श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ५ ॥ खोजत खोजत दरसन चाहे ॥ भाति भाति बन बन अवगाहे ॥ निरगुणु सरगुणु हरि हरि मेरा कोई है जीउ आणि मिलावै जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: खोजत = ढूंढते हुए। दरसन चाहे = दर्शनों की चाह करने से। भाति भाति = भांति भांति, कई किस्म के। बन = जंगल। अवगाहे = गाह मारे, ढूंढ डाले, तलाशे। निरगुण = माया के तीनों गुणों से ऊपर। सरगुण = रचे हुए जगत के स्वरूप वाला, माया के तीन गुण रच के अपना जगत रूपी स्वरूप दिखाने वाला। आणि = ला के।।1।

अर्थ: अनेक लोग (जंगलों पहाड़ों में) तलाशते तलाशते (परमात्मा के) दर्शन की तमन्ना करते हैं। कई किस्म के जंगल गाह मारते हैं। (पर इस तरह परमात्मा के दर्शन नही होते)। वह परमात्मा माया के तीन गुणों से अलग भी है और तीन गुणी संसार में व्यापक भी है।1।

खटु सासत बिचरत मुखि गिआना ॥ पूजा तिलकु तीरथ इसनाना ॥ निवली करम आसन चउरासीह इन महि सांति न आवै जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: खटु = छह। खटु सासत = छह शास्त्र (सांख, न्याय, विशैषिक, मीमांसा, योग और वेदांत)। मुखि = मुंह से। निवली कर्म-आँतों की वर्जिश (हाथ घुटनों पे रख के और आगे झुक के खड़े हो के पहले जोर से स्वाश अंदर को खींचते हैं, फिर सास स्वाश बाहर निकाल के आँतों को खींच लिया जाता है और चक्र में घुमाते हैं। इस साधन को निवली कर्म कहते हैं। ये साधन सवेरे शौच के बाद खाली पेट ही करते हैं)।2।

अर्थ: कई ऐसे हैं जो छह शास्त्रों को विचारते हैं और उनका उपदेश मुंह से (सुनाते हैं)। देव पूजा करते हैं और तिलक लगाते हैं, तीर्थों का स्नान करते हैं। कई ऐसे भी हैं जो निवली कर्म आदिक योगियों वाले चौरासी आसन करते हैं। पर इन उद्यमों से (मन में) शांति नहीं मिलती।2।

अनिक बरख कीए जप तापा ॥ गवनु कीआ धरती भरमाता ॥ इकु खिनु हिरदै सांति न आवै जोगी बहुड़ि बहुड़ि उठि धावै जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: बरख = वर्ष,साल। गवनु = चलना-फिरना, भ्रमण। भरमाता = चला फिरा। बहुड़ि बहुड़ि = बारंबार, मुड़ मुड़ के।3।

अर्थ: जोगी लोग अनेक साल जप करते हैं, तप साधते हैं। सारी धरती पे भ्रमण भी करते हैं। (इस तरह भी) हृदय में एक छिन के लिए भी शांति नहीं आती। फिर भी जोगी इन जपों-तपों के पीछे ही मुड़ मुड़ के ही दौड़ता है।3।

करि किरपा मोहि साधु मिलाइआ ॥ मनु तनु सीतलु धीरजु पाइआ ॥ प्रभु अबिनासी बसिआ घट भीतरि हरि मंगलु नानकु गावै जीउ ॥४॥५॥१२॥

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। साधु = गुरु। घट = हृदय। मंगलु = महिमा के गीत।4।

अर्थ: परमात्मा ने कृपा करके मुझे गुरु मिला दिया है। गुरु से मुझे धैर्य मिला है। मेरा मन शीतल हो गया है (मेरे मन और ज्ञानेंद्रियों में से विकारों की तपस समाप्त हो चुकी है)। (गुरु की मेहर से) अविनाशी प्रभु मेरे हृदय में आ बसा है। अब (ये दास) नानक परमात्मा की महिमा का गीत ही गाता है (ये महिमा प्रभु चरणों में जोड़ के रखती है)।4।5।12।

माझ महला ५ ॥ पारब्रहम अपर्मपर देवा ॥ अगम अगोचर अलख अभेवा ॥ दीन दइआल गोपाल गोबिंदा हरि धिआवहु गुरमुखि गाती जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: पारब्रहम = परमात्मा। अपरंपर = (अपर: नास्ति परो यस्य, जिससे परे कोई और नहीं), जो सबसे परे है। देव = प्रकाश रूप (दिव = चमकना)। अलख = (अलक्ष्य) जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सके। दइआल = दया का घर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। गाती = गति देने वाला, उच्च आत्मिक अवस्था देने वाला।1।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के उस हरि का स्मरण करो, जो परम आत्मा है। जिससे परे और कोई नहीं, जो सबसे परे है।

जो प्रकाश-रूप है, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक ज्ञाने इंद्रयों की पहुँच नहीं हो सकती। जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता, जो दीनों पर दया करने वाला है। जो सुष्टि की पालना करने वाला है, जो सृष्टि के जीवों के दिलों की जानने वाला है और जो उच्च आत्मिक अवस्था देने वाला है।1।

गुरमुखि मधुसूदनु निसतारे ॥ गुरमुखि संगी क्रिसन मुरारे ॥ दइआल दमोदरु गुरमुखि पाईऐ होरतु कितै न भाती जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: मधुसूदन = (‘मधु’ दैंत को मारने वाला) परमात्मा। संगी = साथी। मुरारे = मुर+अरि, परमात्मा। दमोदरु = (दामन उदर, कृष्ण), परमात्मा। होरतु = और के द्वारा। होरतु भाती = और तरीके से।2।

अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से मधु दैंत को मारने वाला (विकार रूपी दैंत से) बचा लेता है। गुरु की शरण पड़ने से मुर दैंत को मारने वाला प्रभु (सदा के लिए) साथी बन जाता है। गुरु की शरण पड़ने से ही वह प्रभु मिलता है जो दया का स्रोत है और जिसे दामादेर कहा है, किसी और तरीके से नहीं मिल सकता।2।

निरहारी केसव निरवैरा ॥ कोटि जना जा के पूजहि पैरा ॥ गुरमुखि हिरदै जा कै हरि हरि सोई भगतु इकाती जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: निरहारी = निर+आहारी, जिसे किसी खुराक की जरूरत नहीं, परमात्मा। केसव = (केशव: प्रशस्या: सन्ति अस्य) लंबे केशों वाले, परमात्मा। कोटि = क्रोड़। इकाती = एकान्तिन (devoted to one object only) अनिंन।3।

अर्थ: करोड़ों ही सेवक जिसके पैर पूजते हैं, वह परमात्मा केशव (सुंदर केशों वाला) किसी के साथ वैर नहीं रखता और उसे किसी खुराक की जरूरत नहीं पड़ती। गुरु के द्वारा जिस मनुष्य के हृदय में वह बस जाता है, वह मनुष्य अनिंन भक्त बन जाता है।3।

अमोघ दरसन बेअंत अपारा ॥ वड समरथु सदा दातारा ॥ गुरमुखि नामु जपीऐ तितु तरीऐ गति नानक विरली जाती जीउ ॥४॥६॥१३॥

पद्अर्थ: अमोघ = अमोध, जरूर फल देने वाला। तितु = उस द्वारा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। विरली = बहुत कम, गिनी चुनी।4।

अर्थ: उस परमात्मा का दर्शन जरूर (मन इच्छित) फल देता है। उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। उसकी हस्ती का दूसरा छोर नहीं ढूंढा जा सकता। वह बड़ी ताकतों वाला है और वह सदा ही दातें देता रहता है। गुरु की शरण पड़ कर अगर उसका नाम जपें, तो उसके नाम की इनायत से (संसार समुंदर से) पार हो जाते हैं। पर, हे नानक! ये ऊँची आत्मिक अवस्था किसी विरले ने ही समझी है।4।6।13।

माझ महला ५ ॥ कहिआ करणा दिता लैणा ॥ गरीबा अनाथा तेरा माणा ॥ सभ किछु तूंहै तूंहै मेरे पिआरे तेरी कुदरति कउ बलि जाई जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: कहिआ = कहा हुआ वचन, हुक्म। माणा = माण, आसरा, सहारा। कुदरति = स्मर्था। बलि जाई = सदके जाऊ।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू जो हुक्म करता है, वही जीव करते हैं। जो कुछ तू देता है, वही जीव हासिल कर सकते हैं। गरीब और अनाथ जीवों को तेरा ही आसरा है। हे मेरे प्यारे प्रभु! (जगत में) सब कुछ तू ही कर रहा है तू ही कर रहा है। मैं तेरी स्मर्था से सदके जाता हूँ।1।

भाणै उझड़ भाणै राहा ॥ भाणै हरि गुण गुरमुखि गावाहा ॥ भाणै भरमि भवै बहु जूनी सभ किछु तिसै रजाई जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: भाणै = रजा मुताबक। उझड़ = गलत रास्ता। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। भरमि = भटकने में, भुलेखे में। तिसै = उस (परमात्मा) की ही। रजाई = रजा में।2।

अर्थ: परमात्मा की रजा में ही जीव (जिंदगी का) गलत रास्ता पकड़ लेते हैं और कई सही रास्ता पकड़ते हैं। परमात्मा की रजा में ही कई जीव गुरु की शरण पड़ कर हरि के गुण गाते हैं। प्रभु की रजा अनुसार ही जीव (माया के मोह की) भटकन में फंस के अनेक जूनों में भटकते फिरते हैं। (ये) सब कुछ उस प्रभु की रजा में ही हो रहा है।2।

ना को मूरखु ना को सिआणा ॥ वरतै सभ किछु तेरा भाणा ॥ अगम अगोचर बेअंत अथाहा तेरी कीमति कहणु न जाई जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: वरतै = बर्तता है, घटित होता है। भाणा = रजा, हुक्म। अथाह = जिसकी गहराई का थाह न लगाया जा सके।3।

अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे प्रभु! हे अथाह प्रभु! (अपनी स्मर्था से) ना ही कोई जीव मूर्ख है ना ही कोई बुद्धिमान। (जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा हुक्म चल रहा है। तेरे बराबर की कोई शै बताई नहीं जा सकती।3।

खाकु संतन की देहु पिआरे ॥ आइ पइआ हरि तेरै दुआरै ॥ दरसनु पेखत मनु आघावै नानक मिलणु सुभाई जीउ ॥४॥७॥१४॥

पद्अर्थ: खाकु = चरण धूल। आइ = आकर। हरि = हे हरि! पेखत = देखते हुए। आघावै = तृप्त हो जाता है। सुभाई = (तेरी) रजा अनुसार।4।

अर्थ: हे प्यारे हरि! मैं तेरे दर पे आ गिरा हूँ। मुझे अपने संतों के चरणों की धूल दे। हे नानक! (कह: परमात्मा का) दर्शन करने से मन (दुनिया के पदार्थों की तरफ से) भर जाता है और उसकी रजा अनुसार उससे मिलाप हो जाता है।4।7।14।

माझ महला ५ ॥ दुखु तदे जा विसरि जावै ॥ भुख विआपै बहु बिधि धावै ॥ सिमरत नामु सदा सुहेला जिसु देवै दीन दइआला जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: तदे = तब ही। भुख = माया की तृष्णा। विआपै = जोर डाल देती है। बहु बिधि = कई तरीकों से। सुहेला = सुखी।1।

अर्थ: (जीव को) दुख तभी होता है जब उसे (परमात्मा का नाम) बिसर जाता है। (नाम से वंचित जीव पे) माया की तृष्णा जोर डाल लेती है, और जीव कई ढंगों से (माया की खातिर) भटकता फिरता है। दीनों पे दया करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य को (नाम की दात) देता है वह स्मरण कर-कर के सदा सुखी रहता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh