श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1427 पांच तत को तनु रचिओ जानहु चतुर सुजान ॥ जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मानु ॥११॥ {पन्ना 1427} पद्अर्थ: पांच तत = पाँच तत्व: मिट्टी, हवा, पानी, आग, आकाश। को = का। चतुर = हे चतुर मनुष्य! सुजान = हे समझदार मनुष्य! जिह ते = जिन तत्वों से। ताहि माहि = उन (ही तत्वों) में। मानि = मान ले, यकीन जान।11। अर्थ: हे नानक! (कह-) हे चतुर मनुष्य! हे समझदार मनुष्य! तू जानता है कि (तेरा ये) शरीर (परमात्मा ने) पाँच तत्वों से बनाया है। (ये भी) यकीन जान कि जिन तत्वों से (ये शरीर) बना है (दोबारा) उनमें ही लीन हो जाएगा (फिर इस शरीर के झूठे मोह में फस के परमात्मा का सिमरन क्यों भुला रहा है?।11। घट घट मै हरि जू बसै संतन कहिओ पुकारि ॥ कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि ॥१२॥ {पन्ना 1427} पद्अर्थ: घट = शरीर। घट घट मै = हरेक शरीर में। जू = जी। पुकारि = पुकार के, ऊँचा ऊँचा बोल के। भउनिधि = संसार समुंद्र। उतरहि = तू पार लांघ जाएगा।12। अर्थ: हे नानक! कह- हे मन! संत जनों ने ऊँचा-ऊँचा पुकार के बता दिया है कि परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है। तू उस (परमात्मा) का भजन किया कर, (भजन की बरकति से) संसार-समुंद्र से तू पार लांघ जाएगा।12। सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु ॥ कहु नानक सुनु रे मना सो मूरति भगवान ॥१३॥ उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१४॥ हरखु सोगु जा कै नही बैरी मीत समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१५॥ भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन ॥ कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि ॥१६॥ {पन्ना 1427} पद्अर्थ: जिह = जिस (के मन) को। परसै = छूता। अभिमानु = अहंकार। सो = वह (मनुष्य)। मूरति भगवान = भगवान का स्वरूप।13। उसतति = वडिआई। जिहि = जिस (के मन) को। कंचन = सोना। लोह = लोहा। समानि = एक जैसा। मुकति = मोह से खलासी। ताहि = उस (मनुष्य) ने (प्राप्त की है)। ते = तू। जानि = समझ ले।14। हरखु = खुशी। सोगु = चिंता, गम। जा कै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। समानि = एक जैसे। मुकति = माया के मोह से खलासी।15। भै = डरावे ('भउ' का बहुवचन)। आन = अन्य के। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। ताहि = उसको। बखानि = कह।16। अर्थ: हे नानक! कह- हे मन! सुन, जिस मनुष्य (के हृदय) को सुख-दुख नहीं छू सकता, लोभ मोह अहंकार नहीं पोह सकता (भाव, जो मनुष्य सुख-दुख के समय आत्मिक जीवन से नहीं डोलता, जिस पर लोभ-मोह-अहंकार अपना जोर नहीं डाल सकता) वह मनुष्य (साक्षात) परमात्मा का रूप है।13। हे नानक! कह- हे मन! सुन, जिस मनुष्य (के मन) को उस्तति नहीं (डाँवा-डोल कर सकती), जिसको सोना और लोहा एक समान (दिखते हैं, भाव, जो लालच में नहीं फसता), यह बात (पक्की) समझो कि उसको मोह से छुटकारा मिल चुका है।14। हे नानक! कह- हे मन! सुन, जिस मनुष्य के हृदय में खुशी-ग़मी अपना जोर नहीं डाल सकती, जिसको वैरी और मित्र एक जैसे (मित्र ही) प्रतीत होते हैं, तू ये बात पक्की समझ कि उसको माया के मोह से निजात मिल चुकी है।15। हे नानक! कह- हे मन! सुन, जो मनुष्य किसी को (कोई) डरावे नहीं देता, और किसी से भयभीत (भी) नहीं होता (धमकियों डरावों से घबराता नहीं) उसको आत्मिक जीवन की सूझ वाला समझ।16। जिहि बिखिआ सगली तजी लीओ भेख बैराग ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह नर माथै भागु ॥१७॥ जिहि माइआ ममता तजी सभ ते भइओ उदासु ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह घटि ब्रहम निवासु ॥१८॥ जिहि प्रानी हउमै तजी करता रामु पछानि ॥ कहु नानक वहु मुकति नरु इह मन साची मानु ॥१९॥ {पन्ना 1427} पद्अर्थ: जिहि = जिस (मनुष्य) ने। बिखिआ = माया। सगली = सारी। बिखिआ सगली = (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निंदा ईष्या आदि) सारी की सारी माया। तिह नर माथै = उस मनुष्य के माथे पर।17। ममता = अपनत्व। ते = से। उदासु = उदास, उपराम। तिह घटि = उस (मनुष्य) के दिल में।18। जिहि प्रानी = जिस प्राणी ने। पछानि = पहचान के, सांझ डाल के। वहु नरु = वह मनुष्य। मुकत = विकारों से बचा हुआ। मन = हे मन! ।19। अर्थ: हे नानक! कह- हे मन! सुन, जिस (मनुष्य) ने (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निंदा ईष्या आदि) सारी की सारी माया त्याग दी, (उसने ही सही) वैराग का (सही) भेष धारण किया (समझो)। हे मन! उस मनुष्य के माथे पर (अच्छे) भाग्य (जागे समझ)।17। हे नानक! कह- हे मन! सुन, जिस (मनुष्य) ने माया का मोह छोड़ दिया, (जो मनुष्य माया के कामादिक) सारे विकारों से उपराम हो गया, उसके दिल में (प्रत्यक्ष तौर पर) परमात्मा का निवास हो जाता है। जिस मनुष्य ने करतार सृजनहार के साथ गहरी सांझ डाल के (अपने अंदर से) अहंकार त्याग दिया, हे नानक! कह- हे मन! ये बात सच्ची समझ कि वह मनुष्य (ही) मुक्त है।19। भै नासन दुरमति हरन कलि मै हरि को नामु ॥ निसि दिनु जो नानक भजै सफल होहि तिह काम ॥२०॥ जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नामु ॥ कहु नानक सुनि रे मना परहि न जम कै धाम ॥२१॥ जो प्रानी ममता तजै लोभ मोह अहंकार ॥ कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार ॥२२॥ {पन्ना 1427} पद्अर्थ: भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। हरन = दूर करने वाला। दुरमति = खोटी मति। कलि महि = कलेशों भरे संसार में। को = का। निसि = रात। भजै = जपता है (एकवचन)। होहि = हो जाते हैं। तिह काम = उसके (सारे) काम।20। जिहबा = जीभ (से)। करन = कानों से। परहि न = नहीं पड़ते। धाम = घर। जम कै धाम = जम के घर में, जम के वश में।21। ममता = अपनत्व, मोह। तजै = छोड़ता है। तरै = पार लांघ जाता है। अउरन = औरों को। लेत उधार = बचा लेता है।22। अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई!) इस कलेशों भरे संसार में परमात्मा का नाम (ही) सारे डर नाश करने वाला है, खोटी मति दूर करने वाला है। जो मनुष्य प्रभू का नाम रात दिन जपता रहता है उसके सारे काम सफल हो जाते हैं।20। हे भाई! (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुणों का जाप किया करो, (अपने) कानों से परमात्मा का नाम सुना करो। हे नानक! कह- हे मन! (जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे) जमों के वश नहीं पड़ते।21। हे नानक! कह- (हे भाई!) जो मनुष्य (अपने अंदर से माया की) ममता त्यागता है, लोभ मोह और अहंकार को दूर करता है, वह स्वयं (भी इस संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है और औरों को भी (विकारों से) बचा लेता है।22। जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि ॥ इन मै कछु साचो नही नानक बिनु भगवान ॥२३॥ निसि दिनु माइआ कारने प्रानी डोलत नीत ॥ कोटन मै नानक कोऊ नाराइनु जिह चीति ॥२४॥ जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत ॥ जग रचना तैसे रची कहु नानक सुनि मीत ॥२५॥ प्रानी कछू न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन परत ताहि जम फंध ॥२६॥ {पन्ना 1427} पद्अर्थ: अरु = और। कउ = को। जानि = समझ ले। इन महि = इन (दिखाई देते पदार्थों) में (बहुवचन)। कछु = कोई भी पदार्थ। साचो = सदा कायम रहने वाला, सदा साथ निभाने वाला।23। निसि = रात। कारने = की खातिर। डोलत = भटकता फिरता है। नीत = नित्य, सदा। कोटन मै = करोड़ों में। कोऊ = कोई विरला। जिह चीति = जिसके चिक्त में।24। ते = से। बुदबुदा = बुल बुला। रची = बनाई हुई है। मीत = हे मित्र!।25। न चेतई = ना चेते, नहीं सोचता। मदि = नशे में। मदि माइआ कै = माया के नशे में। अंधु = (आत्मिक जीवन से) अंधा। परत = पड़ते हैं, पड़े रहते हैं। फंध = फंदे।26। अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई!) जैसे (सोए हुए) सपना (आता है) और (और उस सपने में कई पदार्थ हम) देखते हैं, वैसे ही इस जगत को समझ ले। परमात्मा के नाम के बिना (जगत में दिखाई दे रहे) इन (पदार्थों) में कोई भी पदार्थ सदा साथ निभाने वाला नहीं है।23। हे नानक! (कह- हे भाई!) माया (इकट्ठी करने) की खातिर मनुष्य सदा रात-दिन भटकता फिरता है। करोड़ों (लोगों) में कोई विरला (ऐसा होता) है, जिसके मन में परमात्मा की याद टिकी होती है।24। हे नानक! कह- हे मित्र! सुन, जैसे पानी से सदा बुलबुला पैदा होता है और नाश होता रहता है, वैसे ही (परमात्मा ने) जगत की (यह) खेल बनाई हुई है।25। पर, माया के नशे में (आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ मनुष्य (आत्मिक जीवन के बारे में) कुछ भी नहीं सोचता। हे नानक! कह- परमात्मा के भजन के बिना (ऐसे मनुष्य को) जमों के फंदे पड़े रहते हैं।26। जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह ॥ कहु नानक सुनि रे मना दुरलभ मानुख देह ॥२७॥ माइआ कारनि धावही मूरख लोग अजान ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन बिरथा जनमु सिरान ॥२८॥ जो प्रानी निसि दिनु भजै रूप राम तिह जानु ॥ हरि जन हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥२९॥ मनु माइआ मै फधि रहिओ बिसरिओ गोबिंद नामु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन जीवन कउने काम ॥३०॥ प्रानी रामु न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक हरि भजन बिनु परत ताहि जम फंध ॥३१॥ {पन्ना 1427-1428} पद्अर्थ: जउ = यदि। चाहै = चाहता है। लेह = ले रखे, पड़ा रहे। देह = शरीर।27। धावही = दौड़ते फिरते हैं। अजान = बेसमझ। सिरान = गुजर जाता है।28। निसि = रात। भजै = जपता है। रूप राम = परमात्मा का रूप। तिह = उसको। जानु = समझो। अंतरु = भेद, फर्क। हरि जन = परमात्मा का भगत। साची मानु = (ये बात) सच्ची मान।29। फधि रहिओ = फसा रहता है। कउने काम = कौन से काम का? किसी भी काम का नहीं।30। न चेतई = ना चेते, याद नहीं करता। मदि = नशे में। अंधु = (आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ मनुष्य। परत = पड़े रहते हैं। ताहि = उसको। जम फंध = जमों के फंदे।31। अर्थ: हे नानक! कह- हे मन! सुन, ये मनुष्य-शरीर बड़ी मुश्किल से मिलता है (इसको माया की खातिर भटकने में ही नहीं व्यर्थ गवा देना चाहिए)। सो, जो (मनुष्य) आत्मिक आनंद (हासिल करना) चाहता है, तो (उसको चाहिए कि) परमात्मा की शरण पड़ा रहे।27। हे नानक! कह- (हे भाई!) मूर्ख बेसमझ बंदे (निरी) माया (इकट्ठी करने) के लिए भटकते रहते हैं, परमात्मा के भजन के बिना (उनका ये मनुष्य-) जनम व्यर्थ बीत जाता है।28। हे नानक! कह- (हे भाई!) जो मनुष्य रात-दिन (हर वक्त परमात्मा का नाम) जपता रहता है, उसको परमात्मा का रूप समझो। यह बात सच्ची मानो कि परमात्मा के भगत और परमात्मा में कोई फर्क नहीं है।29। हे नानक! कह- (हे भाई! जिस मनुष्य का) मन (हर समय) माया (के मोह) में फसा रहता है (जिसको) परमात्मा का नाम (सदा) भूला रहता है (बताओ) परमात्मा के भजन के बिना (उसका) जीना किस काम का?।30। हे नानक! कह- (हे भाई!) माया के मोह में (फस के आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ (जो) मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता, परमात्मा के भजन के बिना उसको (उसके गले में) जमों के फंदे पड़े रहते हैं।31। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |