श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिख (गुरमति) सिद्धांत ++, The salient principals of Sikhism and more

प्रथम भैरवी बिलावली ॥ पुंनिआकी गावहि बंगली ॥ पुनि असलेखी की भई बारी ॥ ए भैरउ की पाचउ नारी ॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। पुनि = फिर।

(नोट: संस्कृत शब्द 'पुनह' 'पुनः' है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बाणी में जहाँ कहीं भी संस्कृत शब्द 'पुनह' का पुराना पंजाबी रूप आया है वह 'फुनि' है, 'पुनि' कहीं भी नहीं। साहित्यक दृष्टिकोण से ये एक अनोखी बात है। किसी भी गुरू = व्यक्ति ने अपनी बाणी में ये शब्द नहीं बरता)।

फिर देखें शीर्षक। शब्द 'राग माला' के साथ 'महला १', 'महला २', 'महला ३', 'महला ४', 'महला ५', आदिक कोई भी शब्द नहीं, जिससे पाठक ये निर्णय कर सके कि ये किस गुरू-व्यक्ति की लिखी हुई रचना है।

सारे ही श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहीं भी कोई शबद सलोक आदि दर्ज नहीं है, जिसके लिखने वाले गुरू-व्यक्ति का निर्णय करना सिखों पर छोड़ दिया गया हो।

यहाँ ये अनोखी बात क्यों?

भैरव राग की पाँच रागनियाँ: भैरवी, बिलावली, पुंनिआ, बंगली और असलेखी।

पंचम हरख दिसाख सुनावहि ॥ बंगालम मधु माधव गावहि ॥१॥ ललत बिलावल गावही अपुनी अपुनी भांति ॥ असट पुत्र भैरव के गावहि गाइन पात्र ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: सुनावहि = सुनाते हैं। गावहि = गाते हैं। गावही = गाते। भांति = ढंग, किस्म, तरीका। असट = आठ। गाइन पात्र = गवईऐ।

भैरव राग के आठ पुत्र:पंचम, हरख, दिसाख, बंगालम, मधु, माधव, ललत, बिलावल।

(नोट: श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के शबदों, अष्टपदियों, छंदों को ध्यान से देखो। जब कहीं कोई 'बंद' खत्म होता है, तब उसके आखिर में एक अंक दिया होता है। उस 'बंद' का 'भाव' अपने आप में मुकम्मल होता है। पर रागमाला की काव्य-संरचना में एक अनोखी बात देखी जा रही है। 'चोपई' की आठ तुकों के आखिर में 'अंक १' दिया हुआ है। पर, आखिरी दो तुकों में भैरउ राग के सारे पुत्रों के नाम नहीं आ सके। ललित और बिलावल दो नाम अगली 'दोहरे' की तुक में हैं। उस दोहरे के आखिर में भी 'अंक १' है।)

दुतीआ मालकउसक आलापहि ॥ संगि रागनी पाचउ थापहि ॥ गोंडकरी अरु देवगंधारी ॥ गंधारी सीहुती उचारी ॥ धनासरी ए पाचउ गाई ॥ माल राग कउसक संगि लाई ॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: आलापहि = अलापते हैं। पाचउ = पाँच ही। थापहि = स्थापित करते हैं। ऐ पाचउ = ये पाँचों ही। माल राग कउसक = राग मालकौंस। संगि = साथ। लाई = लगा के।

राग मालकौंस की पाँच रागनियाँ: गौंडकरी, देवगंधारी, गंधारी, सीहुती, धनासरी।

मारू मसतअंग मेवारा ॥ प्रबलचंड कउसक उभारा ॥ खउखट अउ भउरानद गाए ॥ असट मालकउसक संगि लाए ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: अउ = और। असट = आठ (पुत्र)। संगि = साथ। मालकउसक (मालकौंस) के आठ पुत्र = मारू, मस्त अंग, मेवारा, प्रबल चंड, कउसक, उभारा, खउखट, भउरानद।

पुनि आइअउ हिंडोलु पंच नारि संगि असट सुत ॥ उठहि तान कलोल गाइन तार मिलावही ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: पुनि = फिर। नारि = सि्त्रयां, रागनियां। सुत = पुत्र। उठहि = उठते हैं। गाइनि = गाते हैं। मिलावही = मिलाते हैं।

(नोट: हर जगह 'अंक १' का प्रयोग कोई निर्णय नहीं दे रहा)।

तेलंगी देवकरी आई ॥ बसंती संदूर सुहाई ॥ सरस अहीरी लै भारजा ॥ संगि लाई पांचउ आरजा ॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: सुहाई = शोभनीक। भारजा = स्त्री, रागिनी। आरजा = स्त्री, रागिनी।

हिंडोल की रागनियाँ: तेलंगी, देवकरी, बसंती, संदूर, सहस अहीरी।

सुरमानंद भासकर आए ॥ चंद्रबि्मब मंगलन सुहाए ॥ सरसबान अउ आहि बिनोदा ॥ गावहि सरस बसंत कमोदा ॥ असट पुत्र मै कहे सवारी ॥ पुनि आई दीपक की बारी ॥१॥ {पन्ना 1430}

हिंडोल के पुत्र: सुरमानंद, भास्कर, चंद्र बिम्ब, मंगलन, सरस बान, बिनोदा, बसंत, कमोदा।

(नोट: आखिरी तुक बताती है कि अगले 'बंद' से राग 'दीपक' की वर्णन चलेगा।)

कछेली पटमंजरी टोडी कही अलापि ॥ कामोदी अउ गूजरी संगि दीपक के थापि ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: अलापि = अलाप के। अउ = और। थापि = स्थापित कर के।

दीपक राग की रागनियाँ: कछेली, पटमंजरी, टोडी, कामोदी, गूजरी।

(नोट: यहाँ 'चौपाई' और 'दोहरा' समेत तीसरा 'बंद' मुकम्मल खत्म हो गया है। अब तक भैरव, मालकौंस, हिंडोल- इन तीन रागों का वर्णन पूरा हो चुका है। दीपक राग की पाँच रागनियां भी दी जा चुकी हैं।)

कालंका कुंतल अउ रामा ॥ कमलकुसम च्मपक के नामा ॥ गउरा अउ कानरा कल्याना ॥ असट पुत्र दीपक के जाना ॥१॥ {पन्ना 1430}

राग दीपक के आठ पुत्र: कालंका, कुंतल, रामा, कमल कुसम, चंपक, गउरा, कानड़ा, कलाना।

(नोट: दीपक राग के आठ पुत्र चोपई की इन चार तुकों में दे के आगे 'अंक १' लिखा गया है। इससे आगे पाँचवां राग 'सिरी राग' शुरू किया गया है। यह भी चोपई के साथ ही शुरू होता है)।

सभ मिलि सिरीराग वै गावहि ॥ पांचउ संगि बरंगन लावहि ॥ बैरारी करनाटी धरी ॥ गवरी गावहि आसावरी ॥ तिह पाछै सिंधवी अलापी ॥ सिरीराग सिउ पांचउ थापी ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। वै = वे (विद्वान) लोग। गावहि = गाते हैं। बरंगन = वरांगना, सि्त्रयां, रागनियाँ। लावहि = लगाते हैं, प्रयोग करते हैं।

सिरी राग की पाँच रागनियाँ: बैरारी, करनाटी, गवरी, आसावरी, सिंधवी।

सालू सारग सागरा अउर गोंड ग्मभीर ॥ असट पुत्र स्रीराग के गुंड कु्मभ हमीर ॥१॥ {पन्ना 1430}

श्री राग के आठ पुत्र: सालू, सारग, सागरा, गौंड, गंभीर, गुंड, कुंभ, हमीर।

खसटम मेघ राग वै गावहि ॥ पांचउ संगि बरंगन लावहि ॥ सोरठि गोंड मलारी धुनी ॥ पुनि गावहि आसा गुन गुनी ॥ ऊचै सुरि सूहउ पुनि कीनी ॥ मेघ राग सिउ पांचउ चीनी ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: खसटम = छेवां। वै = वे (विद्वान) लोग। गावहि = गाते हैं। बरंगन = वरांगना, सि्त्रयां, रागनियां। पुनि = फिर। ऊचै सुरि = ऊँची सुर से। सिउ = साथ, समेत। चीनी = पहचान ली।

मेघ राग की रागनियाँ: सोरठ, गोंड, मलारी, आसा, सूहउ।

(नोट: सिरी राग के आठ पुत्रों में भी 'गोंड' का वर्णन आ चुका है)।

बैराधर गजधर केदारा ॥ जबलीधर नट अउ जलधारा ॥ पुनि गावहि संकर अउ सिआमा ॥ मेघ राग पुत्रन के नामा ॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: अउ = और।

मेघ राग के आठ पुत्रों के नाम: बैराधर, गजधर, केदारा, जबलीधर, नट, जलधारा, संकर, सिआमा।

(नोट: जहाँ-जहाँ भी कोई 'बंद' खत्म हुआ है, हर जगह 'अंक १' बरता गया है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बाणी में अंकों की कहीं भी ये प्रथा नहीं है। हर जगह 'अंक १' का लिखा जाना अंकों के बारे में पाठकों की कोई सहायता नहीं करता)।

खसट राग उनि गाए संगि रागनी तीस ॥ सभै पुत्र रागंन के अठारह दस बीस ॥१॥१॥ {पन्ना 1430}

पद्अर्थ: खसट = छे। उनि = उन्होंने। अठारह दस बीस = 18+10+20: 48।

नोट: छे राग- भैरव, मालकौंस, हिण्डोल, दीपक, सिरी राग, मेघ। हरेक राग की पाँच रागनियां।

कुल रागनियाँ - 30

हरेक राग के आठ पुत्र।

छे रागों के कुल पुत्र- 48

सारा जोड़- 6+30+48: 84

(नोट: ये बात समझ में नहीं आती कि आखिरी अंक '१॥१॥ का क्या भाव है)।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी में निम्नलिखित 31 राग हैं;

सिरी राग, माझ, गाउड़ी, आसा, गूजरी, देवगंधारी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, धनासरी, जैतसरी, टोडी, बैराड़ी, तिलंग, सूही, बिलावल, गौंड, रामकली नट, माली गउड़ा, मारू, तुखारी, केदारा, भैरव, सारंग मलार, कानड़ा, कलिआन, प्रभाती, जैजावंती।

इन 31 के अलावा निम्नलिखित 6 दूसरे रागों के साथ मिला के गाने की भी हिदायत है;

ललित, आसावरी, हिंडोल, भोपाली, बिभास, काफ़ी।

नोट: 'आसावरी' रा्रग 'आसा' में ही दर्ज है।

नोट: इस तरह सारे श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की वाणी में कुल 37 राग आ गए।

नोट: पाठकों के लिए ये बात हैरानी-जनक होगी कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में बरते कुछ राग इस 'राग माला' में नहीं हैं। और बहुत सारे रागों का वर्णन है जो श्री गुरू ग्रंथ साहिब में नहीं हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh