाला होता) है।22। गुर बिनु गिआनु धरम बिनु धिआनु ॥ सच बिनु साखी मूलो न बाकी ॥२३॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ, परमात्मा के साथ सांझ। धरम = फर्ज, कर्तव्य। धिआनु = लगन, सुरति। सच = सदा स्थिर हरी नाम का सिमरन। साखी = गवाही, परवाना, जीवन राहदारी। मूलो = मूल भी, सरमाया भी (आत्मिक जीवन का वह) सरमाया भी (जिसने मनुष्य जनम ले के दिया था)। न बाकी = बाकी नहीं रहता, पल्ले नहीं रहता।23। अर्थ: हे भाई! गुरू (की शरण पड़े) बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं बनती। (इस गहरी सांझ को मनुष्य जीवन का आवश्यक) फर्ज बनाए बिना (हरी-नाम सिमरन की) लगन नहीं बनती। सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन के बिना (और-और मायावी उद्यमों की जीवन-) राहदारी के कारण (आत्मिक जीवन का वह) सरमाया भी पल्ले नहीं रह जाता (जिसने मनुष्य-जन्म ले के दिया था)।23। माणू घलै उठी चलै ॥ सादु नाही इवेही गलै ॥२४॥ रामु झुरै दल मेलवै अंतरि बलु अधिकार ॥ बंतर की सैना सेवीऐ मनि तनि जुझु अपारु ॥ सीता लै गइआ दहसिरो लछमणु मूओ सरापि ॥ नानक करता करणहारु करि वेखै थापि उथापि ॥२५॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: माणू = मनुष्य (को)। घलै = (परमातमा) भेजता है। उठी = उठ के। चलै = (जगत से) चल पड़ता है। सादु = स्वाद, आनंद। इवेही गलै = ऐसी बात में।24। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) मनुष्य को (जगत में कोई आत्मिक लाभ कमाने के लिए) भेजता है, (पर अगर आत्मिक जीवन की कमाई कमाए बिना ही मनुष्य जगत से) उठ चलता है, (तो) इस तरह का जीवन जीने में मनुष्य (को काई) आत्मिक आनंद हासिल नहीं होता।24। पद्अर्थ: रामु = (श्री) रामचंद्र। झुरै = दुखी होता है। दल = फौजें। मेलवै = इकट्ठा करता है। अंतरि = (श्री रामचंद्र के) अंदर। अधिकार = इख्तियार। बलु अधिकार = अधिकार की ताकत। बंतर की सैना = बंदरों की फौज से। सेवीअै = (श्री रामचंद्र की) सेवा की जा रही है। मनि = मन में। तनि = तन में। जुझु = युद्ध का चाव। दहसिरो = दस सिर वाला रावण। मूओ = मर गया। सरापि = श्राप से। करणहारु = सब कुछ कर सकने वाला। करता = करतार। करि = कर के। थापि = पैदा करके। उथापि = नाश कर के।25। अर्थ: हे नानक! करतार सब कुछ कर सकने की समर्थता वाला है (उसको कभी झुरने की दुखी होने की आवश्यक्ता नहीं), वह तो पैदा करके नाश करके (सब कुछ करके खुद ही) देखता है। (श्री रामचंद्र उस करतार की बराबरी नहीं कर सकता। देखो, रावण के साथ लड़ने के लिए) श्री रामचंद्र फौजें इकट्ठी करता है, (उसके) अंदर (फौजें इकट्ठी करने के) अधिकार की ताकत भी है, बाँदरों की (उस) फौज से (उसकी) सेवा भी हो रही है (जिस सेना के) मन में तन में युद्ध करने का बेअंत चाव है, (फिर भी श्री) रामचंद्र (तब) दुखी होता है (दुखी हुआ, जब) सीता (जी) को रावण ले गया था, (और, फिर जब श्री रामचंद्र जी का भाई) लक्ष्मण श्राप से मर गया था।25। मन महि झूरै रामचंदु सीता लछमण जोगु ॥ हणवंतरु आराधिआ आइआ करि संजोगु ॥ भूला दैतु न समझई तिनि प्रभ कीए काम ॥ नानक वेपरवाहु सो किरतु न मिटई राम ॥२६॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: झुरै = दुखी होता है (दुखी हुआ)। जोगु = की खातिर, वास्ते। हणवंतरु = हनूमान (हनु = ठोडी। हनूमान = लंबी ठोडी वाला)। आराधिआ = याद किया। करि = कर के, के कारण। संजोगु = मिलाप, (पिछले किए कर्मों के संस्कारों अनुसार) मिलाप। संजोगु करि = (परमात्मा की ओर से बने) संजोग से। दैतु = रावण दैत्य। न समझई = नहीं समझता (ना समझा)। तिनि प्रभ = उस परमात्मा ने। तिनि = उसने। काम = सारे काम। वेपरवाहु = जिसको किसी की मुथाजी नहीं। किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह, भावी। न मिटई राम = (श्री) रामचंद्र से (भी) नहीं मिटे।26। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा (तो) बेमुथाज है (श्री रामचंद्र उस परमात्मा की बराबरी नहीं कर सकता)। (श्री) रामचंद्र (जी) से (भी) भावी नहीं मिट सकी। (देखो, श्री) रामचंद्र (अपने) मन में सीता (जी) के लिए दुखी हुआ (जब सीता जी को रावण चुरा के ले गया, फिर) दुखी हुआ लक्ष्मण की खातिर (जब रणभूमि में लक्ष्मण बरछी से मूर्छित हुआ)। (तब श्री रामचंद्र ने) हनूमान को याद किया जो (परमात्मा से बने) संजोग के कारण (श्री रामचंद्र जी की शरण) आया था। मूर्ख रावण (भी) यह बात नहीं समझा कि ये सारे काम परमात्मा ने (खुद ही) किए हैं।26। लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु ॥२७॥ महला ३ ॥ लाहौर सहरु अम्रित सरु सिफती दा घरु ॥२८॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: जहरु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर।27। अंम्रित सरु = अमृत का सरोवर, अमृत का चश्मा। सिफती का = प्रभू की सिफत सालाह का।28। अर्थ: हे भाई! लोहौर का शहर (शहर निवासियों के लिए आत्मिक मौत लाए रखने के कारण) जहर (बना हुआ है, क्योंकि यहाँ नित्य सवेरे ईयवरीय सिफत-सालाह की बजाए) सवा पहर (दिन चढ़ने तक मास की खातिर पशुओं पर) कहर (होता रहता है। मास आदि खाना और विषौ भोगना ही लाहौर-निवासियों का जीवन-उद्देश्य बन रहा है)।27। महला ३। हे भाई! (अब) लाहौर शहर अमृत का चश्मा बन गया है, परमात्मा की सिफत-सालाह का श्रोत बन गया है (क्योंकि गुरू रामदास जी का जन्म हुआ है)।28। नोट: जहाँ मास आदि खाना और विषौ भोगना ही जीवन का उद्देश्य बन के रह जाए, वह जगह वहाँ के वासियों के लिए आत्मिक मौत का कारण बन जाती है। पर, जहाँ कोई महापुरख प्रकट हो जाए, वहाँ लोगों को आत्मिक जीवन का संदेश मिलने लग जाता है। महला १ ॥ उदोसाहै किआ नीसानी तोटि न आवै अंनी ॥ उदोसीअ घरे ही वुठी कुड़िईं रंनी धमी ॥ सती रंनी घरे सिआपा रोवनि कूड़ी कमी ॥ जो लेवै सो देवै नाही खटे दम सहमी ॥२९॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: उदोसाहै नीसानी = (माया कमाने के लिए) उत्साह की निशानी। तोटि = कमी। अंन = अन्न धन की। उदोसीअ = उदासी, उपरामता, (हरी नाम से) लापरवाही। घरे ही = हृदय घर में ही। वुठी = टिकी रहती है। कुड़िई रंनी = झूठ में फसी हुई सि्त्रयों का, माया के मोह में फसी हुई इन्द्रियों का। धंमी = शोर। सती रंनी = सातों ही सि्त्रयों का (दो आँखें, दो कान, एक नाक, एक मुँह, एक काम इन्द्री) सातों ही इन्द्रियों का। घरे = शरीर घर में ही। सिआपा = झगड़ा। रोवनि = रोती हैं, शोर मचाती रहती हैं। कूड़ी कंमी = (विकारों वाले) झूठे कार्यों के लिए। जो दंम = जो दमड़े, जो पैसे। लेवै = कमाता है। सहंमी = वह दमड़ै। देवै नाही = (अपने हाथ से औरों को) नहीं देता। खटे दंम = दमड़े कमाता है। सहंमी = (फिर भी) सहम (बना रहता है)। अर्थ: हे भाई! सिर्फ माया की खातिर की हुई दौड़-भाग की क्या पहचान है? (पहचान ये है कि इस दौड़-भाग करने वाले को) अन्न-धन की कमी नहीं होती। (पर सिर्फ माया की खातिर दौड़-भाग करने के कारण हरी-नाम के प्रति) लापरवाही भी सदा हृदय-घर में बनी रहती है, माया के मोह में फसा इन्द्रियों के शोर में पड़ा रहता है। (दो आँखें, दो कान, एक नाक, एक मुँह और एक काम इन्द्री, इन) सातों ही इन्द्रियों का झगड़ा शरीर-घर में बना रहता है। ये इन्द्रियां (विकारों वाले) झूठे कामों के लिए शोर मचाती रहती हैं। (जो मनुष्य निरी माया की खातिर ही दौड़-भाग करता रहता है, वह) पैसे तो कमाता है, पर सहम में टिका रहता है, जो कुछ कमाता है वह औरों को हाथों से देता नहीं।29। पबर तूं हरीआवला कवला कंचन वंनि ॥ कै दोखड़ै सड़िओहि काली होईआ देहुरी नानक मै तनि भंगु ॥ जाणा पाणी ना लहां जै सेती मेरा संगु ॥ जितु डिठै तनु परफुड़ै चड़ै चवगणि वंनु ॥३०॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: पबर = (पद्माकर = पदमों की खान, कमल फूलों की खान, सरोवर) हे सरोवर! हरीआवला = चारों तरफ से हरा भरा। कंचन = सोना। वंन = रंग। कंचन वंनि = सोने के रंग वाले। कै दोखड़े = किस दोष के कारण? सड़िओहि = तू जल रहा है। देहुरी = सुंदर शरीर, सुंदर देही। नानक = हे नानक! मै तनि = मेरे शरीर में। भंगु = तोट, कमी। जाणा = जानूँ, मैं जानता हूँ, मुझे समझ आई है। न लहां = मैं हासिल नहीं कर रहा। जै सेती = जिस (पानी) से। संगु = साथ, मेल। जितु डिठै = जिस (पानी) को देखने से। परफुड़ै = प्रफुल्लित हो जाता है, खिल उठता है। चवगणि वंनु = चार गुना रंग।30। अर्थ: हे सरोवर! तू (कभी) चार-चुफेरों से हरा-भरा था, (तेरे अंदर) सोने के रंग जैसे (चमकते) कमल-फूल (खिले हुए थे)। अब तू किस नुक्स के कारण जल गया है? तेरा सुंदर शरीर क्यों काला हो गया है? हे नानक! (इस कालिख का कारण यह है कि) मेरे शरीर में (पानी की) कमी आ गई है। मुझे ये समझ आ रही है कि जिस (पानी) से मेरा (सदा) साथ (रहता था) जिस (पानी) के दर्शन करके शरीर खिला रहता है, चार-गुना रंग चढ़ा रहता है (वह) पानी अब मुझे नहीं मिलता।30। रजि न कोई जीविआ पहुचि न चलिआ कोइ ॥ गिआनी जीवै सदा सदा सुरती ही पति होइ ॥ सरफै सरफै सदा सदा एवै गई विहाइ ॥ नानक किस नो आखीऐ विणु पुछिआ ही लै जाइ ॥३१॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: रजि = पेट भर के, संतुष्टता से। पहुचि = (सारे धंधों के आखिर तक) पहुँच के, दुनिया वाले सारे धंधे समाप्त कर के। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। जीवै = आत्मिक जीवन जीता है। सुरती = परमात्मा में सुरति जोड़ने वाला मनुष्य। पति = इज्जत। सरफै = सर्फा करने में, बचत करने में। ऐवै = इसी तरह ही। गई विहाइ = (उम्र) बीत जाती है। लै जाइ = ले जाता है।31। किस नो = (संबंधक 'नो' के कारण शब्द 'किसु' की 'ु' मात्रा उड़ जाती है)। अर्थ: हे भाई! (लंबी) उम्र भोग-भोग के किसी मनुष्य की कभी तसल्ली नहीं हुई। ना कोई मनुष्य दुनिया वाले सारे धंधे खत्म करके (यहाँ से) चलता है (ना ही कोई यह कहता है कि अब मेरे काम-धंधे खत्म हो गए हैं)। हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य सदा ही आत्मिक जीवन जीता है (सदा अपनी सुरति परमात्मा की याद में जोड़ी रखता है) (परमात्मा में) सुरति जोड़े रखने वाले मनुष्य की ही (लोक-परलोक में) इज्जत होती है। पर, हे नानक! (माया में ग्रसित मनुष्य की उम्र) सदा ही कंजूसी करते-करते इन बचतों में ही बीतती जाती है (बचत-मारे मनुष्य को भी मौत) उसकी सलाह लिए बगैर ही यहाँ से ले चलती है। किसी की भी पेश नहीं जा सकती।31। दोसु न देअहु राइ नो मति चलै जां बुढा होवै ॥ गलां करे घणेरीआ तां अंन्हे पवणा खाती टोवै ॥३२॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: देअहु = दो। राइ = अमीर मनुष्य, धनी, मायाधारी। मति चलै = बुद्धि (परमार्थ की ओर) काम करने से रह जाती है। जां = जब। गलां = बातें (माया की) बातें। घणेरीआं = बहुत सारी। अंना = अंधा, आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित, जिसको आत्मिक जीवन वाला रास्ता नहीं दिखता। खाती = खातीं, खातों में। टोवै = टोए में। अर्थ: हे भाई! मायाधारी मनुष्य के सिर पर दोष ना थोपो (माया का मोह उसको सदा माया में ही जकड़े रखता है)। जब (माया-ग्रसित मनुष्य) बुढा (बड़ी उम्र का) हो जाता है (तब तो परमार्थ की तरफ काम करने की उसकी) बुद्धि (बिल्कुल ही) खत्म होती जाती है। (वह हर वक्त माया की ही) बहुत सारी बातें करता रहता है। हे भाई! अंधे मनुष्य ने तो टोए-टिॅबों-गढों में ही गिरना हुआ (जिस मनुष्य को आत्मिक जीवन का रास्ता दिखे ही ना, उसने तो मोह के ठेढे खा-खा के दुखों में ही पड़े रहना हुआ)।32। पूरे का कीआ सभ किछु पूरा घटि वधि किछु नाही ॥ नानक गुरमुखि ऐसा जाणै पूरे मांहि समांही ॥३३॥ {पन्ना 1412} पद्अर्थ: पूरै का = सर्व गुण भरपूर प्रभू का। पूरा = पूरण, अभूल। घटि वधि किछु = कोई नुक्स। नानक = हे नानक! गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। जाणै = जानता है, यकीन रखता है (एकवचन)। मांहि = में। समांही = समांहि, लीन रहते हैं (बहुवचन)।33। अर्थ: हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ये निश्चय रखता है कि सर्व गुण सम्पन्न परमात्मा की रची हुई जगत-मर्यादा अभुल है, इसमें कहीं कोई नुक्स नहीं है। हे नानक! (गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य इस निश्चय की बरकति से) सारे गुणों के मालिक परमात्मा (की याद) में लीन रहते हैं।33। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |