श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ऐसा नामु निरंजन देउ ॥ हउ जाचिकु तू अलख अभेउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसा = ऐसा, इस प्रकार का (भाव, माया के प्रभाव से निर्लिप रखने वाला)। निरंजन = हे निर्लिप प्रभु! देउ = प्रकाश रूप। हउ = मैं। जाचिकु = भिखारी। अलख = जिसका कोई चक्र चिन्ह ना मिल सके। अभेउ = जिसका कोई भेद ना पाया जा सके।1। रहाउ।

अर्थ: हे माया के प्रभाव-रहित प्रकाश-रूप प्रभु! तेरा नाम भी एैसा ही है (जैसा तू खुद है। भाव, तेरा नाम भी माया के मोह से बचाता है)। हे प्रभु! तेरा कोई खास चिन्ह-चक्र नहीं मिल सकता, तेरा भेद नहीं पाया जा सकता। मैं (तेरे दर पर) भिखारी हूँ (और तुझसे तेरे नाम की दाति माँगता हूँ)।1। रहाउ।

माइआ मोहु धरकटी नारि ॥ भूंडी कामणि कामणिआरि ॥ राजु रूपु झूठा दिन चारि ॥ नामु मिलै चानणु अंधिआरि ॥२॥

पद्अर्थ: धरकटी नारि = व्यभचारिन स्त्री। भूंडी = बुरी। कामणि = स्त्री। कामइआरि = टूणे करने वाली। झूठा = नाशवान। दिन चारि = थोड़े दिन रहने वाला। अंधिआरि = (माया के मोह के) अंधकार में।2।

अर्थ: (नाम जपने वाले को ये समझ आ जाती है कि) माया का मोह एक व्यभिचारिन स्त्री के तुल्य है, माया एक टूणे करने वाली बुरी स्त्री के समान है, दुनियाँ की हकूमतें और सुंदरता नाशवान हैं, थोड़े ही दिन रहने वाले हैं (पर इनके असर तले मनुष्य जहालत के अंधकार में जीवन में ठोकरें खाता फिरता है)। जिस मनुष्य को प्रभु का नाम मिल जाता है, उसको (माया के मोह के) अंधेरे में रोशनी मिल जाती है।2।

चखि छोडी सहसा नही कोइ ॥ बापु दिसै वेजाति न होइ ॥ एके कउ नाही भउ कोइ ॥ करता करे करावै सोइ ॥३॥

पद्अर्थ: चखि छोडी = परख देखी है।

(नोट: शब्द ‘छोडी’ कर भाव समझने के लिए ‘राग आसा पटी महला १’ में आया शब्द ‘छोडी’)।

सहसा = शक। बापु = पिता। दिसै = हरेक का पता हो, प्रत्यक्ष नजर आता हो। वेजाति = हरामी। एके कउ = एक प्रभु पिता वाले को।3।

अर्थ: (ये बात अच्छी तरह) परख के देख ली है, जिसमें कोई शक नहीं कि जिसका पिता प्रत्यक्ष दिखता हो वह बुरे असल वाला नहीं कहलवाता (कि वह पिता के अलावा किसी और की औलाद है) (जो मनुष्य अपने सिर पर पिता-प्रभु को रखवाला मानता है वह विकारों की ओर नहीं पलटता)। एक प्रभु-पिता वाले को (किसी और से) कोई डर नहीं रहता (क्योंकि उसको यकीन बना रहता है कि) वह परमात्मा ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है।3।

सबदि मुए मनु मन ते मारिआ ॥ ठाकि रहे मनु साचै धारिआ ॥ अवरु न सूझै गुर कउ वारिआ ॥ नानक नामि रते निसतारिआ ॥४॥३॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से, परमात्मा की महिमा की वाणी मैं (जुड़ के)। मुए = जो मनुष्य स्वैभाव की ओर से मरे हैं। मन ते = मन से, मानसिक फुरनों से, मायावी विचारों से। ठाकि रहे = रुके रहते हैं। साचै = सच्चे प्रभु ने। धारिआ = आसरा दिया है। वारिआ = कुर्बान होते हैं। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए।4।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के स्वैभाव को खत्म कर देते हैं अपने मन को मायावी फुरनों से रोक लेते हैं, वे विकारों की ओर से रुके रहते हैं क्योंकि सच्चा कर्तार उनके मन को (अपने नाम का) आसरा देता है। मैं गुरु से सदके हूँ, उसके बिना कोई और ऐसा नहीं (जो मन को प्रभु में जोड़ने में सहायक हो)।

हे नानक! प्रभु-नाम में रंगे हुए लोगों को प्रभु (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।3।

बिलावलु महला १ ॥ गुर बचनी मनु सहज धिआने ॥ हरि कै रंगि रता मनु माने ॥ मनमुख भरमि भुले बउराने ॥ हरि बिनु किउ रहीऐ गुर सबदि पछाने ॥१॥

पद्अर्थ: गुर बचनी = गुरु के वचन से, गुरु के वचनों पर चलने से। सहज धिआने = सहज ध्यान, अडोलता की समाधि में। रंगि = रंग में, प्यार में। माने = मान जाता है, परच जाता है। मनमुख = अपने मन की ओर मुँह रखने वाले, अपने मन के पीछे चलने वाले। भरमि = भटकना में। बउराने = कमले, झल्ले। किउ रहीऐ = नहीं रह सकते। गुर सबदि = गुरु के शब्द के द्वारा। पछाने = पहचान, सांझ, मेल जोल।1।

अर्थ: गुरु के वचन पर चल कर जिनका मन अडोलता की समाधि लगा लेता है (भाव, विकारों की ओर डोलने से हट जाता है) परमात्मा के प्रेम में रंगा हुआ वह मन (परमात्मा की याद में ही) परचा रहता है। (पर) अपने मन के पीछे चलने वाले बँदे बावले हुए भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। गुरु के शब्द के द्वारा जिस की सांझ (प्रभु से) बन जाती है वह प्रभु (की याद) के बिना नहीं रह सकते।1।

बिनु दरसन कैसे जीवउ मेरी माई ॥ हरि बिनु जीअरा रहि न सकै खिनु सतिगुरि बूझ बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कैसे जीवउ = कैसे जीऊँ, मैं जी नहीं सकता। माई = हे माँ! जीअरा = निमाणी जिंद। खिनु = थोड़ा सा समय भी। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझ = अकल, समझ। बुझाई = समझ दी है।1। रहाउ।

अर्थ: (जब से) सतिगुरु ने (मुझे) सद्बुद्धि दी है (तब से) मेरी जिंद प्रभु (की याद) के बिना नहीं रह सकती। हे मेरी माँ! अब मैं प्रभु के दर्शनों के बिना व्याकुल हो जाती हूँ।1। रहाउ।

मेरा प्रभु बिसरै हउ मरउ दुखाली ॥ सासि गिरासि जपउ अपुने हरि भाली ॥ सद बैरागनि हरि नामु निहाली ॥ अब जाने गुरमुखि हरि नाली ॥२॥

पद्अर्थ: हउ मरउ = मैं मरती हूँ, मेरी जिंद व्याकुल हो जाती है। दुखाली = दुखी। सासि = एक साँस से। गिरासि = एक ग्रास से। सासि गिरासि = एक-एक सांस से और ग्रास से, हर वक्त। भाली = मैं तलाशती हूँ। बैरागनि = दुनिया के रसों से उदास। निहाली = मैं देखती हूँ, नजर रखती हूँ। अब = अब। जाने = जाना है, समझ आई है। गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करने से, गुरु के द्वारा। नाली = साथ, अंग संग।2।

अर्थ: गुरु की शरण पड़ कर मुझे अब समझ आई है कि परमात्मा (हर वक्त) मेरे अंग-संग है, (अब जब कभी) मुझे मेरा प्रभु बिसर जाए तो मैं दुखी हो के मरने वाली हो जाती हूँ। मैं एक-एक सांस से और ग्रास से (भी) अपने प्रभु को याद करती हूँ और उसी को तलाशती रहती हूँ। दुनिया के रसों से उदास हो के मैं प्रभु के नाम को ही (अपनी निगाह में) रखती हूँ।2।

अकथ कथा कहीऐ गुर भाइ ॥ प्रभु अगम अगोचरु देइ दिखाइ ॥ बिनु गुर करणी किआ कार कमाइ ॥ हउमै मेटि चलै गुर सबदि समाइ ॥३॥

पद्अर्थ: अकथु = वह प्रभु जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। अकथ कथा = बेअंत गुणों वाले प्रभु की महिमा की बातें। कहीऐ = कही जा सकती है। भाउ = प्रेम। भाइ = प्रेम के द्वारा। गुर भाइ = गुरु के प्रेम में जुड़ने से। देइ दिखाइ = दिखा देता है। गुर करणी = गुरु की बताई हुई जीवन जुगति। किआ कार = और कोई कार नहीं। मेटि = मिटा के। समाइ = लीन हो के।3।

अर्थ: बेअंत प्रभु की महिमा गुरु के अनुसार रहने पर ही की जा सकती है। गुरु उस प्रभु का दीदार करा देता है जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है। गुरु की बताई हुई जीवन-जुगति के बिना (आत्मिक जीवन के रास्ते की) कोई और कार करनी व्यर्थ है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है, वह अपना अहंकार दूर करके (जीवन-राह पर) चलता है।3।

मनमुखु विछुड़ै खोटी रासि ॥ गुरमुखि नामि मिलै साबासि ॥ हरि किरपा धारी दासनि दास ॥ जन नानक हरि नाम धनु रासि ॥४॥४॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। रासि = राशि, पूंजी। साबासि = शोभा। दासनि दास = दासों का दास, संत जनों का सेवक।4।

अर्थ: जो मनुष्य (गुरु के बताए राह पर चलने की जगह) अपने मन के पीछे चलता है, वह प्रभु से विछुड़ा रहता है, उसके पल्ले (आत्मिक जीवन-यात्रा के लिए) खोटी पूंजी है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह प्रभु के नाम में जुड़ा रहता है, उसको शोभा मिलती है।

हे दास नानक! प्रभु मेहर करके जिसको अपने सेवकों का दास बनाता है, उसे प्रभु का नाम-धन मिलता है, उसको हरि-नाम की पूंजी मिलती है।4।4।

बिलावलु महला ३ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

ध्रिगु ध्रिगु खाइआ ध्रिगु ध्रिगु सोइआ ध्रिगु ध्रिगु कापड़ु अंगि चड़ाइआ ॥ ध्रिगु सरीरु कुट्मब सहित सिउ जितु हुणि खसमु न पाइआ ॥ पउड़ी छुड़की फिरि हाथि न आवै अहिला जनमु गवाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: ध्रिगु = (धिक् = fie! Shame!) लाहनत, फिटकार। कापड़ु = कपड़ा। अंगि = शरीर पर। कुटंब = परिवार। सहित = समेत। सिउ = साथ, समेत। जितु = जिस (शरीर) के द्वारा। हुणि = इस जनम में। हाथि = हाथ में। अहिला = बहुत कीमती।1।

अर्थ: हे भाई! अगर इस शरीर के द्वारा इस जनम में पति-प्रभु का मिलाप हासिल नहीं किया, तो यह शरीर धिक्कार-योग्य है, (नाक-कान-आँखों आदि सारे) परिवार समेत धिक्कार-योग्य है। (मनुष्य का सब कुछ) खाना धिक्कार-योग्य है, सोना (सुख-आराम) धिक्कार-योग्य है, शरीर पर कपड़ा पहनना धिक्कार-योग्य है। (हे भाई! यह मनुष्य का शरीर प्रभु के देश में पहुँचने के लिए सीढ़ी है) अगर यह सीढ़ी (हाथ से) निकल जाए तो दोबारा हाथ में नहीं आती। मनुष्य अपना बहुत ही कीमती जीवन गवा लेता है।1।

दूजा भाउ न देई लिव लागणि जिनि हरि के चरण विसारे ॥ जगजीवन दाता जन सेवक तेरे तिन के तै दूख निवारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। दूजा भाउ = प्रभु के बिना और का प्यार, माया का मोह। न देई लागणि = लगने नहीं देता। जिनि = जिस (दूसरे भाव) ने। जग जीवन = जगत की जिंद। तै = तू (शब्द ‘तू’ और ‘तै’ में फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। निवारै = दूर कर दिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! माया का मोह, जिसने (जीवों को) परमात्मा के चरण (मन में बसाने) भुला दिए हैं, (परमात्मा के चरणों में) तवज्जो जोड़ने नहीं देता। हे प्रभू्! तू खुद ही जगत को आत्मिक जीवन देने वाला है। जो बँदे तेरे सेवक बनते हैं, उनके तूने (मोह से पैदा होने वाले सारे) दुख दूर कर दिए हैं।1। रहाउ।

तू दइआलु दइआपति दाता किआ एहि जंत विचारे ॥ मुकत बंध सभि तुझ ते होए ऐसा आखि वखाणे ॥ गुरमुखि होवै सो मुकतु कहीऐ मनमुख बंध विचारे ॥२॥

पद्अर्थ: दइआ पति = दया का मालिक। एहि = यह, वे। मुकत = माया के मोह से आजाद। बंध = मोह में बँधे हुए। सभि = सारे। वखाणे = बयान करता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। मनमुख = मन के पीछे चलने वाले।2।

नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! तू (खुद ही) दया का घर है, दया का मालिक है, तू स्वयं ही (अपने चरणों की प्रीत) देने वाला है (तेरे पैदा किए हुए) इन जीवों के वश में कुछ नहीं। तेरे ही हुक्म में ही कई जीव माया के मोह से आजाद हो जाते हैं, कई जीव मोह में बँधे रहते हैं; कोई विरला गुरमुख ही ये बात कह के समझाता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह माया के मोह से आजाद कहा जाता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले बिचारे मोह में बँधे रहते हैं।2।

सो जनु मुकतु जिसु एक लिव लागी सदा रहै हरि नाले ॥ तिन की गहण गति कही न जाई सचै आपि सवारे ॥ भरमि भुलाणे सि मनमुख कहीअहि ना उरवारि न पारे ॥३॥

पद्अर्थ: जनु = मनुष्य। लिव = तवज्जो, ध्यान। नाले = नाल। गहण = गहरी। गति = आत्मिक अवस्था। सचै = सदा कायम रहने वाले ने। भरमि = भटकना में। भुलाणे = भूले हुए, गलत रास्ते पर पड़े हुए। कहीअहि = कहे जाते हैं। (कहीऐ = कहा जाता है)। उरवारि = (संसार समुंदर के) उरले पासे।3।

अर्थ: जिस मनुष्य की तवज्जो एक प्रभु में जुड़ी रहती है वह मनुष्य मोह से आजाद हो जाता है, वह सदा प्रभु-चरणों में जुड़ा रहता है। ऐसे लोगों की गहरी आत्मिक अवस्था को बयान नहीं किया जा सकता। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु ने खुद ही उनका जीवन सुंदर बना दिया होता है। पर, जो लोग माया की भटकना में पड़ कर जीवन-राह से टूटे रहते हैं, वे लोग मनमुख कहे जाते हैं (वे माया के मोह के समुंदर में डूबे रहते हैं) वे ना इस पार के लायक ना ही उस पार लांघने के काबिल।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh