श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुख मै बहु संगी भए दुख मै संगि न कोइ ॥ कहु नानक हरि भजु मना अंति सहाई होइ ॥३२॥ जनम जनम भरमत फिरिओ मिटिओ न जम को त्रासु ॥ कहु नानक हरि भजु मना निरभै पावहि बासु ॥३३॥ जतन बहुतु मै करि रहिओ मिटिओ न मन को मानु ॥ दुरमति सिउ नानक फधिओ राखि लेहु भगवान ॥३४॥ {पन्ना 1428}

पद्अर्थ: संगी = साथी, मेली गेली। संगि = साथ। अंति = आखिरी वक्त (भी)। सहाई = मददगार।32।

जनम जनम = अनेकों जन्मों में। को = का। त्रासु = डर। निरभै = निडर अवस्था में, उस प्रभू में जिसको कोई डर छू नहीं सकता। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा।33।

को = का। मानु = अहंकार। दुरमति = खोटी मति। सिउ = साथ। फधिओ = फसा रहता है। भगवान = हे भगवान!।34।

अर्थ: हे नानक! कह- हे मन! परमात्मा का भजन किया कर (परमातमा) अंत समय (में भी) मददगार बनता है। (दुनिया में तो) सुख के समय अनेकों मिलने-जुलने वाले बन जाते हैं, पर दुख में कोई भी साथ नहीं होता।32।

हे भाई! (परमात्मा का सिमरन भुला के जीव) अनेकों जन्मों में भटकता फिरता है, जमों का डर (इसके अंदर से) खत्म नहीं होता। हे नानक! कह- हे मन! परमातमा का भजन करता रहा कर, (भजन की बरकति से) तू उस प्रभू में निवास प्राप्त कर लेगा जिसको कोई डर छू नहीं सकता।33।

हे नानक! (कह-) हे भगवान! मैं अनेकों (और-और) यतन कर चुका हूँ (उन प्रयत्नों से) मन का अहंकार दूर नहीं होता, (यह मन) खोटी मति से चिपका रहता है। हे भगवान! (तू स्वयं ही) रक्षा कर।34।

बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि ॥ कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु ॥३५॥ करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ कै फंध ॥ नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध ॥३६॥ मनु माइआ मै रमि रहिओ निकसत नाहिन मीत ॥ नानक मूरति चित्र जिउ छाडित नाहिन भीति ॥३७॥ नर चाहत कछु अउर अउरै की अउरै भई ॥ चितवत रहिओ ठगउर नानक फासी गलि परी ॥३८॥ {पन्ना 1428}

पद्अर्थ: अरु = और। बिरधि = बुढ़ापा। फुनि = पुनः, फिर। तीनि = तीन। जानि = जान, समझ ले। मान = मान ले।35।

करणो हुतो = (जो कुछ) करना था। सु = वह। कै फंध = के फंदे में। समिओ = (मनुष्य जीवन का) समय। रमि गइओ = गुजर गया। अंध = हे (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्य! ।36।

मै = में। रमि रहिओ = फसा हुआ है। नाहिन = नहीं। मीत = हे मित्र! मूरति = तस्वीर। चित्र = चित्रित रूप। भीति = दीवार।37।

अउरै की अउरै = और की और ही। चितवत रहिओ = तू सोचता रहा। ठगउर = ठॅगमूरी, ठॅग बूटी, ठॅगियां। गलि = गले में। परी = पड़ गई।38।

अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई!) बाल-अवस्था, जवानी की अवस्था, और फिर बुढ़ापे की अवस्था- (उम्र की ये) तीन अवस्थाएं समझ ले (जो मनुष्य पर आती है)। (पर, ये) याद रख (कि) परमात्मा के भजन के बिना ये सारी ही व्यर्थ ही जाती हैं।35।

हे नानक! (कह- माया के मोह में) अंधे हो रहे मनुष्य! जो कुछ तूने करना था, वह तूने नहीं किया (सारी उम्र) तू लोभ के फंदे में (ही) फसा रहा। (जिंदगी का सारा) समय (इसी तरह ही) गुजर गया। अब रोता क्यों है? (अब पछताने से क्या फायदा?)।36।

हे नानक! (कह-) हे मित्र! जैसे (दीवार पर किसी) मूर्ति का बनाया हुआ चित्र दीवार को नहीं छोड़ता, दीवार के साथ ही चिपका रहता है, वैसे ही जो मन माया (के मोह) में फस जाता है, (वह इस मोह में से अपने आप ही) नहीं निकल सकता।37।

हे नानक! (कह-) हे भाई! (माया के मोह में फस के) मनुष्य (प्रभू-सिमरन की जगह) कुछ और ही (भाव, माया ही माया) मांगता रहता है। (पर, करतार की रजा में) और की और ही हो जाती है (मनुष्य सोचता कुछ है हो कुछ जाता है)। (मनुष्य औरों को) ठगने की सोचें सोचता है (लेकिन मौत का) फंदा (उसके) गले में आ पड़ता है।38।

जतन बहुत सुख के कीए दुख को कीओ न कोइ ॥ कहु नानक सुनि रे मना हरि भावै सो होइ ॥३९॥ जगतु भिखारी फिरतु है सभ को दाता रामु ॥ कहु नानक मन सिमरु तिह पूरन होवहि काम ॥४०॥ झूठै मानु कहा करै जगु सुपने जिउ जानु ॥ इन मै कछु तेरो नही नानक कहिओ बखानि ॥४१॥ {पन्ना 1428}

पद्अर्थ: सुख के = सांसारिक सुखों की प्राप्ति के। को = का। दुख को = दुखों का। हरि भावै = जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है।39।

भिखारी = मंगता। सभ को = सब जीवों का। मन = हे मन! तिह = उस (परमात्मा) को। होवहि = हो जाएंगे। काम = सारे काम।40।

झूठै = नाशवंत (संसार) के। कहा करे = क्यों करता है? जिउ = जैसा। जानि = समझ ले। इन मै = इन (दुनियावी पदार्थों) में। तेरो = तेरा (असल साथी)। बखानि = उचार के, समझा के।41।

अर्थ: हे नानक! कह- हे मन! जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है (अवश्य ही) वह (ही) होता है (जीव भले ही) सुखों (की प्राप्ति) के लिए अनेकों जतन करता रहता है, और दुखों के लिए यतन नहीं करता (पर, फिर भी रजा के अनुसार दुख भी आ ही पड़ते हैं। सुख भी तब ही मिलता है जब प्रभू की रज़ा हो)।39।

जगत भिखारी (हो के) भटकता फिरता है (ये याद नहीं रखता कि) सारे जीवों को दातें देने वाला परमात्मा स्वयं है। हे नानक! कह- हे मन! उस दातार प्रभू का सिमरन करता रहा कर, तेरे सारे काम सफल होते रहेंगे।40।

हे भाई! (पता नहीं मनुष्य) नाशवंत दुनिया का मान क्यों करता रहता है। हे भाई! जगत को सपने (में देखे हुए पदार्थों) की तरह (ही) समझो। हे नानक! (कह- हे भाई!) मैं तुझे ठीक बता रहा हूँ कि इन (दिखाई देते पदार्थों) में तेरा (असल साथी) कोई भी पदार्थ नहीं है।41।

गरबु करतु है देह को बिनसै छिन मै मीत ॥ जिहि प्रानी हरि जसु कहिओ नानक तिहि जगु जीति ॥४२॥ जिह घटि सिमरनु राम को सो नरु मुकता जानु ॥ तिहि नर हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥४३॥ एक भगति भगवान जिह प्रानी कै नाहि मनि ॥ जैसे सूकर सुआन नानक मानो ताहि तनु ॥४४॥ सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥ नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥ तीरथ बरत अरु दान करि मन मै धरै गुमानु ॥ नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु ॥४६॥ {पन्ना 1428}

पद्अर्थ: गरबु = गर्व, अहंकार। देह को = (जिस) शरीर का। बिनसै = नाश हो जाता है। मीत = हे मित्र! जिहि प्रानी = जिस मनुष्य ने। जसु = सिफत सालाह। तिहि = उसने। जीतु = जीत लिया।42।

जिह घटि = जिस (मनुष्य) के हृदय में। को = का। मुकता = विकारों से बचा हुआ। जानु = समझो। अंतरु = फर्क, दूरी। साची मानु = ठीक मान।43।

कै मनि = के मन में। जिह प्रानी कै मनि = जिस प्राणी के मन में। सूकर तनु = सूअर का शरीर। सुआन तनु = कुत्ते का शरीर। ताहि = उस (मनुष्य) का।44।

को = का। ग्रिह = घर। तजत नही = छोड़ता नहीं। इह बिधि = इस तरीके से। भजउ = भजन किया करो। इक मनि हुइ = एकाग्र हो के। इक चिति हुइ = एक चिक्त हो के।45।

अरु = और। करि = कर के। मन मै = मन में। गुमानु = मान। तिह = उसके (इस तीर्थ व्रत दान)। निहफल = व्यर्थ। कुंचर = हाथी (का)।46।

अर्थ: हे मित्र! (जिस) शरीर का (मनुष्य सदा) माण करता रहता है (कि यह मेरा अपना है, वह शरीर) एक छिन में ही नाश हो जाता है। (और पदार्थों का मोह तो कहां रहा, अपने इस शरीर का मोह भी झूठा ही है)। हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा की सिफतसालाह करनी शुरू कर दी, उसने जगत (के मोह) को जीत लिया।42।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का सिमरन (टिका रहता है) उस मनुष्य को (मोह के जाल से) बचा हुआ समझ। हे नानक! (कह- हे भाई!) यह बात ठीक मान कि उस मनुष्य और परमात्मा में कोई फर्क नहीं।43।

हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की भगती नहीं है, उसका शरीर वैसा ही समझ जैसा (किसी) सूअर का शरीर है (या किसी) कुत्ते का शरीर है।44।

हे नानक! (कह- हे भाई!) एक-मन हो के एक-चिक्त हो के परमात्मा का भजन इसी तरीके से किया करो (कि उसका दर कभी छूटे ही ना), जैसे कुक्ता (अपने) मालिक का घर (घर का दरवाजा) सदा (पकड़े रखता है) कभी भी नहीं छोड़ता।45।

हे नानक! (कह- हे भाई! परमात्मा का भजन छोड़ के मनुष्य) तीर्थ-स्नान करके व्रत रख के, दान-पुन्य कर के (अपने) मन में अहंकार करता है (कि मैं धर्मी बन गया हूँ, पर) उसके (ये सारे किए हुए कर्म इस प्रकार) व्यर्थ (चले जाते हैं) जैसे हाथी का (किया हुआ) स्नान ।46।

(नोट: हाथी नहा के राख मिट्टी अपने ऊपर डाल लेता है)।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh