श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 388 मै निरगुन गुणु नाही कोइ ॥ करन करावनहार प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निरगुन = गुण हीन। करनहार = (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) करने की ताकत रखने वाला। करावनहार = (सब जीवों को प्रेरित करके उनसे) करवाने की सामर्थ्य वाला। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मैं गुणहीन हूँ, मेरे में कोई गुण नहीं (जिसके आसरे मैं तुझे प्रसन्न करने की आस कर सकूँ, पर) हे प्रभु! वह तू ही है जो (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सब कुछ करने की ताकत रखता है और (सब जीवों को प्रेरित करके उनसे) करवाने की सामर्थ्य वाला है (मुझे भी खुद ही अपने चरणों में जोड़े रख)।1। रहाउ। मूरख मुगध अगिआन अवीचारी ॥ नाम तेरे की आस मनि धारी ॥२॥ पद्अर्थ: मुगध = बेवकूफ़। अगिआन = ज्ञानहीन। अवीचारी = बेसमझ, विचार की बात ना कर सकने वाला। मनि = मन में।2। अर्थ: हे प्रभु! मैं मूर्ख हूँ, मैं मति हीन हूँ, मैं ज्ञानहीन हूँ, मैं बेसमझ हूँ (पर तू अपने बिरद की लज्जा रखने वाला है), मैंने तेरे (बिरद-पाल) नाम की आस मन में रखी हुई है (कि तू शरण आए की लज्जा रखेगा)।2। जपु तपु संजमु करम न साधा ॥ नामु प्रभू का मनहि अराधा ॥३॥ पद्अर्थ: साधा = अभ्यास किया। मनहि = मन में। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का प्रयत्न।3। अर्थ: हे भाई! मैंने कोई जप नहीं किया, मैंने कोई तप नहीं किया, मैंने कोई संजम नहीं साधा (मुझे किसी जप तपसंजम का सहारा नहीं, का गुमान नहीं) मैं तो परमातमा का नाम ही अपने मन में याद करता रहता हूँ।3। किछू न जाना मति मेरी थोरी ॥ बिनवति नानक ओट प्रभ तोरी ॥४॥१८॥६९॥ पद्अर्थ: थोरी = थोड़ी। बिनवति = विनती करता है। तोरी = तेरी।4। अर्थ: नानक बिनती करता है: हे प्रभु! (कोई उक्ति, कोई समझदारी, कोई जप, कोई तप, कोई संजम) कुछ भी करना नहीं जानता, मेरी अक्ल बहुत थोड़ी सी है, मैंने सिर्फ तेरा ही आसरा लिया है।4।18।69। आसा महला ५ ॥ हरि हरि अखर दुइ इह माला ॥ जपत जपत भए दीन दइआला ॥१॥ पद्अर्थ: अखर दुइ = दोनों अक्षर (हरि हरि)। जपत = जपते हुए। दीन = दीनों पर, कंगालों पे।1। अर्थ: (हे भाई! मेरे पास तो) ‘हरि हरि’ - इन दो शब्दों की माला है, इस हरि-नाम-माला को जपते-जपते कंगालों पर भी परमात्मा दयावान हो जाता है।1। करउ बेनती सतिगुर अपुनी ॥ करि किरपा राखहु सरणाई मो कउ देहु हरे हरि जपनी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करउ = करूँ, मैं करता हूँ। सतिगुर = हे सतिगुरु! मो कउ = मुझे। जपनी = माला।1। रहाउ। अर्थ: हे सतिगुरु! मैं तेरे आगे अपनी ये अर्ज करता हूँ कि कृपा करके मुझे अपनी शरण में रख और मुझे ‘हरि हरि’ नाम की माला दे।1। रहाउ। हरि माला उर अंतरि धारै ॥ जनम मरण का दूखु निवारै ॥२॥ पद्अर्थ: उर = हृदय। अंतरि = अंदर। धारै = टिकाए रखता है। निवारै = दूर कर लेता है।2। अर्थ: जो मनुष्य हरि-नाम की माला अपने हृदय में टिका के रखता है, वह अपने जनम-मरण के चक्कर का दुख दूर कर लेता है।2। हिरदै समालै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥३॥ पद्अर्थ: समाले = संभाल के रखता है। मुखि = मुंह से। इत उत = लोक परलोक में। कतहि = कहीं भी।3। अर्थ: जो मनुष्य हरि नाम को अपने हृदय में संभाल के रखता है और मुंह से हरि हरि नाम उचारता रहता है वह ना इस लोक में ना ही परलोक में कही भी (किसी बात पर भी) नहीं डोलता।3। कहु नानक जो राचै नाइ ॥ हरि माला ता कै संगि जाइ ॥४॥१९॥७०॥ पद्अर्थ: नाइ = नाम में। संगि = साथ।4। अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है, हरि-नाम की माला उस के साथ (परलोक में भी) जाती है।4।19।70। आसा महला ५ ॥ जिस का सभु किछु तिस का होइ ॥ तिसु जन लेपु न बिआपै कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: जिस का = जिस (परमात्मा) का। लेपु = माया का प्रभाव। बिआपै = जोर डाल सकता।1। नोट: ‘जिस का’ में से शब्द ‘जिसु’ की मात्रा ‘ु’ संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) उस परमात्मा का (सेवक) बना रहता है जिसका ये सारा जगत रचा हुआ है उस मनुष्य पर माया का किसी तरह का भी प्रभाव नहीं पड़ सकता।1। हरि का सेवकु सद ही मुकता ॥ जो किछु करै सोई भल जन कै अति निरमल दास की जुगता ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मुकता = माया के बंधनों से आजाद। भल = भला। जन कै = सेवक के हृदय में। जुगता = जीवन की जुगति, जिंदगी गुजारने का तरीका।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का भक्त सदा ही (माया के मोह के बंधनों से) आजाद रहता है, परमात्मा जो कुछ करता है सेवक को वह सदा भलाई ही भलाई प्रतीत होती है, सेवक की जीवन-शैली बहुत ही पवित्र होती है।1। रहाउ। सगल तिआगि हरि सरणी आइआ ॥ तिसु जन कहा बिआपै माइआ ॥२॥ पद्अर्थ: कहा = कहां? बिल्कुल नहीं।2। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य और) सारे (आसरे) छोड़ के परमात्मा की शरण आ पड़ता है, माया उस मनुष्य पर कभी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।2। नामु निधानु जा के मन माहि ॥ तिस कउ चिंता सुपनै नाहि ॥३॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। महि = में। सुपनै = सुपने में भी, कभी भी।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम-खजाना टिका रहता है उसे कभी भी कोई चिन्ता छू नहीं सकती।3। कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ भरमु मोहु सगल बिनसाइआ ॥४॥२०॥७१॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! भरमु = माया की भटकना। सगल = सारा।4। अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य पूरा गुरु ढूँढ लेता है उसके अंदर से (माया की खातिर) भटकना दूर हो जाती है (उसके मन में से माया का) सारा मोह दूर हो जाता है।4।20।71। आसा महला ५ ॥ जउ सुप्रसंन होइओ प्रभु मेरा ॥ तां दूखु भरमु कहु कैसे नेरा ॥१॥ पद्अर्थ: जउ = जब। सुप्रसंन = बहुत खुश। तां = तब। कहु = बताओ। कैसे = कैसे? नेरा = नजदीक।1। अर्थ: (हे भाई!) जब मेरा प्रभु (किसी मनुष्य पर) बहुत प्रसन्न होता है तब बताओ, कोई दुख-भ्रम उस मनुष्य के नजदीक कैसे आ सकता है?।1। सुनि सुनि जीवा सोइ तुम्हारी ॥ मोहि निरगुन कउ लेहु उधारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुनि = सुन के। जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ। सोइ = खबर,शोभा। मोहि = मुझे। कउ = को।1। रहाउ। अर्थ: (हे मेरे प्रभु!) तेरी शोभा (महिमा) सुन-सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (हे मेरे प्रभु! मेहर कर) मुझ गुण-हीन को (दुखों-भ्रमों से) बचाए रख।1। रहाउ। मिटि गइआ दूखु बिसारी चिंता ॥ फलु पाइआ जपि सतिगुर मंता ॥२॥ पद्अर्थ: जपि = जप के। मंता = उपदेश, शब्द।2। अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु की वाणी जपके मैंने ये फल प्राप्त कर लिया है कि (मेरे) अंदर से हरेक किस्म का दुख दूर हो गया है, मैंने (हरेक किस्म की) चिन्ता भुला दी है।2। सोई सति सति है सोइ ॥ सिमरि सिमरि रखु कंठि परोइ ॥३॥ पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा) ही। सति = सदा कायम रहने वाला। कंठि = गले में। परोइ = परो के।3। अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है वह परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, उसे सदा स्मरण करता रह, उस (के नाम) को अपने गले में परो के रख (जैसे फूलों का हार गले में डालते हैं)।3। कहु नानक कउन उह करमा ॥ जा कै मनि वसिआ हरि नामा ॥४॥२१॥७२॥ पद्अर्थ: करमा = (मिथा हुआ धार्मिक) काम। जा कै मनि = जिस मनुष्य के मन में।4। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसे, और वह कौन सा (निहित धार्मिक) कर्म (रह जाता है जो उसे करना चाहिए?)।4।21।72। आसा महला ५ ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगूते ॥ हरि सिमरनु करि हरि जन छूटे ॥१॥ पद्अर्थ: कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। अहंकारि = अहंकार में। विगूते = दुखी होते हैं। छूटे = बच जाते हैं।1। अर्थ: (हे भाई! माया-ग्रसित जीव) काम में, क्रोध में, अहंकार में (फंस के) दुखी होते रहते हैं। परमातमा के सेवक परमात्मा के नाम का स्मरण करके (काम-क्रोध-अहंकार आदि से) बचे रहते हैं।1। सोइ रहे माइआ मद माते ॥ जागत भगत सिमरत हरि राते ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माते = मस्त हुए। मद = नशा। राते = रंगे हुए।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! माया में ग्रसित जीव) माया के नशे में मस्त हो के (आत्मिक जीवन के पक्ष से) सोए रहते हैं (बेपरवाह टिके रहते हैं)। पर परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य प्रभु नाम का स्मरण करते हुए (हरि-नाम-रंग में) रंग के (माया के हमलों की तरफ़ से) सचेत रहते हैं।1। रहाउ। मोह भरमि बहु जोनि भवाइआ ॥ असथिरु भगत हरि चरण धिआइआ ॥२॥ पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। असथिरु = टिका हुआ, जनम मरण के चक्कर से बचा हुआ।2। अर्थ: (हे भाई! माया के) मोह की भटकना में पड़ के मनुष्य अनेक जूनियों में भटकते रहते हैं पर भक्त जन परमात्मा के चरणों का ध्यान धरते हैं वह (जनम-मरण के चक्कर से) अडोल रहते हैं।2। बंधन अंध कूप ग्रिह मेरा ॥ मुकते संत बुझहि हरि नेरा ॥३॥ पद्अर्थ: अंध कूप = अंधा कूआँ। मुकते = स्वतंत्र, आजाद। नेरा = नजदीक।3। अर्थ: (हे भाई!) ये घर मेरा है, ये घर मेरा है; इस मोह के अंधे कूएं के बंधनों से वे संत-जन आजाद रहते हैं जो परमात्मा को (हर वक्त) अपने नजदीक बसता समझते हैं।3। कहु नानक जो प्रभ सरणाई ॥ ईहा सुखु आगै गति पाई ॥४॥२२॥७३॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! ईहा = इस लोक में। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है वह इस लोक में आत्मिक आनंद भोगता है, परलोक में भी वह उच्च आत्मिक अवस्था हासिल किए रहता है।4।22।73। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |