श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरु क्मपिओ पग डगमगे नैन जोति ते हीन ॥ कहु नानक इह बिधि भई तऊ न हरि रसि लीन ॥४७॥ निज करि देखिओ जगतु मै को काहू को नाहि ॥ नानक थिरु हरि भगति है तिह राखो मन माहि ॥४८॥ जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत ॥ कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीति ॥४९॥ रामु गइओ रावनु गइओ जा कउ बहु परवारु ॥ कहु नानक थिरु कछु नही सुपने जिउ संसारु ॥५०॥ चिंता ता की कीजीऐ जो अनहोनी होइ ॥ इहु मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ ॥५१॥ जो उपजिओ सो बिनसि है परो आजु कै कालि ॥ नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सगल जंजाल ॥५२॥ {पन्ना 1429}

पद्अर्थ: कंपिओ = काँप रहा है। पग = पैर। डगमगे = डगमगा रहे हैं। ते = से। नैन = आँखें। जोति = रौशनी। इह बिधि = यह हालत। तऊ = फिर भी। लीन = मगन। हरि रस लीन = हरी नाम के रस में मगन।47।

निज करि = अपना समझ के। को = कोई जीव। काहू को = किसी का भी। थिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाली।48।

झूठ = नाशवंत। कहि = कहै, कहता है। बालू = रेत। भीति = दीवार।49।

गइओ = चला गया, कूच कर गया। जा कउ = जिस (रावण) को। बहु परवारु = बड़े परिवार वाला (कहा जाता है)। सुपने जिउ = सपने जैसा।50।

ता की = उस (बात) की। कीजीअै = करनी चाहिए। अनहोनी = ना होने वाली, असंभव। को = का। मारगु = रास्ता। संसार को मारगु = संसार का रास्ता।51।

बिनसि है = नाश हो जाएगा। परो = नाश हो जाने वाला। कै = अथवा। कालि = तड़के, भलके, कल, tomarrow। छाडि = छोड़ के। जंजाल = माया के मोह के फंदे।42।

अर्थ: हे नानक! कह- (हे भाई! बुढ़ापा आ जाने पर मनुष्य का) सिर काँपने लग जाता है (चलते हुए) पैर थिड़कने लगते हैं, आँखों की जोति मारी जाती है (बुढ़ापे से शरीर की) यह हालत हो जाती है, फिर भी (माया का मोह इतना प्रबल होता है कि मनुष्य) परमात्मा के नाम के स्वाद में मगन नहीं होता।47।

हे नानक! (कह- हे भाई!) मैं जगत को अपना समझ के (ही अब तक) देखता रहा, (पर, यहाँ तो) कोई किसी का भी (सदा के लिए अपना) नहीं है। सदा कायम रहने वाली तो परमात्मा की भगती ही है। इस (भगती) को (अपने) मन में परो के रख।48।

नानक कहता है- हे मित्र! यह बात सच्ची जान कि जगत की सारी रचना ही नाशवंत है। रेत की दीवार की तरह (जगत में) कोई भी चीज़ सदा कायम रहने वाली नहीं है।49।

हे नानक! कह- (हे भाई! श्री) राम (चंद्र) कूच कर गया, रावण भी चल बसा जिसको बड़े परिवार वाला कहा जाता है। (यहाँ) कोई भी सदा कायम रहने वाला पदार्थ नहीं है। (यह) जगत सपने जैसा (ही) है।50।

हे नानक! (कह- हे भाई! मौत आदिक तो) उस (घटना) की चिंता करनी चाहिए जो कभी घटित होने वाली ना हो। जगत की तो चाल ही यह है कि (यहाँ) कोई जीव (भी) सदा कायम रहने वाला नहीं है।51।

हे नानक! कह- (हे भाई! जगत में तो) जो भी पैदा हुआ है वह (अवश्य) नाश हो जाएगा (हर कोई यहाँ से) आज या कल कूच कर जाने वाला है। (इसलिए माया के मोह के) सारे फंदे उतार के परमात्मा के गुण गाया कर।52।

दोहरा ॥ बलु छुटकिओ बंधन परे कछू न होत उपाइ ॥ कहु नानक अब ओट हरि गज जिउ होहु सहाइ ॥५३॥ बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ ॥ नानक सभु किछु तुमरै हाथ मै तुम ही होत सहाइ ॥५४॥ संग सखा सभि तजि गए कोऊ न निबहिओ साथि ॥ कहु नानक इह बिपति मै टेक एक रघुनाथ ॥५५॥ नामु रहिओ साधू रहिओ रहिओ गुरु गोबिंदु ॥ कहु नानक इह जगत मै किन जपिओ गुर मंतु ॥५६॥ राम नामु उर मै गहिओ जा कै सम नही कोइ ॥ जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइ ॥५७॥१॥ {पन्ना 1429}

पद्अर्थ: बलु = (आत्मिक) ताकत। बंधन = (माया के मोह के) फंदे। परे = पड़ गए, पड़ जाते हैं। उपाइ = उपाय। अब = उस वक्त। ओट = आसरा। हरि = हे हरी! सहाइ = सहायक, मददगार।53।

छुटे = टूट जाते हैं। सभु किछु उपाइ = हरेक उद्यम। होत = हो सकता है। सभु किछु = हरेक चीज।54।

संग = संगी। सभि = सारे। तजि गऐ = छोड़ गए, छोड़ जाते हैं। साथि = साथ। इह बिपति मै = इस मुसीबत में, इस अकेलेपन में। रघुनाथ टेक = परमात्मा का आसरा।55।

रहिओ = रहता है, साथी बना रहता है। साधू = गुरू। गुरु गोबिंद = अकाल पुरख। किन = जिस किसी ने। गुरमंतु = (हरी नाम वाला सिमरन) गुर उपदेश।56।

उर = हृदय। उर महि = दिल में। गहिओ = पकड़ लिया, पक्की तरह बसा लिया। जा कै सम = जिस (हरी नाम) के बराबर। जिह सिमरत = जिस हरी नाम को सिमरने से। संकट = दुख कलेश।57।

अर्थ: हे भाई! (प्रभू से विछुड़ के जब माया के मोह के) फंदे (मनुष्य को) आ पड़ते हैं (उन फंदों को काटने के लिए मनुष्य के अंदर से आत्मिक) शक्ति समाप्त हो जाती है (माया का मुकाबला करने के लिए मनुष्य से) कोई भी उपाय नहीं किया जा सकता। हे नानक! कह- हे हरी! इस (संकट भरे) वक्त में (अब) तेरा ही आसरा है। जैसे तू (तेंदूए से छुड़ाने के लिए) हाथी का मददगार बना, वैसे ही सहाई बन। (भाव, माया के मोह के बँधनों से खलासी पाने के लिए परमातमा के दर पर अरदास ही एक मात्र वसीला है)।53।

हे भाई! (जब मनुष्य प्रभू के दर पर गिरता है, और माया से मुकाबला करने के लिए उसके अंदर आत्मिक) बल पैदा हो जाता है (तब माया के मोह के) बंधन टूट जाते हैं (मोह का मुकाबला करने के लिए) हरेक उपाय सफल हो सकता है। सो, हे नानक! (कह- हे प्रभू!) सब कुछ तेरे हाथ में है (तेरी पैदा की हुई माया भी तेरे ही अधीन है, इससे बचने के लिए) तू ही मददगार हो सकता है।54।

हे नानक! कह- (जब अंत के समय) सारे संगी-साथी छोड़ जाते हैं, जब कोई भी साथ नहीं निभा सकता, उस (अकेलेपन की) मुसीबत के समय भी सिर्फ परमात्मा का ही सहारा होता है (सो, हे भाई! सदा परमात्मा का नाम सिमरा करो)।55।

हे नानक! कह- हे भाई! इस दुनिया में जिस किसी (मनुष्य) ने (हरी-नाम सिमरन वाला) गुरू का उपदेश अपने अंदर बसाया है (और नाम जपा है, अंत के समय भी परमात्मा का) नाम (उसके) साथ (रहता) है, (बाणी के रूप में) गुरू उसके साथ रहता है, अकाल-पुरख उसके साथ है।56।

हे प्रभू! जिस मनुष्य ने तेरा वह नाम अपने हृदय में बसाया है जिसके बराबर का और कोई नहीं और जिसको सिमरने से हरेक दुख-कलेश दूर हो जाता है, उस मनुष्य को तेरा दर्शन भी हो जाता है।57।1।

मुंदावणी महला ५ ॥ थाल विचि तिंनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो ॥ अम्रित नामु ठाकुर का पइओ जिस का सभसु अधारो ॥ जे को खावै जे को भुंचै तिस का होइ उधारो ॥ एह वसतु तजी नह जाई नित नित रखु उरि धारो ॥ तम संसारु चरन लगि तरीऐ सभु नानक ब्रहम पसारो ॥१॥ {पन्ना 1429}

नोट: शीर्षक 'मुंदावणी' का अर्थ समझने के लिए 'सोरठि की वार' की अठवीं पउड़ी का पहिला शलोक सामने रखना आवश्यक है;

सलोकु महला ३॥ थालै विचि तै वसतू पईओ हरि भोजनु अंम्रितु सारु॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीअै पाईअै मोख दुआरु॥ इहु भोजनु अलभु है संतहु लभै गुर वीचारि॥ ऐह मुदावणी किउ विचहु कढीअै सदा रखीअै उरि धारि॥ ऐह मुदावणी सतिगुरू पाई गुरसिखा लधी भालि॥ नानक जिसु बुझाऐ सु बुझसी हरि पाइआ गुरमुखि घालि॥१॥

( सोरठि की वार महला ४ पन्ना ६४५)

इस सलोक महला ३ को 'मुंदावणी महला ५' के साथ मिला के देखिए। दोनों का मजमून एक ही है। कई शब्द सांझे हैं। गुरू अमरदास जी के वचनों का शीर्षक है 'सलोकु'। गुरू अरजन साहिब के वचनों का शीर्षक है 'मुंदावणी'। पर ये शब्द गुरू अमरदास जी ने 'सलोक' में प्रयोग कर दिए हैं, हलाँकि थोड़ा सा फर्क है; टिॅपी (बिंदी) का अंतर।

ख्याल, विषय-वस्तु, शब्दों की समानता के आधार पर नि:संदेह ये कहा जा सकता है कि शब्द 'मुदावणी' और 'मुंदावणी' एक ही है। दोनों की वचनों (शबदों) में ये शब्द 'स्त्री-लिंग' में प्रयोग किया गया है। गुरू अरजन साहिब इस 'मुंदावणी' के बारे में कहते हैं कि 'ऐह वसतु तजी नह जाई', इसको 'नित नित रखु उरि धारो'। यही बात गुरू अमरदास जी ने इस प्रकार कही है कि;

'ऐह मुदावणी किउ विचहु कढीअै?

सदा रखीअै उरिधारि'।

शब्द 'मुदावणी' 'मुंदावणी' का अर्थ:

(मुद्-to please, प्रसन्न करना। मोदयति-pleases)। मुदावणी अथवा मुंदावणी-आत्मिक प्रसन्नता देने वाली वस्तु।

पद्अर्थ: थाल विचि = (उसके हृदय) थाल में। तिंनि वसतू = तीन चीजें (सत, संतोख और विचार)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जिस का = जिस (नाम) का ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है)। सभसु = हरेक जीव को। अधारो = आसरा। को = कोई (मनुष्य)। भुंचै = खाता है, माणता है। तिस का = उस (मनुष्य) का ('तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है)। उधारो = उद्धार, पार उतारा, विकारों से बचाव। ऐह वसतु = यह वस्तु, आत्मिक प्रसन्नता देने वाली ये चीज, ये मुदावणी। तजी नह जाई = त्यागी नहीं जा सकती। रखु = संभाल के रखो। उरि = हृदय में। धारो = टिकाओ। तम = (तमस्) अंधेरा। तम संसारु = (विकारों के कारण बना हुआ) घुप अंधेरा जगत। लगि = लग के। सभु = हर जगह। ब्रहम पसारो = परमात्मा का खिलारा, परमात्मा के स्वै का प्रकाश।1।

अर्थ: हे भाई! (उस मनुष्य के हृदय-) थाल में ऊँचा आचरण, संतोख और आत्मिक जीवन की सूझ - ये तीनों वस्तुएं टिकी रहती हैं, (जिस मनुष्य के हृदय-थाल में) परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम आ बसता है (ये 'अमृत-नाम' ऐसा है) कि इसका आसरा हरेक जीव के लिए (जरूरी) है। (इस आत्मिक भोजन को) अगर कोई मनुष्य सदा खाता रहता है, तो उस मनुष्य का विकारों से बचाव हो जाता है।

हे भाई! (अगर आत्मिक उद्धार की आवश्यक्ता है तो) आत्मिक प्रसन्नता देने वाली ये नाम-वस्तु त्यागी नहीं जा सकती, इसको सदा ही अपने हृदय में संभाल के रख। हे नानक! (इस नाम-वस्तु की बरकति से) प्रभू की चरणी लग के घोर अंधकार भरा संसार-समुंद्र तैरा जा सकता है और हर जगह परमात्मा के स्वै का प्रकाश ही (दिखाई देने लग जाता है)।1।

सलोक महला ५ ॥ तेरा कीता जातो नाही मैनो जोगु कीतोई ॥ मै निरगुणिआरे को गुणु नाही आपे तरसु पइओई ॥ तरसु पइआ मिहरामति होई सतिगुरु सजणु मिलिआ ॥ नानक नामु मिलै तां जीवां तनु मनु थीवै हरिआ ॥१॥ {पन्ना 1429}

पद्अर्थ: कीता = किया हुआ (उपकार)। जातो नाही = (तेरे किए हुए उपकार की) मैंने कद्र नहीं समझी। मैनो = मुझे। कीतोई = तूने (मुझे) बनाया है। जोगु = योग्य, लायक, (उपकार की दाति संभालने के) योग्य (बर्तन)। मै निरगुणिआरे = मुझ गुण हीन में। को गुणु = कोई गुण। आपे = स्वयं ही। मिहरामति = मेहर, दया। मिलै = मिलता है। तां = तब। जीवां = मैं जी उठता हूं, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। थीवै = हो जाता है। हरिआ = (आत्मिक जीवन से) हरा भरा।1।

अर्थ: हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मैं तेरे किए हुए उपकारों की कद्र नहीं समझ सकता, (उपकार की दाति संभालने के लिए) तूने (खुद ही) मुझे योग्य बर्तन बनाया है। मुझ गुण-हीन में कोई गुण नहीं है। तुझे स्वयं ही मुझ पर तरस आ गया। हे प्रभू! तेरे मन में मेरे लिए दया पैदा हुई, मेरे पर तेरी मेहर हुई, तब मुझे मित्र गुरू मिला (तेरा यह उपकार भुलाया नहीं जा सकता)। (अब प्यारे गुरू से) जब मुझे (तेरा) नाम मिलता है, तो मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है, मेरा तन मेरा मन (उस आत्मिक जीवन की बरकति से) खिल उठता है।1।


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राग माला ॥ राग एक संगि पंच बरंगन ॥ संगि अलापहि आठउ नंदन ॥ {पन्ना 1429}

पद्अर्थ: संगि = साथ। बरंगन = (वरांगना) सि्त्रयां, रागनियां। अलापहि = (गायक लोग) अलापते हैं, गाते हैं (बहुवचन)। नंदन = पुत्र। आठउ = आठ आठ ही।

प्रथम राग भैरउ वै करही ॥ पंच रागनी संगि उचरही ॥ {पन्ना 1429-1430}

पद्अर्थ: वै = वे (गायक लोग)। करही = करते हैं। उचरही = उचारते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh