श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पूरा गुरु पूरी बणत बणाई ॥ नानक भगत मिली वडिआई ॥४॥२४॥

पद्अर्थ: गुर = सबसे बड़ा। पूरी = जिसमें कोई कमी नहीं। भगत = भक्तों को।4।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा सबसे बड़ा है उसमें कोई कमी नहीं है उसकी बनाई हुई रचना भी कमी-रहित है, परमात्मा की भक्ति करने वालों को (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।4।24।

आसा महला ५ ॥ गुर कै सबदि बनावहु इहु मनु ॥ गुर का दरसनु संचहु हरि धनु ॥१॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द के द्वारा। बनावहु = नए सिरे से घड़ो, सुंदर बना लो। संचहु = इकट्ठा करो।1।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने) इस मन को नए सिरे से घड़ो। (गुरु का शब्द ही) गुरु का दीदार है (इस शब्द की इनायत से) परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करो।1।

ऊतम मति मेरै रिदै तूं आउ ॥ धिआवउ गावउ गुण गोविंदा अति प्रीतम मोहि लागै नाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मति = हे मति! मेरै रिदै = मेरे हृदय में, मेरे अंदर। धिआवउ = मैं ध्याऊँ। गावउ = मैं गाऊँ। अति प्रीतम = बहुत प्यारा। मोहि = मुझे।1। रहाउ।

अर्थ: हे श्रेष्ठ मति! (अगर गुरु मेहर करे तो) तू मेरे अंदर आ के बस ता कि मैं परमात्मा के गुण गाऊँ परमात्मा का ध्यान धरूँ और परमात्मा का नाम मुझे बहुत प्यारा लगने लगे।1। रहाउ।

त्रिपति अघावनु साचै नाइ ॥ अठसठि मजनु संत धूराइ ॥२॥

पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति, संतुष्टि। अघावन = पेट भर जाना, तृप्ति। नाइ = नाम के द्वारा। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान। धूराइ = धूल।2।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के चरणों की धूल अढ़सठ तीर्थों का स्नान है। (गुरु के द्वारा) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से तृष्णा खत्म हो जाती है, मन की भूख मिट जाती है।2।

सभ महि जानउ करता एक ॥ साधसंगति मिलि बुधि बिबेक ॥३॥

पद्अर्थ: जानउ = मैं जानता हूँ, जानूँ। मिलि = मिल के। बिबेक = अच्छे बुरे की परख।3।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में मिल के मैंने अच्छे-बुरे की परख करने वाली बुद्धि प्राप्त कर ली है और मैं अब सभी में एक कर्तार को ही बसता पहचानता हूँ।3।

दासु सगल का छोडि अभिमानु ॥ नानक कउ गुरि दीनो दानु ॥४॥२५॥

पद्अर्थ: कउ = को। गुरि = गुरु ने।4।

अर्थ: (हे भाई! मुझे) नानक को गुरु ने (बिबेक बुद्धि की ऐसी) दाति बख्शी है कि मैं अहंकार त्याग के सभी का दास बन गया हूँ।4।25।

आसा महला ५ ॥ बुधि प्रगास भई मति पूरी ॥ ता ते बिनसी दुरमति दूरी ॥१॥

पद्अर्थ: प्रगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। पूरी = कमी रहित। ता ते = उससे, उसकी सहायता से। दूरी = अंतर।1।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से मेरी) बुद्धि में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है मेरी अक्ल कमी-रहित हो गई है, इसकी सहायता से मेरी बुरी मति का नाश हो गया है, मेरी परमात्मा से दूरी मिट गई है।1।

ऐसी गुरमति पाईअले ॥ बूडत घोर अंध कूप महि निकसिओ मेरे भाई रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पाईअले = मैंने प्राप्त की है। बूडत = डूबता। घोर अंध = घुप अंधेरा। कूप = कूआँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे भाई! मैंने गुरु से ऐसी बुद्धि प्राप्त कर ली है जिसकी मदद से मैं माया के घुप अंधेरे कूँऐ से डूबता-डूबता बच निकला हूँ।1। रहाउ।

महा अगाह अगनि का सागरु ॥ गुरु बोहिथु तारे रतनागरु ॥२॥

पद्अर्थ: अगाह = जिसकी गहराई ना मिल सके। सागरु = समुंदर। बोहिथु = जहाज। रतनागरु = (रत्नाकर, रत्न-आकर) रत्नों की खान।2।

अर्थ: (हे भाई! ये संसार की तृष्णा की) आग एक बड़ा अथाह समुंदर है, रत्नों की खान गुरु (मानो) जहाज है जो (इस समुंदर में से) पार लंघा लेता है।2।

दुतर अंध बिखम इह माइआ ॥ गुरि पूरै परगटु मारगु दिखाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: दुतर = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है। बिखम = मुश्किल। गुरि = गुरु ने। मारगु = रास्ता। परगटु = साफ।3।

अर्थ: (हे भाई!) यह माया (मानो, एक समुंदर है जिस में से) पार लांघना मुश्किल है जिस में घोर अंधेरा ही अंधेरा है (इस में से पार लांघने के लिए) पूरे गुरु ने मुझे साफ रास्ता दिखा दिया है।3।

जाप ताप कछु उकति न मोरी ॥ गुर नानक सरणागति तोरी ॥४॥२६॥

पद्अर्थ: उकति = उक्ति, दलील। मोरी = मेरी, मेरे पास। गुर = हे गुरु! 4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गुरु! मेरे पास कोई जप नहीं कोई तप नहीं कोई सियानप नहीं, मैं तो तेरी ही शरण आया हूँ (मुझे इस घोर अंधकार में से निकाल ले)।4।26।

आसा महला ५ तिपदे २ ॥ हरि रसु पीवत सद ही राता ॥ आन रसा खिन महि लहि जाता ॥ हरि रस के माते मनि सदा अनंद ॥ आन रसा महि विआपै चिंद ॥१॥

पद्अर्थ: पीवत = पीते हुए। सद = सदा। राता = रंगा हुआ, मस्त। आन = अन्य, और। माते = मस्त, मतवाले। मनि = मन में। विआपै = जोर डाल देती है। चिंद = चिन्ता।1।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम-अमृत पीने वाला मनुष्य (नाम-रंग में) सदा रंगा रहता है (क्योंकि नाम-रस का असर कभी दूर नहीं होता, इसके अलावा दुनिया के पदार्थों के) अन्य रसों का असर एक पल में उतर जाता है। परमात्मा के नाम-रस के मतवाले मनुष्य के मन में सदा आनंद टिका रहता है, पर दुनिया के पदार्थों के स्वादों में पड़े को चिन्ता आ दबाती है।1।

हरि रसु पीवै अलमसतु मतवारा ॥ आन रसा सभि होछे रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अलमसतु = पूर्ण तौर पे मस्त। मतवारा = मतवाला, आशिक। सभि = सारे। होछे = फीके।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का नाम अमृत पीता है वह उस रस में पूरी तौर से मस्त रहता है वह उस नाम रस का आशिक बन जाता है, उसे दुनिया के और सारे रस (नाम-रस के मुकाबले) फीके प्रतीत होते हैं।1। रहाउ।

हरि रस की कीमति कही न जाइ ॥ हरि रसु साधू हाटि समाइ ॥ लाख करोरी मिलै न केह ॥ जिसहि परापति तिस ही देहि ॥२॥

पद्अर्थ: कीमति = मूल्य। साधू हाटि = गुरु के हाट में, गुरु की संगति में। समाइ = टिका रहता है। केह = किसी को। जिसहि परापति = जिसके भाग्यों में लिखी है प्राप्ति। देहि = तू देता है (हे प्रभु!)।2।

अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम-रस दुनिया के धन-पदार्थों के बदले में नहीं मिल सकता) परमात्मा के नाम-रस का मूल्य (धन-पदार्थ के रूप में) बयान नहीं किया जा सकता। ये नाम-रस गुरु के हाट में (गुरु की संगति में) सदा टिका रहता है। लाखों-करोड़ों रुपए दे के भी ये किसी को नहीं मिल सकता। हे प्रभु! जिस मनुष्य के भाग्यों में तूने इसकी प्राप्ति लिखी है उसी को तू स्वयं देता है।2।

नानक चाखि भए बिसमादु ॥ नानक गुर ते आइआ सादु ॥ ईत ऊत कत छोडि न जाइ ॥ नानक गीधा हरि रस माहि ॥३॥२७॥

नोट: तिपदे २ = तीन बंदों वाले 2 शब्द।

पद्अर्थ: चाखि = चख के। ते = से। सादु = स्वाद, आनंद। ईत ऊत = इस लोक में परलोक में। कत = कहीं भी। गीधा = गिझा हुआ।3।

अर्थ: हे नानक! (ये नाम-रस) चख के (कोई इसका स्वाद बयान नहीं कर सकता। यदि कोई यत्न करे तो) हैरान सा होता है (क्योंकि वह अपने आप को इस रस के असर को बयान करने में अस्मर्थ पाता है)। इस हरि-नाम-रस का आनंद गुरु से ही प्राप्त होता है (जिसे एक बार इसकी प्राप्ति हो गई वह) इस लोक और परलोक में (किसी भी और पदार्थ की खातिर) इस नाम-रस को छोड़ के नहीं जाता, वह सदा हरि-नाम-रस में ही मस्त रहता है।3।27।

आसा महला ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु मिटावै छुटकै दुरमति अपुनी धारी ॥ होइ निमाणी सेव कमावहि ता प्रीतम होवहि मनि पिआरी ॥१॥

पद्अर्थ: मिटावै = मिटा देता है। छुटकै = खत्म हो जाती है। दुरमति = बुरी मति। अपुनी धारी = अपनी ही पैदा की हुई। कमावहि = अगर तू करे। मनि = मन में।1।

अर्थ: हे सुंदरी! अगर तू गुमान त्याग के प्रभु की सेवा भक्ति करेगी तो प्रभु-प्रीतम के मन को प्यारी लगेगी, (गुरु का उपदेश तेरे अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह को मिटा देगा, तेरी अपनी ही पैदा की हुई कुमति (तेरे अंदर से) मिट जाएगी।1।

सुणि सुंदरि साधू बचन उधारी ॥ दूख भूख मिटै तेरो सहसा सुख पावहि तूं सुखमनि नारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुंदरि = हे सुंदरी! हे सुंदरी जीव-स्त्री! साधू बचन = गुरु के वचन। उधारी = उद्धार, (अपने आप को संसार समुंदर में डूबने से) बचा ले। सहसा = सहम। सुखमनि = जिसके मन में ये आत्मिक आनंद बस रहा है। नारी = हे जीव-स्त्री!।1। रहाउ।

अर्थ: हे सुंदरी! हे अपने मन में आत्मिक आनंद टिकाए रखने की चाहवान जीव-स्त्री! गुरु के वचन सुन के (अपने आप को संसार समुंदर में डूबने से) बचा। (गुरु की वाणी की इनायत से) तेरा दुख मिट जाएगा तेरी माया की भूख मिट जाएगी तू आत्मिक आनंद पाएगी।1। रहाउ।

चरण पखारि करउ गुर सेवा आतम सुधु बिखु तिआस निवारी ॥ दासन की होइ दासि दासरी ता पावहि सोभा हरि दुआरी ॥२॥

पद्अर्थ: पाखरि = पखालि, धो के। करहु = तू कर। सुधु = शुद्ध, पवित्र। बिखु = जहर, (माया के मोह का जहर जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देता है)। पिआस = प्यास, तृष्णा, त्रिखा। निवारी = दूर करती है। दासि = दासी। दासरी = निमाणी सी दासी। दुआरी = द्वार पर, द्वारि।2।

अर्थ: हे सुंदरी! गुरु के चरण धो के गुरु की (बताई) सेवा करा कर, तेरी आत्मा पवित्र हो जाएगी (ये सेवा तेरे अंदर से आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाले माया-मोह के) जहर को दूर कर देगी, माया की तृष्णा को मिटा दो। (हे सुंदरी!) अगर तू परमात्मा के सेवकों की दासी बन जाए, निमाणी सी दासी बन जाए, तो तू परमात्मा की हजूरी में शोभा-आदर हासिल करेगी।2।

इही अचार इही बिउहारा आगिआ मानि भगति होइ तुम्हारी ॥ जो इहु मंत्रु कमावै नानक सो भउजलु पारि उतारी ॥३॥२८॥

पद्अर्थ: अचार = (निहित धार्मिक रस्मों का) करना, आचरण। बिउहारा = व्यवहार, नित्य की रहन-सहन। मानि = मंन। मंत्रु = उपदेश। भउजल = संसार समुंदर।3।

अर्थ: (हे सुंदरी!) यही कुछ तेरे वास्ते धार्मिक रस्मों के करने योग्य है यही तेरा नित्य का व्यवहार होना चाहिए। परमात्मा की रजा को सिर-माथे मान (इस तरह की हुई) तेरी प्रभु-भक्ति (प्रभु दर पर) स्वीकार हो जाएगी।

हे नानक! जो भी मनुष्य इस उपदेश को कमाता है (अपने जीवन में उपयोग करता है) वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।3।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh