श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन कुरबाणा ॥२॥

पद्अर्थ: घट = शरीर। अंतरि = में, अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सरब = सारे। निरंतरि = अंदर एक रस। सरब निरंतरि = सभी में एक रस। अंतरु = दूरी। निरंतरि = दूरी के बिना, एकरस। एको = एक (स्वयं) ही। इकि = कई जीव। दाते = दानी। भेखारी = भिखारी। सभि = सारे। विडाण = आश्चर्य। चोज = कौतक, तमाशे,चमत्कार। भुगता = भोगनेवाला, उपभोगकरने वाला, उपयोग कर्ता। हउ = मैं। आखि = कह के। वखाणा = मैं बयान करूँ। सेवहि = स्मरण करते हैं।2।

नोट: ‘इकि’ शब्द ‘इक’ का बहुवचन है।

नोट: ‘जनु नानकु’ के बारे में। पिछले छंद में ‘जन नानक’ और इस ‘जनु नानकु’ में फर्क को ध्यान से देखें।

अर्थ: हे हरि! तू हरेक शरीर में व्यापक है, तू सारे जीवों में एक रस मौजूद है, तू एक खुद ही सभ में समाया हुआ है (फिर भी) कई जीव दानी हैं, कई जीव भिखारी हैं; ये सारे तेरे ही आश्चर्यजनक तमाशे हैं (क्योंकि असल में) तू स्वयं ही दातें देने वाला है, तथा, स्वयं ही (उन दातों का) उपयोग करने वाला है। (सारी सृष्टि में) मैं तेरे बिना किसी और को नहीं पहचानता (तेरे बिना और कोई नहीं दिखता)।

मैं तेरे कौन कौन से गुण गा के बताऊँ?

तू बेअंत पारब्रह्म है। हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे याद करते हैं, तुझे स्मरण करते हैं (तेरा) दास नानक उनसे सदके जाता है।2।

हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुखवासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन हरि धिआइआ जी तिन तूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन सेविआ जिन सेविआ मेरा हरि जी ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जी जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥

पद्अर्थ: हरि जी = हे प्रभु जी! धिआवहि = स्मरण करते हैं। से जन = वे लोग। जुगि महि = जिंदगी में। सुखवासी = सुख से बसने वाले। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। फासी = फांसी। भउ सभु = सारा डर। गवासी = दूर कर देता है। रूपि = रूप में। समासी = मिल जाते हैं। धंनु = सौभाग्य वाले। बलि जासी = सदके जाता है।3।

अर्थ: हे प्रभु जी! जो लोग तुझे स्मरण करते हैं, तेरा ध्यान धरते हैं, वो लोग अपनी जिंदगी में सुखी बसते हैं।

जो लोगों ने हरि नाम स्मरण किया है, वे हमेशा के लिए माया के बंधनों से आजाद हो गये हैं, उनकी यमों वाली फांसी टूट गई है (भाव, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती)। जो लोगों ने सदा निरभउ प्रभु का नाम स्मरण किया है; प्रभु उनका सारा डर दूर कर देता है।

जो मनुष्यों ने प्यारे प्रभु को हमेशा स्मरण किया है, वो प्रभु के रूप में ही लीन हो गये हैं। सौभाग्यशाली हैं वे मनुष्य, धन्य हैं वह लोग, जिन्होंने प्रभु का नाम स्मरण किया है। दास नानक उनके सदके जाता है।3।

तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बिअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥

पद्अर्थ: भगति भंडार = भक्ति के खजाने। भगत = भक्ति करने वाले।

नोट: शब्द ‘भक्ति’ और ‘भक्त’ के फर्क को ध्यान में रखना है।

अनिक = अनेक। तपु = धूणियां आदि का शारीरिक कष्ट। सिम्रिति = स्मृतियां, वह धार्मिक पुस्तकें हैं जो हिन्दू विद्वान ऋषियों ने वेदों के याद करके अपने समाज की अगवाई के लिए लिखे। इनकी गिनती 27 के करीब है। सासत = शास्त्र, हिन्दू धर्म के दर्शनशास्त्र (फिलासफी) की पुस्तकें जो गिनती में 6 हैं: सांख, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा व वेदांत। किरिआ = क्रिया, धार्मिक संस्कार। खटु = छह। खटु करम = मनुस्मृति अनुसार ये छह कर्म यूँ हैं: विद्या पढ़नी व पढ़ानी, यज्ञ करना व यज्ञ करवाना, दान देना व दान लेना। करंता = करते हैं। भावहि = अच्छे लगते हैं।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं। हे हरि! अनेक और बेअंतों तेरे भक्त तेरी महिमा कर रहे हैं। हे प्रभु! अनेक जीव तेरी पूजा करते हैं। बेअंत जीव (तुझे मिलने के लिए) तप साधना करते हैं। तेरे अनेक (सेवक) कई समृतियां व शास्त्र पढ़ते हैं (और उनके बताए हुए) छह धार्मिक कर्म व और कर्म करते हैं।

हे दास नानक! वही भक्त भले हैं (उनके ही प्रयत्न स्वीकार हुए मानों) जो प्यारे हरि-भगवंत को प्यारे लगते है।4।

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥१॥

पद्अर्थ: आदि = शुरू से। अपरंपर = अ+परं+पर, जिसका परले का परला छोर ना ढूँढा जा सके, बेअंत। तुधु जेवडु = तेरे जितना, तेरे बराबर का। अवरु = और। जुगु जुगु = हरेक युग में। एको = एक स्वयं ही। निहचल = ना हिलने योग्य, अटल। वरतै = होता है। सु = वह। सभ = सारी। उपाई = पैदा की। सिरजि = पैदा करके। आपे = स्वयं ही। गोई = नाश की। जाणोई = जानने वाला। सभसै का = हर एक (दिल का)। सोई = संभाल करने वाला।

अर्थ: हे प्रभु! तू (सारे जगत का) मूल है। सभ में व्यापक है, बेअंत है, सबको पैदा करने वाला है और तेरे बराबर का और कोई नहीं है। तू हरेक युग में एक स्वयं तू ही है, तू सदैव ही स्वयं ही स्वयं है, तू सदैव कायम रहने वाला है, सबको पैदा करने वाला है, सबकी सार लेने वाला है।

हे प्रभु! जगत में वही होता है जो तुझे स्वयं को अच्छा लगता है। वही होता है जो तू स्वयं करता है। हे प्रभु! सारी सृष्टि स्वयं तूने पैदा की है। तू खुद ही इसको पैदा करके, खुद ही इसका नाश करता है। दास नानक उस कर्तार के गुण गाता है जो हरेक जीव के दिल की जानने वाला है।5।1।

नोट: इस शब्द के पाँच बंद (Stanzas) हैं। हरेक बंद में पाँच तुके हैं। आखिरी बंद की समाप्ति पर अंक ‘5’ के साथ एक और अंक ‘1’ दिया गया है। इसका अर्थ है कि शीर्षक ‘सो पुरखु’ एक नया संग्रहि है जिसका यह पहला शब्द है।

आसा महला ४ ॥ तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ॥

नोट: इस शब्द के 4 बंद हैं। अंक 4 से अगला 2 अंक बताता है कि शीर्षक ‘सो पुरखु’ की कड़ी में ये दूसरा शब्द है।

पद्अर्थ: सचिआरु = (सच+आलय) स्थ्रिता का घर, सदा कायम रहने वाला। मैडा = मेरा। सांई = खसम, मालिक। तउ = तुझे। भावै = अच्छा लगता है। थीसी = होगा। हउ = मैं। पाई = पाऊँ, प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सबको पैदा करने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू ही मेरा खसम है। (जगत में) वही कुछ होता है जो तुझे पसंद आता है। जो कुछ तू दे, मुझे वही कुछ प्राप्त हो सकता है।1। रहाउ।

सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि। तूं = तुझे।

(गउड़ी छंत म: 5 पंना 248: ‘मोहन, तूं मानहि एकु जी, अवर सभ राली’; यहां भी शब्द ‘तूं’ का अर्थ ‘तैनूं’ या तुझे है। भाव, हे मोहन प्रभु! तुझ एक को ही लोग नाश रहित मानते हैं, और सारी सृष्टि नाशवान है)। इसी तरह सिरी राग महला 5, पंना 51, शब्द नं: 95: ‘जिनि तूं साजि सवारिआ’; तूं = तुझे। पंना 52: ‘जिन तूं सेविआ भाउ करि’; तूं = तुझे। पंना 61: ‘गुरमति तूं सलाहणा, होरु कीमत कहणु न जाइ’; तूं = तुझे। पंना 100: ‘जिन तूं जाता, जो तुधु मनि भाणे’; तूं = तुझे। पंना 102: ‘तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ’ तूं = तुझे। पंना 130: ‘तुधु बिनु अवरु न कोई जाचा, गुर परसादी तूं पावणिआ’; तूं = तुझे। पंना 142: ‘भी तूं है सलाहणा, आखण लहै न चाउ’ में भी तूं = तुझे। और भी बहुत सारे ऐसे प्रमाण हैं)।

तिनि = उस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरु की ओर है। मनमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह अपने मन की ओर है।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) सारी सृष्टि तेरी (ही बनाई हुई) है, सारे जीव तुझे ही स्मरण करते हैं। जिस पर तू दया करता है उसने तेरा रतन जैसा (कीमती) नाम ढूँढ लिया है। जो अपने मन के पीछे चला, उसने गवा लिया। (पर, किसी जीव के क्या बस? हे प्रभु!) जीव को तू स्वयं ही (अपने आप से) विछोड़ता है, और स्वयं ही खुद से मिला लेता है।1।

तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥

पद्अर्थ: माहि = में। सभि = सारे। विजोगि = वियोग के कारण (भाव, जिसके माथे पर वियोग के लेख हैं)। मिलि = मिल के, मानव शरीर प्राप्त करके। संजोगी = संयोग (के लेख) से। मेलु = मिलाप।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू (जिंदगी का, मानो, एक) दरिया है, सारे जीव तेरे में ही (मानों, लहरें) हैं। तेरे बिना (तुझ जैसा) और कोई नहीं है। ये सारे जीअ-जंतु तेरी (रची हुई) खेल हैं। जिनके माथे पर विछोड़े का लेख है, वह मानव जन्म प्राप्त करके भी तुझसे विछुड़े हुए हैं। (पर, तेरी रज़ा अनुसार) संजोगों केलेख से (फिर तेरे साथ) मिलाप हो जाता है।2।

जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: जाणाइहि = (तू) समझ बख्शता है। सोई = वही। सद = सदा। आखि = कह के। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू खुद सूझ बख्शता है, वह मनुष्य (जीवन का सही रास्ता) समझता है। वह मनुष्य, हे हरि! सदा तेरे गुण गाता है, और (और लोगों को) उचार उचारके सुनाता है।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने प्रमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसने सुख हासिल किया है। वह मनुष्य सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहके प्रभु के नाम में लीन हो जाता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh