श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिस नो नदरि करे सोई जनु पाए गुर का सबदु सम्हाले ॥ हरि जन माइआ माहि निसतारे ॥ नानक भागु होवै जिसु मसतकि कालहि मारि बिदारे ॥४॥१॥

पद्अर्थ: नदरि = निगाह। समाले = हृदय में बसाता है। निसतारे = पार लंघा लेता है। मसतकि = माथे पर। कालहि = काल को, मौत को, मौत के सहम को, आत्मिक मौत को। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर देता है।4।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश?) जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की निगाह करता है वही मनुष्य (गुरु का शब्द) प्राप्त करता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द को अपने हृदय में संभाल के रखता है। (इसी तरह) प्रभु अपने सेवकों को माया में (रख के भी, मोह के समुंदर से) पार लंघा लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठते हैं, वह (अपने अंदर से) आत्मिक मौत को मार के खत्म कर देता है।4।1।

नोट: महला ३ के इस संग्रह का यह पहला शब्द है। देखें आखिरी अंक 1।

बिलावलु महला ३ ॥ अतुलु किउ तोलिआ जाइ ॥ दूजा होइ त सोझी पाइ ॥ तिस ते दूजा नाही कोइ ॥ तिस दी कीमति किकू होइ ॥१॥

पद्अर्थ: अतुल = जिसके बराबर का और कोई नहीं, अ+तुल्य। किउ तोलिआ जाइ = नहीं तोला जा सकता, उसके बराबर की कोई हस्ती नहीं बताई जा सकती। दूजा = प्रभु के बराबर का कोई और। सोझी = (परमात्मा के हस्ती के माप की) समझ। तिस ते = उस प्रभु से (अलग)। तिस दी = (देखें ‘तिस ते’)। किकू = कैसे?।1।

नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: (जिस मनुष्य के अंदर से भटकना मेर-तेर दूर हो जाती है उसे यकीन आ जाता है कि) परमात्मा की हस्ती को नापा नहीं जा सकता। (उसको निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा से अलग कोई नहीं है, (इस वास्ते) परमात्मा के बराबर की कोई और हस्ती नहीं बताई जा सकती।1।

गुर परसादि वसै मनि आइ ॥ ता को जाणै दुबिधा जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। मनि = मन में। ता = तब। को = कोई मनुष्य। जाणै = जान पहचान बनाता है। दुबिधा = मेर तेर। जाइ = देर हो जाती है।1। रहाउ।

अर्थ: (जब) गुरु की कृपा से (किसी भाग्यशाली मनुष्य के) मन में (परमात्मा) आ बसता है, तब वह मनुष्य (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ डाल लेता है, और (उसके अंदर से) भटकना दूर हो जाती हैं।1। रहाउ।

आपि सराफु कसवटी लाए ॥ आपे परखे आपि चलाए ॥ आपे तोले पूरा होइ ॥ आपे जाणै एको सोइ ॥२॥

पद्अर्थ: सराफु = परखने वाला। कसवटी = वह बट्टा जिस पर सोने को रगड़ लगा के (रगड़ के) देखा जाता है कि ये खरा है कि नहीं। आपे = आप ही। चलाए = प्रचलित करता है, (सिक्के को) चलाता है। एको सोइ = सिर्फ वह (परमात्मा) ही।2।

अर्थ: (जिसके अंदर प्रभु प्रकट हो जाता है, उसे यकीन आ जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही (उच्च जीवन-स्तर की) कसवटी बरत के (जीवों के जीवन) परखने वाला है। प्रभु खुद ही परख करता है, और (स्वीकार करके उस ऊँचे जीवन को) जीवों के सामने लाता है (जैसे खरा सिक्का प्रचलित किया जाता है)। प्रभु आप ही (जीवों के जीवन को) जाँचता-परखता है, (उसकी मेहर से ही कोई जीवन उस परख में) पूरा उतरता है। सिर्फ वह परमात्मा खुद ही (इस खेल को) जानता है।2।

माइआ का रूपु सभु तिस ते होइ ॥ जिस नो मेले सु निरमलु होइ ॥ जिस नो लाए लगै तिसु आइ ॥ सभु सचु दिखाले ता सचि समाइ ॥३॥

पद्अर्थ: तिस ते = उस (परमात्मा) से ही। जिस नो = (देखें ‘तिस ते’, ‘तिस दी’)। निरमल = पवित्र। लाए = (माया) चिपकाता है। आइ = आ के। लगै = चिपक जाती है। सभु = हर जगह। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।

अर्थ: माया का सारा अस्तित्व उस परमात्मा से ही बना है। जिस मनुष्य को प्रभु (अपने साथ) मिलाता है, वह (इस माया से निर्लिप रह के) पवित्र जीवन वाला बन जाता है। जिस मनुष्य को (प्रभु स्वयं अपनी माया) चिपका देता है, उसे ये आ चिपकती है। (जब किसी मनुष्य को गुरु के द्वारा) हर जगह अपना सदा कायम रहने वाला स्वरूप दिखाता है, तब वह मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।3।

आपे लिव धातु है आपे ॥ आपि बुझाए आपे जापे ॥ आपे सतिगुरु सबदु है आपे ॥ नानक आखि सुणाए आपे ॥४॥२॥

नोट: देखें बिलावल महला १ शब्द नं: ३।

पद्अर्थ: धातु = माया। बुझाए = समझ बख्शता है। जापे = जपता है। आखि = उचार के।4।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु) खुद ही (अपने चरणों में) मगनता (देने वाला है), खुद ही माया (चिपकाने वाला) है। प्रभु स्वयं ही (सही जीवन की) सूझ बख्शता है, स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के अपना नाम) जपता है। प्रभु स्वयं ही गुरु है, स्वयं ही (गुरु का) शब्द है। हे नानक! प्रभु खुद ही (गुरु का शब्द) उचार के (और लोगों को) सुनाता है (यह है श्रद्धा उस भाग्यशाली की जिसके मन में वह प्रभु गुरु की कृपा से आ बसता है)।4।2।

बिलावलु महला ३ ॥ साहिब ते सेवकु सेव साहिब ते किआ को कहै बहाना ॥ ऐसा इकु तेरा खेलु बनिआ है सभ महि एकु समाना ॥१॥

पद्अर्थ: ते = से। साहिब ते = मालिक प्रभु से, मालिक प्रभु की कृपा से। सेव = (मालिक प्रभु की) सेवा भक्ति। बहाना = गलत दलील। ऐसा = ऐसा, आश्चर्य। खेलु = जगत तमाशा। समाना = व्यापक।1।

अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभु की मेहर से ही (कोई मनुष्य उसका) भक्त बनता है, मालिक प्रभु की कृपा से ही (मनुष्य को उसकी) सेवा भक्ति प्राप्त होती है। (ये सेवा-भक्ति किसी को भी अपने उद्यम से नहीं मिलती) कोई भी मनुष्य ऐसा कोई बहाना नहीं दे सकता।

हे प्रभु! एक तेरा ही आश्चर्यजनक तमाशा बना हुआ है (कि तेरी भक्ति तेरी मेहर से ही मिलती है, वैसे) तू सब जीवों में खुद ही समाया हुआ है।1।

सतिगुरि परचै हरि नामि समाना ॥ जिसु करमु होवै सो सतिगुरु पाए अनदिनु लागै सहज धिआना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु के द्वारा, गुरु की कृपा से। परचै = गिझ जाता है। नामि = नाम में। करमु = बख्शिश। सो = वह मनुष्य। पाए = हासिल कर लेता है। अनदिनु = हर रोज। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज धिआना = आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली मगनता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम जपने में) गिझ जाता है, वह परमात्मा के नाम में (सदा) लीन रहता है। (पर) गुरु (भी) उसी को मिलता है जिस पर प्रभु की कृपा होती है, फिर हर वक्त उसकी तवज्जो आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली अवस्था में जुड़ी रहती है।1। रहाउ।

किआ कोई तेरी सेवा करे किआ को करे अभिमाना ॥ जब अपुनी जोति खिंचहि तू सुआमी तब कोई करउ दिखा वखिआना ॥२॥

पद्अर्थ: अभिमाना = माण। खिंचहि = खींच लेता है। सुआमी = हे मालिक! दिखा = मैं देखूँ।2।

नोट: ‘करउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन) बेशक करे।

अर्थ: हे प्रभु! (अपने उद्यम से) कोई भी मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति नहीं कर सकता, कोई मनुष्य ऐसा कोई गुमान नहीं कर सकता। हे मालिक प्रभु! जब तू किसी जीव में से (सेवा-भक्ति के लिए दिया हुआ) प्रकाश खींच लेता है, तब कोई भी सेवा-भक्ति की बातें नहीं कर सकता।2।

आपे गुरु चेला है आपे आपे गुणी निधाना ॥ जिउ आपि चलाए तिवै कोई चालै जिउ हरि भावै भगवाना ॥३॥

पद्अर्थ: चेला = सिख। आपे = आप ही। गुणी निधाना = गुणों का खजाना। चलाए = (जीवन-राह पर) चलाता है। भावै = अच्छा लगता है।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा आप ही गुरु है, आप ही सिख है, आप ही गुणों का खजाना है (जो गुण वह गुरु के द्वारा सिख को देता है)। जैसे उस हरि भगवान को अच्छा लगता है, जैसे वह जीव को जीवन-राह पर चलाता है वैसे ही जीव चलता है।3।

कहत नानकु तू साचा साहिबु कउणु जाणै तेरे कामां ॥ इकना घर महि दे वडिआई इकि भरमि भवहि अभिमाना ॥४॥३॥

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। कउणु जाणै = कोई नहीं जान सकता। घर महि = हृदय घर में (टिका के), अपने चरणों में (जोड़ के)। दे = देता है। इकि = कई जीव। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भवहि = घूमते हैं।4।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: नानक कहता है: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तेरे कामों (के भेद) को कोई नहीं जान सकता। कई जीवों को तू अपने चरणों में टिका के इज्जत बख्शता है। कई जीव गलत रास्ते पर पड़ कर अहंकार में भटकते फिरते हैं।4।3।

बिलावलु महला ३ ॥ पूरा थाटु बणाइआ पूरै वेखहु एक समाना ॥ इसु परपंच महि साचे नाम की वडिआई मतु को धरहु गुमाना ॥१॥

पद्अर्थ: पूरा थाट = उत्तम युक्ति, गुरु की शरण आ के हरि नाम जपने की उत्तम जुगति। पूरै = पूरे (प्रभु) ने, उस प्रभु ने जिसके कामों में कोई कमी नहीं। एक समाना = एक सी, जो हरेक युग में एक सी चली आ रही है। परपंच = संसार। साचा = सदा कायम रहने वाला। मतु को धरहु = कोई ना धरे। गुमाना = अहंकार।1।

अर्थ: हे भाई! देखो, पूर्ण प्रभु ने (गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम जपने की यह ऐसी) उत्तम जुगती बनाई है जो हरेक युग में एक जैसी ही चली आ रही है। कहीं ऐसा ना हो कि कोई मनुष्य (जत-संयम-तीर्थ आदि कर्मों) का गुमान कर बैठे। इस जगत में सदा स्थिर प्रभु का नाम जपने से ही इज्जत मिलती है।1।

सतिगुर की जिस नो मति आवै सो सतिगुर माहि समाना ॥ इह बाणी जो जीअहु जाणै तिसु अंतरि रवै हरि नामा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माहि = में। मति = अक्ल, शिक्षा। जीअहु = दिल से। जाणै = पहचानता है, सांझ डालता है। अंतरि = अंदर। रवै = हर वक्त मौजूद रहता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की शिक्षा पर यकीन आ जाता है, वह मनुष्य गुरु (के उपदेश में) लीन रहता है। जो मनुष्य गुरु की इस वाणी से दिल से सांझ डाल लेता है, उसके अंदर परमात्मा का नाम सदा टिका रहता है।1। रहाउ।

चहु जुगा का हुणि निबेड़ा नर मनुखा नो एकु निधाना ॥ जतु संजम तीरथ ओना जुगा का धरमु है कलि महि कीरति हरि नामा ॥२॥

पद्अर्थ: हुणि = इस वक्त, गुरु की मति ले के।

(नोट: देखें ‘रहाउ’ वाला बंद। उसी में केन्द्रिया भाव है)।

निबेड़ा = निर्णय। नो = को। नर मनुख = श्रेष्ठ मनुष्य, गुरमुख, गुरु की मति पर चलने वाले मनुष्य। एकु निधाना = एक प्रभु का नाम खजाना। जतु = काम-वासना को रोकने वाला यत्न। संजम = इन्द्रियों को विकारों की ओर से रोकना। महि = में। कलि = कलियुग। कीरति = महिमा।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से चारों युगों का निर्णय समझ में आता है (कि युग चाहे कोई हो) गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्यों को परमात्मा का नाम-खजाना प्राप्त हो जाता है। (वेद आदि हिन्दू धर्म पुस्तकें बताती हैं कि) जत-संजम और तीर्थ स्नान उन युगों के धर्म थे, पर कलियुग में (गुरु नानक ने आ के बताया है कि) परमात्मा की महिमा, परमात्मा का नाम-जपना ही असल धर्म है।2।

जुगि जुगि आपो आपणा धरमु है सोधि देखहु बेद पुराना ॥ गुरमुखि जिनी धिआइआ हरि हरि जगि ते पूरे परवाना ॥३॥

पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। सोधि = ध्यान से पढ़ के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जगि = जगत में। ते = वह लोग। परवाना = स्वीकार।3।

अर्थ: हे भाई! वेद-पुराण आदि धर्म-पुस्तकों को ध्यान से पढ़ के देख लो (वह यही कहते हैं कि) हरेक युग में (जत-संजम-तीर्थ आदि) अपना-अपना धर्म (स्वीकार) है। (पर गुरु की शिक्षा ये है कि) जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण किया है, जगत में मनुष्य पूर्ण हैं, स्वीकार हैं।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh