श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 488, Extra text दो नाँव में पैर: ब्रिटेन के जगत प्रसिद्ध नाटक-कार शैक्सपियर के एक नाटक ‘वैरोना के दो साऊ’ में एक अमीर मनुष्य, एक और अमीर मनुष्य के नौकर से बातें करता दर्शाया गया है। अमीर उस नौकर को कोई बात समझा रहा था, पर तीन-चार बार समझाने पर भी, नौकर को समझ नहीं आया। अमीर कुछ गुस्से में आ के उससे कहने लगा: ‘तू बहुत ही मूर्ख है कि ये सीधी सी बात भी तू समझ नहीं सकता। देख, इस बात को तो मेरे हाथ में पकड़ी हुई ये निर्जीव छड़ी भी समझ गई है’। आगे नौकर ने थोड़ा सा मुस्करा के कहा, ‘हजूर, गुस्सा ना हों, मेरे में और आपकी छड़ी में बड़ा फर्क है। ये छड़ी आपके वश में है, पर मैं आपके वश में नहीं हूँ, मेरा मन आजाद है।’ चाहे कोई साधारण से साधारण दुनियावी बात हो और चाहे कोई ब्रहमज्ञान की ऊँची से ऊँची आत्मिक उड़ान की पेचीदगी हो, जब भी हमने किसी ज्ञानी से कुछ सीखना हो, हर समय एक ही सुनहरी नियम मानना पड़ता है कि शिक्षा दाते पर पूरा एतबार हो। जब भी सीखने वाले को अपने उस्ताद की अकल-समझदारी पर शक पैदा होना शुरू हो जाए तो उस्ताद-शार्गिद वाला और गुरू-सिख वाला नाता डाँवाडोल होने लगता है॥ कहते हैं कि राजा जनक ने अपने राज में ढंढोरा पिटवा दिया कि ‘कि मुझे किसी एसे गुरू की जरूरत है, जो मुझे इतने समय में ज्ञान दे दे जितने समय में एक मनुष्य किसी कसे हुए घोड़े की एक रकाब पर पैर रख के, पलाकी मार के घोड़े पर सवार हो जाता है’। ऋषि अष्टावक्र आया। राजे ने कसाए हुए घोड़े की रकाब में पैर रखा, पलाकी मारने ही लगा था कि, ऋषि ने कहा: ‘राजन! मन मेरे हवाले कर दे’। इनसानी जीवन का ये नियम सदा के लिए अटल है। जीवन-राह में कई गुंझलें हैं, कई ठोकरें लगती हैं, कदम-कदम पर अगुवाई की जरूरत पड़ती है और उस अगुवाई से हम तभी सही रास्ता ढूँढ सकते हैं अगर हमें अपने नायक पर पूर्ण भरोसा हो। गुरद्वारों में हर रोज सत्संग के बाद निम्न-लिखित दोहरा पढ़ने का आम रिवाज है; गुरू ग्रंथ जी मानिओ, परगट गुरां की देह॥ है भी ठीक। शारीरिक तौर पे साथ सदा नहीं निभ सकते। वाणी ही है जो सदा संभाल के रखी जा सकती है और सदा के लिए जीवन-राह में प्रकाश देती है। गुरु नानक पातशह के नाम-लेवा सिख ने, अगर गुरु नानक गुरु गोबिंद सिंह जी के बताए राह पे चलना है तो उसके पास सतिगुरु जी की वाणी है, जो जीवन-पंध के अंधेरों में रौशनी दे सकती है, जो राह की ठोकरों से बचा सकती है। तभी तो कलगीधर पातशाह शारीरिक गुरु की अगुवाई वाला सिलसिला बंद करने के वक्त खालसे को श्री गुरु ग्रंथ साहिब की अगुवाई में चलने का हुक्म दे गए थे। हमने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी पर पूर्ण श्रद्धा रखनी है। श्रद्धावान सिख को अपने गुरु में किसी तरह की कमी का शक नहीं पड़ सकता, गुरु में कोई कमी नहीं दिख सकती। गुरु चाहे शारीरिक रूप में है, चाहे वाणी रूप में है, गुरु सदा पूरण है, अमोध है; जीवन-राह के जो नियम गुरु बताता है, वह सदा के लिए अटल होते हैं। हम जब श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के आगे सिर निवाते हैं तो इसी श्रद्धा से निवाते हैं कि हमारा गुरु, वाणी स्वरूप हमारा गुरु संपूर्ण है, अचूक है। इस गुरु में कहीं कोई छोटा सा भी ऐसा कोई अंग नहीं है, जिसे अनुचित कहा जा सके। गुरु अरजन साहिब ने सारी वाणी एक बीड़ में ला के कहीं ऐसा नोट नहीं लिखा कि इस बीड़-गुरु में कहीं कोई विरोधाभास है। कलगीधर पातशाह ने भी कोई ऐसा हुक्म नहीं था किया। पर, आज हम गुरु ग्रंथ साहिब जी के बारे में अजीब और अश्रद्धाजनक ख्याल सुन रहे हैं। कहीं कोई विद्वान किसी शब्द के साथ कोई ऐसा साखी जोड़ के सुनाता है, जो हमारे अब के जीवन को कोई राह नहीं दिखा सकती। गुरु नानक पातशाह का नाम-लेवा सिख आगे से हैरान होता है कि क्या फिर ये शब्द, हमारे अब के जीवन के लिए नहीं रहा? क्या धीरे-धीरे कई और ऐसे शब्द भी निकलते आएंगे, जिनके साथ जुड़ी हुई साखियां उन्हें मानव जीवन से बेमेल बना देंगी? कहीं कोई विद्वान कहता है कि कई जगह भक्तों के ख्याल गुरमति से मेल नहीं खाते थे, इसलिए सतिगुरु जी ने उनके साथ अपना ख्याल भी दे दिया है। ये ऐसी खतरनाक टिप्पणियां हैं, जो लगती तो साधारण हैं, पर दरअसल, अंजान से भोले से सिख की श्रद्धा के पत्र पर छोटा सा चीर डाल देती हैं। कई और-और शक मिलने शुरू हो जाते हैं और बढ़ते-बढ़ते श्रद्धा से ही तोड़ देते हैं। गुरु वह है जिसमें कहीं कभी कोई कमी नहीं। गुरु वह है जो हमें रोजाना जीवन में हर वक्त अगुवाई करने के समर्थ है। गुरु नानक पातशह के नाम-लेवा के वास्ते गुरु ग्रंथ साहिब जी गुरु नानक जी का स्वरूप है, अचूक स्वरूप है, कमी रहित स्वरूप है। इसका कोई एक भी ऐसा अंग नहीं, एक भी ऐसा शब्द नहीं जो रहती दुनिया तक सिख के जीवन में उपयोगी ना रहे। अगर सिख ने गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु मानना है, तो इसी स्वरूप में मानना है, सिर्फ इसी शकल में मानना है। ये नहीं हो सकता कि माथा भी टेके और कहता भी जाए कि इसमें कई जगह विरोधी ख्याल भी मिलते हैं, और कई शब्द ऐसे हैं जो अबके जीवन से मेल नहीं खा सकते। इसे श्रद्धा नहीं कहा जा सकता, ये तो; ‘सलामु जबाबु दोवै करे, मुढहु घुथा जाइ॥ मोटी सी बात, गुरु ग्रंथ साहिब जी में चाहे कोई शब्द किसी भक्त जी का है, और चाहे गुरु-व्यक्तियों का, हरेक शब्द रहती दुनिया तक इन्सानी जीवन को रौशनी देने में समर्थ रहेगा, और ये कि कहीं भी कोई विरोधी ख्याल नहीं हैं। जो सिख गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु मानता है और ऊपर लिखे दोनों शंकाओं में भी पड़ जाता है, वह असल में दो बेड़ियों में सवार हो के जीवन-नदी में से तैरने का प्रयत्न करता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भक्त-वाणी कैसे दर्ज हुई? अश्रद्धा भरे विचार: गुरबाणी के कई टीकाकार विद्वानों ने भक्त-वाणी के बारे में ऐसे अजीब-अजीब ख्याल देने शुरू किए हुए थे, जिन्हें मानने के लिए सोच-अकल पे खासा दबाव डालना पड़ता था। सारे ही श्रद्धालु ऐसे नहीं हो सकते जो हर बात को सही मानते जाएं। श्रद्धालुओं की ये श्रद्धा भी है कि गुरु ग्रंथ साहिब हमारा गुरु है, दीन और दुनिया में हमें राह बताने वाला है, इसमें हरेक शब्द ऐसा है जो हमारे रोजाना जीवन में फिट बैठता है। पर जब इन विद्वान टीकाकारों के विचार पढ़ते हैं, तो अकल चक्कर सा खा जाती है। पण्डित तारा सिंह जी कौम के बड़े प्रसिद्ध विद्वान माने जाते हैं। वे लिख गए हैं कि भगतों की सारी वाणी गुरु अरजन देव जी ने भगतों के नाम तहित खुद ही उच्चारण की है। भोले-पन में कितना बड़ा आरोप लगाया गया है, गुरु पातशाह पर! अंजान लिखारी भी जानता है कि ये इख़लाकी जुर्म है। पर, शुक्र है कि पंडित जी की इस मान्यता को वाणी की अंदरूनी गवाही ने ही झुठला दिया है। कबीर और फरीद जी के कई श्लोक ऐसे हैं जो गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे, और जिनके साथ तीसरे पातशाह जी ने अपनी तरफ से कुछ मिलते-जुलते ख्यालों वाले शलोक शामिल कर दिए थे। पंडित तारा सिंह जी के बाद कई और विद्वानों ने अपनी-अपनी बारी में भक्तों के कई शबदों के बारे में विचार लिख दिए थे, जो श्रद्धालुओं की श्रद्धा पर काफी चोट मारते हैं। जैसे ये कहना कि, नामदेव जी के कई शब्द मूर्तिपूजा के हक में हैं, कबीर जी के कई शब्द प्राणायाम और योगाभ्यास के पक्ष में हैं, फरीद जी के कई शलोक बताते हैं कि फरीद जी उल्टे लटक के तप करते थे और उनके अपने पल्ले काठ की रोटी बंधी हुई थी; इन विद्वानों द्वारा ऐसी बातें लिख देना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। गुरु ग्रंथ साहिब को पूरी तरह से अचूक और कमी रहित गुरु मानने वाले सिखों की श्रद्धा को इन विद्वानों ने तोड़ के रख दिया। यहीं बस नहीं किया उन्होंने। भगतों के कई शबदों के साथ ऐसी-ऐसी साखियां जोड़ दी गई हैं, जो आदमी के जीवन-पथ में कोई साकारात्मक राह नहीं दिखा सकतीं। इन विद्वानों ने ऐसी लकीर डाल दी है कि इन साखियों से स्वतंत्र हो के पाठक सज्जन इन शबदों को पढ़ना-विचारना भुला ही बैठे हैं। सो, पढ़ते भी हैं और डोलते भी हैं। कबीर जी का अपनी पत्नी के साथ गुस्से हो जाना, नामदेव जी का विगारे पकड़ा जाना; ये दो उनमें से प्रसिद्ध साखियां हैं। इनका असर: ये श्रद्धाहीन विचार और जीवन से बेमेल साखियां आखिर अपना रंग दिखाने लगीं। पहले भक्त-वाणी के विरुद्ध अंदर से घुसर-फुसर होती रही, और अब खुल्लम-खुल्ला इसके विरोध में आवाज उठाई जा रही है और कहा जा रहा है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन देव जी की शहीदी के बाद गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज की गई थी। ऐसे सज्जनों की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। गुरु नानक पातशाह के जो नाम-लेवा गुरसिख गुरु ग्रंथ साहिब को सचमुच अपना गुरु मानते हैं, उनकी ये श्रद्धा है, और होनी भी चाहिए कि गुरु ग्रंथ साहिब का हरेक शब्द हमारे जीवन-पंथ में रौशनी का काम देता है। गुरु नानक साहिब ने खुद भी फरमाया है; ‘गुर वाकु निरमलु सदा चानणु, नित साचु तीरथ मजना॥’ (धनासरी छंत म: १) पर अगर गुरु ग्रंथ साहिब में कोई ऐसा शब्द भी मौजूद है जो मूर्तिपूजा, प्राणायाम, योगाभ्यास की प्रशंसा करता है, तो क्या हमने भी ये सारे काम करने हैं? अगर नहीं करने, तो ये शब्द यहाँ दर्ज क्यूँ हुए? पर सब से बड़ी बात ये है कि अगर ये शब्द मूर्ति-पूजा आदि के हक में हैं, और अगर इन्हें गुरु अरजन साहिब ने खुद ही दर्ज किया था, तो दर्ज करने के समय उन सिखों को सचेत करने के लिए ये क्यों ना लिख दिया कि ये शब्द सिखों के वास्ते नहीं हैं। बेजोड़ साखियों के बारे में भी वही मुश्किल है। घर में किसी बात से कबीर जी अपनी पत्नी से गुस्से हो गए, पत्नी ने मनाने की बड़ी मिन्नतें की। कबीर जी ने फिर भी यही उत्तर दिया; ‘कहत कबीर सुनहु रे लोई॥ अब तुमरी परतीत न होई॥’ (आसा) कौन सा घर है जहाँ कभी ना कभी पति-पत्नी में थोड़ी-बहुत फिक अथवा नाराजगी नहीं बनी रहती? पंजाबी की कहावत है घर में बर्तन भी ठहिक पड़ते हैं। पर क्या कबीर जी के शब्द से ये शिक्षा मिलती है कि यदि कभी पत्नी से किसी बात की छोटी-मोटी अनबन हो जाए, तो उसे यही कहना है, ‘अब तुमरी परतीत न होई’? अगर नहीं, तो क्या ये शब्द निरा पढ़ने मात्र के लिए ही है? नया ध्रुव: गुरु ग्रंथ साहिब और गुरु में पूरी श्रद्धा रखने के चाहवान सिखों के सामने ऐसी कई मुश्किलें खड़ी होती गई। ठोकरें लगने लग पड़ीं। और, आखिर कई सज्जन इस नतीजे पर आ पहुँचे कि भक्त वाणी गुरु अरजन साहिब के बाद दर्ज हुई थी। इस से उन सज्जनों को ये ढारस तो मिल गई कि अब वे जिस वाणी को गुरु मान रहे हैं वह अचूक है, उसमें कोई कमी नहीं, उसमें कहीं कोई विरोधता नहीं, उसका हरेक शब्द मानव जीवन के लिए रौशन मीनार का काम करता है और कर सकता है। नई साखी: पर इस आसरे पर टिकाना भी कोई आसान खेल नहीं थी। एक और मुश्किल सामने आ खड़ी हुई। गुरु अरजन साहिब जी के बाद भक्त वाणी किस ने दर्ज कर ली? कैसे दर्ज कर ली? गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ श्री हरिमंदर साहिब में से कैसे हटाई गई? किसी ऐतिहासिक कहानी की जरूरत थी। और, यूँ प्रतीत होता है ये कमी भी एक नई घड़ी साखी से पूरी कर ली गई है। भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन यूँ लिखते हैं: ‘पंचम गुरु जी शहादत पा गए और ‘पोथी साहिब’ को शाही हुक्म अनुसार ज़ब्त (कानून विरुद्ध) करार दे दिया गया, पोथी साहिब का पढ़ना (पाठ) और प्रचार करना मसनूह ठहरा दिया। पृथ्वी चंद और उसके साथी या यूं कहें गुरु घर के निकाले हुए चाहते भी यही थे। चुनांचि वह मौका अच्छा जान के बादशह जहाँगीर के पास कश्मीर गए, जा के सारी पोजीशन जाहिर कर दी कि गुरु अरजन साहिब का साहिबजादा श्री हरिगोबिंद अपने बाप का बदला लेने का जरूर यत्न करेगा। ये भी बताया कि वह बड़ा योद्धा है। अपने पिता की तरह शांति का उपासक नहीं, बल्कि मुकाबला करने वाला है। गुरु के सिखों के अंदर बड़ा जोश है, वे बग़ावत करके तेरे तख्त पर हमला करने की कोशिश करेंगे। हम तेरे पास इस वास्ते आए हैं कि तू वह पोथी हमें दे दे, हम उसमें इस्लामी शरा और हिंदू-मत-मण्डण के शब्द डाल देते हैं, और सिखों में ये प्रोपेगंडा करते हैं कि बादशाह ने ‘पोथी साहिब’ से पाबंदी हटा दी है, और शहादत का कारण चंदू वाले घड़े हुए किस्से को ज्यादा महत्वता दी जाएगी। ‘उक्त पैक्ट जहाँगीर और पृथिए की पार्टी के साथ हुआ। ये समय खालसे के लिए जिंदगी मौत का था। जब केवल वाणी में मुसलमान भगतों, भटों, डूमों की रचना मिला के ‘सतिगुरु बिना होर कची है वाणी’ की उलंघना करके हमेशा के लिए गुरबाणी को मिलगोभा वाणी बना दिया। ‘ये घटना 1662-64 बिक्रमी दर्मयान घटित हुई। ये सब कुछ पृथ्वी चंद ने अपनी दुकान-रूपी सिखी को चमकाने के लिए और खालसे के प्रसार को हमेशा के वास्ते खत्म करने के लिए किया और हुआ बादशाह के सलाह-मश्वरे से। यही कारण था कि पृथी की पार्टी को हकूमत की ओर से तकलीफ़ नहीं दी गई, सब कष्ट गुरु के सिख ही भुगतते रहे। पृथी चंद द्वारा डाली गई गड़बड़ को दूर करने के लिए ही श्री दशमेश जी को भाई मनी सिंह जी के द्वारा दोबारा केवल गुरबाणी पूरत बीड़ लिखनी पड़ी थी।” नई समझ: इस ऊपर लिखी नई साखी में हमें निम्न-लिखित बातें बताई गई हैं: गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ जहाँगीर ने श्री हरिमंदर साहिब से उठवा के अपने कब्जें में कर ली थी। बाबा पृथी चंद ने ये बीड़ जहाँगीर से वापस ले के इसमें भगतों की वाणी दर्ज कर दी थी। पृथी चंद ने फिर सिख कौम में प्रापोगंडा किया कि बादशाह ने ‘पोथी साहिब’ पर से पाबंदी हटा दी है। साखी अधूरी: पर ये नई साखी पूरी नहीं हो सकी। आओ देखें, कैसे? गुरु अरजन साहिब ने गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ की श्री हरिमंदर साहिब में स्थापना करवा दी थी। बाबा बुढा जी श्री हरिमंदर साहिब के पहले ग्रंथी नीयत हुए थे। इस नई कहानी के अनुसार सतिगुरु पातशाह जी की शहीदी के बाद ‘बीड़’ श्री हरिमंदर साहिब में से उठवा ली गई थी। बाबा पृथ्वी चंद को सिख धर्म को कमजोर करने का मौका मिला। जहाँगीर से बीड़ ले के उन्होंने इसमें हिन्दू मति और इस्लाम के ख्यालों के शब्द दर्ज करवा दिए, और सिख कौम में प्रापोगंडा किया कि ‘पोथी साहिब’ पर से बादशाह ने पाबंदी हटा ली। पर इस प्रापोगंडे कासबसे जल्द और दरुस्त असर पैदा करने का यही तरीका हो सकता था कि ‘बीड़’ जहाँ से उठाई थी वहीं वापस ला के रख दी जाती। सो, इस साखी के अनुसार ये अंदाजा पाठकों को स्वयं ही लगाना पड़ेगा कि ‘बीड़’ दुबारा श्री हरिमंदर साहिब में रख दी गई थी। अगर नहीं, तो जबानी प्रापोगंढे का क्या लाभ? बाबा बुढा जी ग्रंथी जी तो मौजूद ही थे, दुबारा पहले की तरह ही इस ‘बीड़’ से (जो इस नई साखी के अनुसार मिलगोभा हो चुकी थी) वाणी का प्रचार शुरू हो गया। ये अजीब खेल है कि हर रोज इस ‘बीड़’ के आप दर्शन करने और-और लोगों को कराने वाले बाबा बुढा जी को ये पता ना लग सका कि ‘बीड़’ में और लिखत डाली गई है। इस ‘बीड़’ को लिखने वाले भाई गुरदास जी भी अभी जीवित थे, और, यहीं अमृतसर में ही रहते थे, इन्हें भी ना पता लग सका। बताएं, ये बात कैसे मानी जा सकती है? अगर इस नई कहानी के कहानीकार सज्जन ये कहें कि ‘बीड़’ को दुबारा श्री हरिमंदर साहिब में नहीं लाया गया, तो बाबा पृथ्वी चंद ने और कौन सा प्रापेगंडा किया? क्या श्री हरिमंदर साहिब में फिर और कोई ‘बीड़’ नहीं लाई गई? कहीं भी सिख इतिहास में ऐसा कोई जिक्र नहीं आया। जहाँगीर ने तोज़िक-जहाँगीरी में गुरु अरजन साहिब को कष्ट दे के मरवाने का वर्णन तो किया है, पर गुरु ग्रंथ साहिब को जब्त करने की उसने कोईबात नहीं लिखी। इस नई साखी के कहानीकार एक और गलती कर गए। बाबा पृथ्वी चंद जी गुरु अरजन देव जी के शहीद होने से एक साल पहले ही परलोक सिधार चुके थे। एक और मुश्किल: इस साखी पर श्रद्धा बनाने के लिए अभी एक और मुश्किल है। गुरु अरजन साहिब की शारीरिक मौजूदगी में ही ‘बीड़’ की कई प्रतियां हो चुकी थीं। ये बात हमारे नए इतिहासकार भाई भी मानते हैं और लिखते हैं: ‘जहाँगीर कट्टर मुसलमान था। वह चाहता था कि अकबर वाला दीन-ए-इलाई’ का पाखण्ड छोड़ के तलवार से इस्लाम फैलाया जाए। गुरु अरजन साहिब त्रिलोक के राजनीतिज्ञ और हर तरह की जानने वाले थे। उन्होंने परख लिया कि आने वाला समय बड़ा भयानक व जंगों-युद्धों वाला आ रहा है, खालसा धर्म विस्तार के लिए बड़े जंग लड़ने पड़ेंगे, उस वक्त वाणी की संभाल मुश्किल हो जाएगी। इसी विचार को मुख्य रख के महाराज ने पहले ही चार गुरु साहिबानों और अपनी वाणी को एक जगह एकत्र करके ‘पोथी साहिब तैयार की। इसी पोथी का प्रचार करने के लिए दूर-दूर तक प्रतियां करके भेजा गया था। यहाँ एक और शक पैदा होता है कि जहाँगीर ने श्री हरिमंदर साहिब वाली ‘बीड़’ ही जब्त की थी, अथवा सारी प्रतियां जब्त कर ली थीं। सिख धर्म के प्रचार को खत्म करने की असली करारी चोट यही हो सकती थी कि सारी ‘बीड़ों’ को जब्त किया हो। सिर्फ एक ‘बीड़’ के जब्त होने से बाकी और जगहों से प्रचार कैसे बंद हो सकता था? और, सारी ‘बीड़ों’ का जब्त होना सिख कौम के लिए तो बड़ी विपदा की बात थी। हमारा इतिहास इतने बड़े भयानक हादसे का जिक्र क्यूँ ना कर सका? विचार का दूसरा पक्ष: अच्छा, अब इस विचार का दूसरा पक्ष लें। फर्ज करें कि बाबा पृथ्वी चंद जी गुरु अरजन देव जी की शहीदी के बाद भी अभी जीवित थे। और, ये भी मान लें कि जहाँगीर ने गुरु ग्रंथ साहिब की ‘बीड़’ जब्त कर ली थी। ये भी मानते चलें कि बाबा पृथ्वी चंद ने जहाँगीर से बीड़ वापस ले के इसमें भक्तों आदि की वाणी दर्ज कर दी थी। पर, अगर सिर्फ श्री हरिमंदर साहिब वाली ‘बीड़’ ही जब्त हुई थी तो बाबा पृथ्वी चंद भगतों की वाणी सिर्फ इसी ‘बीड़’ में दर्ज कर सके होएंगे। बाकी प्रतियों में भक्त-वाणी कैसे जा पहुँची? चलिए, नई साखी के कहानीकार भाई को इस मुश्किल में से निकालने के लिए ये भी मान लें कि सारी ही ‘बीड़ें’ जब्त हो गई थीं, पृथ्वी चंद जी ने सब में ही भक्त वाणी दर्ज कर दी थी। जहाँगीर के हक में प्रापेगंडा करने के वास्ते पृथ्वीचंद ने ये सब ‘बीड़ें’ असल टिकाने में वापस भी कर दी होंगी, क्योंकि एक तरफ सिखों का गुस्सा ठंडा करना था, दूसरी तरफ सिख कौम में हिन्दू मत और इस्लाम फैलाना था। कितनी अजीब बात है कि सिख कौम को पता ना लग सका कि गुरबाणी में मिलावट कर दी गई है। शायद बादशाह की ओर से सिर्फ माथे टेकने तक की ही आज्ञा मिली हो, पाठ करने से अभी भी मनाही ही हो। धन्य हैं! ये मान लें कि बाबा पृथ्वी चंद जी श्री हरिमंदर वाली ‘बीड़’ में और इसकी सारी प्रतियों में भक्त-वाणी आदि दर्ज करने में कामयाब हो गए। फिरी इन्हें वह अपने असल ठिकानों में भेज सके। किसी को पता भी ना लग सका कि गुरबाणी में मिलावट हो गई है। मिलावट कैसे की गई? अब आखिर में एक बात विचारने वाली रह गई है कि पृथ्वीचंद जी ने भगतवाणी कैसे और कहाँ दर्ज की? इस बारे साखीकार जी स्वयं ही लिखते हैं: “छपी हुई बीड़ों में भक्त वाणी गुरु महाराज की वाणी के बाद में दर्ज है। उसके अंगों की गिनती भी अलग है। किसी ने गुरु साहिब जी द्वारा ‘सुध कीचै’ की संज्ञा नहीं दी है।” जो हमारे भाई की खोज अनुसार सारी भक्त-वाणी सतिगुरु जी की वाणी के बाद दर्ज की गई है। ठीक है, आखिर में ही हो सकती थी। कई पाठकों को शायद ‘सुध कीचे’ की जरूरत हो। उनकी सहूलत के लिए थोड़ा सा वर्णन यहां लाजमी है। सारी वाणी रागोंके अनुसार बँटी हुई है। हरेक राग के पहले ‘शब्द’ फिर ‘अष्टपदियां’, फिर ‘छंद’, फिर ‘वार’ हैं। ‘शब्द’, ‘अष्टपदियों’ आदि की तरतीब भी नियम अनुसार है, पहले महला पहला, फिर तीसरा, चौथा और पाँचवा है। कई ‘वारों’ के समाप्त होने पर शब्द ‘सुधु’ अथवा’सुध कीचे’ आता है। साखीकार के कहने के मतलब ये है कि भक्त-वाणी ‘वारों’ के आखिर में दर्ज की गई है। कहते भी ठीक हैं। सतिगुरु जी के शबदों के बीच तो भगतों के शब्द दर्ज हो ही नहीं सकते थे, क्योंकि गुरु साहिब ने सब शबदों की गिनती भी साथ-साथ लिखी हुई है। गिनती में फर्क पड़ा, अथवा गिनती में फेर-बदल करने से पृथ्वी चंद का सारा पाज उघड़ जाना था। इसी तरह ‘वारों’ के अंदर भी भगतों के शब्द छुपाए नहीं जा सकते थे, क्योंकि वारें तो है ही निरी ‘शलोक’ और ‘पउड़ियां’। सो, पृथ्वी चंद जी ने समझदारी से काम लिया कि भगतों के सारे शब्द और शलोक गुरु महाराज जी की वाणी के आखिर में दर्ज किए। कोई अजीब बात नहीं कि बाबा बुढा जी, भाई गुरदास जी और अन्य सज्जनों ने, जिनके पास ‘बीड़’ की प्रतियां थीं, ‘वारों’ की आगे के बाकी के पन्ने खोल के ही ना देखें हों, और इस लिए ये मिलावट छुपी रही। नई उलझनें: पर इतना कुछ मान लेने पर भी कहानीकार की कहानी तर्कसंगत नहीं बन सकती। कई और उलझनें पड़ गई हैं। आओ, एक-एक करके देखें; साखीकार सज्जन लिखते हैं: ‘इतिहास के जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि भाई गुरदास के काशी आने से पहले भक्त-रचना पंजाब के अंदर आ गई थी, तीसरे पातशाह के नोट जाहर करते हैं कि भक्त-रचना पर तीसरे गुरु ने टीका-टिप्पणी करके नोट दिए।....ये नोट अब भी महला ३ के शीर्षक तहत मिलते हैं।’ फरीद जी के शलोकों का जिक्र करते हुए ये भाई लिखते हैं: “मौजूदा बीड़ में आप जी के चार शब्द और 130 शलोक हैं। कई शलोकों पर तीसरे और पाँचवे गुरु जी द्वारा नोट भी दिए गए हैं।” “और कई जगह गुरु साहिबान द्वारा नोट हुए हैं, जिससे साबित होता है भगतों का सिद्धांत कमजोर और कमियों भरा समझा है।” लो, अब इस उपरोक्त लिखत को कसवटी पर परख के देखें। सतिगुरु जी के इन शलोकों के बारे में भाई साहिब जी (कहानीकार) वर्णन करते हैं, कि वे तीन किस्म के हैं: एक वो जिनमें शब्द ‘नानक’ आता है, दूसरे वो जिनमें शब्द ‘फरीद’ मिलता है, और, तीसरे वो जिनमें कोई भी नाम नहीं, जैसे कि “दाती साहिब संदीआ किआ चलै तिसु नालि॥ इकि जागंदे ना लहंनि इकना सुतिआ देइ उठालि॥ ” ये तीसरी किस्म के शलोक ‘वारों’ में भी दर्ज हैं, वहीं शीर्षक में इनके ‘महले’ का अंक भी दिया हुआ है। हमने पहली दो किसमों के शलोकों पर ही विचार करनी है। ये शलोक सिर्फ कबीर जी और फरीद जी के शलोकों में ही दर्ज हैं, गुरु ग्रंथ साहिब में और कहीं नहीं है। इनमें से दूसरी किस्म के शलोकों में से बतौर नमूना पढ़ें निम्न-लिखित शलोक; काइ पटोला पाड़ती, कंमलड़ी पहिरेइ॥ (अ) अब कहानीकार की कहानी को मानने की राह में मुश्किल आ गई है कि ये शलोक सिर्फ फरीद जी के शलोकों में दर्ज हैं, और कहीं नहीं। और, ये है भी फरीद जी के शलोकों के संबंध में ही। जब बाबा पृथ्वीचंद ने भक्त वाणी ‘बीड़ों’ के आखिर में दर्ज करवाई, तो ये शलोक उन ‘बीड़ों’ के किसी हिस्से में से लिए? उस जगह को मिटा के भगतों के शलोकों में कैसे लाया गया? जहाँ से मिटाया गया वहाँ क्या डाला गया? आखिर उस असल जगह से हटाने की क्या जरूरत पड़ी? अगर ये शलोक फरीद जी के किसी ख्याल के खंडन के लिए हैं, तो बाबा पृथ्वीचंद ने खंडन क्यों करना था? उसने तो बल्कि भुलेखे बढाने थे। क्योंकि उसने भुलेखे बढ़ाने के लिए ही ये सारा उद्यम किया था। अभी तक कोई भी ऐसी लिखी हुई बीड़ देखने में नहीं आई जिस में ये शलोक अपनी वाणी में भी दर्ज हो। यही बात पहली किस्म के शलोकों के बारे में भी सत्य है। ये शलोक तोबल्कि ये साबित कर रहे हैं कि भगतों की वाणी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी, क्योंकि वे प्रत्यक्ष तौर पर फरीद जी का नाम बरत रहे हैं। (आ) अब पाठकों के सामने भैरव राग के शबदों की गिनती और तरतीब रखने की जरूरत पड़ी है। इस गिनती से पाठक स्वयं ही देख लेंगे कि कहानीकार अपनी इस नई कहानी को रचने में बिल्कुल ही कामयाब नहीं हो पाया। 1430 पन्ने वाली ‘बीड़’ के पन्ना 1125 से आरम्भ करें। पन्ना नं: 1127 के आखिर में आखिर अंक है 8। मतलब, भैरव राग में गुरु नानक साहिब के 8शबद हैं। पंना 1133 के आखिर में है अंक 21। ये 21 शब्द गुरु अमरदास जी के हैं। पाठक अपनी तसल्ली कर लें। पंना 1136 की तीसरी पंक्ति के आखिर में 7 है। ये शब्द गुरु रामदास जी के हैं। पंना 1153 की आठवीं पंक्ति में अंक है 57। ये 57 शब्द गुरु अरजन साहिब जी के हैं, जिनकी बाँट यूँ है: घरु १–13, घरु २–43, घरु ३–1, कुल–57। इस अंक 57 के आगे सारे गुरु साहिबानों के शबदों का जोड़ फिर दुहराया गया है;
महला १ ----------------08शबद अब पंना 1136 पर शीर्षक ‘महला ५ घरु १’ के नीचे तीसरा शब्द ध्यान से देखें। इसका शीर्षक यही ‘महला ५’ है। पर, इसकी आखिरी तुकें यूँ हैं; “कहु कबीर इहु कीआ वखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥ ” हमारे पास तो श्रद्धा का सीधा राह है कि इस शब्द का शीर्षक है ‘भैरउ महला ५’, इस लिए ये शब्द गुरु अरजन साहिब का है। आगे ये अलग सवाल है कि गुरु अरजन साहिब ने शब्द ‘नानक’ की जगह ‘कबीर’ क्यों बरता? इसका उत्तर हमने भक्त कबीर जी की वाणी के टीके में दिया है। यहाँ हमने सिर्फ इतना बताना है कि कहानीकार भाई के लिए उसकी नई साखी के राह में भारी मुश्किलें ले आई है। क्या आप इस शब्द को गुरु अरजन साहिब का नहीं मानते? इसका शीर्षक भी है ‘महला ५’, और ये दर्ज भी है ‘महला ५’ के शबदों में। शब्द ‘नानक’ की जगह शब्द ‘कबीर’ बरता जाना बताता है कि गुरु अरजन साहिब कबीर जी के संबंध में कुछ कह रहे हैं, और, ये बात तभी हो सकती है यदि उन्होंने कबीर जी की वाणी स्वीकार की हुई हो। पर अगर आप अभी भी इस शब्द को कबीर जी की रचना मानते हैं, और ये भी कहते हैं कि भक्त-वाणी पृथ्वी चंद ने दर्ज की थी, तो बताएं, कबीर जी का ये शब्द यहाँ गुरु साहिब जी के शबदों में कैसे दर्ज हो गया? गिनती की अंक 93 कैसे तोड़ोगे? सिर्फ यही अंक अकेला नहीं, इस शब्द से ले के आखिर तक सारे अंक ही तोड़ने पड़ेंगे। और, सारी पुरानी ‘बीड़ें’ देखें, अगर बाबा पृथ्वीचंद ने दर्ज किया होता, तो अंक 93 की जगह से पहला अंक 92 होता, इसी तरह इससे पहले के सारे अंक भी तोड़े हुए होते। पर किसी भी ‘बीड़’ में ये बात नहीं मिलती। सीधी सी बात है कि भक्त-वाणी बाबा पृथ्वीचंद आदि ने अथवा किसी और ने गुरु अरजन देव के बाद दर्ज नहीं की। सतिगुरु जी स्वयं ही दर्ज कर गए थे। (इ) हमने पाठकों के सामने अभी एक और प्रमाण रखना है। गुरु ग्रंथ साहिब में 22 ‘वारें’ हैं, जिनमें से ‘दो’ ऐसी हैं जिनकी पौड़ियों के साथ कोई शलोक नहीं: सत्ते-बलवंड की वार और बसंत की वार महला ५। बाकी 20 ‘वारों’ की हरेक पउड़ी के साथ कम से कम दो शलोक दर्ज हैं। कहीं एक भी जगह इस नियम की उलंघना नहीं है। अब पाठक सज्जन नीचे लिखी तीन ‘वारों’ को ध्यान से पढ़ें: गुजरी की वार महला ३, बिहागड़े की वार महला ४ और रामकली की वार महला ३। इन वारों के आखिर में शब्द ‘सुधु’ दर्ज है, जिससे हमारा कहानीकार भाई भी ये निर्णय निकालता है कि यहाँ तक की वाणी गुरु साहिब ने आप दर्ज कराई है। अब लें गुजरी की वार महला ३। इसकी 22 पउड़ियां हैं। हरेक पउड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं, और सब तुकों का आकार भी एक जैसा है। सारी ‘वार’ में एक बड़ी सुंदर सी समानता है। हरेक पउड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं, और शलोक भी सारे महले तीसरे के हैं। पर, अब देखें पउड़ी नं: 4। इसके साथ पहला शलोक कबीर जी का है, और दूसरा गुरु अमरदास जी का। ‘वार’ की एकसुरता को ध्यान में रखते हुए ऐसा नहीं हो सकता था कि सतिगुरु जी इस पउड़ी के साथ सिर्फ एक शलोक दर्ज करते। किसी भी ‘वार’ में ऐसी बात नहीं मिलती। और, दूसरी बात ये कि अगर नई साखी के मुताबिक भगतों की वाणी बाबा पृथ्वीचंद ने दर्ज की, तो ये श्लोक यहाँ कैसे दर्ज कर लिया? खाली जगह ही नहीं थी जहाँ दर्ज हो जाता। बाहर हाशिए पर भी दर्ज नहीं है, अगर हाशिए पर दर्ज करते तो मिलावट का भेद खुल जाना था। बाकी शलोकों की तरह, पहले ही अपनी जगह में दर्ज है। यहाँ से ये बात साफ सिद्ध हो गई है कि ये शलोक गुरु अरजन साहिब जी ने खुद ही दर्ज किया था। इसी तरह देखें बिहागड़े की वार महला ४ की पउड़ी नं: १७ के साथ पहला शलोक कबीर जी का है। और, ये गुरु अरजन साहिब ने खुद ही दर्ज किया है। रामकली की वार महला ३ की पउड़ी नं: २ भी इसी नतीजे पर पहुँचाती है। इसके साथ का पहला शलोक भी कबीर जी का ही है। सारी विचार का नतीजा: अब तक इस लंबी विचार-चर्चा में हम दो बातें देख चुके हैं: ये साखी मन-घड़ंत और गलत है कि भगतों की वाणी, भटों के सवैऐ और सत्ते-बलवंड की वार बाबा पृथ्वीचंद ने या किसी और ने गुरु अरजन साहिब की शहीदी के बाद दर्ज किए थे। भैरउ राग में ‘महला ५ घरु १’ का तीसरा शब्द जिसमें शब्द ‘नानक’ की जगह ‘कबीर’ कहा है, गुरु अरजन साहिब ने खुद ही लिखा और दर्ज किया है। गुजरी की वार महला ३, बिहागड़े की वार महला ४ और रामकली की वार महला ३ में कबीर जी के तीन शलोक गुरु अरजन साहिब ने खुद ही दर्ज किए हैं। फिर सारी भक्त-वाणी को गुरु अरजन साहिब के द्वारा अपने हाथों दर्ज क्यों ना माना जाए! यहाँ पाठकों को दुबारा याद करा देना जरूरी है कि; भक्त-वाणी और गुरबाणी का आशय पूरी तरह से मिलता है। विद्वान टीकाकारों की बताई हुई बेमतलब की साखियां मनघड़ंत हैं। भगतों का कोई भी शब्द मूर्ति-पूजा, अवतार-पूजा, प्राणायाम व योगाभ्यास के हक में नहीं हैं किसी भी भक्त ने ये नहीं लिखा कि उसने ठाकुर-पूजा व बीठल-पूजा आदि से परमात्मा की प्राप्ति की। जिस शबदों के बारे में विद्वानों ने भुलेखे डाले हुए हैं, हमने भक्त-वाणी के टीके में उन शबदों की व्याख्या विस्तार से कर दी है। सतिगुरु नानक देव जी ने अपनी वाणी खुद ही इकट्ठी की थी तवारीख़ गुरु खालसा की गवाही ज्ञानी ज्ञान सिंह अपनी पुस्तक ‘तवारीख़ गुरु ख़ालसा’ के पहले हिस्से के दूसरे नंबर में गुरु अरजन साहिब जी का जीवन-वृतांत लिखते हुए लिखते हैं, “गुरु अरजन साहिब जी ने विचार की कि......मजहब कौम धर्म-पुस्तक के आसरे फैलता... सिख कौम की सदा स्थिति के लिए....ईश्वरीय वाणी संग्रह करके एक धर्म-पुस्तक ग्रंथ साहिब नाम की बनाएं। ये विचार के गुरु साहिब ने सब देश-देशांतरों के सिखों को हुकमनामे लिखे कि जिस किसी के पास कोई गुरु का शब्द है सो सब ले आए। हुक्म सुन के जो जो गुरु नानक देव जी के समय के शब्द सिखों ने कंठ करके रखे थे या लिख रखे थे, वह सब ले आए और गुरु जी के पास लिखा दिए। इस प्रकार बहुत वाणी गुरु जी के पास इकट्ठी हो गई। बाकी कुछ थोड़ी सी वाणी दो पोथियां मोहन जी के पास गोविंदवाल में थीं, वह गुरु जी खुद जा के ले आए....जब इस तरह कई बरस में चारों गुरु साहिबानों की और अपनी वाणी सिलसिले वार कायम कर ली तो....। “प्रत्येक राग के अंत में जो भक्तों की वाणी गुरु जी लिखाते रहे, इसके दो मत हैं: कोई कहता है, भक्त खुद बैकुंड से आ के लिखाते थे और उनका दर्शन भी भाई गुरदास जी को उनके संसे दूर करने के लिए कराया गया था। कई कहते हैं भगतों की वाणी जो-जो गुरु जी को पसंद आई, उनकी पोथियों में से लिखाई है। सो, ये बात उन पोथियों से भी साबित है जो गुरु जी मोहन जी के पास से लाए थे क्योंकि उनमें भी भक्त-वाणी है।” जब गुरु अरजन साहिब जी ने सिखों को हुकमनामें भेजे थे तो, ज्ञानी ज्ञान सिंह जी लिखते हैं कि “भाई बख़ता अरोड़ा गुरु का सिख जलालपुरी परगने हस अब्दाल वाला एक बड़ा सारा पुस्तक, जो उसने आदि गुरु से लेकर चारों गुरूओं के पास रहके लिखा था, अब पाँचवें गुरु जी के पास ले आया। उसमें से जो वाणी गुरु जी की इच्छा हुई, वह लिख ली और पुस्तक उसे मोड़ दी। अबवह पुस्तक उसकी औलाद में बूटा सिंह पंसारी के पास रावलपिंडी में है.....।” (1947 देश के बटवारे के बाद की स्थिति इस दर्पण में नहीं लिखी) इससे परिणाम निकलते हैं: इस उपरोक्त लिखी वारता को ध्यान से पढ़ने पर ये नतीजे निकलते हैं; गुरु अरजन साहिब से पहले किसी सतिगुरु जी को गुरबाणी एकत्र करने का ख्याल नहीं आया था, ना ही उन्होंने अपनी वाणी आप लिख के रखी। गुरु अरजन साहिब जी के पास अपने से पहले के सतिगुरु साहिबानो की वाणी मौजूद नहीं थी। जिस-जिस जगह जो-जो शब्द किसी सतिगुरु ने उच्चारा था, उस-उस जगह के किसी प्रेमी ने लिख रखा था, और जब गुरु अरजन साहिब ने हुकमनामे भेजे, तब ये सिख उनको ये शब्द लिखा आए। भगतों की वाणी के संबंध में बताए हुए दो मतों में से जिस मत से ज्ञानी ज्ञान सिंह जी खुद सहमत है, उसे अच्छी तरह नितार के उन्होंने नहीं लिखा कि गुरु अरजन साहिब ने कौन सी पोथियों में से पसंद करके भाई गुरदास जी से लिखवाई थी। पर, इस संबंधी एक बात स्पष्ट है कि जिस सतिगुरु साहिबानों ने अपनी ही उचारी हुई वाणी को खुद लिख के संभाल के रखने की जरूरत नहीं थी समझी, उन्होंने किसी भक्त की वाणी अपने पास लिख के नहीं थी रखी हुई। अनेक शंके: ज्ञानी ज्ञान सिंह इस दिए ख्याल को ज्यों-ज्यों ध्यान से विचारते जाएं, एक कंपन सी आ जाती है। लाखों लाख शुक्र है सतिगुरु अरजन देव जी का, जिन्होंने हमें सदैव जीवन का सही राह बताने के लिए रूहानी वाणी एकत्र करके समय रहते संभाल ली। पर अगर कोई भी सिख सतिगुरु के उचारे हुए शबदों को तुरंत उसी समय ना लिख लेता, तो क्या बनता? गुरु के प्रेमी सिख कैसे लिखते होंगे? क्या जग सतिगुरु जी कोई नया शब्द गाते थे तो कोई प्रेमी सिख उसी वक्त जल्दी-जल्दी लिख लेता था? अगर भला जल्दबाजी में इस शब्द में से कोई शब्द या कोई तुक रह जाती थी तो क्या वह सिख सतिगुरु जी से कीर्तन समाप्त होने पर पूछ के ठीक कर लेता था? क्या सतिगुरु जी सदा गा के ही शब्द उचारते थे? अगर साधारण तौर पर भी उचारते थे तो इतनी जल्दी कोई प्रेमी सिख कैसे साथ-साथ लिख लेता होगा? क्या गुरु अमरदास जी भी सदा गा के ही शब्द व अष्टपदियां उचारते थे? और कोई ना कोई प्रेमी साथ-साथ लिखता जाता था? गुरु ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी और गुरु अमरदास जी की काफी लंबी-लंबी बाणियां भी हैं, क्या ये भी गा के और काफी समय ले के उचारी गई थीं? अगर नहीं, तो किसी प्रेमी सिख ने कैसे ये जल्दी-जल्दी लिखी होंगी? क्या सतिगुरु जी ने खुद ही ये बाणियां किसी प्रेमी सिख को लिख के दी होंगी? ‘पटी’ राग आसा में, ‘ओअंकार’ और ‘सिध गोसटि’ राग रामकली में, ‘बारा माह’ राग तुखारी में, और शुरू में ही ‘जपुजी’; ये बाणियां विषोश तौर पर ही किसी प्रेमी ने लिखी होंगीं। इसी तरह गुरु अमरदास जी की ‘पटी’ और ‘अनंद’ लंबी बाणियां हैं। एक बात और भी हैरानी वाली है। क्या कोई एक ही प्रेमी सिख सतिगुरु जी के पास सदा रहता था, जो उचारा हुआ शब्द उसी वक्त लिख लेता था या जहाँ सतिगुरु जी जाते थे वहाँ का कोई प्रेमी सिख लिखता था? क्या हर वक्त सिख कलम-दवात अपने साथ ही रखते थे कि जब सतिगुरु जी शब्द उचारें उसी वक्त लिख सकें? अगर कोई एक ही सिख लिखने वाला होता तो उसका नाम सिख इतिहास में जरूर होता; और ये बात भी अजीब ही लगती है कि हर जगह प्रेमी सिख कलम-दवात सदा साथ ही रखते हों। भाई बख़ते वाली बीड़ के बारे में शंके: ये भाई बख़ते वाली साखी और भी ज्यादा हैरान कर देने वाली है। गुरु नानक देव जी के पास बख़ता कब आया होगा? अगर ‘उदासियों’ के वक्त बख़ता सतिगुरु जी के साथ होता तो कहीं ना कहीं उसका जिक्र आ ही जाता। शायद ये तब आया हो जब सतिगुरु जी करतारपुर आ के टिक गए हों। ये सन् 1521 ईसवी बनता है, जब ‘तीसरी उदासी’ खत्म हुई। जो शब्द सतिगुरु जी अपनी उदासियों के वक्त उचार आए थे, भाई बख़ते ने वे कहाँ से लिखे होंगे? क्या सतिगुरु जी ने वह सारे जबानी याद रखे हुए थे? इतिहासकार लिखते हैं कि वाणी ‘ओअंकार’ पहली उदासी के समय उचारी थी। क्या सतिगुरु जी ने भाई बख़्ते को ये वाणी भी जबानी ही लिखाई होगी? ज्ञानी ज्ञान सिंह जी लिखते हैं कि भाई बख़ता चारों गुरु साहिबानों के पास रहके वाणी लिखते रहे। सारे कितने साल बने? गुरु रामदास जी 1581 में ज्योति से ज्योति समाए। सो, 1521 से ले के 1581 तक 60 साल भाई बख़ता गुरु चरणों में रहे। कितने ही भाग्यशाली व्यक्ति थे! पता नहीं इतिहासकारों को इस गुरसिख और इसकी मेहनत का क्यों पता ना लग सका। पर आश्चर्य इस बात का है चार गुरु साहिबानों के पास रह के वाणी इकट्ठी करके भाई बख़ता गुरु अरजन देव जी के वक्त अपने वतन क्यों चला गया। हरेक सतिगुरु जी से भाई बखता दसख़त क्यों करवाता रहा? क्या इस सबूत वास्ते कि जो एकत्र किया है, ये गुरबाणी है? पर, ज्ञानी जी लिखते हैं कि भाई बख़ते वाली बीड़ में ‘वाणी इतनी है जानो इस गुरु ग्रंथ साहिब जी का खजाना है’। अजीब बात है! अगर भाई बख़ता हरेक गुरु के पास रहके लिखता रहा और फिर गुरु जी के दसखत करवा लेता रहा, तो इतना बड़ा खजाना कैसे बन गया? क्या ये सारी वाणी ‘गुर वाणी’ नहीं है? अगर नहीं, तो भाई बख़ता गुरु दर पर रहके और कहाँ से लिखता रहा? अगर ये गुरबाणी ही है तो गुरु अरजन साहिब जी ने गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ में ये सारी की सारी क्यों ना लिखी? बीच में से कुछ छोड़ क्यों दी? फिर इस भाई बख़ते पुत्र-पौत्र हसन अब्दाल से विशेष तौर पर चल के अमृतसर, कीरतपुर और अनंदपुर सिर्फ दसखत करवाने के लिए इस इतनी बड़ी बीड़ को क्यों लाते रहे, जिसे ज्ञानी ज्ञान सिंह जी के अनुसार एक आदमी मुश्किल से उठा सकता है’? इस बीड़ बारे नए शंके: आजकल इस बीड़ के बारे में जो लेख छपे हैं, वह ज्ञानी ज्ञान सिंह जी की लिखत से थोड़ा भिन्न हैं। अब भाई बख़ता तीसरे पातशाह जी का सिख बताया जा रहा है, और ये बीड़ भाई पैंधा साहिब वाली बताई जा रही है। सत्ते बलवंड की वार की इस बीड़ में दस पउड़ियां दर्ज हैं। आखिरी दो पौड़ियां गुरु हरि गोबिंद साहिब जी की स्तुति में हैं। पर, यहाँ एक और उलझन आ पड़ी। गुरु अरजन साहिब के बाद बीड़ में नई वाणी दर्ज होनी बंद तो हुई नहीं थी, गुरु तेग बहादर साहिब जी की वाणी दर्ज की गई। सत्ते-बलवंड वाली दो पउड़ियां क्यों दर्ज ना हुई? अगर गुरु का सिख भाई बख़्ता कीरतपुर जा के गुरु हरि राइ जी से दो पौड़ियां ला सकता था, तो गुरु तेग बहादर साहिब और गुरु गोबिंद सिंह जी को भी मिल सकती थीं। अगर पहले पाँच गुरु साहिबानों की महिमा श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज होनी गुरु आशय अनुसार है तो छेवें पातशाह गुरु हरिगोबिंद साहिब जी की उपमा भी गुरु आशय के मुताबिक ही थी। सबसे ज्यादा कद्र किस को: भाई बख़ते ने ये सारी मेहनत क्यों की? इसका उत्तर साफ है वाणी से प्रेम था और गुरसिखों के भले के लिए मेहनत की गई। पर, जो पातशाह अपने सुख वार के, तड़पते जीवों को ढारस देने के लिए परदेसों में लंबी यात्रा करते रहे, क्या उस सुंदर प्रीतम को कभी ख्याल नहीं आया कि कि धरती पर माया में जीव सदा विलकते ही रहते हैं, इनके लिए ‘खुनकु नामु खुदाइआ’ का कोई चष्मा हमेशा के लिए जारी कर जाने की जरूरत है? हरेक पिता अपने पुत्रों के लिए आजीविका के लिए, अपनी वित्त अनुसार कुछ ना कुछ जमा करके दे जाता है। क्या हमारे दीन-दुनिया के मालिक गुरु नानक पिता जी हमारे लिए अपने हाथों कोई जयदाद नहीं थे रख गए? अपनी ओर अपने आस-पड़ोस की ओर ध्यान से देखें, साधारण लिखारी या कवि भी अपने लिखे लेख या कविताएं बड़ी संभाल-संभाल के रखता है। क्या हमारे दीन-दुनिया के वाली ने ये अर्शी-दाति, ये सुच्चे हीरे-मोती, सारी धरती पे ऐसे ही बिखेर दिए थे? बनारस, गया, जगंनाथपुरी, सिंगलाद्वीप, मथुरा, कुरुक्षेत्र, पाकपटन, ऐमनाबाद, लाहौर, और अनेक शहर और गाँव, बस्तियां और उजाड़? जी नहीं मानता। इस अर्शी दाति की सबसे ज्यादा कद्र खुद सतिगुरु पातशाह गुरु नानक साहिब को ही हो सकती थी। (2) साखियों का विश्लेषण: कोढ़ी फकीर की साखी: पुस्तक “पुरातन जनम साखी” की पहली एडीशन के पंना 95 पर गुरु नानक साहिब जी की एक साखी लिखी हुई है कि “दिपालपुर के पास से, कंगनपुर में से, कसूर में से, पटी में से, गोविंदवाल आ के रहने लगा, तो कोई रहने नहीं देता। तब एक फकीर था, तिस की झुगी में जा के रहा, वह फकीर कोढ़ी था। वहाँ बाबा जा के खड़ा हुआ। कहा, ‘ऐ फकीर, रात रहने दे’ तब फकीर ने अर्ज की, कहा, ‘जी मेरे पास से तो जानवर भी भागते हैं, पर खुदा का करम हुआ है जो आदमी की तवज्जो नजर आई है’। तो वहां रहा...फकीर विरलाप करने लगा, तब बाबा बोला, शब्द राग धनासरी में महला १: जीउ तपत है बारो बार॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार॥ जै तनि बाणी विसरि जाइ॥ जिउ पका रोगी विललाइ॥१॥ बहुता बोलणु झखणु होइ॥ विणु बोले जाणै सभु सोइ॥ रहाउ॥ ......करमि मिलै आखणु तेरा नाउ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ॥ जे को डूबे फिरि होवै सार॥ नानक साचा सरब दातारु॥४॥३॥५॥ “तब दर्शन के सदका कोढ़ दूर हो गया, देह अच्छी हो गई, आ के पैरों में पड़ गया, नाम धरीक हो गया, गुरु गुरु जपने लगा। तब बाबा वहाँ से रवाना हुआ।” इस झुगी में सिर्फ तीन लोग थे; सतिगुरु नानक साहिब जी, भाई मर्दाना और कोढ़ी फकीर। क्या जब सतिगुरु जी शब्द गा रहे थे, तो कोढ़ी फकीर लिखे जा रहा था? वह तो पीड़ा से विलख रहा था। पर क्या वह फकीर पढ़ा-लिखा आदमी था, कि शब्द भी लिख सकता? बात मानने में नहींआ सकती। क्या भाई मर्दाना जी इस शब्द को लिख रहे थे? पर, वे तो रबाब बजाते थे। फिर और किस ने लिखा? कलिजुग वाली साखी: कलिजुग वाली साखी में ‘पुरातन जनम साखी’ वाला लिखता है कि: ‘परमेश्वर की आज्ञा से कलिजुग छलने के लिए आया। उसने पहले कई भयानक रूप धारण किए। भाई मरदाना जी देख के डर गए। कलिजुग ने फिर लालच देने शुरू किए और कहा, ‘मेरे पास सब कुछ है, अगर कहो तो मोतियों के मंदिर उसार दूँ......।’ तो सतिगुरु जी ने सिरी राग में शब्द उचारा; मोती त मंदर ऊसरहि, रतनी तां होहि जड़ाउ॥ ... ... ... ... ... सुलतान होवा मेलि लसकरु, तखति राखा पाउ॥ यहाँ फिर वही सवाल उठता है कि क्या ये शब्द कलियुग ने लिख लिया था? भाई मरदाना जी तो डर से सहमे हुए थे। फिर, और कौन लिखने वाला था? सखी वेई नदी: वेई नदी वाली साखी में तो कोई भुलेखा रह ही नहीं जातां साखी वाला लिखता है कि गुरु नानक जी परमेश्वर की हजूरी में पहुँचे, और उसकी आज्ञा पा के उसके नाम की महिमा यूँ उचारने लगे; सिरी राग महला १॥ नानक कागद लख मणा, पढ़ि पढ़ि कीचै भाउ॥ एक परमेश्वर और दूसरा उसकी हजूरी में सतिगुरु नानक देव जी। इनमें से किसने ये शब्द लिख के संभाला होगा? एक ही नतीजा: सतिगुरु जी सारे भारत में, अरब, ईरान और अफगानिस्तान में भी गए; दूसरे मतों वाले मनुष्यों को उपदेश करने के वक्त भी उन्होंने कई शब्द भी उचारे। वहाँ साथ तो केवल भाई मरदाना जी ही थे। एक ही नतीजा निकल सकता है कि या तो सतिगुरु जी स्वयं लिखते होंगे या उनकी आज्ञा के मुताबिक भाई मरदाना जी। पर, भाई मरदाना कहीं पढ़े-लिखे नहीं बताए गए। अचल वटाले: जब सतिगुरु जी ‘उदासियों’ के बाद करतारपुर आ बसे तो उम्र के आखिरी साल सन् 1539 के आरम्भ में जोगियों के मेले पर ‘अचल’ आए। ये जगह ‘वटाले’ से 3 मील दक्षिण की ओर है। जोगियों-सिद्धों से बड़ी बहिस हुई, जिसमें जोगियों का पक्ष हल्का रह गया। इस बहिस को सुनने के लिए मेले में आए हजारों लोग इकट्ठे हुए थे। लोगों के दिलों में जोगियां का प्रभाव खत्म हो गया। मेला खत्म हुआ, लोग अपने-अपने घर चले गए, बात खत्म हो गई। पर, इस सारी बहिस को कविता के रूप में बाद में किस ने लिख के दिया और क्यों लिख दिया? वाणी में शब्द नानक और शीर्षक ‘महला १’ बताता है कि ये वाणी गुरु नानक साहिब ने लिखी थी। पर, बहिस तो समाप्त हो चुकी थी, उसके बाद ये इतनी लंबी और मुश्किल वाणी क्यों लिखी? इसका उक्तर बड़ा साफ है। उन्होंने लिखी सिखों के वास्ते, आने वाली नस्लों के वास्ते। अगर ये वाणी गुरु जी ने अपने सिखों और आने वाली और सिख-संगतों के वास्ते लिखी, तो ये भी एक सीधी बात है कि वे अपनी सारी ही वाणी संभाल के लिखते गए थे। वरना, अगर उनकी और सारी वाणी जगह-जगह पे बिखरी पड़ी थी, उन्होंने खुद संभाल के नहीं रखी, तो आखिरी उम्र में इस एक वाणी को लिखने से क्या लाभ हो सकता था? असल बात: दरअसल बात ये है कि यही बस्ता था, यही किताब थी, जो हर वक्त उनके गातरे में थी। हमने ये बात समय सिर ना समझी, हमारे पड़ोसी भाई कहने लगे कि गुरु नानक देव जी ने इस बस्ते में कुरान-शरीफ रखा हुआ था। ‘पोथी साहिब’ के दर्शन भी कराए जाने लग पड़े, जिसमें से मुसलमानों को कुरान शरीफ दिखा और सिखों को गुरु ग्रंथ साहिब नजर आया। जैसे कि स. जी.बी. सिंह ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन बीड़ों’ में लिखा है। पर वह बस्ता क्या था? कुदरती तौर पर क्या हो सकता था? सतिगुरु नानक देव जी की अपनी रची हुई वाणी, जो वह समय-समय पर उचारते रहे और साथ-साथ लिखते गए। जब हजूर मक्का गए तो भी उनके पास यही बस्ता था, यही किताब थी; तभी जब हाजियों ने पूछा था ‘अपनी किताब को खोल के बता, हे नानक! तेरे ज्ञान के अनुसार हिन्दू और मुसलमान में कौन बड़ा है’। पुछनि गल ईमान दी काज़ी मुलां इकठे होई॥ अब तक की विचार में ये बात स्पष्ट हो गई है कि अपने सिखों के वास्ते गुरु नानक साहिब जी अपनी वाणी खुद ही लिख के संभालते गए थे। सारे गुरु साहिबान की वाणी को इकट्ठा करके गुरु ग्रंथ साहिब जी के रूप में लिखाना; ये ख्याल सतिगुरु नानक देव जी के मन में ही पैदा हो गया था। श्री गुरु नानक देव जी अपनी सारी वाणी किसे दी? अंदाजा: पिछले लेख में ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि सतिगुरु नानक देव जी अपनी उचारी हुई वाणी सदा खुद ही लिख के संभालते रहे। कुदरती तौर पे मन में सवाल उठता है कि इस वाणी का संग्रह किस को दिया होगा? इसका उत्तर भी सादा सा है कि गुरु नानक साहिब ने अपनी रची हुई वाणी उसी महापुरुष को दी होगी, जिसमें उन्होंने अपने वाली ज्योति जगाई थी; भाव, उन्होंने अपनी वाणी गुरु अंगद साहिब को दी होगी, गुरु अंगद साहिब ने अपनी वारी उचारी हुई वाणी समेत ये सारा संग्रह गुरु अमरदास जी को दिया होगा। वाणी की अंदरूनी पड़ताल: पर जो सज्जन अब तक ये पढ़ते-सुनते चले आ रहे हैं कि गुरु अरजन साहिब ने ‘बीड़’ तैयार करने के वक्त हुकमनामे भेज के सिखों से वाणी एकत्र की थी, उनकी तसल्ली इस नई कही बात से नहीं हो सकती। सो, गुरबाणी की अंदरूनी पड़ताल ही किसी निर्णय पर पहुँचा सकेगी। गुरु अंगद साहिब की उचारी हुई वाणी बहुत ही थोड़ी है, वह भी ‘सलोक’ ही हैं, शब्द अथवा अष्टपदियां नहीं हैं। इस वास्ते ये देखने के लिए कि गुरु नानक साहिब की सारी वाणी गुरु अंगद साहिब जी के द्वारा गुरु अमरदास जी तक पहुँच गई थी, हमें गुरु अमरदास जी की वाणी बड़े ध्यान से देखनी पड़ेगी। गुरु अंगद देव जी की वाणी: गुरु अंगद देव जी के उचारे हुए सलोक गुरु अरजन साहिब ने ‘वारों’ की पौडियों के साथ दर्ज कर दिए हैं। अगर इन शलोकों को ‘बोली’ के दृष्टिकोण से गौर से पढ़ के देखें, तो कई ऐसे शलोक मिलते हैं जिनसे प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि ये शलोक सतिगुरु नानक देव जी की वाणी के सामने रख के उचारे गए हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ प्रमाण नीचे दिए जा रहे हैं; (अ) महला १, आसा की वार, पउड़ी॥ (आ) सलोकु महला २॥ नोट: गुरु नानक देव जी की उचारी हुई पउड़ी नं: 22 और गुरु अंगद देव जी के उचारे हुए इन शलोकों में निरे ख्यालों की ही सांझ नहीं है, शब्द भी सांझे हैं। ये सांझ बा-सबब नहीं हो गई। ये शलोक उचारने के वक्त गुरु अंगद देव जी के पास गुरु नानक देव जी की ये पउड़ी मौजूद थी। (अ) सलोक महला १, माझ की वार स्बाही सालाह, जिनी धिआइआ इक मनि॥ सेई पूरे साह, वखतै उपरि लड़ि मुए॥ (आ) महला २, माझ की वार सेई पूरे साह, जिनी पूरा पाइआ॥ सलोकु महला २, माझ की वार अठी पहरी अठ खंड, नावा खंडु सरीरु॥ नोट: इन शलोको को अच्छी तरह पढ़ के; कई शब्द, तुकें और ख्याल सांझे हैं। शब्दों और तुकों की ये सांझ सबब से नहीं हो गई। प्रत्यक्ष है कि गुरु अंगद साहिब के पास गुरु नानक देव जी का उपरोक्त शब्द मौजूद था जब उन्होंने अपने ये शलोक उचारे। गुरु अमरदास जी की वाणी: (1) रागों की सांझ: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल 31 राग बरते गए हैं। इनमें से सिर्फ 19 राग ऐसे हैं जिस में गुरु नानक साहिब ने वाणी उचारी है। वह राग ये हैं; सिरी राग, माझ, गउड़ी, आसा, गुजरी, वडहंस, सोरठि, धनासरी, तिलंग, सूही, बिलावल, रामकली, मारू, तुखारी, भैरउ, बसंत, सारंग, मलार, प्रभाती। गुरु अमरदास जी ने सिर्फ 17 रागों में वाणी उचारी है। बड़ी हैरानी वाली बात ये है कि गुरु अमरदास जी ने कोई एक भी ऐसा राग नहीं बरता, जो गुरु नानक देव जी ने ना उपयोग किया हो। उपरोक्त 19 रागों में से राग तिलंग और तुखारी को छोड़ दें, बाकी 17 रागों में गुरु अमरदास जी की वाणी मिलती है। पाठक सज्जन पुराने बने ख्याल को जरा सा अलग रख के ध्यान से विचारें। गुरु अमरदास जी का सिर्फ वही राग प्रयोग करना जो गुरु नानक देव जी ने प्रयोग किए, कोई ऐसे ही ही नहीं हो गए, कोई सहज-सुभाए नहीं हो गए। इसका स्पष्ट कारण सिर्फ यही है कि उनके सामने सिर्फ 19 राग हैं जिनमें सतिगुरु नानक देव जी वाणी लिख गए हैं। ये वाणी सारी की सारी उनके पास मौजूद है, और गुरु अमरदास जी भी सिर्फ इन 19 रागों में से 17 अपनी वाणी में उपयोग करते हैं। और नजदीकी सांझ: इससे भी नजदीक की सांझ देखने के लिए और भी ज्यादा पुख्ता सबूत मिल रहे हैं: राग आसा वाणी ‘पटी’ आसा राग में गुरु नानक साहिब की उचारी हुई एक वाणी है, जिसका नाम है ‘पटी’। इसी ही राग में गुरु अमरदास जी की उचारी हुई ‘पटी’ भी है। ये बात सहज-सुभाए नहीं हो गई किएक ही राग में दोनों सतिगुरु साहिबानों की एक ही नाम की वाणी मिलती है। गुरु अमरदास जी के सामने गुरु नानक देव जी की वाणी ‘पटी’ मौजूद है। इस वाणी से प्रेरित हो के उन्होंने भी इसी नाम की वाणी लिखी है। इन दोनों ‘पट्टियों’ की वह तुकें गौर से पढ़ें, जिनकी आखीर में शब्द ‘रहाउ’ लिखा हुआ है; आसा महला १, पटी: मन काहे भूले मूढ़ मना॥ जब लेखा देवहि बीरा तउ पढ़िआ॥१॥ रहाउ॥ आसा महला ३, पटी: मन ऐसा लेखा तूं की पढ़िआ॥ लेखा देणा तेरै सिरि रहिआ॥१॥ रहाउ॥ दोनों में ‘मन’ को संबोधन किया गया है, शब्द ‘पढ़िआ’, ‘लेखा देवहि’ गुरु नानक देव जी के ‘पटी’ में मिलते हैं। शब्द ‘पढ़िआ’, ‘लेखा देणा’ गुरु अमरदास जी की ‘पटी’ में लिखे हैं। दोनों में काफी गहरी सांझ है, और ये सांझ बा-सबब नहीं है। (3) अलाहणीआ राग वडहंस: राग वडहंस में गुरु नानक साहिब ने ‘अलाहणीआ’ के पाँच शब्द लिखे हैं। इसी ही राग में इसी ही विषय पर इसी ही शीर्षक तहत गुरु अमरदास जी ने चार शब्द लिखे हैं। स्पष्ट है कि गुरु नानक देव जी की ‘अलाहणीयों’ की वाणी देख के गुरु अमरदास जी ने भी वही वाणी लिखी है। (4) मारू सोहले: मारू राग में गुरु नानक देव जी की एक वाणी है, जिसका शीर्षक है, ‘सोहले’। इस नाम की वाणी किसी भी और राग में नहीं। इस शीर्षक तहत गुरु नानक देव जी के 22 शब्द हैं। इसी ही राग में गुरु अमरदास जी के भी 24 ‘सोहले’ हैं। ये कोई सबब की बात नहीं है। (5) रामकली में लंबी बाणियां: राग रामकली में शबदों और अष्टपदियों के अलावा गुरु नानक साहिब जी की दो बड़ी और लंबी बाणियां हैं: ‘ओअंकार’ और ‘सिध गोसटि’। इसी तरह शब्द और अष्टपदियों के अलावा गुरु अमरदास जी की भी एक वाणी है, जिसका नाम है ‘अनंद’। (6) थितें और वार बिलावल: बिलावल राग में शबदों और अष्टपदियों के अलावा गुरु नानक साहिब ने ‘तिथियों’ पर एक वाणी लिखी है जिसका शीर्षक है ‘थिती महला १’। इसी ही राग में गुरु अमरदास जी ने ‘तिथियों’ के मुकाबले पर ‘सात वार’ ‘सात दिनों’ पर वाणी लिखी है जिसका शीर्षक है ‘वार सत महला ३’। (7) सलोक वारें व वधीक: हरेक सतिगुरु जी ने शबदों, अष्टपदियों आदि के अलावा ‘सलोक’ भी बहुत सारे उचारे हैं। गुरु अरजन साहिब ने इनमें से कुछ सलोक ‘वारों’ की पउड़ियों के साथ मिला दिए। जो शलोक बाकी बढ़ गए, वह गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर में हरेक गुरु के अलग लिख दिए। पर, गुरु नानक साहिब के शलोक नं: 27 के साथ अगला शलोक नं: 28 गुरु अमरदास जी का लिख दिया गया। ये शलोक गुरु अमरदास जी के शलोकों के साथ दर्ज क्यों नहीं किया? दोनों को पढ़ के देखें, उत्तर मिल जाएगा: लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु॥27॥ ये दोनों शलोक इकट्ठे इस लिए लिखे गए हैं कि गुरु अमरदास जी का शलोक है ही गुरु नानक देव जी के शलोक की बाबत। अगर गुरु नानक साहिब लाहौर शहर की ये हालत ना बताते, गुरु अमरदास जी को अपना शलोक उचारने की जरूरत ही ना पड़ती। ये दोनों शलोक इस बात का पक्का सबूत हैं कि गुरु अमरदास जी के पास वाणी मौजूद थी, और उन्होंने बड़े ध्यान से इसका एक-एक शब्द अपने हृदय में बसाया हुआ था, यहाँ तक कि ये छह शब्दों वाली छोटी सी तुक भी उनकी नजरों से परे ना रह सकी। (8) प्रश्न का उत्तर: गुरु नानक साहिब जी ने अपने समय के लोगों का नीचे दर्जे का धार्मिक जीवन का वर्णन इस शलोक में किया है जो इस प्रकार है; कलि काती राजे कासाई, धरमु पंख करि उडरिआ॥ कूड़ु अमावस सचु चंद्रमा, दीसै नाही कह चढ़िआ॥ हउ भालि विकुंनी होई॥ आधेरै राहु न कोई॥ विचि हउमै करि दुखु रोई॥ कहु नानक किनि बिधि गति होई॥१॥ इस शलोक को ध्यान से पढ़ के देखें। आखिर पर सतिगुरु जी ने सिर्फ प्रश्न ही कर दिया है कि अंधकार में से प्रकाश कैसे मिले? उन्होंने स्वयं इसका कोई तरीका खोल के नहीं बताया, इशारे मात्र ही कह दिया है ‘सचु चंद्रमा’। इस इशारे मात्र बताए इलाज को गुरु अमरदास जी ने ऐसे समझाया है: कलि कीरति परगटु चानणु संसारि॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि॥ गुरु अरजन साहिब ने ये दोनों शलोक इकट्ठे माझ राग की वार की 16वीं पउड़ी के साथ दर्ज कर दिए हैं। दोनों शलोकों पर ध्यान से थोड़ा सा भी ध्यान देने से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि गुरु अमरदास जी अपने शलोक के द्वारा गुरु नानक देव जी के शलोक में किए हुए प्रश्न को बयान कर रहे हैं। ये बात तब ही हो सकी जब गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक साहिब जी की वाणी मौजूद थी। (9) बसंत राग में शबदों की तरतीब: हरेक राग में शबदों की तरतीब गुरु साहिबानों के अनुसार है। सबसे पहले गुरु नानक देव जी के, फिर गुरु अमरदास जी के, फिर गुरु रामदास जी और फिर गुरु अरजन साहिब जी के। राग बसंत में एक और अनोखी बात देखने में आ रही है। गुरु नानक साहिब के शब्द नं: 3 से अगला शब्द गुरु अमरदास जी का है, और फिर शब्द नं: 7 के साथ अगला शब्द गुरु अमरदास जी का है। क्यों? ध्यान से ये चारों शब्द पढ़ के देखें। दोनों जोड़ियों के भाव मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु अमरदास जी ने अपने दोनों शब्द गुरु नानक साहिब के शबदों के प्रथाए उचारे हैं, और स्वयं ही गुरु नानक साहिब के शबदों के साथ लिख दिए हैं। ‘बीड़’ तैयार करने के वक्त गुरु अरजन साहिब जी ने भी वहाँ से अलग नहीं किए, हलांकि इस राग में गुरु अमरदास जी के अपने और 18 शब्द मौजूद हैं। वह शब्द ये हैं: (अ) बसंत महला १ सुइने का चउका कंचन कुआर॥ रुपे कीआ कारा बहुतु बिसथारु॥ गंगा का उदकु करंते की आगि॥ गरुड़ा खाणा दुध सिउ गाडि॥१॥ ....जेते जीअ लिखी सिरि कार॥ करणी उपरि होवगि सार॥ हुकमु करहि मूरख गावार॥ नानक साचे के सिफति भंडार॥४॥३॥ इस शब्द के साथ दर्ज है: बसंत महला ३ तीजा: बसत्र उतारि दिगंबरु होगु॥ जटा धारि किआ कमावै जोगु॥ मनु निरमलु नही दसवै दुआर॥ भ्रमि भ्रमि आवै मूढ़ा वारो वार॥१॥ ... ... ... ... ... जिसु जीउ अंतरु मैला होइ॥ तीरथ भवै दिसंतर लोइ॥ नानक मिलीऐ सतिगुर संग॥ तउ भवजल के तूटसि बंध॥५॥४॥ अ. बसंतु महला १ आपे कुदरति करे साजि॥ सचु आपि निबेड़े राजु राजि॥ गुरमति ऊतम संगि साथि॥ हरि नामु रसाइणु सहजि आथि॥१॥ मत बिसरसि रे मन राम बोलि॥ अपरंपरु अगम अगोचरु गुरमुखि हरि आपि तुलाए अतुलु तोलि॥१॥ रहाउ॥ बसंतु महला ३ मै मूरख मुगध ऊपरि करहु दइआ॥ तउ सरणागति रहउ पइआ॥३॥ कहतु नानकु संसार को निहफल कामा॥ गुरप्रसादि को पावै अंम्रित नामा॥४॥८॥ (10) बोली की सांझ: अगर गुरु नानक साहिब और गुरु अमरदास जी की वाणी के शब्दों को आपस में मिला के देखें, तो कई जगह शब्दों और पदों की ऐसी सांझ मिलेगी, जिससे यही नतीजा निकलेगा कि गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी की वाणी मौजूद थी। जैसे; आसा महला १ छंत आपणा मनु दीआ, हरि वरु लीआ, जिउ भावै तिउ गावए॥ तनु मनु पिर आगै सबदि सभागै, घरि सभागै,घरि अंम्रित फलपावए॥ यहाँ गुरु नानक देव जी के शब्द ‘सभागै घरि’ इस्तेमाल करते हैं, गुरु अमरदास जी की वाणी ‘अनंद’ में यही शब्द लिखते हैं; ‘वाजे पंच सबद तितु घरि सभागै॥ घरि सभागै सबद वाजे कला जितु घरि धारीआ॥’ ऐसे ही सैकड़ों प्रमाण और भी मिल सकते हैं, जहाँ ‘बोली’ की सांझ दिखती है, ये सांझ ऐसे ही नहीं बन गई। गहरी सांझ की ये उदाहरण मात्र मिसालें देख के स्वतंत्र राय रखने वाले खोजी सज्जन को कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक साहिब की सारी वाणी मौजूद थी। इसके मिलने का एक ही तरीका था, वह था श्री गुरु अंगद देव जी, जिन्हें ये सारी वाणी गुरु नानक देव जी ने जरूर दी होगी। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ तैयार करने के वक्त गुरु अरजन साहिब ने वाणी कहाँ से ली थी? पिछले लेख का निचोड़: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में से कई प्रमाण ले के अब तक हम इस नतीजे पर पहुँच चुके हैं कि गुरु नानक देव जी की अपनी सारी वाणी खुद ही लिख के संभालते रहे। जब उन्होंने गुरु गद्दी की जिंमेदारी गुरु अंगद देव जी को सौंपी, तो ये सारी ‘वाणी’भी उनके हवाले की। जब गुरु अंगद देव जी ने अपनी जगह गुरु अमरदास जी को बैठाया, तो उन्होंने गुरु नानक देव जी की सारी वाणी और अपनी वाणी भी सतिगुरु अमरदास जी के सपुर्द की। इससे स्वभाविक नतीजा: अब ये बात समझनी बहुत मुश्किल नहीं है कि गुरु अमरदास जी ने ये रब का खजाना, जो उन्हें जगत की भलाई के लिए मिला था, गुरु रामदास जी को सौंपा और गुरु रामदास जी ने अपने समय पर गुरु अरजन साहिब को दे दी। आगे तो हरेक गुरु साहिबान की वाणी अलग-अलग पड़ी थी, गुरु अरजन साहिब ने इस सारी वाणी को राग-तरतीब दे के इकट्ठा कर दिया और एक बीड़ में ले आए। सिरी राग में से प्रमाण (शब्द): हरेक सतिगुरु जी के पास अपने से पहले वाले गुरु साहिबान की सारी वाणी मौजूद थी और उन्होंने बड़े ध्यान से हृदय में बसाई हुई थी; इस विचार को और ज्यादा स्पष्ट करने के लिए मिसाल के तौर पर सिर्फ ‘सिरी राग’ पेश किया जाता है। ध्यान से चारों ही गुरु साहिबानों के ‘शब्द’ पढ़ के देखो। गुरु नानक देव जी: इस राग में गुरु नानक देव जी के 33 ‘शब्द’ हैं। जिनमें से 6 शब्द ऐसे हैं जिनकी ‘रहाउ’ की तुक में सतिगुरु जी ‘मन’ को संबोधन करते हैं। ‘मन रे’...और ‘मेरे’ मन....’शब्द प्रयोग करते हैं। 3शबद ऐसे हैं जिस की ‘रहाउ’ की तुक में ‘भाई रे...’शब्द बरता गया है। 1 शब्द के ‘रहाउ’ में शब्द ‘मुंधे’ बरता है जैसे: मन रे... मेरे मन.... मन रे सचु मिलै भउ जाइ॥ शबद नं: 11 भाई रे..... भाई रे संत जना की रेणु॥ शबद नं: 12 मुंधे..... मुंधे पिर बिनु किआ सीगारु॥ शबद नं: 13 गुरु अमरदास जी: गुरु अमरदास जी के इस ‘राग’ में 31 शब्द हैं। इनमें से 17 शब्द ऐसे हैं जिनकी ‘रहाउ’ की तुक में ‘मन रे...’ अथवा ‘मेरे मन...’ बरता गया है। 8 शबदों में शब्द ‘भाई रे... प्रयोग किए गए हैं। 2 ‘शब्द’ ऐसे हैं जहाँ ‘रहाउ’ की तुक को शब्द ‘मुंधे’ के साथ आरम्भ किया गया है।; जैसे: मन...मेरे मन... मन मेरे हरि रसु चाखु तिख जाइ॥ शबद नं: 1. नोट: बाकी प्रमाण पाठक सज्जन खुद देख लें। भाई रे.... भाई रे गुरमुखि सदा पति होइ॥ शबद नं: 5 नोट: इस तरह और प्रमाण देखे जा सकते हैं। मुंधे.... मुंधे कूड़ि मुठी कूड़िआरि। शब्द नं: 28 मुंधे तू चलु गुर कै भाइ। शब्द नं: 29 गुरु रामदास जी: ‘सिरी राग’ में गुरु रामदास जी के 6 ‘शब्द’ हैं। इन शबदों को आप भी ‘भाई रे...’ के साथ आरम्भ करते हैं; जैसे; भाई रे मिलि सजण हरि गुण सारि॥ शबद नं: 5 भाई रे मै मीतु सखा प्रभु सोइ। शब्द नं: 6 गुरु अरजन साहिब: गुरु अरजन साहिब के 30 शब्द हैं। ‘रहाउ’ की तुकों को ये भी शब्द ‘मन रे’ अथवा ‘मेरे मन’ और शब्द ‘भाई रे’ के साथ ही शुरू करते हैं, देखें; मन रे... मेरे मन.... मेरे मन सुख दाता हरि सोइ। शब्द नं: 1 मन मेरे करते नो सालाहि। शब्द नं: 5 मेरे मन ऐकस सिउ चितु लाइ। शब्द नं: 6 भाई रे.... भाई रे सुखु साध संगि पाइआ। शब्द नं: 2 भाई रे मीतु करहु प्रभु सोइ। शब्द नं: 13 भाई रे साची सतिगुर सेव। शब्द नं: 30। अष्टपदीआं: इस ‘राग’ की ‘अष्टपदीयां’ भी देखें। उनमें भी शब्द ‘भाई रे’ मिलता है। 17 अष्टपदियों में गुरु नानक देव जी ने 6 बार ये पद बरता है और दो बार ‘मुंधे’। गुरु अमरदास जी की 8 अष्टपदियां हैं, इनमें वे तीन बार ‘भाई रे’ बरतते हैं। एक अनोखी सांझ: एक बड़ी मजेदार बात ये है कि सारे ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में सिर्फ 29 शब्द (अष्टपदीयों समेत) ऐसे हैं जिनकी ‘रहाउ’ की तुक के आरम्भ में शब्द ‘भाई रे’ हैं; इनमें से 25 ‘सिरी राग’ में ही दर्ज हैं। बाकी चार शबदों में से भी 2 गुरु नानक देव जी के हैं, 1 गुरु अमरदास जी का और 1 गुरु रामदास जी का। बोली के दृष्टिकोण से: जो सज्जन बोली के दृष्टिकोण से इस बात को विचारेंगे उन्हें साफ समझ पड़ जाएगी कि शब्द ‘भाई रे...’ की सांझ सबब से नहीं हो गई। ज्यों-ज्यों ‘सिरी राग’ के इन 100 शबदों को ध्यान से पढ़ेंगे, इनमें और भी ज्यादा गहरी सांझ के नुक्ते दिखेंगे, और ये बात माने बिना नहीं रहा जा सकेगा कि हरेक गुरु-व्यक्ति के पास सारी वाणी मौजूद थी। पिता-दादे का खजाना: गउड़ी राग में गुरु अरजन साहिब जी लिखते हैं: हम धनवंत भागठ सच नाइ॥ हरि गुण गावह सहज सुभाइ॥१॥ पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना॥ ता मेरै मनि भइआ निधाना॥ रतन लाल जा का कछू न मोलु॥ भरे भंडार अखुट अतोल॥२॥३१॥१००॥ ये शब्द उसी बख्शिश के जिक्र में प्रतीत होता है जब गुरु अरजन साहिब को गुरु रामदास जी से पिछली सारी ही वाणी का संग्रह मिला था। बाबा मोहन जी वाली साखी: गुरबाणी के अंदर की बनावट की झाकी ने ये बात स्पष्ट कर दी है कि जब सतिगुरु अरजन देव जी गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को तैयार करने में लगे हुए थे, तो उनके पास सारी ही वाणी मौजूद थी। वाणी इकट्ठी करने के लिए उनको कहीं भी कोई हुकमनामे भेजने की जरूरत नहीं पड़ सकती थी। इस संबंध में बाबा मोहन जी वाली साखी बड़ी प्रसिद्ध है, और प्रसिद्ध है भी अजीब रंग में। लिखते हैं कि बाबा मोहन जी अपने चौबारे में समाधी लगाए बैठे थे, सतिगुरु जी उस गली में जा के चौबारे के नीचे बैठ गए और बाबा जी की स्तुति में एक शब्द गाया। किसलिए? बाबा जी के पास से गुरबाणी की सैंचियां लेने के लिए। पाठक सज्जन! थोड़ा सा ध्यान से विचारें! क्या हमारे दीन-दुनिया के रहबर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कि मनुष्य की उपमा दर्ज हो सकती थी? इस में कोई शक नहीं कि बाबा मोहन जी बादशाहों के बादशाह श्री गुरु अमरदास जी के साहिबजादे थे और मेरे जैसे नाचीज निमाणे को बाबा जी के कूचे की धूल माथे पर लगाने को मिलनी भी एक बड़ी इनायत है। पर, पातशाह पातशाह ही है, वह बड़ी ऊँची शान वाला है, वह खुद ही वाणी का समुंदर था, वह तो ‘आपि नराइणु कला धारि जग महि परवरिओ’। सिर्फ गुरु अकाल-पुरख की स्तुति: गुरु ग्रंथ साहिब जी का एक-एक शब्द, एक-एक तुक, गुरु रूप है। इस में और गुरु नानक, गुरु गोबिंद सिंह जी थोड़ा भी फर्क नहीं है। क्या बाबा मोहन जी की स्तुति और गुरु नानक पातशाह जी की स्तुति गुरसिख के वास्ते एक ही दर्जा रख सकती है? पतिब्रता स्त्री के हृदय में अपने पति का प्यार ही टिक सकता है, पति के किसी अजीज से अजीज संबंधी को वह प्यार नहीं मिल सकता। गुरु ग्रंथ साहिब जी का हरेक अंग सुंदर है, और सिख के जीवन के लिए सदा कायम रहने वाला रौशन-स्तम्भ है। इस में स्तुति सिर्फ अकाल-पुरख की ही हो सकती है। गुरबाणी में शब्द ‘मोहन’: गउड़ी, गूजरी, बिलावल, बसंत, मारू, तुखारी आदि रागों में कई शब्द ऐसे मिलते हैं जो गुरु नानक साहिब और गुरु अरजन साहिब के उचारे हुए हैं और जिनमें अकाल-पुरख को ‘मोहन’ कह के याद किया है। लेख के बहुत लंबा ना खिच जाने के डर से वे शब्द यहाँ देने संभव नहीं हैं। पाठक इन रागों में स्वयं ही वे शब्द देख लें। हमने अब उस शब्द पर विचार करनी है जिस में साखी के अनुसार बाबा मोहन जी की स्तुति बताई जा रही है। गउड़ी राग में गुरु अरजन साहिब जी का ये दूसरा ‘छंत’ है। मजेदार बात: इस छंत के लिखने से पहले पाठकों के चरणों में ये विनती है कि इस राग में गुरु नानक देव जी के ‘छंत’ गुरु अमरदास जी के ‘छंत’ और गुरु अरजन साहिब जी के ‘छंत’ जरा ध्यान दे के पढ़ें; सारे शब्द, कई मिलती-जुलती तुकें, कई मिलते-जुलते ख्याल और लगभग एक जैसे ही जज़बात, ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ‘छंत’ एक ही सांचें में ढले हुए हैं। जिस जज़बातों, जिस बिरह की नईया को गुरु नानक साहिब ने बहाया है उसी में गुरु अमरदास जी, और गुरु अरजन देव जी तैरते जा रहे हैं। यहाँ से स्पष्ट हो जाता है कि गुरु नानक देव जी के ये ‘छंत’ गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे और उन्हीं वाले रंग में गुरु अरजन साहिब जी ने भी अपने ‘छंत’ उचारे थे। हां, आते हैं अपने विषय की तरफ। गउड़ी महला ५ छंत॥ मोहन तेरे ऊचे मंदर महल अपारा॥ मोहन तेरे सोहनि दुआर जीउ संत धरमसाला॥ धरमसाल अपार दैआर ठाकुर, सदा कीरतन गावहे॥ जह साध संत इकत्र होवहि, तहा तुझहि धिआवहे॥ करि दइआ मइआ दइआल सुआमी, होहु दीन क्रिपारा॥ बिनवंति नानक दरस पिआसे मिलि दरसन सुखु सारा॥१॥ मोहन, तेरे बचन अनूप, चाल निराली॥ मोहन, तूं मानहि एकु जी, अवर सभ राली॥ मानहि तूं एकु, अलेखु ठाकुरु, जिनहि सभ कल धारीआ॥ तुधु बचनि गुर कै वसि कीआ, आदि पुरखु बनवारीआ॥ तूं आपि चलिआ, आपि रहिआ, आपि सभ कल धारीआ॥ बिनवंति नानक पैज राखहु, सभ सेवक सरनि तुमारीआ॥२॥ मोहन, तुधु सतसंगति धिआवै, दरस धिआना॥ मोहन, जमु नेड़ि न आवै, तुधु जपहि निदाना॥ जमकालु तिन कउ लागै नाही, जो इक मनि धिआवहे॥ मनि बचनि करमि जि तुधु अराधहि से सभे फल पावहे॥ मल मूत मूढ़ जि मुगध होते, सि देखि दरसु सुगिआना॥ बिनवंति नानक राजु निहचलु, पूरन पुरख भगवाना॥३॥ मोहन, तूं सुफलु फलिआ, सुणु परवारे॥ मोहन पुत्र मीत भाई कुटंब सभि तारे॥ तारिआ जहानु लहिआ, अभिमानु, जिनी दरसनु पाइआ॥ जिनी तुध नो धंन कहिआ, तिन जमु नेड़ि न आइआ॥ बेअंत गुण तेरे कथे न जाही, सतिगुर पुरख मुरारे॥ बिनवंति नानक टेक राखी, जितु लगि तरिआ संसारे॥४॥२॥ लिखी हुई साखी चाहे पाठक-सज्जनों के मन की वागडोर को बाबा मोहन जी के मन की ओर पलटे रखे, वरना यहाँ बाबा जी की स्तुति की कोई गुंजायश नहीं दिखती। पहले अंक की चौथी तुक ध्यान से पढ़ें। क्या साधु-संत धर्मशाला में एकत्र हो के बाबा मोहन जी को ध्याते हैं अथवा मोहन-प्रभु को? तीसरे बंद को भी ध्यान से देखें। कहीं कोई तुक बाबा मोहन जी के साथ मेल नहीं खाती। अब चौथा बंद पढ़ें, तीसरी तुक ‘तारिआ जहानु, लहिआ अभिमान, जिनी दरसनु पाइआ’ क्या ये उपमा किसी गुरु परमेश्वर के लिए हो सकती है अथवा किसी मनुष्य की? देखें पाँचवी तुक में, जिस का दर्शन जहान को पार लंघाने के समर्थ है, उसे कैसे बुलाते हैं? कहते हैं, हे ‘सतिगुर पुरख मुरारे! बेअंत गुण तेरे कथे न जाही’। दूसरे बंद को समझने में कमी: अब गौर से पढ़ें दूसरा बंद। इसकी भी पाँचवीं तुक कोई शक कोई भुलेखा नहीं रहने देती, ‘तू आपि चलिआ आपि रहिआ, आपि सभ कल धारीआ’। ये ‘आपि सभ कल धारीआ’ वाला अकाल-पुरख के बिना और कौन हो सकता है? हाँ, इस बंद की दूसरी तुक में बेपरवाही के साथ मिलावट सी पड़ती रही है। कैसे? शब्द ‘तूं’ के अर्थ को गलत समझ के। ये तुक है ‘मोहन तूं मानहि ऐकु जी, अवर सभ राली’। शब्द ‘तूं’ के अर्थ का निर्णय: जब किसी शब्द के किसी शब्द के बारे में कोई शक पड़े, तो उसे हल करने का एक ही रास्ता है कि शब्द आदि के प्रयोग को गुरबाणी में किसी और जगह देखें। सो, शब्द ‘तूं’ का अर्थ देखने के लिए और प्रमाण पाठकों के समक्ष पेश किए जाते हैं: संचि हरि धनु, पूजि सतिगुरु, छोडि सगल विकार॥ उन संतन कै मेरा मनु कुरबाने॥ तूं= तुझे। तिसु कुरबाणी जिनि ‘तूं’ सुणिआ॥ तूं= तुझे। अनदिनु गुण गावा प्रभ तेरे॥ तुधु सलाही प्रीतम मेरे॥ तूं= तुझे। जिनि ‘तूं’ साजि सवारि सीगारिआ॥ तूं= तुझे। और गुरु साहिबानों की वाणी से भी प्रमाण दिए जा सकते हैं। पर, यहाँ जिस शब्द पर विचार हो रही है वह गुरु अरजन साहिब का है। इसलिए प्रमाण सिर्फ उनकी वाणी में से ही लिए गए हैं। अब अर्थ करें: हे मोहन! तुझ एक को (लोग स्थिर) मानते हैं, हे मोहन जी! बाकी सारी सृष्टि नाशवान है। हे मोहन! तुझ एक अलेख ठाकुर को (लोग स्थिर) मानते हैं, जिसने (जगत में) सारी सत्ता पाई हुई है। (तेरे सेवकों ने) तुझ आदि पुरख बनवारी को गुरु के शब्द के द्वारा वश में किया है। सारी विचार का नतीजा: अब तक की विचार से हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार करने के लिए गुरु अरजन साहिब के पास पहले चारों ही गुरु साहिबानों की सारी वाणी मौजूद थी। उन्हें कहीं भी हुकमनामे भेजने की जरूरत नहीं थी पड़ सकती। बाहर से किसी और संचय अथवा सैंची की भी जरूरत नहीं थी। जिस शब्द में बाबा मोहन जी की स्तुति समझी जा रही है, वह शब्द पूरी तरह से परमात्मा की महिमा में है। (ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें मेरी लिखी पुस्तकें: ‘गुरबाणी के इतिहास के बारे’, ‘सिख सिदक ना हारे’, ‘धर्म और सदाचार’, ‘सरबत का भला’, ‘बुराई का टाकरा’– ‘सिंह ब्रदर्स, माई सेवां अमृतसर से मिलते हैं) गुरबाणी और इसकी व्याकरण अनोखा भाग्यशाली अवसर: अप्रैल 1909 में मैं मैट्रिक पास करके मैं सितंबर 1909 में खालसा मिडल स्कूल, सांगले सैकण्ड मास्टर बन के चला गया। गुरु नानक साहिब का जनम दिन वहाँ बड़े उत्साह से मनाया जाता था। (जिला स्यालकोट) के भाई ज्ञान सिंह जी नामधारी उस समारोह के समय सांगले आए। नगर-कीर्तन में उन्होंने शब्द पढ़े, हले का धारना पर। शब्द पढ़ने का तो मुझे भी शौक था, पर मैंने जोटीआं की धारना ही सीखी हुई थीं। यह पहला मौका था कि जब मैंने हले की धारना में शब्द सुने और मैं नामधारी वीरों के इस प्रचार ढंग पार मोहित हो गया। भाई ज्ञान सिंह जी ज्यादातर शब्द भक्तों की वाणी में से ही पढ़ते रहे। धारना हले की, उसके साथ ढोलकी छैंणों की सुर, सिंघों का मिल के उत्साह से धारना को गाना श्रोताओं पर वजद की हालत पैदा कर रहा था। बीच-बीच में भाई ज्ञान सिंह जी अपने सुरीले गले से शब्द की व्याख्या करते थे। तुकों के अर्थ करने के समय तीन-तीन चार-चार अर्थ करते थे। इस विद्ववता भरी व्याख्या सुनने का भी मेरे लिए पहला मौका था। मैं भाई ज्ञान सिंह जी से सदके होता जा रहा था। उनका सरूर भरा चेहरा आज तक कई बार मेरी आँखों के सामने आ जाता रहा है। लगन: गुरपुरब गुजर गया। भाई ज्ञान सिंह जी सांघले पाँच-सात दिन और ठहरे। दीवान सजते रहे, जहाँ वे हले की धारना के शब्द सुनाते रहे। शब्द आम तौर पर भक्त-वाणी में से ही थे। उनके साथ पाँच-सात दिनों की संगत के सदके मुझे भी ये लगन लग गई। मैंने पण्डित तारा सिंह जी और भाई भगवान सिंह जी के भक्त-वाणी के टीके मंगवा लिए। शब्द ज़बानी याद करने शुरू कर दिए, और हले की धारना पे दीवानों में गाने भी आरम्भ कर दिए। शब्द याद भी आम तौर पे वही करने जो बहु-अर्थक हों। सांगला तो मैं 1910 में छोड़ आया, पर भाई ज्ञान सिंह जी की छूह से हासिल की लगन मेरा पक्का साथी बन गई। 1911 में मैं दयाल सिंह कालेज लाहौर में पढ़ने के लिए दाखिल हुआ। वहाँ भी गुरपुरबों के समय सिंघ-सभा की ओर से होते नगर-कीर्तनों में किसी ना किसी जत्थे के साथ शामिल हो के हले के शब्द पढ़ने और उनकी बहु-अर्थक व्याख्या करने का शौक पूरा कर ही लेता था। जाग: सन् 1913 की गर्मियों के दिन थे। एफ़. ए. का इम्तिहान दे के मैं अपने गाँव ‘थरपाल’ गया हुआ था। हमारे गाँव से आधा कु मील पे था रईआ तहसील जिला सियालकोट। वहाँ एक गुरद्वारा था। आम तौर पर रोजाना कुछ समय मैं वहाँ गुजारा करता था। एक दिन एक बारात दोपहर काटने के लिए गुरद्वारे में आ टिकी। ये बारात थी आर्य समाजी भाईयों की। एक प्रचारक भी उनके साथ था। वह सज्जन मेरे पास आ बैठे। बात-चीत छेड़ के मुझे कहने लगे; अगर किसी मनुष्य से उसके पिता का नाम पूछें, वह आगे से उत्तर दे, कि मेरे पिता का नाम ये था, या ये था, या ये था। इसी तरह ‘या, या’ में वह आठ-नौ नाम गिना दे। उसका ये उत्तर सुन के यही अंदाजा लगाना पड़ेगा कि उस मनुष्य को या तो अपने पिता का नाम नहीं आता, अथवा ये खुद ही पागल है। बातचीत का ये पैंतड़ा बाँध के वह प्रचारक सज्जन मुझसे कहने लगे: तुम सिख लोग गर्व से ये कहते हो कि सिर्फ तुम्हारा ही धार्मिक ग्रंथ ऐसा है जो तुम्हारी अपनी बोली में है। पर हाल तुम्हारा ये है कि एक-एक तुक के दस-दस अर्थ करने को तुम विद्वता समझते हो। क्या ये विद्वता है या अज्ञानता? बस! उस सज्जन की ये टोक मेरे अंदर को चीर गई। मैं बहु-अर्थक विद्वता की नींद में जाग गया? मुझे समझ आ गई कि पाँच सौ सालों से पहले की पुरानी बोली को ना समझने के कारण ‘या, या’ वाले अंदाजे विद्वता की निशानी नहीं हैं। उस दिन से मुझे उस बहु-अर्थता की विद्या के हिलोरे आने बंद हो गए। बोली बदलती रहती है: ये एक सीधी सी बात है कि आज से हजारों साल पहले इस धरती पर बहुत कम आबादी थी। ये आबादी होती भी धरती के उन हिस्सों में ही थी, जो कुदरती तौर पर अन्न उपजाऊ होते थे। किसी एक ही इलाके में बसते लोगों की बोली भी, कुछ-कुछ फर्क से तकरीबन एक जैसी होनी भी कुदरती बात थी। पर आदि काल से ऐसी घटनाएं भी होती चली आई हैं, जिनके कारण बसते देश उजड़ते रहे, और उजड़े देश बसते रहे। टिडी-दल ने पुराने समय में अनेक बसते देशों को उजाड़ा। लंबी मुसीबतें भी बसतों को उजाड़ती रही हैं। ऐसी घटनाओं के कारण सैकड़ों-हजारों इकट्ठे बसते घराने सदा के लिए विछुड़ जाते हैं। नए वायुमण्डल में जा के सदियों बाद उनकी बोली बदल जाती है ऐसा प्रतीत होता है कि उन बोलियों में कहीं कोई संबंध ही नहीं था। खास खोज करने से ही कोई-कोई सांझे शब्द मिलते हैं, जो सदियों पहले की कोई पुरानी सांझ दर्शाते हैं। उदाहरण के तौर पर रूसी बोली और संस्कृत में से कुछ शब्द नीचे दिए जा रहे हैं: कुत्ता मनुष्य का बड़ा पुराना साथी चला आ रहा है। कुत्ते के लिए रूसी शब्द है ‘सुबाहका’ और संस्कृत में है ‘श्वक: ’। कैसी अजीब सांझ दिखती है! पर रूस में ये शब्द कायम है। हमारे देश में सिर्फ किताबों में ही रह गया है। ‘वृक्ष’ के लिए रूसी शब्द है ‘देहर्व’। संस्कृत में ‘द्रुम’। बहुत ठण्डे देशों में सिर को सर्दी से बचाने की आम तौर पर जरूरत पड़ती है। संस्कृत का शब्द है ‘शिरस्प’, भाव सिर की रक्षा करने वाला (टोपी आदि)। रूसी शब्द है ‘शलाहपा’ या ‘शलापा’। संस्कृत का शब्द आम बोली में से खतम हो गया है। घर बनाने और घरों को दरवाजे लगाने की जरूरत मनुष्यों को हजारों साल पहले से पड़ती आ रही है। संस्कृत शब्द है ‘द्वार’, रूसी है ‘द्व’। ‘हाथ’ के लिए संस्क्ृत शब्द है ‘कर’, रूसी शब्द है ‘रुका’, ‘रुकाह’। दोनों अक्षर उलट गए हैं। गिनती को देखें; दो– संस्कृत ‘द्वि’, रूसी ‘द्व’। तीन– संस्कृत ‘त्रि’, रूसी ‘त्रि’। चार– संस्कृत ‘चतुर’, रूसी ‘चितिर। दोनों– संस्कृत ‘उभय’, रूसी ‘ओबा’। सर्वनाम हमें (सानूं) – संस्कृत ‘न: ’, रूसी ‘नस’। तुम्हें (तुहानूं) – संस्कृत ‘व: ’, रूसी ‘वस’। (संस्कृत में ‘: ’ है ‘स्’) श्री रामचंद्र जी की जीवन-कथा जिस सबसे पुरातन पुस्तक में लिखी हुई है, उसका आम प्रसिद्ध नाम है ‘रामायण’। पर हैरानी की बात है कि रूसी बोली में ‘कहानी, कथा’ के लिए शब्द है ‘रमाहण’। क्रिया विशेषण तब (तदों) – संस्कृत ‘तदा’, रूसी ‘तगदा’। कब (कदों) – संस्कृत ‘कदा’, रूसी ‘कगदा’। ‘न कदा’ का रूसी ‘नि कगदा’ सदा – संस्कृत ‘सदा’, रूसी ‘वसिगदा’। संस्कृत में किसी विशेषण से ‘भाव वाचक नाम’ बनाने के लिए ‘विशेषण के अंत में ‘ता’ लगा देते हैं और रूसी में ‘दा’। संस्कृत ‘प्रभु’, रूसी ‘प्रव’। इनसे भाव वाचक नाम संस्कृत ‘प्रभुता’, रूसी ‘प्रवदा’। क्रिया देना– संस्कृत ‘दा’, रूसी ‘दत’। गिरना– संस्कृत ‘पत्’, रूसी ‘पोदत’। बेचना– संस्कृत ‘प्रदा’, रूसी ‘प्रदत’। कुछ और शब्द: पानी– संस्कृत ‘उदक’, रूसी ‘वदा’। हवा– संस्कृत ‘वात’, रूसी ‘वेतर’। शक्कर– संस्कृत ‘शर्करा’, रूसी ‘साखर’। आकास–संस्कृत ‘नभस्’, रूसी ‘नेबो’। अनेक ही ऐसे शब्द मिलते हैं, जो हमारे देश में तो संस्कृत की किताबों में ही रह गए हैं, पर रूस में अभी तक आम बोलचाल का हिस्सा हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी लंबी समस्या, महामारी अथवा टिडी दल आदि बिपदा ने बसे हुओं में से सैकड़ों-हजारों घरानों को वहाँ से दक्षिण की ओर आने को मजबूर किया। यहाँ, कुछ तो बदले हुए हवा-पानी का असर पड़ा, कुछ यहाँ के पहले बसने वालों के साथ मेलजोल का असर हुआ। बोली क्यों बदलती है? सन 1935 का हाल है। मेरा छोटा बेटा जब बातें करना सीखने के लायक हुआ, हम उसे सिखाते थे, काका! कह: भापा जी’। आगे से वह कहता था: ‘भापा गां’ हम कहें, कह: ‘भाबो जी’। वह कहे: ‘भबका’। उसकी आश्चर्यजनक बोली से हम सारे हैरान थे। कुछ समय तो हम यही समझते रहे कि ये जान-बूझ के ‘भापा गा’ और ‘भबका’ ही कहता है। पर वह तो कई महीने ही ‘भापा गा’ और ‘भबका’ ही कहता रहा। उसकी आश्चर्यजनक बोली का कारण हमें समझ आ ही गया। जब वह अभी छोटा सा था, वह अपनी जीभ होठों से बाहर नहीं निकाल सकता था। दूध भी अच्छी तरह नहीं चूस सकता था। डाक्टर को दिखाया। उसने बताया कि जीभ के नीचे का तंदुआ बहुत बढ़ा हुआ है, ये काटना पड़ेगा। पर, वह ज्यादा कट गया। ये तंदुआ जीभ के नीचे स्तम्भ की काम करता है। जीभ को उठा के तालू के साथ यही जोड़ता है। बच्चे का तंदूआ, ज्यादा कट जाने के कारण कमजोर हो चुका था। वह उसकी जीभ को उठा के तालू के साथ नहीं मिला सकता था। और जो अक्षर (च, छ, ज, झ, ञ, इ, य, श) जीभ के तालू के साथ जुड़ने से ही उचारे जा सकते थे, उससे उचारे नहीं जा सकते थे। उसका गला खुला रहने के कारण अक्षर ‘ज’ की जगह उसके गले से ‘अक्षर ‘ग’ की आवाज आती थी। ‘ज’ और ‘ी’ की जगह वह मुंह से ‘आ’ निकालता था। सो, शब्द ‘जी’ को वह ‘गा’ कहता था। शब्द ‘भाबो जी’ उचारने की राह में उसे एक और मुश्किल आ पड़ती थी। अक्षर ‘ब’ और अक्षर ‘ज’ दोनों अपने-अपने वर्ग का तीसरा अक्षर हैं। ये दोनों एक साथ भी कमजोर तंदुए के कारण उसके उच्चारण में नहीं आ पाते थे। इस वास्ते ‘भापा जी’ की जगह ‘भापा गा’ कह सकने वाला बच्चा ‘भाबो जी’ के शब्द ‘जी’ की जगह ‘का’ ही कह सकता था। अक्षरों के उच्चारण स्थान: अक्षरों के उच्चारण स्थान का जानना पाठकों के लिए दिलचस्प होगा: अकूह विसर्जनीयानां कंठ– भाव मनुष्य अपने गले से अक्षर उचारता है, जैसे; अ, ह, क, ख, ग, घ, ङ। इचू यशाना तालू– जब जीभ तालू से जुड़े, तो नीचे लिखे अक्षर उचारे जा सकते हैं: ई, य, श, च, छ, ज, झ, ञ। लितू लसानां दंता– जीभ का अगला सिरा दातों से जोड़ने पर ये अक्षर उचारे जा सकते हैं: लृ, ल, स, त, द, ध, न। रिटू रख़णां मूर्धा– जब जीभ का अगला सिरा तालू से जोड़ा जाए, तो निम्न-लिखित अक्षर उचारे जा सकते हैं: ऋ, र, ख, ट, ठ, ड, ढ, ण। उपू पदामानीयानां उष्ठऊ– दोनों होठों के मिलान से ये अक्षर उचारे जा सकते हैं: उ, व, प, फ, ब, भ, म। किसी एक वायुमण्डल की रहाइश छोड़ के अगर मनुष्य हजारों मीलों की दूरी पर किसी नए वायुमण्डल में जा बसे, तो धीरे-धीरे उसके गले की आवाज पैदा करने वाली नाड़ियों पर असर हो जाता है। छोड़ चुके वायुमण्डल की बोली के कई अक्षर उचारने उसके वास्ते मुश्किल हो जाते हैं, और नए वायुमण्डल की बोली के कई नए अक्षरों का उच्चारण उसके लिए आसान हो जाता है। नई बोली वाले लोगों के साथ मेल-मिलाप भी इस तब्दीली में बहुत सहायक होता है। पढ़े हुए और अनपढ़ की बोली में बड़ा फर्क पड़ जाता है। पढ़े हुए व्यक्ति की नाद-तंतियों को जो रोजाना अभ्यास मिलता है, अनपढ़ उस अभ्यास से वंचित रहता है। तभी अनपढ़ मनुष्य कई ऐसे अक्षर आसानी से नहीं उचार सकते जिनमें पढ़े-लिखो को कोई मुश्किल नहीं आती। बोली की इस तरह पैदा हो रही तब्दीली का असरबोली के व्याकरण पर भी पड़ जाता है, क्योंकि ‘व्याकरण’ क्या है? व्याकरण है किसी बोली के परस्पर संबंध के नियमों का संग्रह। जब शब्दों की शकल बदलती है, तो उनका अपस में संबंध पैदा करने वाले शब्दों की शकल में फर्क पैदा होता जाता है। इस तरह तब्दील हुई बोली के व्याकरण की शकल भी बदल के और हो जाती है। गुरबाणी के व्याकरण संबंधी एतराज: जब 1932 के बाद कुछ पंजाबी मासिक पत्रिकाओं में मैंने गुरबाणी व्याकरण के बारे में लेख लिखने शुरू किए, तो कई सज्जनों ने बड़ी विरोधता की। मेरे ऊपर ये दूषण लगने लग पड़े, कि ये समुंदर को कूजे में बंद करने की कोशिश कर रहा है। हमें ये बात याद रखनी चाहिए, वह ये कि किसी बोली को किसी खास व्याकरण के पीछे चलाया नहीं जा सकता। व्याकरण तो बोली में से तलाशी जाती है। अहिम चीज है बोली। उस बोली के शब्दों के परस्पर मेल के नियमों को तलाश के व्याकरण बनाई जाती है। बोली सहज ही व्याकरण अनुसार: कोई मनुष्य पढ़ा-लिखा हो अथवा अनपढ़, ज्यादा उम्र का हो या अंजान बालक, सहज ही हरेक प्राणी जो कुछ बोलता है, वह उसके देश की व्याकरण के अनुसार ही होता है। लड़का जाती है, लड़की जाता है; ऐसे वाक्य कोई भी नहीं बोलेगा। 1929 की बात है। मैं गुरु नानक खालसा कालेज, गुजरांवाले में पढ़ाता था। मेरा घर कालेज के सामने ही कोई आधे फर्लांग की दूरी पर था। सवेरे कालेज जाने लगा। उस वक्त मेरा एक छोटा लड़का और उसकी बहिन घर के दरवाजे के बाहर खेल रहे थे। पास से गुजरते मैंने स्वाभाविक ही उनसे पूछा कि वे क्या कर रहे हैं। पर पूछने के वक्त मेरे मुंह से शब्द निकले ‘क्या कर रही हो? (की कर रहीआं हो?) लड़के उम्र उस वक्त ढाई सालों की थी, और लड़की की उम्र आठ सालों की। मेरे ये शब्द सुन के मेरा लड़का खिलखिला के हस पड़ा। अपनी गलती का तो मुझे उसी समय पता लग चुका था, जब वे शब्द मेरे मुंह से निकले थे। पर मैं अब देखना चाहता था कि क्या ये छोटा बच्चा भी मेरी गलती को समझ गया है? मैंने उससे पूछा: कुलवंत! हसा क्यों? आगे उसने उत्तर दिया, ‘हम दानों लड़कियां तो नहीं’। मैंने पूछा क्या कहना चाहिए था? उसने जवाब दिया, ‘आपने कहना था, क्या कर रहे हो? ’ ढाई साल के बच्चे को अभी व्याकरण नहीं पढ़ाया जा सकता था। पर जितनी बोलने की समझ उसने सहज ही सीखी थी वह व्याकरण अनुसार ही थी। सो, बोली को व्याकरण के अनुसार घड़ने के यत्न नहीं हो सकते। बोली कुदरती तौर पर ही बढ़ती-फूलती है। बोली में से मेहनत से नियम तलाश के व्याकरण तैयार करना पड़ता है। बोली ने तो बदलते रहना है। जिस बोली के व्याकरण और कोश कलम-बंद नहीं हो जाते, उस बोली का वह वुरातन स्वरूप समझने में कठिनाई आ जाती है। वेदों वाली संस्कृत आज कहीं भी नहीं बोली जा रही। पर उसके उस समय के बने हुए व्याकरण और कोष की सहायता से वेदों को अब भी विद्वान लोग अब भी बहुत हद तक समझ लेते हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी की बोली का व्याकरण इसी भावना से तैयार किया गया। इसकी सहायता से बहु-अर्थक्ता तकरीबन खत्म हो सकती है। बहु-अर्थकता का मूल कारण ही यही था, कि वाणी के शब्दों के अर्थों और उन शब्दों के व्याकरण के संबंध के बारे में पूरी दृढ़ता नहीं थी। हो सकती भी नहीं थी। बोली पाँच सौ साल से ज्यादा पहले की है। गुरबाणी के व्याकरण की पहली झलक: गुरु नानक खालसा कालेज, गुजरांवाला मई 1917 में खुला था। संस्कृत और गुरबाणी पढ़ाने के लिए तब ही मुझे वहाँ नौकरी मिल गई। फरवरी 1920 में स: जोध सिंह जी वहाँ के प्रिंसीपल बन के आए। उनकी अगुवाई और प्रेरणा सदके मैंने गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को खास ध्यान से पढ़ना-विचारना आरम्भ किया। पर शब्दों की व्याकर्णिक बनावट के पक्ष से अभी पूरी तरह से अंधकार था। दिसंबर के महीने में गुरु तेग बहादर साहिब जी का शहीदी दिन आता है। वहाँ के खालसा हाई स्कूल के आलीशान गुरद्वारे में हर साल अखंड पाठ रखा जाता था। 1920 में भी अखंडपाठ रखा गया। सौभाग्य से मुझे भी उस पाठ में शामिल होने की आज्ञा हुई। शाम के वक्त मैं अकेला बैठा पाठ कर रहा था। स्कूल के सारे विद्यार्थी लंगर में गए हुए थे। सिर्फ एक विद्यार्थी चौर (चवर) पकड़ के खड़ा था। वैसे तो कई बार पाठ किया था पर भाग्य जब जागने थे। दो साथ-साथ की तुकों में शब्द ‘शब्द’ तीन बार आ गया। शकल तीनों की ही अलग-अलग: ‘सबदु, सबद, सबदि’। ध्यान इस तरफ जा पड़ा कि एक ही शब्द के तीन रूप क्यों? संस्कृत और प्राक्रित के व्याकरण की समझ काफी अच्छी थी। गुरु पातशाह की मेहर हुई। डेढ़ घंटे के उस समय में ऐसा लगा कि थोड़ी सी झलक पड़ी है। कोई एक छोटा सा नियम मिल गया है। पाठ के उपरांत घर जा के उस नई झलक की पड़ताल आरम्भ कर दी। उस मिले हुए नियम को संस्कृत और प्राक्रित के नियमों से जोड़ के देखा। बात बन गई। रास्ता खुल गया। उतावलापन, सफलता: अब जीअ जल्दबाजी करे, कि कोई विद्वान मिले, और जल्दी-जल्दी उन छुपे हुए नियमों की समझ दे दे। पर, कहीं से भी आस पूरी होती ना दिखी। सन 1921 में वह कालेज बंद हो गया। जुलाई 1921 में मैं शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर में उप-सचिव (मीत सकत्तर) की ड्यूटी पर आ लगा। इसी बीत सरकार से टकराव हो गया। मोर्चे लग गए। मुझे भी बड़े घर (जेल) जाना पड़ा, जो एक छुपी हुई रहमति साबित हुई। वहाँ पूरा समय ही समय, और उस समय को मैंने बरता गुरबाणी की व्याकरण की तलाश के लिए। खजाने ही मिलते चले गए। 1927 में दुबारा गुरु नानक खालसा कालज गुजरांवाले अपनी पहली नौकरी पर चला गया। एक और रास्ता रास आ गया। हमारे पड़ोस में ही था ‘खालसा यतीम खाना’, वहाँ एक छोटा सा सत्संग जारी हो गया, जिसका मनोरथ ये था कि सारे गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के अर्थ विचारे जाएं। उस वक्त तक के ढूँढे हुए व्याकर्णिक नियमों को उस सत्संग में प्रयोग का तकरीबन दो साल तक मौका मिलता रहा, जिसकी इनायत से वह व्याकरण आहिस्ता-आहिस्ता अपने यौवन रूप में आ गई। नवंबर 1929 में मैं खालसा कालज अमृतसर में आ गया। 1931 में श्री दरबार साहिब, अमृतसर की प्रबंधक कमेटी ने मांग की, कि कोई पक्ष श्री गुरु ग्रंथ साहिब का व्याकरण तैयार करे। बढ़िया मेहनत के लिए एक हजार रुपए इनाम का वचन दिया गया। एक साल की मियाद मिली और 1932 के आखिर तक मैंने उन इकट्ठे किए नियमों को एक पुस्तक की शकल में तैयार कर लिया। 1938.39 में वह पुस्तक छपवा दी गई। सितंबर 1939 में गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी ने अपना वचन निभा दिया। गुरबाणी में से कुछ व्याकर्णिक झलकियां: नोट: पाठक सज्जन देख लेंगे, कि एक शब्द का व्याकर्णिक रूप बदल जाने से उस शब्द का दूसरे शब्दों से संबंध भी बदल जाता है। सबदु, सबद, सबदि गुर का ‘सबदु’ रतंन है, हीरे जितु जड़ाउ॥ गुरमुखि चोरु न लागि, हरि नामि जगाईऐ॥ गुर, गुरु, गुरि ‘गुर’ बिनु अवरु नाही मै थाउ॥ भूले कउ ‘गुरि’ मारगि पाइआ॥ नानक, नानकु, नानकि क्रिपा निधानि ‘नानक’ कउ करहु दाति॥ अगम अगोचरु अलख अपारे। ‘नानकु’ सिमरै दिनु रैना रे॥३॥९॥१५॥ पंना 740 नानकि राजु चलाइआ, सचु कोटु, सताणी नीव दै॥१॥ (सते बलवंड दी वार, पंना 966) धन, धनु धनि ‘धनि’ गइऐ बहि झूरीऐ, ‘धन’ महि चीतु गवार॥ ... तरवरु, तरवरि ‘तरवरु’ काइआ, पंखि मनु, ‘तरवरि’ पंखी पंच॥ आपि, आपु गुर परसादी छुटीऐ, किरपा ‘आपि’ करेइ॥ परहरि पाप पछाणे ‘आपु’। ना तिसु सोगु विजोगु संतापु॥38। पंना 934 नाम, नामु, नामि जि ‘नामि’ लागै सो मुकति होवै, अनेक ऐसी उलझनें सुलझ गई: दिसंबर 1920 से पहले जब कभी भी मैं कोई शब्द अपनी कापी में उतारता था, उसके जोड़ों का कभी कोई ध्यान नहीं था रखा। अक्षरों की लगें-मात्राएं, मुझे बेमतलब सी प्रतीत हुआ करती थीं। पर जबवह पहली झलक पड़ी, मेरी आँखें खुल गई। मुझे ऐसा दिखा, कि अब तक अंधेरे में ही टटोले मारता रहा हूँ। (नोट: मैं वाणी की बोली के शब्दों की संरचना की बात कर रहा हूँ)। जब हम किसी गहरे भाव को प्रकट करने वाले शब्द के बाहरी रूप को सही तौर पर नहीं समझते, तब तक ये संभव नहीं है कि हम उस शब्द की गहरी आत्मिक रम्ज़ को समझ सकें। मैं थोड़ी ही मिसालें दे के ये लेख समाप्त करता हूँ 1939 के पहले की बात है। अभी मेरा गुरबाणी व्याकरण छपा नहीं था। पंजाब से बाहर रहने वाले एक महान विद्वान संत जी मुझे खालसा कालेज में मिले। मेरा एक मित्र उनके साथ था। मेरे मित्र जी ने संत जी को कहा कि साहिब सिंह ने गुरबाणी का व्याकरण लिखा है। संत जी ये सुन के खूब हसे। बहुत मजाक उड़ाया। मैंने उनके आगे भाटों के सवैयों में से नीचे लिखीं पंक्तियां अर्थ करने के वास्ते रखीं; ‘इकु बिंनि् दुगण जु तउ रहै, जा सुमंत्रि मानवहि लहि॥ संत जी ने ‘इकु बिंनि्’ का अर्थ ‘एक के बिना’ कर दिया। आम तौर पर यही अर्थ होते चले आ रहे थे। पर ये बिल्कुल ही गलत था। संबंधक शब्द ‘बिनु’ सदा ही आखिर में ‘ु’ की मात्रा वाला होता है। फिर, जिस शब्द से संबंधक का संबंध पड़े उस के आखिर में ‘ु’ मात्रा नहीं रह जाती (बशर्ते शब्द पुलिंग एक-वचन हो), जैसे ‘गुर बिनु घोरु अंधारु’ में शब्द ‘गुर’। ये शब्द ‘बिंनि्’ क्रिया ‘बीनना’ (चुनना) से है। ‘इकु बिंनि्’ का अर्थ है ‘एक (प्रभु) को पहचान के’। मैंने संत जी को और भी कई झलकियां दिखाई। उनकी काफी हद तक तसल्ली हो गई। पर जाते हुए प्रशंसा-पत्र दे गए कि इस खोज में किसी अकल-लियाकत की कोई जरूरत नहीं। भैरउ राग में कबीर जी लिखते हैं; दासु कबीरु तेरी पनह समानां॥ शब्द ‘भिसतु’ के अक्षर ‘त’ के नीचे ‘ु’ की मात्रा है। अगर ये ना होता, तो संबंधक ‘नजीकि’ का सीधा संबंध शब्द ‘भिसत’ के साथ बन जाता है। और इस तुक का अर्थ यूँ बन जाता ‘हे रहमान! मुझे भिसत के नजदीक रख।’ पर ये तो इस्लामी ख्याल बन गया। सिख धर्म अगले जहान के किसी ‘बहिश्त’ का इकरार नहीं करता। शब्द ‘भिसतु’ के आखिर में ‘ु’ की मात्रा बताती है कि ये शब्द ‘नजीकि’ के अधीन नहीं है। सो, पाठ करने के वक्त ‘भिसतु’ पर अटकना पड़ेगा, जैसे कि इसके बाद में विश्राम चिन्ह है। ‘भिसतु, नजीकि राखु रहमाना’॥ हे रहमान! (मुझे अपने) नजदीक रख, (यही मेरे वास्ते) भिश्त है। और, यही है गुरमति। इसी तरह देखें मारू महला १, पंना 990 ‘काइआ आरणु मनु विचि लोहा, पंच अगनि तितु लागि रही॥ इसी संबंधक ‘विचि’ का शब्द ‘मनु’ के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द ‘मनु’ के आखिर में ‘ु’ मात्रा है। इसका अर्थ यूँ होगा; शरीर अहिरण है, और इस शरीर अहिरण में मन लोहा है। रामकली राग की वाणी ‘सदु’ को व्याकरण की रौशनी में ना पढ़ सकने के कारण सदा ही ये घबराहट बनी रही, कि गुरु अमरदास जी ने अंत के समय अपनी ‘किरिआ’ कराने की क्यों हिदायत की। पर, पढ़ें, मेरा ‘सदु सटीक’। गुरबाणी के व्याकरण से अनभिज्ञ होने के कारण ही अनेक सिख सज्जन अब तक ये विचार बनाए बैठे हैं, कि भगतों के कई शबदों का आशय गुरमति से नहीं मिलता। कैसा अनोखा मिथ है। पर, पढ़ें मेरा ‘भक्त वाणी सटीक’ और ये भ्रम खुद ही दूर हो जाएंगे। अब तक इस व्याकरण के आधार पर मैं कई बाणियों के टीके छाप चुका हूँ। इस वक्त सारे ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब का टीका व्याकरण के आधार पर लिखा जा चुका है। तीन भाग छप भी चुके हैं। जैसे मेरे राह में से उलझनें सुलझ रही हैं। मुझे यकीन है कि ये व्याकरण और ये टीके और सज्जनों की भी सहायता करेंगे। श्री गुरु अरजन साहिब जी ने भगतों की वाणी कहाँ से हासिल की? ‘तवारीख गुरु खालसा’ की गवाही: ‘तवारीख़ गुरु खालसा’ के कर्ता ज्ञान सिंह जी श्री गुरु अरजन देव जी का जीवन लिखते हुए गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार होने का भी हाल लिखते हैं, और भक्तों की वाणी के बारे में यूँ लिखते हैं: ‘प्रत्येक राग के अंत में जो भगतों की वाणी गुरु जी लिखवाते रहे, इस में दो मत हैं; कोई कहता है कि भक्त खुद बैकुंठ में से आ के लिखवाते थे, और उनके दर्शन भी भाई गुरदास जी को उनके संशय दूर करने के वास्ते कराया गया था। कई कहते हैं कि भगतों की वाणी जो गुरु जी को पसंद आई उनकी पोथियों में से लिखवाई हैं। सो ये बात उन पोथियों से भी साबित है जो गुरु जी मोहन जी के पास से लाए थे, क्योंकि उनमें भी भक्त-वाणी है।’ मैकालिफ़ की राय: मैकालिफ की इस बारे में अलग ही राय है। उसकी लिखी पुस्तक ‘सिख रिलीजन’ के पंजाबी अनुवाद ‘सिख इतिहास’ में यूँ लिखा मिलता है: गुरु (अरजन साहिब) जी ने भक्त जै देव जी के समय सेले कर हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े संतों-भक्तों के उपासकों हिन्दुओं और मुसलमानों को बुलाया किवे आ के पवित्र बीड़ में चढ़ाने योग्य वाणी बताएं। उन्होंने अपने-अपने मत की वाणी को पढ़ाऔर ऐसी वाणी, जो उस समय के प्रचलिक सुधार के आशय के अनुकूल थी या जो गुरु की शिक्षा के कत्तई उलट नहीं थी, स्वीकार करके गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज की। यह यहाँ मानना पड़ता है कि उस वाणी में भगतों से उनके उपासकों के पास आने के अमल के कारण (जो गुरु अरजन देव जी के समकाली थे) कुछ अदला-बदली भी आ गई और ये बात बताती है कि भक्त-वाणी में इतने क्यों पंजाबी पद मिलते हैं, और इस वाणी व भगतों की और रचनाओं में, जो भारत के अन्य हिस्सों में संभाल के रखी हुई हैं, क्यों फर्क है। इन दोनों के अनुसार नीचे लिखे नतीजे: ज्ञानी ज्ञान सिंह जी और मैकालिफ के उपरोक्त दिए हवाले से निम्न-लिखित निष्कर्ष निकल सकते हैं; भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी। ये वाणी भगतों के उन श्रद्धालुओं के पास से ली गई थीजो गुरु अरजन साहिब जी के समय पंजाब में मौजूद थे। इन सेवक श्रद्धालुओं से कई शब्दों में सहज ही अदला-बदली भी हो गई थी, तभी गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज शबदों से भारत के अन्य हिस्सों में भगतों के संभाले शबदों का कुछ-कुछ फर्क है, और इनमें कई पंजाबी पद मिलते हैं। भारत के और हिस्सों में ये बाणियां संभाल के रखी हुई थीं, पंजाब में श्रद्धालुओं ने बेपरवाही सी की हुई थी। गुरु अरजन साहिब से पहले के गुरु साहिबानो का भक्त वाणी से वास्ता नहीं पड़ा, अथवा उनको भक्त-वाणी पढ़ने-विचारने की जरूरत नहीं पड़ी। खतरनाक गलती: मैकालिफ साहिब के सलाहकारों ने उसको एक अजीब गलत राह पर डाला प्रतीत होता है। क्या ये ठीक है कि गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई भगतों की वाणी में बहुते शब्द ऐसे हैंजो बदले हुए हैं? क्या इस तरह अनजाने में गुरु अरजन साहिब पर ये दोष नहीं लगाया गया कि उन्होंने भक्तों की असल वाणी दर्ज नहीं की? क्या इस तरह श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की महानता और पवित्रता पर हरफ़ नहीं ले आया गया? क्या आज से कुछ साल पहले जिस प्रेमियों ने भगतों की वाणी के गुर-वाणी ना होने की आवाज उठाई थी, उन्हें यही चुभन दुखदाई हो रही थी? ये मान्यता क्यों? पर, विचारने वाली बात ये है कि मैकालिफ के सलाहकार सज्जनों ने ये कैसे मान लिया कि पंजाब के बाहर तो भगतों की वाणी ठीक रूप में संभाल के रखी हुई थी और पंजाब के श्रद्धालुओं से इसमें अदला-बदली हो गई। क्या भगतों से अलग पहले की लिखी हुई रामायण-महाभारत आदि पुस्तकों में भी पंजाब के श्रद्धालु हिन्दू सज्जनों ने अदला-बदली कर ली है, और पंजाब के बाहर वे चीजें अपने असली रूप में हैं? क्या रामायण में कोई शब्द ऐसे नहीं मिलते जो पंजाब में भी इस्तेमाल में हों? क्या हिंदी और पंजाबी बोली में कोई शब्द या पद् सांझे नहीं हैं? अगर पंजाब में आ के हिन्दी बोली की रामायण ठीक अपने रूप में रह सकती है, अगर रामायण में कई पंजाबी के शब्द होते हुए भी रामायण में किसी अदला-बदली का शक नहीं किया जा सकता, तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज किए भगतों के शबदों के बारे में ये शक क्यूँ पड़ा है कि असल चीज तो बनारस आदि जगह पर है और पंजाब में बदली हुई चीज आ गई है? क्या ये कहीं उन सज्जनों की कृपा तो नहीं, जिस जैसों ने गुरु नानक साहिब के गले में जनेऊ पहना दिया, जिन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी को देवी का उपासक लिख दिया? ये बात जानी-मानी है कि भक्त कबीर जी के बाद कबीर-पंथियों में एक साधु कबीर दास हुआ है, इसने भी बहुत कविता लिखी है। यहाँ से तो बल्कि ये सिद्ध होता है कि कबीर जी के अपने वतन में उनकी वाणी में खिचड़ी पकाने के यत्न किए गए थे; पंजाबी श्रद्धालुओं की कोई खास अलग कमी नहीं थी। अदला-बदली पंजाब में नहीं हो सकी: अदला-बदली होने का सबसे बड़ा कारण यही हो सकता है कि सेवक श्रद्धालुओं ने कबीर जी की वाणी जबानी याद कर रखी हो, लिख के रखने का कोई प्रबंध ना हो सका हो। पर, ये वो जमाना नहीं था जब कागज-कलम-दवात ना मिल सकते हों; ये कमी वेदों के जमाने में थी, जब कवि-ऋषि अपनी और अपने बुर्जुगों की कविताएं ज़बानी याद रखते थे। मुसलमानों के राज में तो कागज-कलम-दवात की कोई कमी नहीं थी। सो, पंजाब-वासी जो सेवक-श्रद्धालु किसी भक्त की वाणी लेकर आया होगा, लिख के लाया होगा, और नीयत साफ होने पर लिख के रखी किसी वाणी में अपने-आप अदला-बदली नहीं हो सकती। अदला-बदली की संभावना कहाँ? थोड़ा और ध्यान से विचारें। भगतों की वाणी में मिलावट डालने वाले व अदला-बदली करने वाले कहाँ के लोग हो सकते थे? उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है। सिर्फ वहीं के लोग जहाँ किसी भक्त की बहुत प्रसिद्धि हो चुकी हो, जहाँ उसके ख्यालों का आम प्रचार हो गया हो। फिर, कौन लोग मिलावट करते हैं अथवा अदला-बदली करते हैं? ये आदमी दो किस्म के हो सकते हैं: एक, वे जो ये चाहते हों कि प्रसिद्ध हो चुके भक्त की वाणी के साथ लोग हमारी कविता भी आदर-सम्मान के साथ पढ़ें; ऐसे आदमी उस भक्त का नाम बरत के कविता लिखने लग पड़ते हैं। दूसरे, वह लोग भक्त के प्रचार में गड़बड़ चाहते हों। ऐसे दोनों ही किस्मों के लोग पड़ोसी या शरीके वाले ही हो सकते हैं। गुरु साहिबानों के अलावा गुरु साहिब का नाम बरत के किन लोगों ने कविता रचनी आरम्भ की? – सतिगुरु जी के हम वतनियों, पड़ोसियों और शरीकों। सो, भगतों की वाणी बदलने का दूषण पंजाब पर नहीं आ सकता। अगर कोई अदली-बदली हुई है, तो वह भगतों के अपने ही वतन में है; जो चीज भक्त जी के समय की अथवा उसके आस-पास पंजाब में लिखती रूप में पहुँच चुकी है वह सही रूप में ही रही है। भक्त-वाणी की बोली: जब हम श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हुई भक्त-वाणी को ध्यान से पढ़ते हैं, तो एक बात साफ दिखाई देती है कि तकरीबन सारे ही भगतों ने वही ‘बोली’ बरती है, जो लगभग सारे भारत में समझी जा सके। क्यों? इसका कारण यही हो सकता है कि वे अपने ख्यालों का प्रचार सारे भारत में करना चाहते थे। भक्त नाम देव जी महाराष्ट्र के रहने वाले थे, पर उन्होंने भी अपनी वाणी भारत की सांझी सी बोली में लिखी है। भला, गुरु साहिबान की अपनी वाणी जरा पढ़ के तो देखें! ये ज्यादातर किस बोली में है? पंजाबी बोली नहीं है। ज्यादा तकरीबन हिन्दी ही है। क्यों? इसलिए कि वे अपने विचारों को सारे भारत में पहुँचाना चाहते थे। असल भक्त-वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में: हम अब तक विचार चुके हैं कि जो भक्त-वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, भगतों की उचारी हुई असली वाणी वही है। भगतों के अपने इलाके में अदला-बदली संभव हो सकती थी और शायद हुई होगी। अब हमने ये देखना है कि सतिगुरु जी ने किन हालातों में ये वाणी एकत्र की थी। ‘तवारीख गुरु खालसा’ और मैकालिफ ने तो यही लिखा है कि ये काम गुरु अरजन साहिब ने किया था। पर, गुरबाणी के अंदर की गवाही ये बात से मेल नहीं खाती। इस में कोई शक नहीं कि इतिहास कौम की जिंद-जान हुआ करते हैं और इतिहासकारों की मेहनत सदा आदर की हकदार होती हैं। पर, ये बात भी आँखों से ओहली नहीं की जा सकती कि सिख धर्म का असल केंद्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी है; इतिहास के जो पन्ने इसके साथ मेल नहीं खाते, उनको गुरबाणी की गवाही के मुकाबले पर बराबर की जगह नहीं दी जा सकेगी। पर, इसका भाव ये नहीं कि इतिहास या इतिहासकार की कोई निरादरी की गई है। बाबा फरीद जी और गुरु नानक देव जी साखी अनुसार पाकपटन: भक्त-वाणी का संबंध गुरबाणी के साथ कब से बना है; ये बात तलाशने के लिए हरेक भक्त की वाणी अलग-अलग विचार करनी पड़ेगी। सो, सबसे पहले हम सतिगुरु जी की वाणी अपनी ही जन्म-भूमि के वाशिंदे बाबा फरीद जी की वाणी को देखते हैं। अगर साखी की ओर देखें, तो ‘पुरातन जनमसाखी’ वाले ने साफ लिखा है कि गुरु नानक देव जी पाकपटन गए, बाबा फरीद जी की गद्दी पर ग्यारहवें स्थान पर बैठे शेख बिराहम को मिले और उससे शेख फरीद जी की वाणी सुनी। सिर्फ सुनी ही नहीं, फरीद जी के कई वचन के बारे में ख्याल भी प्रगट किए। पहले लेख में हम बता चुके हैं कि गुरु नानक देव जी अपनी उचारी हुई वाणी सदा खुद ही लिख के अपने पास संभाल के रखते रहे थे। पाकपटन में उचारी वाणी के वास्ते इस नियम की उलंघना की जरूरत नहीं हो सकती थी, भाव, पाकपटन में उचारी हुई वाणी भी सतिगुरु जी ने खुद ही लिख के अपने पास रखी होगी। पर, जो वाणी गुरु नानक देव जी ने पाकपटन में उचारी, उसमें और बाबा फरीद जी की कुछ वाणी में नजदीक की सांझ है। ये मानना ही पड़ेगा कि बाबा फरीद जी के जिस वचन के संबंध में गुरु नानक देव जी ने अपनी वाणी उचारी थी और लिख के अपने पास रख ली थी, वे वचन भी सतिगुरु जी ने जरूर अपने पास रख लिए होंगे, क्योंकि सुंदरता की जो झलक उनको इकट्ठे आमने-सामने करके आती है, अलग-अलग देखने में पता नहीं चलती। शलोकों का परस्पर मुकाबला इस बात को प्रत्यक्ष देखने और समझने के लिए दोनों महा-उत्तम व्यक्तियों के शलोक मिला के पढ़ें; फरीद जी: पहिले पहिरै फुलड़ा, फलु भी पछा राति॥ जो जागंनि् लहंनि् से, साई कंनो दाति॥११२॥ यहाँ फरीद जी ने शब्द ‘दाति’ का प्रयोग करके सिर्फ इशारे मात्र बताया है कि जो मनुष्य अमृत वेला में जाग के ‘बंदगी’ करते हैं उनपे ईश्वर मेहर करता है और अपना नाम बख्शता है। गुरु नानक देव जी ने स्पष्ट करके यह कह दिया है कि ये तो ‘दाति’ है। ‘दाति’ कोई ‘हक’ नहीं बन जाता, कहीं कोई अमृत वेला में उठने का गुमान ही करने लगे। सो, बाबा फरीद जी के उपरोक्त शलोक की व्याख्या में गुरु नानक साहिब जी ने लिखा; दाती साहिब संदीआं, किआ चलै तिसु नालि॥ इकि जागंदे ना लाहनि्, इकना सुतिआ देइ उठालि॥११३॥ सलोक फरीद जी: सरवरि पंखी हेकड़ो, फाही वाल पचास॥ इहु तनु लहरी गडि थिआ, सचे तेरी आस॥१२५॥ इस श्लोक में फरीद जीने बताया है कि जगत के विकारों से बचने का एक ही उपाय है: परमात्मा की ओट। ये ओट किसी भी मोल मिले तो भी ये सौदा सस्ता है। इस विचार का आप यूँ बयान करते हैं; तनु तपै तनूर जिउ बालणु, हड बलंनि्॥ पैरी थकां सिरि जुलां, जे मूं पिरी मिलंनि्॥११९॥ पर, कहीं कोई अंजान मनुष्य ये समझ ले कि फरीद जी धूणियां तपाने की हिदायत करते हैं, इस भुलेखे को बचाने के लिए सतिगुरु नानक देव जी फरीद जी के इस श्लोक के साथ अपना श्लोक लिख के बताते हैं कि फरीद जी धूणियां तपाने के हक में नहीं हैं: तनु न तपाइ तनूर जिउ, बालणु हड न बालि॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ, अंदरि पिरी निहालि॥१२०॥ फरीद जी: साहुरै ढोई ना लहै, पेईऐ नाही थाउ॥ पिर वातड़ी न पुछई, धन सोहागणि नाउ॥३१॥ फरीद जी ने यहाँ बताया है कि ‘खसम’ कभी खबर ही ना पूछे तो निरा नाम ही ‘सोहागणि’ रख लेना किसी काम का नहीं। सतिगुरु नानक देव जी ने अगले श्लोक में ‘सोहागणि’ के असल लक्षण भी बता के बाबा फरीद जी के विचार की और व्याख्या कर दी है; साहुरे पेईऐ कंत की, कंतु अगंमु अथाहु॥ नानक सो सोहागणी, जु भावै बेवरवाह॥३२॥ बाबा फरीद जी के उपरोक्त दिए श्लोकों की व्याख्या सतिगुरु नानक साहिब ने अपने शलोकों में की है, ये नहीं हो सकता कि उनको सतिगुरु जी ने अपने शलोकों के साथ ना रखा हो। यहाँ से ये नतीजा भी साफ निकलता है कि बाबा फरीद जी के बाकी के शलोक भी सतिगुरु जी ने जरूर लिख लिए होंगे, नहीं तो, बाबा फरीद जी के किसी एक-दो वचन के बारे में पड़ते किसी भुलेखे की व्याख्या करने की जरूरत ही नहीं थी। गुरु अमरदास जी और फरीद जी: हम साबित कर चुके हैं कि गुरु नानक देव जी की सारी ही वाणी उनके अपने ही हाथों से लिखी हुई गुरु अंगद देव जी के माध्यम से गुरु अमरदास जी तक पहुँची थी। फरीद जी के यें सारे शलोक भी इस खजाने में उनको मिले थे। तभी गुरु अमरदास जी भी बाबा फरीद जी के कुछ ख्यालों की व्याख्या में अपने शलोक लिखे; बाबा फरीद जी: फरीदा रती रतु न निकलै, जे तनु चीरै कोइ॥ जो तन रते रब सिउ, तिन रतु न होइ॥५१॥ फरीद जी ने जिस ‘रतु’ का जिक्र इस शलोक में किया है, उसको आपने पहले शलोक नं: 50 में समझा तो दिया है, पर इशारे-मात्र ही शब्द ‘दिलि काती’ के द्वारा आप लिखते हैं: फरीदा कंनि मुसला, सूफ गलि, दिलि काती गुड़ु वाति॥ बाहरि दिसै चानणा, दिलि अंधिआरी राति॥५०॥ गुरु अमरदास जी ने ख्याल ज्यादा खोल के अपने शलोक में बयान कर दिया है। महला ३॥ इहो तनु सभो रतु है, रतु बिनु तनु न होइ॥ जो सह रते आपणे, तितु तनि लोभु रतु न होइ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभु रतु विचहु जाइ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ, तिसु हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ॥ नानक ते जन सोहणे, जि रते हरि रंगु लाइ॥५२॥ फरीद जी: फरीदा पाड़ि पटोला धज करी, कंबलड़ी पहिरेउ॥ जिनी वेसी सहु मिलै, सेई वेस करेउ॥१३०॥ फरीद जी का यहाँ भाव वही है जो उन्होंने शलोक नं: 119 में बताया है। पर, कहीं कोई मनुष्य ये ना समझ ले कि फरीद जी रब के मिलने के लिए फकीरी पहिरावा जरूरी विचार दे रहे हैं। गुरु अमरदास जी ने ये भुलेखा दूर करने के लिए इसके साथ अपना शलोक दर्ज कर दिया है; महला ३॥ काइ पटोला पाड़ती, कंबलड़ी पहिरेइ॥ फरीद जी: फरीदा कालीं जिनी न राविआ, धउली रावै कोइ॥ यहाँ फरीद जी एक कुदरती नियम बताते हैं कि जवानी में मायावी आदतें पक जाने के कारण बुड़ापे में बंदगी की ओर पलटना आम तौर पर मुश्किल हो जाता है। गुरु अमरदास जी इस विचार से जुड़ी हुई एक और बात बताते हैं कि जवानी हो या बुड़ापा, ‘बंदगी’ है ही सदा रूहानी बख्शिश: महला ३॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है, जे को चितिकरे॥ अगर भगतों की वाणी और उसमें फरीद जी के शलोक गुरु अरजन साहिब ने एकत्र किए होते, तो गुरु अमरदास जी के ऊपर-लिखे शलोकों के उचारे जाने की कोई गुंजाइश नहीं होती। शलोक नं: 13 के लिए तो कोई भी दलील घड़ी नहीं जा सकती, क्योंकि इसमें तो गुरु अमरदास जी बाबा फरीद जी का नाम भी बरतते हैं। बड़ी स्पष्ट और प्रत्यक्ष बात है ये सारे शलोक गुरु नानक देव जी ने पाकपटन जा के शेख इब्राहिम से लिए, अपने पास लिख के रख लिए, इन्हें अच्छी तरह पढ़ा-विचारा, जहाँ जरूरत महिसूस की, फरीद जी के ख्याल की और व्याख्या कर दी। अपनी वाणी के साथ ही गुरु अंगद साहिब जी के द्वारा गुरु अमरदास जी तक पहुँचाए। गुरु अमरदास जी ने भी फरीद जी के द्वारा बताए गए इशारे-मात्र विचारों को और साफ कर दिया। सो जहाँ तक फरीद जी की वाणी का संबंध है, ये गुरु अरजन देव जी ने इकट्टी नहीं कराई, ये सारी की सारी उन्हें गुरु नानक देव जी से विरसे में मिली थी। जब हम ये देखते हैं कि 130शलोकों में शलोक नं: 13, 32, 52, 104, 113, 120, 123 और 124 गुरु नानक देव जी और गुरु अमरदास जी के हैं, तो कुदरती नतीजा यही निकलता है कि सतिगुरु नानक देव जी कोई इक्का-दुक्का शलोक फरीद जी के नहीं ले के आए थे बल्कि सारे ही लिख लिए थे। सूही राग के दोनों शब्द इस नतीजे को और पक्का करने के लिए पाठकों की सेवा में सूही राग के दो शब्द पेश कर रहे हैं, एक फरीद जी का और दूसरा गुरु नानक देव जी का। फरीद जी हिदायत करते हैं कि माया में मन ना फसाओ, जो मनुष्य माया के मोह में फंसते हैं, इस शब्द के द्वारा फरीद जी उनकी खराब हो चुकी हालत बयान करते हैं। सतिगुरु नानक देव जी उपदेश करते हैं कि प्रभु के नाम में मन को रंगो, जिनका मन नाम-रंग में रंगा जाता है, उनकी बढ़िया हालत सतिगुरु जी के शब्द में बताई गई है। फरीद जी ने माया-लिप्त मानव तस्वीर खींची है। गुरु नानक देव जी ने नाम-रंग में रंगी तस्वीर। दोनों शबदों की पहले ‘रहाउ’ की तुकों को मिला के पढ़ो फिर सारे ‘बंदों’ को एक-दूसरे शब्द में सेले के। कितने ही शब्द सांझे हैं! इन दोनों शबदों को पढ़ के कोई शक नहीं रह जाता। गुरु नानक देव जी ने बाबा फरीद जी की एक-तरफा तस्वीर का दूसरा पासा तैयार करके तस्वीर को मुकम्मल कर दिया है। अगर फरीद जी का ये शब्द गुरु नानक देव जी अपने साथ संभाल के ना रखते, तो ये जरूरी नहीं था कि ये दोनों शब्द दुबारा आपस में मिल सकते। दोनों शब्द इस प्रकार हैं: सूही फरीद जी: बेड़ा बंधि न सकिओ, बंधन की वेला॥ सूही महला १: जप तप का बंधु बेड़ुला, जितु लंघहि वहेला॥ ऐतराजों के बारे में विचार: भक्त वाणी के विरोधी सज्जन जी बाबा फरीद जी के संबंध में यूँ लिखते हैं: ‘शेख फरीद जी के प्रचार ने बहुत से हिन्दू जाटों को मुसलमान बनाया, कई जोगी सिद्ध हिन्दू रजवाड़े इस्लाम में शामिल किए।’ पता नहीं क्यों, विरोधी सज्जन ने ये जजबाती प्रेरणा करके फरीद जी के विरुद्ध भड़काहट पैदा करने का प्रयत्न किया। अगर किसी महापुरुष के ऊँचे आचरण और मीठे बोलों की ताकत ने भेद-भाव भरे भाईचारे में दल-दल में फंसे लोगों को वहाँ से खींच लिया, तो इसमें फरीद जी का क्या दोष? फरीद जी के शलोक गुरु अमरदास जी के पास: विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: ‘मौजूदा बीड़ में चार शब्द और 130 शलोक हैं। कई शलोकों पर तीसरे और पाँचवें गुरु जी द्वारा नोट भी दिए गये हैं। सतिगुरु जी के दिए गये नोट ही ये साबत कर रहे हैं कि फरीद जी की वाणी को गुरु साहिब ने खुद ही ‘मौजूदा बीड़’ में दर्ज किया था। इस्लामी शरह: विरोधी सज्जन लिखता है: ‘निहायत खुशी की बात ये है कि फरीद जी की रचना में कहीं भी राम, कृष्ण भगवान का नाम तक नहीं आया। इस्लामी तर्ज के नामों के अलावा सारी रचना में इस्लामी शरह को कूट-कूट के भरा हुआ है; जैसे कि कब्र का दुख, कयामत, पुरसलात, नमाजें, रोज़े, वुजू आदि का बार-बार ज़िक्र आता है। बात सीधी और स्पष्ट है। बाबा फरीद जी मुसलमान घर के जम-पल थे। उनके माता-पिता पंजाबी नहीं थे। हिन्दू भी नहीं थे। स्वभाविक तौर पर उनकी बोली में इस्लामी शब्द ही आने थे। पर महापुरुख जो हैं सबके लिए सांझी बात; ‘परथाइ साखी महा पुरख बोलदे, सांझी सगल जहानै॥’ चालाक भाई: विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: ‘कई चालाक भाई नमाज का अर्थ ‘अर्ज, बंदगी’ आदि निकाल के परचाना चाहते हैं। पर, जहाँ शेख फरीद जी फरमाते हैं कि ‘उठ फरीदा उज़ु साजि, सुबह निवाज गुजारि’, इस का भाव ये कभी नहीं हो सकता कि फरीद जी कहते हैं के हे सिख! उठ, स्नान करके जप, जाप, सवैये पढ़। अर्थ साफ इस्लामी नमाज है जो सिखों ने कभी नहीं पढ़ी। बात सीधी और साफ है। बाबा फरीद जी का देहांत गुरु नानक देव जी के जनम से पूरे 203 साल पहले हो चुका था। जप, जाप आदि बाणियां अभी उस वक्त तक वाणी के रूप में नहीं आई थीं। शब्द ‘महला’ का शीर्षक: आगे विरोधी सज्जन जी किसी विद्वान का हवाला दे के यूँ लिखते हैं: 1927 ई: में पीर मुहम्मद हुसैन ने ‘अरशादाति फ़रीदी’ नाम की पुस्तक लिखी, जो केवल शेख फ़रीद जी के शलोकों का टीका थी। उसके अंदर आप जी ने ‘महला’ शीर्षक को बिल्कुल ही हटा दिया था। उनका विचार था कि ‘महला’ लिखना शेख़ साहिब के मत को कमजोर साबित करना है। पीर जी का ख्याल है कि फरीद जी रचना मुकम्मल इस्लामी कलाम है। विरोधी सज्जन जी ने ये बात स्पष्ट नहीं की कि क्या पीर जी ने सिर्फ शब्द ‘महला’ ही हटाया है अथवा शब्द ‘महला’ के साथ संबंध रखने वाले शलोक भी उड़ा दिए? अगर सिर्फ शब्द ‘महला’ ही हटाया है और शलोक कायम रहने दिए तो पीर जी की निगाह में फरीद जी और गुरु साहिब हम-ख्याल हैं। हम भी यही कहते हैं। अगर पीर जी ने गुरु साहिब वाले शलोक भी उड़ा दिए, और सिर्फ फरीद जी के शलोकों को वह ‘मुकम्मल इस्लामी कलाम’ समझते हैं, तो भी यहाँ कोई भ्रम-भुलेखा नहीं रह जाता। ‘शब्द’ इस्लामी हैं, मतलब नहीं। हाँ, इनका ‘आश्य’ वही है जो गुरु साहिब का है। जहाँ-जहाँ फरीद जी के आशय के बारे में शक पड़ सकता था, वहाँ-वहाँ गुरु जी ने व्याख्या कर दी हुई है। करामात: इस शीर्षक तले विरोधी सज्जन ने लिखा है: शेख साहिब की करामातों के बहुत श्रद्धालू थे। जैसे कि 1. आग लेने जाना, आग ना मिलनी। आखिर एक वेश्वा ने आँख के आने के बदले आग देनी। फरीद जी ने आँख बाँध लेनी कि आँख आई हुई (दुखती) है, पर खोली तो अच्छी-भली। 2. बारह साल काठ की रोटी रखनी, और उसके आसरे गुजारा करना। 3. फ़रीद जी तप करते-करते दीमक की वरमी बन गए। लोहार ने सूखी लकड़ी समझ के कोहाड़ा मारा। 4. अटक नदी पार करने के वक्त पानी पर मुसल्ला बिछा के लेट जाना आदि....। आप की रचना से भी साबित होता है; जैसे कि अ. ‘फरीदा जिन लोइण....।14। वेश्वा के सुरमे की तरफ इशारा। आ. ‘फरीदा रोटी मेरी ...।29। इस शलोक में काठ की रोटी का जिकर है जिसके सहारे बारह साल काटे। इ. फरीदा तनु सुका...।90। इस शलोक में फरीद जी के तप का वर्णन है, कौए तलियां नोचते हैं। ई. कंधि कुहाड़ा...।43। ये लोहार की ओर इशारा है, जिसने कुहाड़ा मारा था। नोट: सिख विद्वान टीकाकारों ने लगभग उक्त आशय के अनुसार अर्थ किए हैं। उ. ‘फरीदा रती रतु...’।52। फरीद जी का हठ योग नजर आता है। विरोधी सज्जन जी अर्थ करने में मार खा गए हैं। पाठक सज्जन मेरा टीका ध्यान से पढ़ें उन्हें समझ आ जाएगी। अगर लोग फरीद जी के बारे बेमतलब की करामातें घड़ लें, तो उसमें फरीद जी का क्या दोष है? ये करामातें ना मानिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज इस वाणी की ओर से क्यों मुंह मुड़े? स्त्री निंदा: इस शीर्षक तहत विरोधी सज्जन लिखता है: ‘फरीद जी ने अपनी रचना के अंदर स्त्री-निंदा विरोधी कदम उठाया। आप फरमाते हैं; फरीदा इह विस गंदला....।37। इस शलोक में स्त्री को विष की गंदलें कह के तृस्कारा है।’ यहाँ भी विरोधी सज्जन ने अर्थों में गलती की है। पढ़ें मेरी टीका। कब्र में निवास: इस शीर्षक में विरोधी सज्जन शलोक नं: 17, 67, 93 और 97 का हवाला दे कर लिखता है: ‘उक्त शलोकों से साफ जाहिर होता है कि शेख फरीद जी कब्र के दुख, कब्र की मर्यादा, आखिर कब्र के अंदर के निवास को इस्लामी नुक्ते अनुसार प्रचारते हैं। पर, गुरमति का सिद्धांत इससे उलट है।’ पाठक सज्जन टीका पढ़ के देखें। बारंबार बंदगी की प्रेरणा की है। जगत का प्रभाव बता के। जैसे कबीर जी इस प्रभाव का वर्णन करते हुए मसानों का जिक्र करते हैं, वैसे ही फरीद जी गोर (कब्रों) का जिक्र करते हैं। फरीद जी मुसलमान थे, कबीर जी हिन्दू। अपने-अपने भाईचारिक रिवाज का ही हवाला दिया जा सकता था। यहाँ कहीं भी गुरमति के सिद्धांत की कोई उलंघना नहीं है। पुरसलात: यहाँ फरीद जी के पहले दो शलोकों की आखिरी दो पंक्तियां दे के विरोधी सज्जन लिखता है: ये भी इस्लामी ख्याल है कि मरने के बाद ‘पुरसलात’ नामक रास्ते से गुजरना पड़ता है जो बहुत कठिन है। पर गुरमति का सिद्धांत इससे मेल नहीं खाता।’ फरीद जी मुसलमान के घर पैदा हुए पले थे। उन्होंने शब्द भी मुसलमानी और जिंदगी के बारे में मुहावरे भी इस्लामी ही बरतने थे। ये स्वभाविक बात है। इसी तरह गुरू नानक देव जी ने लिखा है: ‘गलि संगलु घति चलाइआ’॥ अलग-अलग भाईचारे के कारण शब्दावली भी अलग’अलग है। सिद्धांत में कोई फर्क नहीं; “खड़ा न आपु मुहाइ॥ खड़ा न आपु मुहाइ॥ ” वुज़ू और नमाज: यहाँ विरोधी सज्जन शलोक नं: 70, 71, 72 का हवाला दे के लिखते हैं: ‘उक्त शलोकों में फरीद जी नमाजें पढ़ने का उपदेश देते हैं। बे-नमाजे को कुत्ते के बराबर बताया है।.....गुरु साहिब ने इस्लामी नमाजों का खण्डन करके असल नमाज का उपदेश दे के अपने खालसे के लिए ये प्रोग्राम बनाया है: ‘गुर सतिगुर का जो सिखु अखाए.....॥ महला ४॥ इस तरह साबित हो गया कि गुरमति फरीद जी की इस्लामी नमाजों का खण्डन करके सिख के लिए नया प्रोग्राम पेश करके उस पर अमल करने का उपदेश करती है।’ बस! असल बात यही है जो विरोधी सज्जन ने आखिर में लिखी है ‘अमल करने का उपदेश’। फरीद जी के शब्द मुसलमानी हैं, गुरु साहिब के शब्द मुसलमानी नहीं। प्रोग्राम दोनों का एक ही है। खण्डन नमाजों का नहीं, खण्डन निरी नमाजों का है। फरीद जी ने भी यही कहा है; ‘फरीदा अमल जि कीते दुनी विचि से दरगह आए कंमि॥’ दोज़ख़: इस शीर्षक तले विरोधी सज्जन ने शलोक नं: 74 और 98 के बारे में लिखा है: ‘उक्त शलोक में फरीद जी ने बंदे को इस्लामी शरा और दोजक का भय दिखाया है। इस्लाम जन्नत-दोजख का कायल है, पर गुरमति जन्नत-दोज़क का खण्डन करके आवागवन की थिउरी का उपदेश देती है।’ भक्त-वाणी की विरोधता के कारण ऐसे ही शाब्दिक प्रहार किए जा रहे हैं, नहीं तो शब्द ‘दोज़ख’ सतिगुरु जी ने भी इस्तेमाल किए हैं; ‘नंगा दोजकि चालिआ, ता दिसै खरा डरावणा।’ (आसा की वार म: १) ‘दोजिक पउदा किउ रहै, जा चिति ना होइ रसूलि॥’ (गउड़ी की वार म: ५) इस्लामी लिबास: इस शीर्षक तले फरीद जी के शलोक नं: 50 और 103 का हवाला दे के भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: ‘इन शलोकों में शेख साहिब इस्लामी लिबास मुसल्ला (जिस पर बैठ के नमाज पढ़ते हैं) सूफ (फतूही) आदि का जिक्र करते हैं। पर सिखी मंडल में इस लिबास का खण्डन है। खालसे का लिबास दसतार, कछहिरा, गातरे किरपान आदि का बंधान है। इसलिए फरीद जी का लिबास उस पदवी पर नहीं पहुँच सकता जहाँ खालसा यूनीफार्म (रहित) पहुँची हुई है।’ विरोधी सज्जन अजीब राह पर पड़ गए हैं। सवाल तो ये है कि ये शलोक नं: 103 गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है कि नहीं। अगर नहीं, तो इसके साथ गुरु अमरदास जी का शलोक नं: 104 इस प्रथाय कैसे आ गया? और, गुरु ग्रंथ साहिब में कहाँ दर्ज है? विरोधी सज्जन ‘यूनीफार्म’ का मामला ले बैठे हैं। शलोक के भाव को समझने का यत्न नहीं करते। वैसे ‘खालसा यूनीफार्म’ का वर्णन भी गुरु ग्रंथ साहिब में नहीं है, गुरु नानक देव जी के वक्त यह ‘यूनीफार्म’ नहीं थी। पता नहीं, विरोधी सज्जन इसका क्या भाव लेंगे। दलीलबाजी: विरोधी सज्जन जी ने भक्त वाणी से सिर फेरते हुए इसके विरुद्ध कई दलीलें दीं हैं। ‘भक्त वाणी सटीक’ में उन दलीलों को गलत साबित करने के प्रयत्न किए गए हैं। पर दलीलबाजी का ये सिलसिला तो ना खत्म होने वाला हो सकता है। असल में विचारणीय ये है कि जिस बाणियों के विरुद्ध ये सज्जन प्रचार कर रहे हैं, उनको श्री गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु अरजन देव जी ने खुद दर्ज किया था या नहीं। इस संबंधी विचार ऊपर दिए जा चुके हैं। काठ की रोटी: हास्यास्पद श्रद्धा: अगर बाबा फरीद जी की वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज ना होती, तो हमें इस बात की पड़ताल करने की आवश्क्ता नहीं थी। हरेक मनुष्य को हक है कि वह अपने ईष्ट को जिस रूप में चाहे देखे। पर इस साखी की पुष्टि के लिए चुँकि उस वाणी से प्रमाण दिए जाते हैं जो कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, इसलिए हरेक सिख का फर्ज है कि इनको थोड़ी गंभीरता से विचारे। जिस ‘बीड़’ को हम ‘गुरु’ की तरह सम्मान देते हैं, उसका हरेक शब्द गुरु-रूप है। अगर हम किसी भाट अथवा भक्त का कोई शब्द गुरु आशय के उलट समझते हैं, तो वह बीड़ जिसमें गुरु आशय से अलग भाव वाले शब्द दर्ज हैं समूचे तौर पर ‘गुरु’ का दर्जा नहीं रख सकती। ये एक हास्यास्पद बात है कि भगतों के शब्दों को हम गुरमति अनुसार मानें और कई शबदों को गुरु आशय के विरुद्ध। गुरु अरजन साहिब ने गुरु ग्रंथ साहिब में ये कहीं नहीं लिखा कि फलाने-फलाने शब्द गुरमति अनुसार नहीं हैं। रोटी खाना बुरा काम नहीं: ये ‘बीड़’ सिख की ‘गुरु’ है। इसके किसी भी अंग में कोई कमी नहीं है। इसी ही निश्चय से हमने बाबा फरीद जी के शलोक पढ़ने हैं। पर ये निरे पढ़ने के लिए नहीं। अन्य वाणी की ही तरह ये भी जीने की विधि सिखाते हैं। जीवन का आसरा हैं। इस धुरे से ‘फरीदा रोटी मेरी काठ की’ वाले शलोक पढ़ के साधारण तौर पर कई प्रश्न उठते हैं: क्या रोटी खाना बुरा काम है? अगर ये बुरा काम है, तो काठ की रोटी से कैसे मन-परचावा कैसे अच्छा काम हो सकता है? पर, क्या काठ की रोटी से मन परच भी सकता है? क्या ये श्लोक हरेक प्राणी मात्र के लिए सांझा उपदेश है? तो फिर, क्या कभी ऐसी अवस्था भी आनी चाहिए जब इस वाणी को पढ़ने वाले काठ की रोटी पल्ले बाँधी फिरें? अगर ऐसा समय आना नहीं चाहिए तो इसके पढ़ने का क्या लाभ? भूखे रहना, धूणियां तपानी और उलटे लटकना आदि कर्म गुरमति के अनुसार बेमायने हैं।, और ना ही फरीद जी की वाणी में कहीं भी इन्हें जरूरी बताया गया है। कोई ना कोई जिंमेवारी: जगत में जो भी पैग़ंबर, अवतार, गुरु अथवा कोई और महापुरुष आता है। वह कोई ना कोई खास जिंमेवारी ले के आता है। आम तौर पर वह जिंमेवारी क्या होती है? इसका उत्तर गुरु साहिब जी की वाणी में से इस तरह है; जनम मरन दोहू महि नाही, जन परउपकारी आए॥ भाव: परमात्मा के प्यारे जगत में आम लोगों की भलाई के लिए आते हैं। दुनिया के विकारों में पड़ के जिनके अंदर से रूहानी जिंदगी खत्म हो जाती है उन्हें दुबारा ईश्वरीय जीवन देते हैं और रब से जोड़ देते हैं। भगवत् गीता में भी महापुरुषों के जगत में आने का उद्देश्य ऐसे लिखा है; यदा यदा हि धर्मस्य गलार्नि भवति, भारत! अभ्युथान मधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ भाव: हे अर्जुन! जब जब लोगों को ‘धर्म’ से नफरत हो जाती है, मैं ‘अधर्म’ के विनाश के लिए अपने आप को प्रगट करता हूँ। कुरान शरीफ में वर्णन किया गया है: व मा अरसलना मिररसूलिन, इल्ला बिलिसानि कौमि ही लियु बयिना ल-हुम। भाव: मैं अपने पैग़ंबर को भेजता हूँ, वह उन लोगों की अपनी ज़बान में उनको समझाता है (कि जिंदगी का सही रास्ता कौन सा है)। गुरु गोबिंद सिंह जी ‘बचित्र नाटक’ में लिखते हैं कि अकाल-पुरख ने मुझे हुक्म दिया है कि जगत में जाओ और जा के लोगों को बुरे काम करने से हटाओ। आप लिखते हैं, प्रभु ने हुक्म दिया; जाहि तहां तैं धरमु चलाइ॥ कुबुधि करन ते लोक हटाइ॥ सो, महापुरुष जगत में आ के रास्ता बनाते हैं, जिस पर चल के दुनिया के लोग जीवन की सही विधि सीखते हैं। धर्म क्या है? – जीवन का सही तरीका। महापुरुष का हरेक कार्य एक ऐसा मार्ग होता है जो ‘सही जीवन’ के लिए रौशन मीनार होता है। भूख एक कुदरती जरूरत: बाबा फरीद जी एक जाने-माने महापुरुष थे। उनका हरेक काम और वचन इन्सानी जीवन के लिए रौशनी देने वाला था। मनुष्य ना निरा जिस्म है ना निरी रूह, दोनों का सुमेल है। जीवन का सही राह वही हो सकता है जो जिस्म और रूह दोनों को सही ठिकाने पर रखे। भूख इन्सानी जीवन का एक कुदरती आवश्यक्ता है, अगर भूख ना लगे, तो विद्वान अंदाजा लगाते हैं किइस जिस्म में कोई नुक्स है, कोई रोग है। इस कुदरती जरूरत को पूरा करना हरेक मनुष्य का फर्ज है। हाँ, पेटू नहीं बनना, सिर्फ शारीरिक भोगों को जीवन का निशाना नहीं बनाना। गुरु नानक देव जी रोटी खाने के बारे में यूँ हिदायत करते हैं; बाबा होरु खाणा खुसी खुआरु॥ भाव: वह खाना खुआरी (परेशानी) पैदा करता है जिसके खाने से शरीर दुखी हो; शरीर में कोई रोग पैदा हो, अथवा मन में कोई बुरे ख्याल पैदा हों। काठ की रोटी अप्राकृतिक: बाबा फरीद जी गृहस्थी थे, अच्छे गृहस्थी, दरवेश गृहस्थी। गृहस्थ में रहते हुए दरवेश, राज जोगी थे, जोगी-राज थे। उनके वचन और काम दुनिया-दारों को सही राह पर डालने वाले थे। जगत के किसी भी रहबर ने रोटी त्यागने का उपदेश नहीं किया। कुछ समय के लिए रोजे-बर्त रखने, भूख रख के रोटी खानी ऐसी हिदायत तो शायद हरेक मज़हब में मिलती है; पर अन्न छोड़ के लकड़ी की रोटी बाँध लेनी एक ग़ैर-कुदरती अप्राकृतिक सी बात है जिस के बारे में किसी महापुरुष ने कभी कोई आज्ञा नहीं की। एक बात और भी हैरानी पैदा करने वाली है; बाबा फरीद के जीवन उपदेश में सिदक-श्रद्धा रखने वालेहजारों की गिनती में हैं, अगर दरवेश गृहस्थी बाबा जी ने कभी अपने पल्ले लकड़ी की रोटी बाँधी होती और इसमें कोई स्वाद होता, तो बाबा जी के इस राह पर चलना औरों की भलाई का सबब बनता। पर कभी कोई ऐसा मनुष्य सुना देखा नहीं गया, जो कुदरती भूख लगने पर किसी काठ की रोटी को दाँत मार के अपने आप को तसल्ली दे लेता हो। समझने में कमी: असल बात ये है कि बाबा जी की वाणी को गलत समझ के ये कहानी चल पड़ी है कि शेख फरीद जी ने कोई लकड़ी की रोटी अपने पल्ले से बाँधी हुई थी। जिस शलोकों (नं: 28, 29) में काठ की रोटी का जिक्र आता है, वह बाबा जी के शलोकों की लड़ी नं: 2 में हैं। ये लड़ी शलोक नं: 16 से चल के शलोक नं: 36 तक पहुँचती है। इसमें दरवेश गृहस्थी के लक्षण दिए गये हैं, जो इस प्रकार हैं: सहनशीलता, दुनियावी लालच से निजात, एक रब से उम्मीद, ख़लकति की सेवा, हक की कमाई और रब की याद। वह दोनों शलोक यूँ हैं: फरीदा रोटी मेरी काठ की, लावणु मेरी भुख॥ इन दोनों शलोकों के शब्दों को ध्यान से देखें। ‘मेरी काठ की रोटी’ ‘मेरी भुख लावणु’ ‘रुखी सुखी’ और ‘पराई चोपड़ी’। जिस रोटी को नं: 28 में ‘काठ’ की कहा है उसको नं: 29 में ‘रुखी सुखी’ कहते हैं, इस रोटी को ‘पराई चोपड़ी’ से अच्छा बता रहे हैं। चोपड़ी पराई से अपनी कमाई हुई रूखी सूखी को अच्छा कहते हैं। मसाले आदि बरत के ‘भूख’ तेज करने से बेहतर है मेहनत-कमाई करने के बाद पैदा हुई कुदरती भूख लगे और इस भूख से अपनी हक की कमाई हुई ‘काठ की रोटी’ काठ की तरह सूखी हुई ‘रूखी सूखी’ रोटी भी स्वादिष्ट लगती है। उलटे लटक के तप: लोगों की कहानियों पे ना जाएं एक तरफ शेख फरीद जी के बारे में लोगों की लिखी हुई कहानियां हैं, और दूसरी तरफ फरीद जी के अपने वचन। अगर कहीं इन दोनों में विरोधता दिखे, तो सीधी-साफ बात है कि बाबा जी के अपने वचनों पर यकीन लाना ठीक रास्ता है। उल्टे लटकना तो कहां रहा; साधारण तौर पर जंगल जा के रब की तलाश करने के बारे में फरीद जी यूँ फर्माते हैं; फरीदा जंगलु जंगलु किआ भवहि वणि कंडा मोड़ेहि॥ इस वचन की मौजूदगी में ये कहे जाना कि फरीद जी कहीं जंगल में उल्टे लटक के बंदगी करते थे, जानबूझ के उनके ख्यालों को उल्टा समझने वाली बात है। वह तो कहते हैं कि रब मनुष्य के हृदय में बसता है, उसे जंगलों में क्यों तलाशते फिरते हो। रब को मिलने का तरीका: फिर, हृदय में बसते रब को कैसे मिलना है? बस! फरीद जी के सारे ही शलोकों में इसी बात पर निर्णय है: किसी की निंदा ना करो; किसी के साथ वैर ना कमाओ; पराई आस ना रखो; परदेसी की सेवा से चित्त ना चुराओ; दुनिया का कोई लालच बंदगी के राह से परे ना ले जाए; शरीर के निर्वाह के लिए चोपड़ी से बेहतर है अपनी मेहनत की कमाई हुई रूखी-सूखी; एक पल भर भी रब की याद ना भुलाओ, क्योंकि दुनियां की ‘विष-गंदलों’ से ये याद ही बचा सकती है; अमृत बेला में उठ के मालिक को याद करो; विनम्रता वाला स्वभाव बनाओ, मीठा बोलो, किसी का दिल ना दुखाओ। ये रास्ता आसान नहीं: रब को मिलने का जो ये रास्ता फरीद जी ने बताया है, क्या ये कोई आसान रास्ता है? क्या उल्टे लटके रहना इससे मुश्किल है? फरीद जी का जीवन-उद्देश्य: फिर जो महा पुरुष जंगल में उल्टा लटका पड़ा हो और अपनी ही रोटी के लिए पराधीन हो गया हो, उसके पास किसी परदेसी ने क्यों जाना? और उसने परदेसी की क्या सेवा करनी? पर, फरीद जी का जीवन-मनोरथ तो इस प्रकार है; फरीदा जे मै होदा वारिआ, मिता आइअड़िआ॥ ये नहीं हो सकता कि फरीद जी हम गृहस्थियों को, हक की कमाई, रब की याद और लोगों की सेवा का उपदेश करें, और खुद गृहस्थी होते हुए काम-काज छोड़ के जंगल में कई साल उल्टे लटक के गुजार दें। उल्टे लटकने की बात चली कैसे? पर, ये उल्टे लटकने की बारता कैसे चल पड़ी? इन सारे शलोकों में तीन शलोक ऐसे हैं, जिनसे शायद ये नतीजा निकाला गया है कि बाबा जी कहीं उल्टे लटक के इतना तप करते रहे कि शरीर सूख गया, कौओं ने आ के पैरों की तलियों पर चोंचें मारी तो फरीद जी ने उन कौओं को मना किया। वे शलोक ये हैं; फरीदा तनु सुका, पिंजरु थीआ, तलीआं खूंडहि काग॥ गलत अंदाजे: इन शलोकों में शरीर के जर्जर हो जाने का वर्णन है। कौओं का भी जिक्र है कि चोंच मारते हैं, पर कहीं उल्टे लटकने का तो कोई जिक्र नहीं है। शब्द ‘तलीयां’ लिखा है पर यह अंदाजा कैसे लग गया कि यहाँ पैरों की तलियों की तरफ इशारा है? हाथों की क्यों नहीं? भला, अगर पैरों की हैं तो कैसे अनुमान लग गया कि उल्टे लटकने की हालत बयान की गई है? साधारण तौर पर लेटे हुए कमजोर आदमी की तलियों में भी कौऐ चोंच मार सकते हैं। पंखों वाले कौओं का वर्णन: पर यहाँ तो इन पंखों वाले कौओं का वर्णन है ही नहीं। शलोक नं: 88 और 92 तक ध्यान से पढ़ें, दुनिया के विषौ-विकारों को ‘कौऐ’ कहा गया है। इन सारे ही शलोकों में मिला हुआ सांझा विचार है: जगत में चारों तरफ स्वादिष्ट मन-मोहक पदार्थ मनुष्य के मन को आकर्षित करते हैं, इनके चस्कों में पड़ कर शरीर का सत्यानाश हो जाता है, फिर भी इनकी चाहत खत्म नहीं होती। हाँ, जिस हृदय में पति-प्रभु का प्यार बसता है, उसको कोई विकार-विषौ भोगों की ओर नहीं प्रेर सकता। विकारी मन कौआ है: सतिगुरु जी खुद भी ‘विकारी मन’ के लिए ‘कौआ’ शब्द प्रयोग करते हैं: अंम्रितसरु सतिगुरु सतिवादी जितु नातै कऊआ हंस होवै॥ (गुजरी म: ४) भक्त रविदास जी और गुरु नानक साहिब: भाई चारिक जान-पहिचान: उन्हीं की वाणी में से: रविदास जी के जीवन के बारे में कोई एतिहासिक लिखतें नहीं मिलतीं। पर उनकी अपनी वाणी में जो गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, थोड़ा बहुत जानकारी मिल ही जाती है। भक्त जी बनारस के रहने वाले थे और जाति के चमार थे। ये बात वे खुद ही मलार राग के शबदों में लिखते हैं: मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा॥ रविदास जी ने अपने नाम के साथ सीधे-सीधे ‘चमार’ शब्द भी कई जगह बरता है; जैसे, ‘कहि रविदास चमारा’। किस समय हुए? भक्त रविदास जी किस समय हुए हैं, ये बात भी उनकी अपनी ही वाणी में से सिद्ध हो जाती है। मारू राग के एक शब्द में रविदास जी भक्त नामदेव, त्रिलोचन, कबीर, सधना और सैन जी का जिक्र करते हैं: 1. ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै॥ ...... ..... नामदेव कबीरु त्रिलोचनु सधना सैनु तरै॥ 2. हरि के नाम कबीर उजागर॥ रविदास जी के भक्त कबीर जी का वर्णन करने से ये अंदाजा लग सकता है कि कबीर जी रविदास जी से पहले हुए हैं। पर कबीर जी भी शलोक नं: 242 में भक्त रविदास जी का जिक्र करते हैं: हरि सो हीरा छाडि कै करहि आन की आस॥ कबीर और रविदास समकाली: सो, दोनों प्रमाणों को सामने रखने से सहज ही इस नतीजे पर पहुँच जाते हैं कि भक्त रविदास जी और कबीर जी समकाली थे, और दोनों ही बनारस के रहने वाले थे, क्योंकि कबीर जी अपने आप को बनारस में होने का जिक्र करते हैं: अब कहु राम कवन गति मोरी॥ गुरु नानक देव जी रविदास जी के वतन: साहिब गुरु नानक देव जी पहली ‘उदासी’ में हिन्दू तीर्थों पर गए। ये ‘उदासी’ नवंबर सन् 1507 में आरम्भ हुई। बहुत समय लगा हो तो भी आसानी से ये माना जा सकता है कि सन् 1508 के आखिर में सतिगुरु जी बनारस पहुँच गए होंगे। जिस दलेरी और निर्भीकता के साथ नीच जाति में पैदा हुए भक्त रविदास जी कबीर जी ने अहंकारे हुए ऊँची जाति वाले ब्राहमणों का मुकाबला किया, वह उनकी वाणी में से प्रत्यक्ष दिखता है। उधर भी: ‘नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु॥ नानकु तिन कै संगि साथि...” (सिरी रागु म: १) ये कैसे हो सकता है कि अपने हम-ख्याल ये महापुरुष सतिगुरु नानक देव जी को प्यारे ना लगे हों? सो, सतिगुरु जी ने भक्त रविदास जी के सारे शब्द आप ही लेकर अपनी वाणी के साथ संभाल के रख लिए; क्योंकि भक्त रविदास जी और सतिगुरु नानक देव जी के कई शबदों में कई तरह की ऐसी सांझ मिलती है जो हमें इसी नतीजे पर पहुँचाती है। धनासरी में ‘आरती’ वाला शब्द: शेख फरीद जी की वाणी के विचार करते वक्त हम देख आए हैं कि फरीद जी के जिस शब्द के साथ मिलता शब्द गुरु नानक देव जी ने उचारा, वह उसी ही राग में है जिस में फरीद जी का। इसी तरह की सांझ, भक्त रविदास जी और गुरु नानक देव जी के शबदों में भी मिलती है। ‘आरती’ के संबंध में सतिगुरु जी की एक प्रसिद्ध रचना धनासरी राग में दर्ज है। भक्त रविदास जी का भी ‘आरती’ के बारे में एक शब्द है, और ये भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के धनासरी राग में ही दर्ज है। ये सांझ किसी सबब से ही नहीं बन गई। ये ठीक है कि सतिगुरु नानक देव जी ने ‘आरती’ वाला शब्द जगन्नाथपुरी जा के उचारा; पर पहली ‘उदासी’ में बनारस से गुजरते हुए रविदास जी का ‘आरती’ वाला शब्द सतिगुरु जी को मिल जरूर गया है। रविदास जी लिखते हैं: ‘नाम तेरे की जोति लगाई, भइओ उजिआरो भवन सगलारे’॥ गुरु नानक देव जी फरमाते है: ‘सभि महि जोति जोति है सोइ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ’॥ रविदास जी ‘जोति’ का ‘उजियारा’ सारे भवनों में बता रहे हैं, गुरु नानक देव जी ‘जोति’ का ‘चानण सभ विच’ कह रहे हैं। रविदास जी कहते हैं: हे प्रभु! ‘तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ? नाम तेरा तुही चवर ढोलारे॥३ ... ... ... कहै रविदासु नामु तेरो आरती, सति नामु है हरि भोग तुहारे’॥४॥ गुरु नानक देव जी भी शब्द के आखिर में यही अरदास करते हैं कि हे प्रभु! तेरे नाम में टिका रहूँ: ‘हरि चरन कमल मकरंद लोभित मनो, अनदिनुो मोहि आही पिआसा॥ ये दोनों शब्द एक ही राग में हों, और ख्याल की सांझ; ये बातें इसी अनुमान की तरफ ले जाती हैं कि गुरु नानक देव जी ने बनारस से आगे गुजरते हुए भक्त रविदस जी का ये शब्द ले के अपने पास लिख के रखा था। मूर्ती की पूजा का खण्डन: मूर्ती की पूजा करने वाले लोग मूर्ती के आगे दूध, फल, जल, चंदन, धूप आदि भेट करते हैं, पर रविदास जी कहते हैं कि इन सारी चीजों को भेंट करने से पहले ही बछड़ा, भौंरा, मछली, साँप आदि इन्हें झूठा कर देते हैं। झूठी चीजें अर्पित करने से ठाकुर कैसे प्रसन्न होगा? गुजरी राग में भक्त जी यूँ लिखते हैं: दूध त बछरै थनहु बिटारिओ॥ फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ॥१॥ माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ॥ अवरु न फूलु, अनूपु न पावउ॥१॥ रहाउ॥ मैलागर बेरै है भुइअंगा॥ बिखु अंम्रितु बसहि इक संगा॥२॥ धूप दीप नईबेदहि बासा॥ कैसे पूज करहि तेरी दासा॥३॥ तनु मनु अरपउ पूज चरावउ॥ गुर परसादि निरंजनु पावउ॥४॥ पूजा अरचा आहि न तोरी॥ कहि रविदास कवन गति मोरी॥५॥१॥ रविदास जी कहते हैं कि अपने हाथों से घड़ी हुई मूर्ति के आगे ये दूध आदि भेंट करनेकी जगह माया से रहित (निरंजन) गोबिंद के आगे ‘स्वै’ को भेंट करना असल पूजा है। इसी ही राग के शुरू में सतिगुरु नानक देव जी भी मूर्ति पूजा की जगह, मूर्ति को स्नान कराने की जगह नाम जपने की हिदायत करते हैं, मन को धोने की सलाह देते हैं; आप फरमाते हैं: तेरा नामु करी चनणाठीआ, जे मनु उरसा होइ॥ करणी कुंगू जे रलै, घट अंतरि पूजा होइ॥१॥ पूजा कीचै नामु धिआईऐ, बिनु नावै पूज न होइ॥१॥ रहाउ॥ बाहरि देव पखालीअहि, जे मनु धोवै कोइ॥ जूठि लहै जीउ माजीऐ, मोख पइआणा होइ॥२॥ पसू मिलहि चंगिआईआ, खड़ु खावहि अंम्रितु देहि॥ नामु विहूणे आदमी ध्रिगु जीवण करम करेहि॥३॥ नेड़ा है दूरि न जाणिअहु, नित सारे संमाले॥ जो देवे सो खावणा, कहु नानक साचा हे॥४॥१॥ इन दोनों शबदों में सांझ: दोनों शबदों का विषय एक ही है, एक ही राग में हैं, विचारों में भी काफी समीपता है। फिर, एक और भी मजेदार बात है। सारे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में शब्द ‘उरसा’ दो बार प्रयोग में मिलता है। एक बार रविदास ने प्रयोग किया है, और एक बार सतिगुरु नानक देव जी ने। धनासरी राग में रविदास जी का जो शब्द ‘आरती’ के संबंध में है, वहाँ भक्त जी कहते हैं; नामु तेरो आसनो, नामु तेरो उरसा, नामु तेरा केसरो ले छिटकारे॥ नामु तेरा अंभुला नामु तेरो चंदनो, घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे॥१॥ इस ऊपर लिखे शब्द में गुरु नानक साहिब जी ने शब्द ‘उरसा’ बरता है। ‘उरसा’ पंजाबी बोली का शब्द नहीं है; पंजाब में कवियों की बोली में भी ये शब्द आम तौर पर नहीं मिलता। इससे इसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि सतिगुरु जी ने ये शब्द रविदास जी की वाणी में से लिया है। रविदास जी के राग धनासरी और राग गुजरी वाले दोनों शब्द सतिगुरु नानक देव जी के पास मौजूद थे, जब उन्होंने दोनों ही रागों में अपने दोनों शब्द ‘आरती’ और ‘मूर्ति पूजा’ के बारे में उचारे थे। भक्त रविदास जी के सारे शब्द: भक्त रविदास जी के कुल 80 शब्द हैं। हमने देख लिया है कि ‘आरती’ और ‘देव पूजा’ के बारे में भक्त जी के दोनों शब्द गुरु नानक साहिब के पास मौजूद थे। ये नहीं हो सकता कि सतिगुरु जी ने रविदास जी के सिर्फ दो ही शब्द लिए हों, और बाकी के शब्द छोड़ आए हों, चाहे उनके अपने ही ख्यालों के साथ मेल खाते हों। यकीनन, गुरु नानक देव जी भक्त रविदास जी की सारी ही वाणी लाए और अपनी वाणी के साथ संभाल के उन्होंने रख ली। भक्त रविदास और गुरु अमरदास जी: सतिगुरु नानक देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी का आपस में समन्वय करके हम नि: संदेह साबित कर चुके हैं कि गुरु नानक देव जी की सारी ही वाणी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी। रविदास जी के शबदों के साथ मिलते-जुलते शब्द उच्चारने से साफ जाहिर है कि गुरु नानक साहिब ने अपनी वाणी के साथ रविदास जी की वाणी भी संभाली हुई थी। ये भी गुरु अंगद साहिब जी के हवाले की गई थी, और उनसे गुरु अमरदास जी तक पहुँची। इस बात का प्रत्यक्ष सबूत रविदास जी के एक शब्द से मिलता है। भैरव राग में भक्त जी का ये शब्द यूँ है: बिनु देखे उपजै नही आसा॥ जो दीसै सो होइ बिनासा॥ बरन सहित जो जापै नामु॥ सो जोगी केवल निहकामु॥१॥ परचै, रामु रवै जउ कोई॥ पारसु परसै दुबिधा न होई॥१॥ रहाउ॥ सो मुनि मन की दुबिधा खाइ॥ बिनु दुआरे त्रै लोक समाइ॥ मन का सुभाउ सभु कोई करै॥ करता होइ सु अनभै रहै॥२॥ फल कारन फूली बनराइ॥ फलु लागा तब फूलु बिलाइ॥ गिआनै कारन करम अभिआसु॥ गिआनु भइआ तह करमह नासु॥३॥ घ्रित कारन दधि मथै सइआन॥ जीवत मुकत सदा निरबान॥ कहि रविदास परम बैराग॥ रिदै रामु की न जपसि अभाग॥४॥१॥ इसी ही राग में गुरु अमरदास जी का निम्न-लिखित शब्द ध्यान से पढ़ के देखें। भक्त रविदास जी के उपरोक्त शब्द से काफी समानता मिलेगी, और ये समानता ऐसे ही नहीं हो गई। भैरउ म: ३॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे॥१॥ इसु मन कउ कोई खोजहु भाई॥ मनु खोजतु नामु नउनिधि पाई॥१॥ रहाउ॥ मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ॥२॥ इसु मन ते सभ पिंड पराणा॥ मन कै वीचारि हुकमु बुझि समाणा॥३॥ करमु होवै गुर किरपा करै॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै॥४॥ मन का सुभाउ सदा बैरागी॥ सभ महि वसै अतीतु अनरागी॥५॥ कहत नानक जो जाणै भेउ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ॥६॥५॥ दोनों शबदों को देखें: रविदास जी के शब्द की ‘रहाउ’ की तुक ध्यान से पढ़ें। कहते हैं: जो मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है उसका मन भटकने से हट जाता है; उसकी मेर-तेर मिट जाती है। शब्द के चार ‘बंदों’ में इस विचार की व्याख्या की गई है। कहते हैं: जिसका मन परच गया वह असल जोगी है। जिसकी दुबिधा मिट गई वह असल मुनि है। दुनिया के धंधों का उसको मोह नहीं रहता, वह कार-व्यवहार करता हुआ भी कार-व्यवहार के मोह से मुक्त है। ये सारी इनायत ‘नाम’ की ही है, जो नाम नहीं जपता, वह अभागा है। पर भक्त जी ने ये बात यहाँ नहीं बताई कि ये ‘नाम’ मिलता कहाँ है। अब पढ़ें गुरु अमरदास जी का शब्द। ये भी उसी तब्दीली का जिक्र करते हैं जो प्रभु का नाम स्मरण करने से मनुष्य के मन में पैदा होती है। कहते हैं: जिस मनुष्य को ‘नउनिधि नाम’ की प्राप्ति हो जाए वही असल मुनि है, उसकी मेर-तेर मिट जाती है; प्रभु की रजा को समझ के वह प्रभु-चरणों में लीन रहता है। पर, मनुष्य का मन मोह में से, ममता में से कब जागता है? जब प्रभु की मेहर हो और गुरु मिले। समानता का वेरवा: दोनों शबदों में सिर्फ विषय ही एक नहीं, तुकें और पद भी सांझे हैं। रविदास जी लिखते हैं: ‘सो मुनि मन की दुबिधा खाइ॥’ इस ‘दुबिधा’ के मारने व खाने का तरीका दोनों महापुरुषों ने ‘रहाउ’ की तुक में एक ही बताया है; ‘राम रवै जउ कोई’ और ‘पारसु परसै’– रविदास जी ‘नामु नउनिधि पाई’– गुरु अमरदास जी रविदास जी कहते हैं कि ‘सो मुनि’ दुबिधा को खा के ‘त्रैलोक समाइ’। गुरु अमरदास जी लिखते हैं कि ‘सो मुनि’ दुबिधा को मार के ‘ब्रहमु बीचारै’ और ‘हुकमि बुझि समाणा’। इससे स्वाभाविक निर्णय: ज्यों-ज्यों ज्यादा ध्यान से इन दोनों शबदों को इकट्ठा सामने रख के पढ़ेंगे, इनमें और ज्यादा समानता दिखने लगेगी। ये सांझ बा-सबब नहीं हो गई। केवल एक ही निर्णय निकल सकता है कि भक्त रविदास जी के सारे शबदगुरू नानक साहिब जी ने बनारस में लिख लिए थे। अपनी सारी वाणी समेत भक्त जी की वाणी भी सतिगुरु जी ने गुरु अंगद साहिब जी को दी, गुरु अंगद साहिब जी से गुरु अमरदास जी को मिली। सो जिस वक्त गुरु अमरदास जी ने भैरव राग वाला उपरोक्त शब्द लिखा था, उनके पास भक्त रविदास जी का शब्द मौजूद था। सहजे होइ सु होई: सोरठि राग के एक शब्द में रविदास जी यूँ लिखते हैं: सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुोगवै सोई॥ कहि रविदास हाथ पै नेरै, सहजे होइ सु होई॥४१ राग आसा के एक छंत में गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं: आदि पुरखि इकु चलतु दिखाइआ, जह देखा तह सोई॥ नानक हरि की भगति न छोडउ, सहजे होइ सु होई॥२॥३॥ यहाँ रविदास जी की पहली तुक के विचार को गुरु नानक साहिब जी की पहली तुक के विचार से मिला के देखें। भला विचार तो सांझे होने जरूरी ही थे। अगर विचारों की पूरी सांझ थी, तो ही भगतों की वाणी सतिगुरु नानक देव जी को प्यारी लगी और उन्होंने इकट्ठी भी कर ली। पर, थोड़ी सी शब्दों की सांझ देखें, दूसरी तुक का आखिरी आधा हिस्सा। दोनों महापुरुष लिखते हैं: ‘...सहजे होइ सु होई’॥ ये नहीं हो सकता कि बनारस बैठे महा पुरुष और पंजाब में रहते सतिगुरु जी की वाणी की तुकें भी इस प्रकार हू-ब-हू मिल जाती। इस सांझ का कारण सिर्फ यही है कि भक्त रविदास जी की वाणी गुरु नानक साहिब के पास थी, सतिगुरु जी उस वाणी को प्यार से पढ़ते भी थे, इस तरह सहज-सुभाय दोनों महापुरुखों की वाणी में शब्द सांझे हो गए। भक्त जैदेव जी और सतिगुरु नानक साहिब मैकालिफ़ के अनुसार बंगाल के जिला वीरभूमि में एक नगर है ‘सूरी’, ये रेलवे स्टेशन भी है, इससे तकरीबन 20 मील की दूरी पर एक गाँव है ‘केंदुली’। मैकालिफ लिखता है कि जैदेव जी इस गाँव में जन्मे थे। जाति के ब्राहमण थे। इनके पिता भोयदेव पहले कन्नौज के रहने वाले थे। जैदेव जी के जीवन के बारे में किसी इतिहास में कोई खास जानकारी नहीं मिल सकी। इतना ही पता चलता है कि आप संस्कृत के बहुत प्रसिद्ध विद्वान थे। बंगाल के राजा लक्षमण सेन के दरबार में पाँच आदमियों को अपनी विद्वता के कारण खास आदर मिला हुआ था, राजा के ‘पाँच रत्न’ माने जाते थे, उनमें से एक जैदेव जी थे। ये राजा लक्षमण सेन ईसवी सन् 1170 में बंगाल में राज करता था। ‘भक्त माल’ के अनुसार: पुस्तक ‘भक्त माल’ का कर्ता लिखता है कि जैदेव पहले त्यागी हो के देशों का रटन करता रहा, त्यागी इतना था कि एक वृक्ष के नीचे कभी दो रातें नहीं गुजारता, कि कहीं मोह ना जाग जाए। पर कुछ समय पा कर जगन नाथ के एक ब्राहमण ने अपनी लड़की पदमावती के साथ शादी करने के लिए जैदेव को मजबूर किया। पुस्तक ‘गीत गोविंद’: शादी करने से पहले जैदेव ने संस्कृत में एक काव्य पुस्तक लिखी जिसका नाम ‘गीत गोविंद’ है। प्रेम-मार्ग में ये इतनी दिल-खींचने वाली पुस्तक है कि इसने जैदेव को बड़ा नाम दिया। कर्नाटक व भारत के अन्य कई हिस्सों में जैदेव के इन प्रीत-गीतों को लोग बड़े प्यार से ज़बानी याद करते और गाते हैं अंग्रेजी में भी इसका अनुवाद हो चुका है, कविता और वार्तक दोनों रूपों में। ये पुस्तक इतनी प्यार और आदर से पढ़ी गई है कि कई करामाती कहानियां इसके साथ अब तक जुड़ चुकी हैं। देखने को तो ये किताब राधिका व कृष्ण की प्रेम-कहानी है, पर जैदेव जी ने असल में जीव-स्त्री और प्रभु-पति के प्रेम को इस कहानी के रूप में बयान किया है। राधिका ‘स्वक्ष्छ बुद्धि’ है, गोपियां ज्ञान-इंद्रिय हैं और कृष्ण जीवात्मा है। देस-रटन: ये पुस्तक पूरी करके जैदेव विंद्रावन और जैपुर चले गए। जैपुर के राज-दरबार में आपको बड़ा सम्मान मिला। कुछ समय वहाँ ठहर के दुबारा अपने गाँव केंदूली आ गए। जैदेव जी के जन्म-दिन पर हर साल यहाँ मेला लगता है, हजारों वैश्णव साधु एकत्र होते हैं। दो शब्द: जैदेव जी के दो शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हैं। इनकी बोली संस्कृत तो नहीं है, पर संस्कृत के शब्द बहुतायत में मिलते हैं। कुछ ऐसी बोली बरतने का प्रयत्न किया प्रतीत होता है जो तकरीबन सारे भारत में समझी जा सके। एक शब्द गुजरी राग में है और दूसरा मारू में। जैदेव जी इन शबदों में हिन्दू कर्मकांड और जोग-अभ्यास को निष्फल कर्म बताते हुए परमात्मा के नाम-जपने की उपमा करते हैं। स्वादिष्ट सांझ: जैदेव जी के इन शबदों में एक मजेदार एतिहासिक गवाही मिलती है। सिख इतिहास में तो ये विचार दिए हुए हैं कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की है; पर गुजरी राग और मारू राग में सतिगुरु नानक देव के भी दो शब्द हैं इन्हें जैदेव जी के शबदों के सामने रख के पढ़ें, ऐसी खूबसूरत मजेदार सांझ मिलती है जिससे यही नतीजा निकल सकता है कि जैदेव के ये दोनों शब्द गुरु नानक साहिब अपनी पहली ‘उदासी’ के समय जैदेव की जन्म-भूमि से ले के आए थे। वे चारों ही शब्द नीचे दिए जा रहे हैं, ता कि पाठक सज्जन स्वयं पढ़-विचार के फैसला कर सकें; राग गुजरी के शब्द: गुजरी जैदेव जी, घरु ४॥ परमादि पुरख मनोपिमं सति आदि भाव रतं॥ परमद भुतं पर क्रिति परं, जदि चिंति सरब गतं॥१॥ केवल राम नाम मनोरमं॥ बदि अंम्रित तत मइअं॥ न दनोति जसमरणेन, जनम जराधि मरण भइअं॥१॥ रहाउ॥ इछसि जमादि पराभयं, जसु स्वसति सुक्रित क्रितं॥ भव भूत भाव समबिहं, परमं प्रसंनमिदं॥२॥ लोभाइ द्रिसटि पर ग्रिहं, जदिबिधि आचरणं॥ तजि सकल दुहक्रित दुरमती भजु चक्रधर सरणं॥३॥ हरि भगत निज निहकेवला, रिद करमणा बचसा॥ जोगेन किं जगेन किं दानेन किं तपसा॥४॥ गोबिंद गोबिंदेति जपि, नर सकल सिधि पदं॥ जै देव आइउ तस सफुटं भव भूत सरब गतं॥५॥१॥ गुजरी महला १, घरु ४॥ भगति प्रेम अराधितं, सचु पिआस परम हितं॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ, सुख भाइ चित हितं॥१॥ जपि मन नामु हरि सरणी॥ संसार सागर तारि तारण, रम नाम करि करणी॥१॥ रहाउ॥ ए मन मिरत सुभ चिंतं, गुर सबदि हरि रमणं॥ मति ततु गिआनं, कलिआण निधानं, हरि नाम मनि रमणं॥२॥ चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं॥ थिरु नामु भगत द्रिढ़ं मती, गुर वाक सबद रतं॥३॥ भरमाति भरमु ना चूकई, जगु जनमि बिआधि खपं॥ असथानु हरि निरकेवलं, सति मती नाम तपं॥४॥ इहु जगु मोह हेत बिआपतिं, दुखु अधिक जनम मरणं॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि, हरि नामु रिद रमणं॥५॥ .... भै भाइ भगति तरु भवजलु मना, चितु लाइ हरि चरणी॥ ....७॥ लब लोभ लहरि निवारणं, हरि नाम रासि मनं॥ मनु मारि तुही निरंजना कहु नानका सरनं॥८॥१॥५॥ कई बाते मिलती हैं: कई बातों में ये दोनों शब्द आपस में मिलते हैं; दोनो शब्द घर 4 में हैं। सुर से दोनों को पढ़ के देखें छंत की चाल भी एक जैसी ही है। दोनों की बोली भी तकरीबन एक जैसी ही है। दोनों में कई शब्द एक जैसे हैं। दोनों का विषय एक ही है, परमात्मा के नाम-जपने के लिए प्रेरणा की गई है। दोनों शबदों की इस गहरी सांझ से यही निर्णय निकलता है कि जब गुरु नानक देव जी अपनी पहली ‘उदासी’ के समय (1507 से 1515) सारे हिन्दू तीर्थों पर गए तो बंगाल के भक्त जै देव जी के जन्म-नगर भी पहुँचे, वहाँ भक्त जी का ये शब्द मिला। इसे अपने आशय अनुसार देख के इसे लिख के अपने पास रख लिया, और इसी ही रंग-ढंग का शब्द अपनी ओर से उचार के इस शब्द के साथ पक्की गहरी सांझ डाल ली। मारू राग के शब्द: मारू जै देव जी: चंद सत भेदिआ, नाद सत पूरिआ, सूर सत खोड़सा दतु कीआ॥ अबल बलु तोड़िआ, अचल चलु थपिआ, अघड़ु घड़िआ तहा अपिउ पीआ॥१॥ मन आदि गुण आदि वखाणिआ॥ तेरी दुबिधा द्रिसटि संमानिआ॥१॥ रहाउ॥ अरधि कउ अरधिआ, सरधि कउ सरधिआ, सलल कउ सलिल संमानि आइआ॥ बदति जैदेउ जैदेव कउ रंमिआ, ब्रहमु निरबाणु लिवलीणु पाइआ॥२॥१॥ नीचे लिखा गुरु नानक देव जी का शब्द इस शब्द के साथ मिला के पढ़ें, वह भी मारू राग में ही है; मारू महला १॥ सूर सरु सोसि लै, सोम सरु पोखि लै, जुगति करि मरतु, सु सनबंधु कीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ, उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥१॥ मूढ़े काइचे भरमि भुला॥ नह चीनिआ परमानंदु बैरागी॥१॥ रहाउ॥ अजरु गहु जारि लै, अमरु गहु मारि लै, भ्राति तजि छोडि तउ अपिउ पीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ, उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥२॥ भणति नानकु जनो, रवै जे हरि मनो, मन पवन सिउ अंम्रितु पीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ, उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥३॥९॥ दोनों ही शब्द मारू राग में हैं। दोनों के छंद की चाल एक समान है और कई शब्द सांझे हैं। जैदेव जी के शब्द में महिमा करने के लाभ बताए हैं, गुरु नानक देव जी ने महिमा करने की ‘जुगति’ भी बताई है। जैदेव जीमन को संबोधन करके कहते हैं कि अगर तू महिमा करे तो तेरी चंचलता दूर हो जाएगी, सतिगुरु जी जीव को उपदेश करते हैं कि महिमा की जुगति के इस्तेमाल से मन की चंचलता मिट जाती है। ज्यों-ज्यों इन दोनों शबदों को ध्यान से मिला के पढ़ेंगे, दोनों में गहरी समानता दिखेगी, और इस नतीजे पर पहुँचने से नहीं रह सकते कि गुरु नानक देव जी के पास भक्त जै देव जी का ये शब्द मौजूद था। ये इतनी गहरी सांझ सबब से नहीं हो गई। गुरु नानक देव जी अपनी पहली ‘उदासी’ के दौरान हिन्दू तीर्थ-स्थलों में होते हुए बंगाल में भी पहुँचे, जैदेव जी बंगाल के ही रहने वाले थे, सतिगुरु जी ने ये शब्द उनकी संतान अथवा श्रद्धालुओं से लिए होंगे। भक्त रविदास जी का ईष्ट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में रविदास जी के 40 शब्द हैं। इनको जरा ध्यान से पढ़ने पर इन्सानी जीवन के बारे में भक्त जी के विचार जानने में कोई मुश्किल नहीं आती। बहुत ही स्पष्ट दिखता है कि रविदास जी के धार्मिक ख्याल पूरी तरह गुरु नानक देव जी अनुसार ही हैं। पर पुस्तक ‘गुर भक्त-माल’ और ‘सिख रिलीजन’ में भक्त रविदास जी के जीवन के बारे में कुछ ऐसी बातें मिलती हैं जो भक्त जी की अपनी वाणी के आशय से मेल नहीं खाती। ‘गुर भक्त माल’ एक निर्मले संत द्वारा लिखी हुई है, और संप्रदाई सिख-संगतों में आदर-मान के साथ पढ़ी जाती है। पुस्तक ‘सिख रिलीजन’ मिस्टर मैकालिफ़ ने अंग्रेजी में लिखी है, इस किताब को अंग्रेजी पढ़े-लिखे सिख तकरीबन श्रद्धा से पढ़ते हैं। इसलिए ये जरूरी बन जाता है कि भक्त रविदास जी के बारे में इन किताबों में लिखे विचारों पर विषोश चर्चा कर ली जाए। मैकालिफ़ के अनुसार: मैकालिफ ने भक्त रविदास जी का जीवन-इतिहास लिखते हुए वर्णन किया है कि; रविदास जी ने चमड़े की एक मूर्ति बना के अपने घर में रखी हुई थी। इस मूर्ति की ये पूजा किया करते थे। मैकालिफ़ ने ये निर्णय नहीं दिया कि ये मूर्ति किस अवतार-देवते की थी। उस मूर्ति की पूजा में मस्त हो के रविदास ने काम-काज छोड़ दिया, इस वास्ते उसकी माली हालत बहुत ही पतली हो गई। इस तंगी के दिनों में ही एक महात्मा ने आ के भक्त जी की सहायता करने के लिए इन्हें पारस दिया। पहले तो रविदास जी लेने से मना करते रहे, पर उसके हठ करने से उसी को कह दिया कि आँगन में एक कोने में दबा दो। 13 महीने बीत गए, वह साधु दुबारा दूसरी बार आया, अपना पारस बे-इस्तेमाल हुआ देख के ले गया। जिस टोकरी में रविदास जी ने मूर्ति-पूजा का सामान रखा हुआ था, उसमें से एक दिन पाँच मोहरें निकलीं। रविदास ने वह मोहरें वहीं ही रहने दीं, और आगे से उस टोकरी को हाथ लगाना ही बंद कर दिया। तब परमात्मा ने रविदास को आकाशवाणी के माध्यम से कहा, रविदास! तुझे तो माया की चाह नहीं, पर अब मैं जो कुछ भी तुझे भेजूँ वह मोड़ना ना। रविदास ने ये वचन मान लिया। एक श्रद्धालु धनी ने रविदास को बहुत सारा धन दिया, जिससे भक्त जी ने एक सराय बनवाई, मुसाफिरखाना बनवाया, आए-गए संत-साधु की सेवा होने लग पड़ी। अपने ईष्ट देव के लिए एक बड़ा सुंदर मंदिर तैयार करवाया, और अपने रहने के लिए दो-छता मकान बनवाया। रविदास जी की इस आसान आर्थिक हालत को देख कर ब्राहमण दुखी हुए। उन्होंने बनारस के राजे के पास शिकायत की शास्त्र आज्ञा नहीं देते कि एक नीच जाति का मनुष्य परमात्मा की मूर्ति बना कर उसकी पूजा करे। रविदास वेद-शास्त्रों के बताए हुए सभी पुण्य कर्म करता था। ‘गुर भक्त माल’ के अनुसार: पुस्तक ‘गुर भक्त माल’ में रविदास जी के जीवन के बारे में 6 साखियां लिखी हुई हैं, उनके अनुसार; ‘एक ब्रहमचारी रामानंद जी का सिख हुआ। सो काशी में भिखिआ मांग के रसोई सिध करके रामानंद जी को खवाया करे। उसी शिवपुरी में एक बानिया भी नित्य ही ब्रहमचारी को कहे कि मेरे से सीधा (राशन) लेकर एक दिन रामानंद जी कउ मेरा भी भोग लगावो।.. एक दिन...ब्रहमचारी तिस ते सीधा लिआया, रसोई रामानंद जी की रसना ग्रहण करवाई। जब रामानंद जी रात्र कउ भगवंत के चरणों में ब्रिती इस्थित करै, किसी प्रकार भी नाह होवै।... ब्रहमचारी कउ बुलाय कर पूछत भए कि, तूं सीधा किस के घर का लिआया सी।...ब्रहमचारी वारता पगट करता भया।....रामानंद जी की आज्ञा पाकर ब्रहमचारी तिस (बाणिए) के पास जाए कर पूछत भया। बाणीए ने कहा– मेरा शाह तउ चमार है, तिस ही का पैसा ले कर वरतता हौं, अर वोह सदा ही दुष्ट कर्म करता है।...जब रामानंद जी ने ऐसा सुणा, तब कोप होय कर (ब्रहमचारी कउ) कहा– अरे दुष्ट! तुम नीच के ग्रह मै जनम धारन करो।’ रामानंद जी के इस श्राप के कारण वह ब्रहमचारी एक चमार के घर जन्मा और उसका नाम रविदास रखा गया। कुछ संत-साधु हरिद्वार गंगा के दर्शनों को चले। एक ब्राहमण रविदास से जूती गंढवा के एक दमड़ी दे के उन संतों के साथ गंगा के दर्शनों को चला था। रविदास जी ने वही दमड़ी उस ब्राहमण को दे के कहा कि गंगा माई को मेरी तरफ से भेटा दे देनी, पर कहना हाथ निकाल के दमड़ा पकड़े। वही बात हुई। परमात्मा एक साधु का वेश धारण करके रविदास के घर आया। भक्त ने बड़ी सेवा की। साधु-रूप प्रभु ने चलने के समय एक पारस रविदास को दे दिया और कहा कि हम तीर्थों से वापस आ के एक साल बाद लेंगे। भक्त की रंबी को भी पारस छुआ के सोना करके दिखा दिया। रविदास को फिर भी उस पारस का लालच ना हुआ। साधु के हठ करने पर अपने घर के एक कोने में रखवा लिया, पर इस्तेमाल ना किया। साल के बाद वह साधु आया तो जहाँ रख गया था वहीं से बे-इस्तेमाल पारस वापस ले गया। ‘जिस जगा ठाकर जी की पूजा भक्त जी करते से, तहां ठाकर जी के आसन के नीचे पाँच अशरफी गुपत ही वासदेव जी धर गए।....जब...पाँच अशरफी पड़ी हुई देखी तब मन में विचार किया कि अब ठाकुर जी की सेवा भी तजो...इह भी मन कउ लालच दे कर भक्ति मैं विवधान डालती है।’ रात को सपने में ‘प्रभु जगत बंदन ने भक्त जी कउ कहिआ– जब मैं पारस ले कर आया तब तै ने पारस भी ना लीया। अब मैं पाँच अशरफी राखी, तब तै ने धन के दुख कर मेरी सेवा का ही तियाग कर दीया।... (तू) मुझ कउ लज्जा लवावता है... तां ते तुम धन कोउ ग्रहण करो।... सो तिसी दिन ते ले कर पाँच अशरफी रोज ही भगवान ठाकरों के आसण के नीचे धर जावैं, तद ही ते रविदास जी लागे भंडारे करने।’ रविदास जी की उन्नति (चढ़दी कला) देख कर काशी के ब्राहमणों ने राजे के पास शिकायत की कि ‘जाति का नीच...चमार...निसदिन ही ठाकुर की पूजा किया करता है। ये पूजा तिस का अधिकार नहीं। ठाकुर की पूजा हमारा अधिकार है।...राजे ने क्रोध में आ के रविदास को सद भेजिया, उसनूं पूछिया– ‘इह सालग्राम के पूजा की दीखिया तुझ कउ किस ने दई? रविदास ने उत्तर दिया कि ‘ऊच नीच सरब मे एकहरी भगवान ही व्यापक है। तां ते सरब जन पूजा के अधिकारी हैं।... पास के मंत्री ने राजे को सलाह दी कि इन सभी से कहो कि अपने-अपने ठाकुरों को यहाँ ला के नदी में फेकें और फिर बुलाएं। जिस के ठाकुर ना तैरें वह जानो पत्थर ही है।, देवता नहीं हैं। ये परख होने पर ‘रविदास जी के ठाकुर जल ऊपर ऐसे तरैं जैसे मुरगाई...। दो घड़ी प्रयंत ठाकुर जी जल के ऊपर क्रीड़ा करते रहे’। जब रविदास जी ने बुलाया कि आओ घर चलें, तो ‘ऐसा सुणते ही ठाकुर जी दउर कर नदी के कनारे आइ लगे। तब भक्त जी ने तुलीसीदल धूप दीपाय ले कर ठाकुर जी का पूजन करा’। रविदास जी की ये शोभा सुन के चितौर की राणी झाली भक्त जी की श्रद्धालू बनी। चित्तौर के राजे ने आपको अपने शहर में आमंत्रित किया। वहाँ के ब्राहमणों के उकसाने पर वहाँ भी परख की गई। राजे ने कहा कि एक आसन तैयार करवाया है ‘जैसे नदी से निकस कर प्रभु तुमारे हाथ पर आय इसथित भए हैं, तैसे यहां सिंघासन पर मंदर से निकस कर ठाकुर जी आय बिराजमान होवैं’। ब्राहमणों को भी यही बात कही गई। ब्राहमणों के कहने पर तो ठाकुर ना आए, पर जब रविदास जी ने ऊँची सुर में प्रेम से शब्द अलाप किया, तो ठाकुर राजे के महलों में से दौड़ के भक्त जी की गोद में आ बैठे। इसी तरह रविदास जी की और परख भी की गई, तो उन विप्रों ने प्रार्थना की कि ‘हे भगवान! आप ने यज्ञोपवीत (जनेऊ) क्यूँ नहीं धारण किया हुआ’। रविदास जी ने अपने नाखूनों से अपने शरीर का मास उधेड़ के ‘भीतर ते सुअरन का यज्ञोपवीत परा हुआ तिन कउं दिखावते भए’। नोट: पहली साखी में ये भी जिक्र है जब ब्रहमचारी चमार के घर आ जन्मा, उस बालक को अपने पहले जन्म की सूझ थी, अफसोस में वह माँ के थनों का दूध नहीं था पीता। रामानंद जी को सपने में परमात्मा ने प्रेरणा की। ऐसा सुन कर रामानंद अपना चरण धो कर उसके (नवजात बालक) मुंह में डालते रहे। फिर उसके काम में तारक मंत्र देकर अपना शिष्य बना लिया। और ऐसा वचन किया– ‘हे पुत्र! दूध का पान करो, अब तेरे सारे पाप भाग गए हैं। अब तूं निरमल हुआ है, और आज तेरा नाम संसार में रविदास करके प्रसिद्ध हुआ’। इन दोनों लिखारियों की कहानियों के अनुसार: रविदास अपने पहले जन्म में एक ब्रहमचारी ब्राहमण थे; भक्त रामानंद जी (ब्राहमण) के श्राप के कारण इन्हें एक चमार के घर जन्म लेना पड़ा। चमार के घर में जन्म लेते ही रामानंद जी (ब्राहमण) रविदास के गुरु बने। अपने घर में चमड़े की मूर्ती बना के रविदास जी इसकी पूजा करते थे। पूजा में मस्त हो के भक्त ने काम-काज छोड़ दिया और बहुत आर्थिक तंगी का शिकार हुए। परमात्मा ने एक साधु के वेश में आ के रविदास जी को एक पारस दिया, पर इन्होंने उसे इस्तेमाल ना किया। तो फिर, जिस टोकरी में ठाकुर जी की पूजा का सामान था उस में से, या ठाकुर जी के आसन के नीचे से पाँच मोहरें मिलीं, वह भी ना लीं। माया से डरते ठाकुर जी की पूजा ही छोड़ दी। परमात्मा ने सपने में कहा कि मेरी पूजा ना छोड़, और माया लेने से भी इन्कार ना कर। तो फिर, प्रभु की भेजी उस माया से रविदास जी ने एक मंदिर बनवाया, अपने लिए दु-छते घर भी बनवाए, भण्डारे भी चलने लग पड़े। ब्राहमणों ने ईष्या में आ के काशी के राजे के पास शिकायत की। परख होने पर रविदास जी के ठाकुर नदी पर तैरे। रविदास जी ने तुलसीदल धूप दीपादि से पूजा की। रविदास वेद-शास्त्रों के बताए हुए सभ पुण्य-कर्म करता था। रविदास ने जनेऊ भी पहना हुआ था; पर ये जनेऊ सोने का था और शरीर के अंदरूनी तरफ था। ठाकुर पूजा: अगर भक्त रविदास जी की वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज ना होती तो हमें उपरोक्त लिखी इन कहानियों की पड़ताल करने की आवश्क्ता ना पड़ती। सिख-धर्म के निश्चय अनुसार ‘पूजा’ व ‘मूर्ती-पूजा’ एक गलत रास्ता है, गुरु अरजन साहिब ने फरमाया है; ‘घर महि ठाकुरु नदरि न आवै॥ गल महि पाहण लै लटकावै॥१॥ भरमे भूला साकुत फिरता॥ नीरु बिरोलै खपि खपि मरता॥१॥ रहाउ॥ जिसु पाहन कउ ठाकुरु कहता॥ ओह पाहनु लै उस कउ डुबता॥२॥ गुनहगारु लूणहरामी॥ पाहन नाव न पार गरामी॥३॥ गुर मिलि नानक ठाकुरु जाता॥ जलि थलि महीअलि पूरन बिधाता॥४॥३॥९॥ (सूही महला ५) इसलिए हमने इस चर्चा में सिर्फ रविदास जी की वाणी का ही सहारा लेना है। रामानंद जी का श्राप: अगर रामानंद जी के श्राप से कोई ब्रहमचारी ब्राहमण किसी चमार के घर पैदा हो के रविदास कहलवाया था, और फिर, रामानंद जी इस रविदास के गुरु भी बने थे, तो जब रविदास थोड़ा बड़ा हुआ होगा, इसे भी सारी वारता उन्होंने जरूर सुनाई होगी। पर, ये आश्चर्यजनक बात है कि रविदास सारी उम्र अपने आप को चमार ही समझते रहे, अपनी वाणी में अपने आप को चमार ही कहते रहे। कई शबदों में परमात्मा के दर पर रविदास जी अरदास करते हैं, और कहते हैं कि हे प्रभु! मेरे मन के विकार दूर कर, पर कहीं भी उन्होंने अपनी इस बात का हवाला नहीं दिया कि भूलों के कारण ही में ब्राहमण जनम से गिर के चमार जाति में आ पहुँचा। श्राप की खबर सिर्फ दो लोगों को ही थी– रामानंद जी और उस ब्रहमचारी ब्राहमण को। चमार के घर जनम ले के पहले-पहले अभी उस बालक को याद भी था कि मैं ब्राहमण से चमार बना हूँ। अगर रामानंद जी ने श्राप वाली वारता किसी को भी नहीं सुनाई, तो ‘गुर भक्त माल’ के लिखारी को कहाँ से पता चली? ये बात ऐसी अनोखी थी कि किसी एक पक्ष को भी अगर रामानंद जी बता देते तो सारे शहर में आग की तरह फैल जाती, और लोग हुम-हुमा के अनोखे बालक को देखने चल पड़ते, और रविदास जी को सारी उम्र उनकी आप-बीती याद करवाते रहते। पर रविदास जी सदा यही कहते रहे: नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चंमारं॥ .... मेरी जाति कुट बांडला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा॥ अब बिप्र प्रधान तिह करहि डंडउति तेरै नाम सरणाइ रविदास दासा॥ (मलार) एक और भी बड़ी अनहोनी सी है। ‘गुर भक्त माल’ के लिखारी का परमात्मा भी कोई अनोखी हस्ती है। लिखारी लिखता है कि जब ब्रहमचारी चमारों घर पैदा हो गया, तो वह अपने पिछले उच्च जनम का चेता करके अपनी चमार माँ के थनों का दूध नहीं पीता था। परमात्मा ने रामानंद को सपने में झाड़ा कि एक छोटी सी बात के पीछे तूने उस गरीब ब्रहमचारी को श्राप दे के क्यों ये कष्ट दिया। क्या लिखारी के परमात्मा की मर्जी के बग़ैर जबरदस्ती रामानंद ने ब्राहमण को चमार के घर जन्म दिया? क्या भक्ति का नतीजा यही निकलना चाहिए कि भक्त मनमानी भी करने लग पड़ें? और, क्या जो जो अनर्थ ऐसे भक्त जगत में करना-कराना चाहें, ईश्वर को अवश्य करने पड़ते हैं? ये तो ठीक है कि, “भक्त जना का करे कराइआ”। पर, भक्त भी वही हो सकता है जो परमात्मा की पूर्ण रजा में रहता है। भक्त कोई ऐसी बात चितवता ही नहीं जो परमात्मा की मर्जी के अनुसार ना हो। इस कहानी में एक बात स्पष्ट दिख रही है कि इसके घड़ने वाले को चमार आदि नीच जाति वालों से नफरत है, और परमात्मा की भक्ति उसे सिर्फ ब्राहमण का ही हक दिखता है। छुपे हुए ढंग से ब्राहमण की पूजा: रविदास जी के ठाकुरों का वर्णन करने के समय तो ‘गुर भक्त माल’ वाले ने पेट भर के रीझ उतार ली है। ठाकुर जी नदी में तैरते रहे, ठाकुर जी चित्तौर के राजे के महलों में चल के राज-दरबार में पहुँच के रविदास जी की गोद में आ बैठे। जब काशी की नदी में से तैर के ठाकुर जी अपने भक्त रविदास के कहने पर बाहर आए तो रविदास जी ने तुलसीदल और धूप दीपादि से ठाकुर जी की पूजा की। जब चित्तौर के राज-दरबार में रविदास के ठाकुर जी रविदास की गोद में आ बिराजे तो ब्राहमणों को भण्डारों के लिए रसदें भेजी गई। ब्राहमणों ने रसद लेने से इन्कार किया तो परमात्मा स्वयं सेवक का रूप धार के आया और ब्राहमणों के घरों में रसदें पहुँचाने गया। एक और खेल अजब होती रही। ब्राहमणों के ठाकुर जी नदीमें भी डूबे ही रहे, और चित्तौर के राज दरबार में भी चल के ना आ सके, पर जब वक्त आया खाने-पीने का, तब ईश्वर विषोश तौर पर सेवक-रूप धार के ब्राहमणों के घर-घर रसदें पहुँचा आए। देख लें, इसे कहते हैं ‘भाई भाईयों के और कौए कौओं के”। कोई भी बात हो, और कहीं भी पड़ी हो, बार-बार ब्राहमण की पूजा और ब्राहमणों के भण्डारे। जिस कूंएं में से गिरे हुओं को सतिगुरु जी ने निकाला था, पता नहीं ‘गुर भक्त माल’ के लिखारी भोली भाली सिख जनता को क्यों दुबारा उसी में गिराने की कोशिश कर गए हैं। गुरमति और ठाकुर पूजा: ‘सिख रिलीजन’ और ‘गुर भक्त माल’ के लिखारियों ने इन कहानियों के द्वारा ये स्पष्ट करके दिखा दिया है कि रविदास की ठाकुर की मूर्ती और-और परमात्मा में कोई फर्क नहीं था। जब रविदास की गरीबी देख के परमात्मा ने ठाकुर जी के (भाव, अपने) आसन के नीचे पाँच मोहरें रख दीं तो रविदास ने ठाकुर पूजा छोड़ दी। तो, रात को सपने में परमात्मा ने रविदास को कहा कि तूने मेरी पूजा क्यों त्याग दी है। क्या यही है सिख धर्म, जिस का प्रचार इन पुस्तकों ने किया है? पर, गुरु अरजन साहिब का ठाकुर तो वह है जो हरेक हृदय-रूपी डब्बे में टिका हुआ है, और जो समय ही उदक-स्नानी है, आप फरमाते हैं; आसा महला ५॥ आठ पहर उदक इसनानी॥ सद ही भोगु लगाइ सु गिआनी॥ बिरथा काहू छोडै नाही॥ बहुरि बहुरि तिसु लागह पाई॥१॥ सालगिरामु हमारै सेवा॥ पूजा अरचा बंदन देवा॥१॥ रहाउ॥ घंटा जा का सुनीऐ चहु कुंट॥ आसनु जा का सदा बैकुंठ॥ जा का चवरु सभ ऊपरि झूलै॥ ता का धूप सदा परफुलै॥२॥ घटि घटि संपटु है रे जा का॥ अभग सभा संगि है साधा॥ आरती कीरतनु सदा अनंद॥ महिमा सुंदर सदा बेअंत॥३॥ जिसहि परापति तिस ही लहना॥ संत चरन ओहु आइओ सरना॥ हाथ चढ़िओ हरि सालगिरामु॥ कहु नानक गुरि कीनो दानु॥४॥३६॥९०॥ गुरु नानक साहिब जी के साथ प्यार करने वाले गुरसिख जब ऐसी साखियां पढ़ते हैं तो उन्हें सचेत रहना चाहिए कि चमड़े या पत्थर आदि के बने हुए ठाकुर को पूजने वाले किसी भी बंदे की वाणी को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की महा पवित्र बीड़ में जगह नहीं मिल सकती थी। दोनों ही लिखारी ये लिखते हैं कि रामानंद जी रविदास जी के गुरु थे। तो फिर, अगर रविदास जी ठाकुर-पूज थे, ये ठाकुर-पूजा उन्हें उनके गुरु रामानंद जी ने ही सिखाई होगी। पर रामानंद जी तो पत्थर आदि के बने हुए ठाकुर की पूजा के विरुद्ध थे। वे लिखते हैं: बसंतु रामानंद जी॥ कत जाईऐ रे घर लागो रंगु॥ मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु॥१॥ रहाउ॥ एक दिवस मनि भई उमंग॥ घसि चोआ चंदन बहु सुगंध॥ पूजन चाली ब्रहम ठाइ॥ सो ब्रहम बताइओ गुरि मनही माहि॥१॥ जह जाइऐ तह जल पखान॥ तू पूरि रहिओ है सभ समान॥ बेद पुरान सभ देखे जोइ॥ ऊँहा तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ॥२॥ सतिगुर मै बलिहारी तोर॥ जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर॥ रामानंद सुआमी रमत ब्रहम॥ गुर का सबदु काटै कोटि करम॥३॥१॥ जो रामानंद जी खुद ऐसी ठाकुर-पूजा के विरोधी थे, वे कभी रविदास जी को ठाकुर पूजा की शिक्षा नहीं दे सकते थे। जिस रामानंद जी को अपना स्वामी ब्रहम सब जीवों में दिखाई दे रहा था, वह किसी पर गुस्सा हो के कोई श्राप भी नहीं दे सकते थे। सो, ये ब्रहमचारी चेले वाली कहानी मनघड़ंत है। आईए, अब देखें कि भक्त रविदास जी अपनी वाणी में किस रूप में दिखाई देते हैं; भक्त रविदास जी और ठाकुर-पूजा: ‘गुर भक्त माल’ वाला लिखता है कि जब ठाकुर जी नदी में तैर के किनारे पर आए तो रविदास जी ने तुलसीदल धूप दीपादि से ठाकुर जी की पूजा की। क्या रविदास जी की अपनी वाणी में से ऐसी कोई गवाही मिलती है? वे बल्कि इसके उलट लिखते हैं; गुजरी रविदास जी॥ दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ॥ फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ॥१॥ माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ॥ अवरु न फूलु अनूपु न पावउ॥१॥ रहाउ॥ मैलागर बेरे है भुइअंगा॥ बिखु अंम्रितु बसहि इक संगा॥२॥ धूप दीप नईवेदहि बासा॥ कैसे पूज करहि तेरी दासा॥३॥ तनु मनु अरपउ पूज चरावउ॥ गुर परसादि निरंजनु पावउ॥४॥ पूजा अरचा आहि न तोरी॥ कहि रविदास कवन गति मोरी॥५॥१॥ और धनासरी रविदास जी॥ नामु तेरो आरती मजनु मुरारे॥ हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे॥१॥ रहाउ॥ नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा, नामु तेरा केसरो ले छिटकारे॥ नामु तेरा अंभुला नामु तेरो चंदनों, घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे॥१॥ नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती, नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे॥ नामु तेरे की जोति लगाई, भइओ उजिआरो भवन सगलारे॥२॥ नामु तेरा तागा नामु फूल माला, भार अठारह सगल जूठारे॥ तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ, नामु तेरा तुही चवर ढोलारे॥३॥ दसअठा, अठसठे, चारे खाणी, इहै वरतनि है सगल संसारे॥ कहै रविदासु नामु तेरो आरती, सति नामु है हरि भोग तुहारै॥४॥३॥ रविदास जी कर्मकांडी: मैकालिफ़ ने पुस्तक ‘सिख रिलीजन’ में लिखा है कि रविदास वेद-शास्त्रों द्वारा बताए गए सब पुण्य कर्म करता था; पर वेदों-शास्त्रों में बताए गए कर्मकांडों के बारे में रविदास जी खुद इस प्रकार लिखते हैं: केदारा रविदास जी॥ खटु करम कुल संजुगतु है, हरि भगति हिरदै नाहि॥ चरनारबिंद न कथा भावै, सपुच तुलि समानि॥१॥ रे चित चेति चेत अचेत॥ काहे न बालमीकहि देख॥ किसु जाति ते किह पदहि अमरिओ, राम भगति बिसेख॥१॥ रहाउ॥ सुआनु सत्रु अजात सभ ते क्रिस्न लावै हेतु॥ लोगु बपुरा किआ सराहै, तीनि लोक प्रवेस॥२॥ अजामलु पिंगुला लुभतु कुंचरु गए हरि कै पासि॥ ऐसे दुरमति निसतरे तू किउ न तरहि रविदास॥३॥ यहाँ एक और बात भी विचारणीय है। रविदास जी कौन से किसी उच्च कुल के ब्राहमण थे कि वह किसी कर्मकांड के साथ चिपके रहते। ना जनेऊ पहनने का हक, ना मन्दिर में घुसने की आज्ञा, ना किसी श्राद्ध के समय ब्राहमण ने उनके घर का खाना, ना संध्या तर्पण गायत्री आदि का उनको अधिकार। फिर वह कौन सा कर्मकांड था जिसका शौक रविदास जी कोहो सकता था? हाँ, भैरव राग में रविदास जी ने एक शब्द लिखा है जिसके गलत मतलब लगा के किसी ने ये घाड़त घड़ ली होगी कि भक्त जी वेद-शास्त्रों के बताए हुए पुण्य कर्म करते थे। वह शब्द इस प्रकार है; बिनु देखै उपजै नही आसा॥ जो दीसै सो होइ बिनासा॥ बरन सहित जो जापै नामु॥ सो जोगी केवल निहकामु॥१॥ परचै, रामु रवै जउ कोई॥ पारसु परसै दुबिधा न होई॥१॥ रहाउ॥ सो मुनि मन की दुबिधा खाइ॥ बिनु दुआरे त्रै लोक समाइ॥ मन का सुभाउ सभु कोई करै॥ करता होइ सु अनभै रहै॥२॥ फल कारन फूली बनराइ॥ फलु लागा तब फूलु बिलाइ॥ गिआनै कारन करम अभिआस॥ गिआनु भइआ तह करमह नासु॥३॥ घ्रित कारन दसि मथै सइआन॥ जीवत मुकत सदा निरबान॥ कहि रविदास परम बैराग॥ रिदै रामु की न जपसि अभाग॥४॥१॥ हरेक शब्द का मुख्य-भाव ‘रहाउ’ की तुक में होता है, बाकी के ‘बंद’ में उसकी व्याख्या होती है। इस शब्द का मुख्या भाव ये है: ‘जो मनुष्य नाम स्मरण करता है उसका मन प्रभु में परच जाता है; पारस प्रभु को छू के वह मनुष्य मानो सोना हो जाता है।’ बाकी के शब्द में उस सोना बन गए मनुष्य के जीवन की तस्वीर इस तरह की दी है: 1. वह मनुष्य निष्काम वासना रहित हो जाता है, 2. उस मनुष्य की दुबिधा मिट जाती है और वह निर्भय हो जाता है, 3. उस का काम-काज का मोह मिट जाता है, 4. सिरे की बात ये है कि वह मनुष्य जीवित ही मुक्त हो जाता है। (इस शब्द के अर्थ पढ़ें टीके में) ‘गुर भक्त माल’ वाले की ये लिखत भी हास्यास्पद है कि चित्तौर के राजे के सामने रविदास जी की परख के समयपूरा उतरने पर ब्राहमणों ने भक्त जी से पूछा कि तुम जनेऊ नहीं पहनते। धर्म-शास्त्र तो शूद्र को जनेऊ की आज्ञा ही नहीं देता, ब्राहमण ये सवाल पूछ ही नहीं सकते थे। इन बातों के लिखने के पीछे तो सिर्फ यही यत्न प्रतीत होता है कि रविदास जी को पिछले जनम का ब्राहमण साबित किया जाए। मौजूदा जीवन का हल तलाशने के वक्त अगले-पिछले जन्मों का आसरा लेते फिरना कोई अक्लमंदी की बात नहीं है। हम मौजूदा जिंदगी का सही रास्ता तलाश रहे हैं, हमने भक्त रविदास जी के उस जीवन को पढ़ना-विचारना है जो उन्होंने रविदास के नाम तहत जीया। उस नाम तहत रविदास जी जाति के चमार ही थे, हिन्दू धर्म-शास्त्र उनहें जनेऊ आदि किसी भी कर्मकांड की आज्ञा नहीं दे सकता था। ना ही रविदास जी को किसी कर्मकांड की आवश्यक्ता थी। वे तो एक परमात्मा की ओट रखने वाले थे, परमात्मा से उसका नाम उसकी बख्शिश ही मांगते थे। आप लिखते हैं: आसा रविदास जी॥ संत तुझी तनु संगति प्रान॥ सतिगुर गिआन जानै संत देवा देव॥१॥ संत ची संगति संत कथा रसु॥ संत प्रेम माझै दीजै देवा देव॥१॥ रहाउ॥ संत आचरण संत चो मारगु संत च ओल्ग ओल्गणी॥२॥ अउर इक मागउ भगति चिंतामणि॥ जणी लखावहु असंत पापी सणि॥३॥ रविदासु भणै जो जाणै सो जाणु॥ संत अनंतहि अंतरु नाही॥४॥२॥ काम-काज का त्याग: मैकालिफ़ लिखता है कि रविदास जी ने अपने ठाकुर जी की पूजा में मस्त हो के काम-काज छोड़ दिया, और हाथ बहुत तंग हो गया। हमारे देश के धर्मियों ने यह भी एक अजीब खेल रच रखी है। भला, भक्ति करने वाले को अपनी रोटी कमानी क्यों मुश्किल हो जाती है? क्या मेहनत-कमाई करना कोई पाप है? यदि ये पाप है, तो परमात्मा ने लोगों के लिए भी रोजी का वही प्रबंध क्यों नहीं कर दिया जो पक्षी आदि के वास्ते है? पर, असल बात ये है कि हमारे देश में सन्यासी आदि जमातों का इतना असर-रसूख बना हुआ है कि लोग ये समझने लग पड़े हैं कि असल भक्त वही है जो सारा दिन माला फेरता रहे, अपनी रोटी का भार दूसरों के कंधों पर डाले रखे। ऐसे विचारों के असर तहत जो लोग श्री गुरु ग्रंथ साहिब के किसी शब्द में कोई रत्ती भर इशारा भी पढ़ते हैं तो तुरंत नतीजे निकाल लेते हैं कि बंदगी और काम-काज का आपस में कोई मेल नहीं है। सोरठि राग वाला गुरु नानक देव जी का शब्द (‘मनु हाली किरसाणी करणी’) पढ़ के कई लिखारियों ने कहानी जोड़ ली कि सतिगुरु नानक देव जी नाम में इतने मस्त रहते थे कि उन्होंने काम करना ही त्याग दिया। बाबा फरीद जी का श्लोक (‘फरीदा रोटी मेरी काठ की’) पढ़ के लोगों ने ये ख्याल बना लिया कि फरीद जी ने रोटी खानी ही छोड़ दी, और जब उन्हें भूख सताती थी तो पल्ले से बंधी हुई काठ की रोटी को दाँत मार के झट खा जाते थे। इस तरह मालूम होता है, कि भक्त रविदास जी के निम्न-लिखित शब्द को ना समझ के ये कहानी बन गई कि रविदास जी ठाकुर की पूजा में मस्त हो के काम-काज ना त्याग बैठे; सोरठि रविदास जी॥ चमरटा गांठि न जनई॥ लोगु गठावै पनही॥१॥ अर नही जिह तोपउ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ॥१॥ लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहुचा॥२॥ रविदास जपै राम नामा॥ मोहि जम सिउ नाही कामा॥३॥७॥ रविदास जी बनारस के वासी थे, और ये शहर विद्वान ब्राहमणों का बहुत बड़ा केंद्र चला आ रहा है। ब्राहमणों की अगवाई में यहाँ मूर्ती-पूजा का जोर होना भी स्वाभाविक बात है। एक तरफ, उच्च जाति के विद्वान लोग मंदिरों में जा जा के मूर्तियां पूजें; दूसरी तरफ, एक बहुत ही छोटी जाति का कंगाल और गरीब रविदास एक परमात्मा के स्मरण का आवाहन दे; ये एक अजीब सी खेल बनारस में हो रही थी। ब्राहमण का चमार रविदास को उस नीच जाति का चेता करवा-करवा के उसका मजाक उड़ाना भी स्वाभाविक सी बात थी। ऐसी दशा हर जगह जीवन में हम देखते हैं। इस उपरोक्त शब्द में रविदास जी लोगों के इस मजाक का उत्तर देते हैं, और कहते हैं कि मैं तो भला जाति का ही चमार हूँ, पर लोग ऊँची कुल के हो के भी चमार बने हुए हैं। ये शरीर मानो, एक जूती है। गरीब मनुष्य बार-बार अपनी जूती गंढता है, कि ज्यादा समय काम दे जाए। इसी तरह माया के मोह में फंसे हुए बंदे (चाहे वे उच्च कुल के भी हों) इस शरीर को गांढे लगाने के लिए दिन-रात इसी की पालना में लगे रहते हैं, और प्रभु को बिसार के ख्वार होते हैं। जैसे चमार जूती सिलता (गंढता) है, वैसे ही माया-ग्रसित जीव शरीर को सदा अच्छी खुराकें, पुशाके और दवाई आदि दे के गंढ-तुरपें लगाता रहता है। सो, सारा जगत ही चमार बना पड़ा है। पर, रविदास जी कहते हैं, मैंने मोह को खत्म करके शरीर में गंढ-तुरपें लगानी बंद कर दी हैं। मैं लोगों की तरह दिन-रात शरीर की चिन्ता में नहीं रहता; मैंने प्रभु का नाम स्मरणा अपना मुख्य धर्म बनाया है। तभी मुझे मौत का, शरीर के नाश होने का डर नहीं रहा। भक्त जी की अवतार पूजा: भगतों की वाणी में किसी अवतार आदि का नाम बरता हुआ देख के ये नतीजा निकालना भारी भूल होगी कि फलाणे भक्त फलाने अवतार का उपासक था। अगर यही कसवटी ठीक समझी जानी है तो यही नाम कई बार गुरु साहिबान ने भी वाणी में बरते हैं। आसा की वार में सतिगुरु नानक देव जी का शलोक हम रोजाना पढ़ते हैं, जहाँ सतिगुरु जी ने शब्द ‘क्रिसन’ बरता है: एक क्रिसनं सरब देवा देव देवा त आतमा॥ आतमा बासुदेवसि् जे को जाणै भेउ॥ नानकु ता का दास है सोइ निरंजन देउ॥ (पउड़ी 11) असल बात ये है कि शब्द राम, कृष्ण, माधो गोबिंद, हरि, रमईया, दमोदर, मुरारि आदिक सारे ही परमात्मा अकाल पुरख के वास्ते बरते गए हैं। भक्त रविदास जी के कुल 40 शब्द हैं, नीचे लिखा सिर्फ एक शब्द ही ऐसा है जहाँ भक्त जी शब्द ‘राजा रामचंद’ वरतते हैं: सोरठि॥ जल की भीति पवन का थंभा, रकत बूंद का गारा॥ हाड मास नाड़ी को पिंजरु, पंखी बसै बिचारा॥१॥ प्रानी किआ मेरा किआ तेरा॥ जैसे तरवर पंखि बसेरा॥१॥ रहाउ॥ राखहु कंध उसारहु नीवां॥ साढे तीनि हाथ तेरी सीवां॥२॥ बंके बाल पाग सिरि डेरी॥ इहु तनु होइगो भसम की ढेरी॥३॥ ऊचे मंदर सुंदर नारी॥ राम नाम बिनु बाजी हारी॥४॥ मेरी जाति कमीनी, पांति कमीनी, ओछा जनमु हमारा॥ तुम सरनागति राजा राम चंद, कहि रविदास चमारा॥५॥६॥ इस शब्द में साधारण तौर पर जगत के प्रभाव का वर्णन है कि इन नाशवान पदार्थों में ममता बनाने का कोई लाभ नहीं। सिर्फ आखिरी तुक में प्रार्थना है किइस ममता से बचने के लिए, हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। अगर रविदास जी अवतार श्री रामचंद्र जी के उपासक होते तो वह अपने इस ईष्ट का वर्णन उन शबदों में खास तौर पर करते, जिनमें वह सिर्फ अरदास ही कर रहे हैं, अथवा, जिनमें अपने ईष्ट के गुण गाए हुए हैं। कहीं ना कहीं तो अपने इस ईष्ट के किसी कारनामे का जिकर करते। पर, ऐसा कोई एक शब्द भी नहीं मिलता। भक्त रविदास जी ने यहाँ शब्द ‘चंद’ उसी तरह बरता है जैसे भाट नल्य ने गुरु रामदास साहिब जी की महिमा में सवैऐ उच्चारने के वक्त। देखें भाट नल्य का सवैया नं: 8; ‘राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास॥ प्रथमे नानक चंदु जगत भयो आनंदु तारनि मनुख् जन कीअउ प्रगास’॥ (इसकी व्याख्या के लिए पढ़ें भाटों के सवैये का टीका। शब्द ‘चंद’ से भाव है ‘चंद्रमा जैसा सुंदर’ चंद्रमा जैसा ठण्डक देने वाला, सुंदर, शांति का पुँज)। किसी एक अवतार का उपासक दूसरे अवतार की पूजा नहीं कर सकता। पर रविदास जी ने तो शब्द हरि, राजा राम, माधो, मुरारि आदि बरतने में किसी तरह का कोई भेद-भाव नहीं किया। माधो, मुरारि श्री कृष्ण जी के नाम हैं। बतौर प्रमाण: सोरठि १॥ माधो किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा॥ सोरठि २॥ माधवे जानत हहु जैसी तैसी॥ ... ... ... सोरठि ३॥ ...बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै॥१॥ सोरठि ४॥ हरि हरि हरि न जपहि रसना॥ मतलब ये, कि भक्त रविदास उस प्रभु के उपासक थे जिसकी बाबत वे खुद लिखते हैं; सुख सागरु सुर तर चिंता मनि, कामधेनु बसि जा के॥ चारि पदारथ असट दसा सिधि, नवनिधि कर तल ता के॥१॥ हरि हरि हरि ना जपहि रसना॥ अवर सभ तिआगि बचन रचना॥१॥ रहाउ॥ सोरठि ४ भक्त रविदास जी की वाणी पर किए ऐतराजों के बारे में विचार 1. जाति-पाति के पक्के श्रद्धालू: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन लिखते हैं: ‘भक्त जी चमार जाति के थे। भक्त जी की वाणी से भी यही साबित होता है। आप जी ने कई जाति-अभिमानी पण्डितों को नीचा दिखाया, पर आप जाति-पात से अलग ना हो सके। जगह-जगह अपने आप को चमार संज्ञा से लिखते हैं। “आप जी की रचना के 40 शब्द ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ के छापे वाली बीड़ के अंदर देखे जाते हैं जिनमें से कईयों का आशय गुरमति से काफी दूर है। सिद्धांत की पुष्टि के वास्ते कुछ प्रमाण बतौर हवाले दिए जाते हैं। “भक्त जी जाति-पात के पक्के श्रद्धालू थे। जगह-जगह अपने आप को चमार संज्ञा से लिखते हैं और अपनी जाति को बहुत नीच (घटिया) कह कर पुकारते हैं। आप फरमाते हैं; (अ) मेरी जाति कमीनी, पांति कमीनी, ओछा जनमु हमारा॥ तुम सरनागति राजा राम चंद, कहि रविदास चमारा॥ (सोरठि) (आ) मेरा करमु कुटिलता, जनमु कुभांती॥ (गउड़ी) (इ) प्रेम भगति के काणै कहु रविदास चमार॥ (गउड़ी) (ई) मेरी जाति कुटबांडला ढोर ढोवंता॥ (मलार) “उपरोक्त प्रमाणों से साबित हुआ कि भक्त जी जाति-पाति के पूर्ण कायल थे। अपने पेशे को बहुत ही घटिया रूप में लेते थे। पर गुरमति के अंदर जाति-पाति का बहुत खण्डन किया गया है। कुछ प्रमाण दे के सिद्धांत की सिद्धि की जाती है। (अ) अगै जाति न पूछीऐ, करणी सबदु है सारु॥ (आ) खसमु विसारहि ते कमजाति॥ नानक नावै बाझु सनाति॥ (आसा म: १) (इ) बिनु नावै सभ नीच जाति है, बिसटा का कीड़ा होइ॥ (आसा महला ३) साफ जाहिर होता है कि भक्त जी और गुरु जी के सिद्धांत में भारी विरोध है।” विरोधी सज्जन ने यही दूषण भक्त कबीर जी और भक्त नामदेव जी पर भी लगाया है कि कबीर जी अपने आप को जगह-जगह जुलाहा आदि कह के लिखते हैं; और नामदेव जी अपनी जाति को नीची जाति समझते हैं। वाह! पंजाबी कहावत है ‘जिस तन लागे सोई जाणै’। जो लोग शताब्दियों से जाति के भेद-भाव के जुल्म तहत दुख सहते चले आ रहे हैं, उनको पूछ के देखो जुलाहा, छींबा, चमार आदि कहलवाने में या अपने आप को कहने में कितना उत्साह आता है। उच्च जाति का जिक्र तो फखर से हो सकता है, नीच जाति के वर्णन में कौन सा मान? ये जिक्र तो ऊँची जाति वालों को वंगारने के लिए था। विरोधी सज्जन ने मलार राग में से जो प्रमाण दिया है, अगर वे सारा लिख देते अथवा पढ़ लेते तो बात अपने आप ही साफ हो जाती। आगे चल के विरोधी सज्जन जाति-पाति के बारे में यूँ लिखते हैं: “अमृतधारी खालसा जो जाति-पाति से बिल्कुल ही रहत है, और वहां तो खालसा दीवानों में कीर्तन द्वारा प्रचार करे कि; ‘हीनड़ी जाति मेरी जादमराइआ’ ‘कहि रविदास चमारा’ ‘मेरी जाति कमीनी पाति कमीनी’ ‘मैं कासीक जुलहा’ क्या अमृतधारी जुलाहे चमार हैं? विरोधी सज्जन के अंद जाति-पाति का जो जज़बा है उसकी प्रसंशा किए बिना नहीं रहा जा सकता। पर ये जज़्बा एक-तरफा ही है। नीच जाति से ही नफरत है और इसी नफ़रत के विरुद्ध कबीर जी, नामदेव जी और रविदास जी पुकार-पुकार के जाति-अभिमानियों को ललकारते गए हैं। सज्जन जी! खालसे ने जुलाहा, चमार नहीं बनना, पर देश में से ये जाति भेद-भाव दूर करना है। भगतों के द्वारा खालसे के आगे ये करोड़ों लोगों की अपील है, इसको बार-बार पढ़ो, उनके दुख के भाईवाल बनो, और भाईचारक जीवन में उन्हें ऊँचा करो। सिद्धों की तरह खालसा खुद पर्वतों पर ना जा चढ़े, उन दुखियों की भी सार रखे। अवतार भक्ति: विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: “भक्त जी एक अकाल-पुरख को छोड़ के राजा राम चंद आदि देह धारी लोगों के पुजारी थे और उन्हें रब रूप समझ के पूजते थे। मिसाल के तौर पर कुछ हवाले दिए जा रहे हैं: (क) राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा॥ (आसा) (ख) बिनु रघुनाथ (राजा रामचंद्र) सरन का की लीजै॥ (जैतसरी) (ग) तुम सरनागति राजा राम चंद, कहि रविदास चमारा॥ (सोरठि) “उपरोक्त शबदों से साबित है कि भक्त जी अकाल-पुरख के असल रूप को छोड़ के राजा राम चंद्र के पुजारी थे। पर गुरमति के अंदर अवतार पूजा का सख्त खण्डन है। “साबित हुआ कि जहाँ भक्त जी राजा राम चंद्र जी के पुजारी हैं, वहीं गुरु साहिबान अवतार–वाद के सख्त विरोधी हैं। भाव, भक्त जी का मत गुरमति की कसवटी पर पूरा नहीं उतरता।” (इसके जवाब में हम बता दें कि) इसी लेख में ऊपर “भक्त रविदास जी का ईष्ट” शीर्षक तहत इस विषय पर विस्तृत चर्चा की जा चुकी है। रविदास जी ने अपने 40 शबदों में अवतारी नाम निम्न-लिखित मुताबिक उपयोग किए हैं; राम, राजा राम 21 बार राजा राम चंद 01 बार रघुनाथ 01 बार हरि 24 बार (‘हरि’ शब्द संस्कृत कोषों में विष्णु, इन्द्र, शिव, ब्रहमा और यमराज के वास्ते इस्तेमाल हुआ है) माधव 08 बार मुरारि 02 बार मुकंद 14 बार गोबिंद 04 बार .....जोड़ 28 (उपरोक्त चारों ही कृष्ण जी के नाम हैं) देव 03 बार अनंत 01 बार करता 01 बार निरंजन 01 बार ...जोड़ 10 सतिनामु 01 बार प्रभ 02 बार नारायण 01 बार पर, ये सारे ही नाम सतिगुरु जी ने अपनी वाणी में सैकड़ों बार बरते हैं। शब्द ‘राजा राम’ तो बड़े अनोखे ढंग से लिखा हुआ मिलता है। देखिए; सूही छंत महला ४॥ साधन आसा चिति करे राम राजिआ, हरि प्रभ सेजड़ीऐ आई॥ मेरा ठाकुरु अगम दइआलु है राम राजिआ, करि किरपा लेहु मिलाई॥ मेरै मनि तनि लोचा गुरमुखे राम राजिआ, हरि सरधा सेज विछाई॥ जन नानक हरि प्रभ भाणीआ राम राजिआ, मिलिआ सहजि सुभाई॥३॥ (पन्ना 776) अगला बंद भी पढ़ें। सारे ही अवतारी नाम परमात्मा के अर्थ में प्रयोग किए गए हैं। विरोधी सज्जन जी तो लिखते हैं: ‘भक्त जी का मति गुरमति की कसवटी पर पूरा नहीं उतरता’। आईए देखिए, सतिगुरु जी की अपनी क्या राय है; सूही महला ४ घरु ६॥ नीच जाति हरि जपतिआ, उतम पदवी पाइ॥ पूछहु बिदर दासी सुतै, किसनु उतरिआ घरि जिसु जाइ॥१॥ हरि की अकथ कथा सुनहु जन भाई, जितु सहसा दूख भूख सभ लहि जाइ॥१॥ रहाउ॥ रविदासु चमारु उसतति करे हरि कीरति निमख इक गाइ॥ पतित जाति उतमु भइआ, चारि वरन पए पगि आइ॥२॥ (पन्ना 733) गुरु रामदास जी की नजरों में भक्त रविदास परमात्मा के भक्त थे। पर यहाँ तो सतिगुरु जी ने भी शब्द ‘चमार’ बरता है। क्या विरोधी सज्जन सतिगुरु जी को भी ‘जाति-पाति के श्रद्धालु’ समझ लेंगे? और देखिए; सिरी राग म: ३ असटपदीआ॥ नामा छीबा, कबीरु जुोलाहा, पूरे गुर ते गति पाई॥ ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि, हउमै जाति गवाई॥ सुरि नर तिन की बाणी गावहि, कोइ न मेटै भाई॥३॥५॥२२॥ (पन्ना 67) पर, विरोधी सज्जन तो इन भगतों की वाणी को गुरमति के विरुद्ध कह रहे हैं। (अ) “और सिद्धांतक मतभेद’ के शीर्षक तले विरोधी सज्जन जी भक्त रविदास जी का आसा राग पाँचवां शब्द (‘हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे....’) दे के लिखते हैं: “पत्थर पूजा की पुष्टि करना गुरमति के विरुद्ध है”। ये तो बिल्कुल ठीक है। पर, सज्जन जी! इस शब्द में आपको ‘पत्थर पूजा की पुष्टि’ कहाँ से दिख गई? ‘रहाउ’ की तुकों को जरा ध्यान से पढ़ के देखें! पाठक सज्जन इस शब्द का अर्थ टीके में पढ़ें। (आ) राखहु कंध उसारहु नीवां॥ साढे तीनि हाथ तेरी सीवां॥ (सोरठि रविदास जी) ये तूकें दे कर विरोधी सज्जन लिखते हैं: “इससे कब्र सिद्धांत साबित होता है। पर गुरमति के अंदर कब्रों का खण्डन है। गुरमति में दबाने या जलाने का वहिम ही नहीं है।” सज्जन जी! अगर गुरमति में जलाने व दबाने का वहिम ही नहीं हैं, तो ‘कब्रों का खण्डन’ कैसे हो गया? और उपरोक्त पंक्तियों में ‘कब्रों का सिद्धांत’ कैसे साबित कर लिया? इसके आगे भी जरा पढ़ के देखना था: बंके बाल पाग सिरि डेरी॥ इहु तनु होइगो भसम की ढेरी॥३॥ रविदास जी तो साधारण सी बात कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी महल-माढ़ियों वाले भी हर रोज अपने शरीर के लिए (सोने के लिए) ज्यादा से ज्यादा साढ़े तीन हाथ जगह ही बरतते हैं। विरोधी सज्जन जी फुट-नोट में लिखते हैं: ‘चमार मुसलमानों की तरह अपने मुर्दे धरती में दबाते हैं’। ये खबर उन्हें गलत मिली है। नियमक तौर पर वे मुर्दे जलाते ही हैं। पर जो बहुत गरीब हों, वे सस्ता रास्ता ही पकड़ेंगे। और, इसमें कोई बुराई नहीं है। नोट: पाठक सज्जन इस सारे शब्द के अर्थ टीके में पढ़ें। अर्थ में मतभेद हो सकता है। अगर बंद नं: 2 में कब्र की तरफ इशारा है, तो बंद नं: 3 में मसानों की ओर है। सो, हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए ही उपदेश समझ लें। (इ) पुरसलात का पंथु दुहेला। (सूही रविदास जी) ये तुक दे के विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: ‘ये इस्लामी ख्याल है। मुसलमान मानते हैं कि पुरसलात एक सड़क है, जिसे अबूर करना पड़ता है। पर, गुरमति के अनुसार आवागवन का मसला स्वीकार है। यहाँ भी भक्त जी का मत और सतिगुरु साहिबान का सिद्धांत टक्कर खाता है। इस तरह रविदास-मत, गुरमति कसौटी पर पूरा नहीं उतरता।’ सिर्फ एक शब्द को ले के नतीजा निकाल लेना गलत रास्ता है। इस सारे शब्द में मुख्य मुसलमानी शब्द सिर्फ ‘पुरसलात’ ही है। शब्द ‘जबाबु’ और ‘दरदवंदु’ साधारण से ही हैं। शब्द के बाकी सारे शब्द हिन्दी के हैं। हिन्दी के शब्दों द्वारा इस्लामी विचार का प्रचार एक हास्यास्पद मिथ है। जरा ध्यान से पढ़ कर देखें। इस शब्द में ‘सुहागनि’ और ‘दुहागनि’ के जीवन में अंतर बताया गया है। ‘दुहागनि’ के जीवन-सफर का जिक्र करते हुए भक्त जी कहते हैं कि प्रभु से विछुड़ी हुई जीव-स्त्री का जीवन-पथ ठीक वैसे ही ‘दुहेला’ और मुश्किल है जैसे मुसलमान ‘पुरसलात’ के रास्ते को तकलीफों भरा मानते हैं। बस! निरे शब्दों की तरफ ना जाएं, भारी ग़लती लगने का डर है। देखें; मारू महला ५ घरु ८ अंजुलीआ॥ पाप करेदड़ सरपर मुठे॥ अजराइलि फड़े फड़ि कुठे॥ दोजकि पाए सिरजणहारै, लेखा मंगै बाणीआ॥२॥२॥८॥ (पन्ना1019-20) भक्त धंना जी और ठाकुर-पूजा: मैकालिफ़ के अनुसार: मैकालिफ ने भक्त धंना जी के बारे में यूँ लिखा है: राजपूताने में दिउली छावनी से 20मील की दूरी पर टांक के इलाके में एक गाँव है जिसका नाम है धुआन। यहाँ एक जट घराने में धंना जी सन् 1415 में पैदा हुए। छोटी उम्र से ही धन्ना धार्मिक लगन वाला था। एक दिन धन्ने के घर का परोहित पूजा करने के लिए इनके घर आया। पूजा की सारी रस्म धन्ने ने भी देखी, और आखिर में पण्डित से उसने एक ठाकुर मांगा। पहले तो पंडित टालता रहा, पर धन्ने का हठ देख के उसने अंत में एक छोटा सा काले रंग का पत्थर उसे पूजने के लिए दे दिया। धन्ने ने बड़ी श्रद्धा से उस ठाकुर की पूजा आरम्भ कर दी। उसकी दृढ़ता सुन के पण्डित कभी-कभी आ के पूजा भक्ति का राह बताता रहा, और आखिर ठाकुर-पूजा से धन्ने को ईश्वर मिल गया। धंन्ने के द्वारा उस पंडित का लोक-परलोक भी सवर गया। कुछ समय बाद धन्ने के अंदर से आकाशवाणी हुई जिसके अनुसार उसने बनारस जा के रामानंद जी को गुरु धारा। कितनी उम्र पर भक्त जी का देहांत हुआ; इस संबंधी कोई जिक्र नहीं मिलता। सिर्फ एक-दो करामातों का ही हाल दिया गया है। भक्त जी के तीन शब्द: भक्त धन्ना जी के तीन शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब में मिलते हैं; राग आसा में– दो शब्द, नं: 1 और 3। धनासरी में– एक शब्द। प्रचलित हो चुकी कहानी के अनुसार: भक्त धन्ना जी की ठाकुर पूजा के बारे में उस वक्त प्रचलित हो चुकी कहानी के अनुसार भाई गुरदास जी ने दसवीं वार में यूँ लिखा है; ब्राहमणु पूजे देवते, धंना गऊ चरावणि आवै॥ धंनै डिठा चलितु एहु, पूछै, ब्राहमणु आखि सुणावै॥ ठाकुर दी सेवा करै जो इछै सोई फलु पावै॥ धंना करदा जोदड़ी, मै भि देह इकु, जे तुधु भावै॥ पथरु इकु लपेटि करि, दे धंनै नो गैल छुडावै॥ ठाकुर नो न्हावालि कै, छाह रोटी लै भोगु चढ़ावै॥ हथ जोड़ि मिंनति करै पैंरीं पै पै बहुतु मनावै॥ हउं भी मुहु न जुठालसां, तूं रुठा मैं किहु ना सुखावै॥ गोसाई परतखि होइ, रोटी खाइ छाह मुहि लावै॥ भोला भाउ गोबिंदु मिलावै॥ इस से ग़लत नतीजा: इस से ये नतीजा निकाला जा रहा है कि धंन्ने ने ‘भोला भाव’ हो के पूजा की, और इस ठाकुर पूजा की इनायत से भक्त को साक्षात गोबिंद गोसाई मिल गया। कुदरति को जो नियम आज से पाँच सौ साल पहले ठीक था वही आज भी ठीक है, और जब तक दुनिया कायम है ये नियम सदा ठीक रहेगा। जिस लोगों को ठाकुर पूजा में से नहीं मिला उनका अपना ही कसूर होगा, उन्होंने शायद ‘भोला भाव’ पूर्ण मर्यादा से नहीं बरता होगा। शायद तभी एक विद्वान सिख ने यूँ लिखा है; ‘मूर्तियों द्वारा ध्यान पक्का करके फिर निराकार की तरफ़ जाना ये गलत तरीके नहीं।’ वाणी में विरोध: पर गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में सतिगुरु जी द्वारा कहीं भी ऐसी हिदायत नहीं मिलती, जिससे ये अंदाजा लगाया जा सके कि मूर्ति-पूजा को सतिगुरु जी ठीक रास्ता मानते हैं, अथवा कम से कम ‘गलत तरीका’ नहीं कहते हैं। ‘पाहन पूज’ को तो वे ‘लूण हरामी’ व ‘गुनहगार’ कहते हैं; गुनहगार लूण हरामी॥ पाहन नाव ना पार गिरामी॥ (सूही म: ५) स्वाभाविक उठते शंके: पर, यहां कुदरती तौर पर प्रश्न उठते हैं: 1. धन्ना जी ने स्वयं अपनी वाणी में कहीं जिक्र किया है या नहीं कि उन्हें परमात्मा की प्राप्ति कहाँ से और कैसे हुई थी? 2. धन्ना जी गुरु अरजन साहिब से पहले हो चुके थे। क्या गुरु अरजन देव जी के वक्त लोगों में ये विचार प्रचलित था कि धन्ने को ठाकुरु-पूजा से ईश्वर की प्राप्ति हुई थी? 3. क्या गुरु अरजन साहिब जी भी आम लोगों के इस विचार से सहमति थे? अगर सतिगुरु जी भी धन्ने भक्त संबंधी ठाकुरु-पूजा की इस कहानी को ठीक मानते थे, तो ठाकुरु पूजने वाले लोगों को ‘गुनाहगार’ व ‘लूण हरामी’ क्यूँ कहा है? आईए, इन प्रश्नों को एक-एक करके विचारें: भक्त धन्ना जी राग आसा के शब्द नं: 1 में लिखते हैं: गिआन प्रवेसु गुरहि धनु दीआ, धिआनु मानु मन एक मए॥ प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ, त्रिपति अघाने मुकति भए॥३॥ जोति समाइ समानी जा कै, अछली प्रभु पहिचानिआ॥ धंनै धनु पाइआ धरणीधरु, मिलि जन संत समानिआ॥४॥१॥ भाव: जिस मनुष्य को गुरु ने ‘ज्ञान का प्रवेश’–रूप धन दिया, उसकी तवज्जो प्रभु में जुड़ गई, उसके अंदर श्रद्धा बन गई, उसका मन प्रभु के साथ एक–मेक हो गया, उसको प्रभु का प्यार प्रभु की भक्ति अच्छी लगी, उसकी ‘सुख’ से सांझ बन गई, वह मायासे अच्छी तरह तृप्त हो गया।3। जिस मनुष्य के अंदर प्रभु की सर्व-व्यापक जोति टिक गई, उसने माया में ना छले जाने वाले प्रभु को पहचान लिया। मैं धन्ने ने भी भक्ति के आसरे प्रभु का नाम-धन प्राप्त कर लिया है। मैं धन्ना भी संत जनों को मिल के प्रभु में लीन हो गया हूँ।4। यहाँ धन्ना जी पहले तो एक सर्व-व्यापक नियम बताते हैं कि परमात्मा की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही होती है। फिर, अपनी आप बीती सुनाते हैं कि संत-जनों को मिल के प्रभु में लीन हुआ हूँ। स्वार्थियों द्वारा घड़ी हुई कहानी: आसा राग में जो तीन शब्द भक्त धन्ना जी के नाम तहत दिए हुए हैं, अगर इन्हें और इनके शीर्षक को ध्यान से पढ़ें, तो ये बात साफ दिख रही है कि गुरु अरजन साहिब के वक्तही स्वार्थी लोगों द्वाराये मशहूर किया जा चुका था कि धन्ने ने एक ब्राहमण से दीक्षा ले के ठाकुर-पूजा की और ठाकुर-पूजा से उसे परमात्मा की प्राप्ति हुई थी। पर गुरु अरजन देव जी इस कहानी को झूठा समझते थे, उन्होंने धन्ना जी के अपने शब्दों को ठीक माना, और भक्त जी की ताईद करके बनाई हुई कहानी का पाज खोला। बीच का शब्द महला ५ का: शब्द नंबर 1 के साथ दूसरा शब्द गुरु अरजन साहिब जी का है, क्योंकि उसका शीर्षक है ‘महला ५’। ये शब्द धन्ना जी की आधी आखिरी तुक ‘मिलि जन संत समानिआ’ की व्याख्या में है। शीर्षक महला ५ पर बेइतबारी: पर, ये शीर्षक ‘महला ५’ के बारे में हमारे विद्वान एक अजीब अश्रद्धा-भरी विचार पेश कर रहे हैं। मैकालिफ ने अपने सलाहकारों की राय से लिखा है – शब्द ‘गोबंद गोबिंद गोबिंद संगि’ का शीर्षक तो ‘महला ५’ है; आम तौर पर जहाँ शब्द ‘महला ५’ गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है उनका यही भाव होता है शीर्षक के नीचे लिखे हुए शब्द गुरु अरजन साहिब जी के हैं; पर यहाँ ये शब्द धन्ने भक्त जी का ही है, इसमें कोई शक नहीं। पता नहीं मैकालिफ के सिख सलाहकारों ने यहाँ लिखे शीर्षक ‘महला ५’ पर ऐतबार करने से क्यों ना कर दी है। इस शक का एक ही कारण हो सकता है; वह ये कि इस शब्द के आखिर मे शब्द ‘नानक’ की जगह ‘धंना’ लिखा हुआ है। सिख कौम के एक और अग्रणीय विद्वान ने इस शीर्षक ‘महला ५’ के बारे में अपने विचार इस तरह बताए हैं: ये शब्द है तो धंन्ने भक्त का, पर किसी अधूरी सी हालत में गुरु अरजन देव जी को मिला, कई तुकें शब्द में से गुम थीं। सतिगुरु जी ने गुम तुकें खुद लिख दीं, और इसका शीर्षक ‘महला ५’ लिख दिया। अजीब श्रद्धा: इससे साफ प्रकट होता है कि हमारे ये विद्वान सज्जन इस शब्द के शीर्षक ‘महला ५’ पर ऐतबार करने के लिए तैयार नहीं हैं, इस शब्द को भक्त धन्ना जी का उचारा हुआ ही मानते हैं। क्या अजीब तमाशा है! गुरु जी कहते हैं कि इस शब्द को उचारने वाले ‘महला ५’ हैंसिख कहते हैं, हम नहीं मानते। ‘शब्दार्थ के लिखारी: ‘शब्दार्थ’ के लिखारियों की नजरों में ये शीर्षक नहीं आया लगता क्योंकि उन्होंने इस शीर्षक संबंधी कोई राय नहीं लिखी। हाँ, सारंग की भक्त वाणी में भी यही शीर्षक यूँ आया है: सारंग महला ५ सूरदास॥ हरि के संगि बसे हरि लोक॥ तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ, अनद सहज धुनि झोक॥१॥ रहाउ॥ सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो, दीनो इहु परलोक॥२॥ इस सूरदास संबंधी ‘शब्दार्थ’ वाले लिखते हैं: ये वह नेत्रहीन प्रसिद्ध सूरदास नहीं जो वैश्णवों का महात्मा भक्त मदन मोहन नाम का ब्राहमण हुआ है जो संवत् 1586 में पैदा हुआ। ये संस्कृत, हिन्दी, फारसी का पूर्ण विद्वान और अकबर के समय अवध के इलाके सण्डीला के हाकम थे। पर बाद में वैरागवान हो के त्यागी बन गए। इन की समाधि काशी में है। इस नोट से ये बात प्रत्यक्ष है के ‘शब्दार्थ’ के लिखारियों ने इस शब्द के शीर्षक ‘महला ५’ पर ऐतबार नहीं किया, क्योंकि वे इस शब्द के कर्ता सूरदास उनके ख्याल के अनुसार कोई और है जो नेत्र-हीन नहीं था। एक और सज्जन: एक और सज्जन ये विचार प्रगट कर रहे हैं कि ये शब्द ‘महला ५’ किसी ने अपनी ओर से लिख दिया है। शीर्षक महला ५ के बारे में राय: सो, जहाँ तक भक्त धन्ना जी और सूरदास जी के शबदों का संबंध है, शब्द ‘महला ५’ के बारे में निम्न-लिखित रायें हमारे सामने हैं; ये शब्द ‘महला ५’ किसी ने बाद में लिख दिए हैं। इस शीर्षक के होते हुए भी नहीं माना जा सकता कि शब्द गुरु अरजन साहिब के हैं। धन्ने भक्त जी का शब्द गुरु अरजन साहिब को अधूरी अवस्था में मिला, उन्होंने अपनी ओर से जोड़ के तुकों को पूरा कर दिया, इस वास्ते शब्द ‘महला ५’ लिख दिया। ये शक क्यों? अब हमने देखना है कि इस शीर्षक ‘महला ५’ के क्या भाव हो सकते हैं। साधारण तौर पर तो ये शीर्षक गुरु ग्रंथ साहिब जी में सैकड़ों-हजारों बार आया है। कभी किसी को शक नहीं पड़ा। इस उपरोक्त दो शबदों के शीर्षक ‘महला ५’ के बारे में शक पड़ने के दो कारण हैं: 1. ये कि शीर्षक भगतों की वाणी में आया है। 2. जिस शब्द के साथ इसे इस्तेमाल किया गया है, उसमें शब्द ‘नानक’ की जगह भक्त (धंना अथवा सूरदास) का नाम दर्ज है। ऐसे शीर्षक महला ५ और जगहों पर भी हैं: पर, अगर आप ध्यान से देखेंगे तो ऐसी उलझन (अगर ऐसी सादी सी बात को उलझन समझा जा सकता है) और भी कई बार गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी मिलती है। जैसे: रामकली की वार महला ५॥ पउड़ी नं: १९॥ महला ५॥ कबीर हमरा को नही, हम किसहू के नाहि॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ, तिस ही माहि समाहि॥२॥ रामकली की वार महला ५ पउड़ी नं: २०॥ सलोक महला ५॥ कबीर धरती साध की, तसकर बैसहि गाहि॥ धरती भारि न बिआपई, उन कउ लाहू लाहि॥१॥ महला ५॥ कबीर चावल कारणे, तुख कउ मुहली लाइ॥ संगि कुसंगी बैसते, तब पूछे धरम राइ॥२॥ नोट: कबीर के शलोकों में भी देखिए, शलोक नं: 210, 211 और 214। रामकली की वार म: ५ पउड़ी नं: २१॥ सलोक महला ५॥ फरीदा भूमि रंगावली, मंझि विसूला बागु॥ जो नर पीरि निवाजिआ, तिना अंच न लाग॥१॥ महला ५॥ फरीदा उमर सुहावड़ी, संगि सुवंनड़ी देह॥ विरले केई पाईअनि् जिना पिआरे नेह॥२॥ नोट: फरीद जी के शलोकों में भी देखें, शलोक नं: 82 और 83। भैरउ कबीर जी– शब्द नं: 11 से आगे। महला ५॥ जो पाथर कउ कहते देव॥ ता की बिरथा होवै सेव॥ जो पाथर की पांई पाइ॥ तिस की घाल अजांई जाइ॥१॥ ठाकुरु हमरा सद बोलंता॥ सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता॥१॥ रहाउ॥ ... कहत कबीर हउ कहउ पुकारि॥ समझि देखु साकत गावार॥ दूजै भाइ बहुतु घर गाले॥ राम भगत है सदा सुखाले॥४॥४॥१२॥ सलोक कबीर जी: महला ५॥ कबीर कूकरु भउकना, करंग पिछै उठि धाइ॥ करमी सतिगुरु पाइआ, जिनि हउ लीआ छडाइ॥२०९॥ म: ५॥ कबीर रामु न चेतिओ, फिरिआ लालच माहि॥ पाप करंता मरि गइआ, अउध पुंनी खिन माहि॥२२१॥ सलोक फरीद जी: महला ५॥ फरीदा खालकु खलक महि, खलक वसै रब माहि॥ मंदा किस नो आखीऐ, जां तिसु बिनु कोई नाहि॥७५॥ म: ५॥ फरीदा गरबु जिना वडिआईआ, धनि जोबनि आगाह॥ खाली चले धणी सिउ, टिबे जिउ मीहाहु॥१०५॥ म: ५॥ फरीदा कंतु रंगावला, वडा वे मुहताजु॥ अलह सेती रतिआ, एहु सचावां साजु॥१०८॥ म: ५॥ फरीदा दुखु सुखु इकु करि, दिलते लाहि विकारु॥ अलह भावै सो भला, तां लभी दरबारु॥१०९॥ म: ५॥ फरीदा दुनी वजाई वजदी, तूं भी वजहि नालि॥ सोई जीउ न वजदा, जिस अलहु करदा सार॥११०॥ म: ५॥ फरीदा दिलु रता इसु दुनी सिउ, दुनी न कितै कंमि॥ मिसल फकीरां गाखड़ी, सु पाईऐ पूर करंमि॥१११॥ शीर्षक महला ३ भी: ये अजीब उलझन सिर्फ ‘महला ५’ के बारे में ही नहीं है, एक जगह शीर्षक के तौर पर ‘महला ३’ भी मिलता है शलोक फरीद जी: म: ३॥ फरीदा काली, धउली, साहिबु सदा है, जे को चिति करेइ॥ आपणा लाइआ पिरमु न लगई, जे लोचै सभु कोइ॥ इहु पिरमु पिआला खसम का,जै भावै तै देइ॥१३॥ अलग-अगल गिन के ये सारे 15 प्रमाण ऐसे हैं जहाँ शीर्षक ‘महला ५’ व ‘म: ३’ हैं, पर मूल वाणी में नाम भक्त का ही है। उपरोक्त रायों के अनुसार: क्या यहाँ हर जगह शीर्षक ‘महला ५’ किसी और ने लिख दिया है? क्या गुरु अरजन साहिब और गुरु अमरदास जी को ये शब्द और शलोक अधूरे मिले थे,और सतिगुरु जी ने अपनी तरफ से तुकें व शब्द मिला के मुकम्मल किए? क्या इन 15ही जगहों पर इस शीर्षक पर हमने एतबार नहीं करना? इनके लिए एक और उलझन: इन विद्वान सज्जनों को अभी एक और बड़ी उलझन का सामना करना पड़ेगा। देखिए, राग भैरउ, महला ५ घरु १। यहाँ शब्द नं: 3 का शीर्षक और सारा ही शब्द ध्यान से पढ़ने की जरूरत है: भैरउ महला ५॥ वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥ ...कहु कबीर इहु कीआ वखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ यहाँ सारे शब्द गुरु अरजन साहिब जी के हैं, भगतों की वाणी दूर आगे चल के आएगी। इसका शीर्षक भी साफ दर्ज है ‘भैरउ महला ५’। क्या ये सारे शीर्षक किसी ने बाद में लिख दिए? पर भक्त-वाणी में से निकल के यह शब्द ‘महला ५’ के शबदों में कैसे आ गया? क्या ये तब्दीली भी किसी ने बाद में कर दी? अगर किसी ने सतिगुरु जी के बाद कबीर जी का ये शब्द ‘महला ५’ के शबदों में ला लिखा तो पहली गिनती से एक शब्द बढ़ना चाहिए। भैरउ में ‘महला ५’ के शबदों का अब का जोड़ ५७ है। क्या पहले ये शब्द ५६ थे? जिस सज्जन ने ये तब्दीली की होगी, उसे काफी मुश्किल पेश आई होगी, क्योंकि उसे एक जगह नहीं, ५६ जगहों पर ही गिनती बदलनी पड़ी होगी। शीर्षक ‘महला ५’ के बाद लिखे जाने की राय देने वाले और गुरु ग्रंथ साहिब से श्रद्धा घटाने की कोशिशें करने वाले सज्जन जी ने कोई ऐसी ‘बीड़’ भी देखी है जहाँ आरम्भ से आखिर तक शबदों की गिनती दी हो और हो भी ५६? और ये उपरोक्त शब्द कबीर जी की वाणी में दर्ज हो? भला, वहाँ वह किसी नंबर पर दर्ज है? क्या ये शब्द भी गुरु अरजन देव जी को अधूरा ही मिला था, जैसे धन्ने भक्त का? पर उन्होंने इसे मुकम्मल करके भक्त वाणी की जगह अपने शबदों में क्यों दर्ज कर दिया? क्या मैकालिफ और मैकालिफ के सलाहकार सिख विद्वानों की तरह हमने यहाँ भी अड़े रहना है कि शीर्षक भले ही ‘महला ५’ लिखा हो, पर हमने नहीं मानना? पर फिर, कबीर जी का शब्द यहाँ कैसे आ गया? बात सीधी सी है: ये सारी उलझनें उन विद्वानों के लिए हैं जिन्होंने अपने सतिगुरु के सीधे-साधे शब्दों पर ऐतबार करने से ना कर दी है। जब गुरु अरजन देव जी ने ऐसा शीर्षक एक-आध जगह नहीं 16 जगहों पर लिख दिया तो हमें मेहनत करने की जरूरत ही क्यों पड़ी? सो, इस में कोई शक ही नहीं कि ये वाणी गुरु अरजन साहिब की उचारी हुई है। भक्त धन्ना जी के आसा राग के शब्द नं: 1 से अगला शब्द गुरु अरजन साहिब का है, क्योंकि इसका शीर्षक है ‘महला ५’। हाँ, हमने ये जरूर तलाशना है कि ‘महला ५’ के शीर्षक वाले ये शब्द सतिगुरु जी ने धंने, सूरदास, कबीर और फरीद जी के नाम तहत क्यों उचारे। उस वक्त हम धंने भक्त की ठाकुर-पूजा पर विचार कर रहे हैं, और पहले उस शब्द को लेंगे जिसका शीर्षक है ‘महला ५’, पर आखिर में नाम ‘धंने’ का है। महला ५॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मनु लीणा॥ आढ दाम को छीपरो, होइओ लाखीणा॥१॥ रहाउ॥ बुनना तनना तिआगि कै, प्रीति चरन कबीरा॥ नीच कुला जोलाहरा, भइओ गुनीय गहीरा॥१॥ रविदासु ढुवंता ढोर नीति, तिनि् तिआगी माइआ॥ परगटु होआ साध संगि, हरि दरसनु पाइआ॥२॥ सैनु नाई बुतकारीआ, ओहु घरि घरि सुनिआ॥ हिरदे वसिआ पारब्रहमु, भगता महि गनिआ॥३॥ इह बिधि सुनि कै जाटरो, उठि भगती लागा॥ मिले प्रतखि गुसाईआ, धंना वडभागा॥४॥२॥ ये शब्द यहाँ क्यूँ? इससे पहले के शब्द में भक्त धंना जी अपनी ज़बान से कहते हैं कि मुझे गुरु ने नाम-धन दिया है, संतों की संगत में मुझे धरणीधर प्रभु मिला है। पर स्वार्थी लोगों ने अपना किस्सा अंजान लोगों के सिर पर डाले रखने के लिए ये कहानी चला दी कि धंने ने एक ब्राहमण से एक ठाकुर ले के उसकी पूजा की; तभी उसे परमात्मा मिला। इस भुलेखे को देर करने के लिए और धंना जी के शब्द की आखिरी तुक को अच्छी तरह सिखों के समक्ष स्पष्ट करने के लिए गुरु अरजन साहिब ने अगला शब्द उचार के दर्ज किया। ये शब्द भक्त धंने के साथ संबंध रखता है। सो, नाम भी धंने का ही रखा है जैसे हम पिछले 15 प्रमाणों में देख आए हैं। धंना जी से क्या संबंध है: वह संबंध क्या है? – ये ढूँढने के लिए शब्द के चौथे बंद की पहली तुक को ध्यान से पढ़ें, ‘इह बिधि सुनि कै जाटरो, उठि भक्ति लागा’। क्या सुन के? इस प्रश्न का उत्तर पाठकों को शब्द का हरेक बंद पढ़ने से मिलेगा। सो, हरेक बंद पढ़ के ‘इह बिधि’ की तुक के साथ मिलाए। धंने ने नामदेव की शोभा सुनी, कबीर का हाल सुना, रविदास की चर्चा सुनी, और सैण नाई का ऊँचा मर्तबा सुना। ये सुन के उसके मन में भक्ति करने का चाव पैदा हुआ। इस शब्द को जान-बूझ के धंने भक्त की वाणी में दर्ज करने से साफ साबित होता है कि उस वक्त तक धंने भक्त की भक्ति बारे अंजान लोगों में स्वार्थी मूर्ति-पूज पण्डित लोगों ने मन-घड़ंत कहानियां उड़ाई हुई थीं, और सतिगुरु जी ने इस शब्द के द्वारा जोरदार तरदीद की है। आसान रास्ता: अगर हमने गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में से सही रास्ता तलाशना है, तो लोगों की लिखी साखियों को मिला के शब्द के अर्थ करने की जगह सीधे शब्द का ही आसरा लिया करें, वरना बहुत गलती की संभावनाएं बन सकती हैं। अगर धंने भक्त ने पत्थर पूज के ईश्वर को पाया होता, तो इसका भाव ये निकलता कि पत्थर पूज के रब को मिलने वाले की वाणी दर्ज करके गुरु अरजन साहिब इस असूल को स्वीकार कर बैठे हैं कि पत्थर पूजने से ईश्वर मिल सकता है। पर, उनका अपना हुक्म यूँ है; जिसु पाहण कउ ठाकुरु कहता॥ ओहु पाहणु लै उस कउ डुबता॥ गुनहगार लूणहरामी॥ पाहण नाव न पारगिरामी॥३॥३॥९॥ सूही महला ५॥ उद्यम की सांझ: भक्त रविदास जी, जै देव जी, बैणी और फरीद जी की वाणी को श्री गुरु नानक साहिब जी की वाणी से मिलाकर हम देख चुके हैं कि इन भक्तों की सारी वाणी गुरु नानक देव जी खुद ‘उदासियों’ के समय ले के आए थे। भारत के अलग-अलग इलाकों में ये भक्त उस धार्मिक गुलामी का जुला उतारने की कोशिश कर रहे थे जो सदियों से ब्राहमणों ने शूद्रों के कंधे पर डाला हुआ था। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सतिगुरु नानक देव जी, एक तो, अपने ख्यालों का सारे भारत में प्रचार करने के लिए लंबी यात्राएं करते रहे, दूसरा, इन भक्तों के श्रद्धालुओं से मिल के इनकी वाणी एकत्र करके इस धार्मिक अत्याचार के मुकाबले पर एक तगड़ा सांझा मोर्चा कायम करने की तैयारी कर रहे थे। राजस्थान में से: इस में कोई शक नहीं कि पहली ‘उदासी’ से वापसी के समय सतिगुरु जी दक्षिण से पश्चिमी समुंद्री किनारे के साथ-साथ सोमनाथ द्वारका से होते हुए राजपुताने में से होते हुए मथुरा कुरुक्षेत्र की ओर आए थे। भक्त धंना जी सन् 1415 में इस इलाके में पैदा हुए। सतिगुरु जी यहाँ से तकरीबन 1513 के करीब गुजरे। कोई अजीब बात नहीं कि धंना जी तब जीवित भी हों, तब उनकी उम्र 98 साल की हो सकती थी। यदि शारीरिक तौर पर मेल ना भी हुआ हो, तो भी इसमें कोई शक नहीं कि भक्त जी की वाणी, गुरु नानक देव जी ही लेकर आए, क्योंकि ये काम वही कर रहे थे। धार्मिक उच्चता कायम रखने के यत्न: ये एक अजीब व मजेदार बात है कि भक्त जी के बारे में ठाकुर-पूजा की घड़ी हुई कहानी की तरदीद गुरु अरजन साहिब ने की है, गुरु नानक साहिब ने अपने किसी शब्द में इस बात को नहीं छेड़ा। पर ये कोईगुंझल वाली बात नहीं है। धंने भक्त के जीवित होते हुए ये कहानी मशहूर नहीं की जा सकती थी, क्योंकि इसकी तरदीद करने के लिए भक्त खुद मौजूद था, उसे देहांत के बाद काफी साल इंतजार की जरूरत थी। सारे भारत में ब्राहमण के धार्मिक अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई जा रही थी, सदियों से पैरों तले लिताड़ी जा रही जातियों में ही दलेर मर्द पैदा हो रहे थे। कहीं-कहीं सच के आशिक ब्राहमण भी इनकी हामी भरने लग पड़े थे। जिनका रसूख़ ख़तरे में पड़ रहा था, वे अंजान नहीं थे। वे अपना मौका ताड़ रहे थे। सो, इन मर्द-सूरमों के देहांत के बाद हरेक को किसी ना किसी ब्रामण का चेला प्रगट किया गया, और किसी ना किसी मूर्ति का पुजारी बताया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि धंने भक्त के ठाकुर-पूज होने की कहानी गुरु अरजन साहिब जी के समय में प्रसिद्ध की गई, जिसका पूरी तरह से विरोध उन्होंने धंना जी के अपने वचनों का हवाला दे कर कर दी। पर अजीब रंग हैं कर्तार के! गुरु अरजन साहिब के अपने नाम लेवा सिख उनके शब्द को ना मानने की बात कर रहे हैं, हलांकि, शब्द ‘महला ५’ साफ लिखा हुआ है। सिख को ये बात कभी भूलनी नहीं चाहिए कि गायब होते रसूख पुनः कायम करने वाले की ही ये चाल थी कि जिसने गुरु नानक साहिब को जनेऊ पहनाया, जिसने सतिगुरु जी के माता-पिता का श्राद्ध करवाया, जिसने केशव पण्डित को गुरु अमरदास जी का परोहित बना दिया और जिसने गुरु गोबिंद सिंघ जी को देवी-पूज लिखवा दिया। सिख-इतिहास में और भी गहरी, छुपी हुई चोटें लगवा दीं, जिन्हें विचारने का अभी तक सिख विद्वानों को समय नहीं मिल पा रहा या जरूरत नहीं समझी गई। अधूरा-पन की दलील बारे: जो सज्जन ये कह रहे हैं कि धंने भक्त वाला शब्द सतिगुरु जी को अधूरा मिला था, उन्होंने गायब तुकों को खुद लिख के शीर्षक ‘महला ५’ लिख दिया, उनके लिए कबीर जी के गउड़ी राग के शब्द नं: 14 का शीर्षक काफी सहायक होगा: ‘गउड़ी कबीर जी की, नाल रलाय लिखिआ महला ५’। इसी तरह धंने भक्त के शब्द में भी अगर सिर्फ कुछ तुकें ही गुरु अरजन साहिब की होती तो शीर्षक ‘महला ५’ ना होता। साफ़ जाहिर है शब्द ‘गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि’ गुरु अरजन देव जी का ही है। नालि रलाय लिखिआ ‘महला ५’ का भाव: जो सज्जन इस विचार के हैं कि धंने जी का ये शब्द अधूरा गुरु अरजन देव जी को मिला था, वे ये दलील देते हैं कि यहाँ शीर्षक ‘महला ५’ का भाव है ‘नालि रलाय लिखिआ महला ५’। वे कहते हैं कि भगतों के शबदों व शलोकों में जहाँ कहीं भी शीर्षक ‘महला ५’ है वहाँ हर जगह यही भाव लेना है ‘साथ मिला के लिखा महला ५’। इस नए भाव से बात नहीं बनती: पर यहाँ एक और प्रश्न उठता है: कबीर जी के गउड़ी राग वाले जिस शब्द के साथ ‘नालि रलाय लिखिआ महला ५’ का शीर्षक है, क्या वह शब्द अधूरा था? अगर अधूरा था, तो किस जगह से अधूरा था? क्या उस शब्द में से कोई शब्द रह गए थे, अथवा कोई तुक रह गई थीं? वह कौन से शब्द थे, वह कौन सी तुकें थीं जो गुरु अरजन साहिब ने अपनी ओर से दर्ज कर दी थीं? जो 15 शलोकों के प्रमाण ऊपर दिए गए हैं क्या इनमें से कोई शब्द रह गए थे जो गुरु अरजन साहिब ने अपनी ओर से डाल के इनका शीर्षक ‘महला ५’ लिख दिया था? वह कौन-कौन से शब्द हैं जो सतिगुरु जी ने अपनी ओर से डाले? असल शब्द पढ़ें: इस मसले का हल तलाशने के लिए गउड़ी राग वाले उस असल शब्द को ध्यान से पढ़ें और विचारें; गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५॥ ऐसो अचरजु देखिओ कबीर॥ दधि कै भोलै बिरोलै नीरु॥१॥ रहाउ॥ हरी अंगूरी गदहा चरै॥ नित उठि हासै हीगै मरै॥१॥ माता भैसा अंमुहा जाइ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ॥२॥ कहु कबीर परगटु भई खेड॥ लेले कउ चूघै नित भेड॥३॥ राम रमत मति परगटी आई॥ कहु कबीर गुरि सोझी पाई॥४॥१॥१४॥ शीर्षक क्या बताता है? इस शब्द का शीर्षक बताता है कि ये शब्द अकेले कबीर जी का नहीं है। इसमें गुरु अरजन देव जी का भी हिस्सा है। अब हमने देखना है सतिगुरु जी का कौन सा हिस्सा है। कबीर जी का हिस्सा: तीसरे बंद में (‘कहु कबीर परगट भई खेड’) कबीर जी का नाम आता है, और यहाँ वे अपना विषय पूरा कर लेते हैं। शुरू में लिखते हैं कि जगत में एक अजीब तमाशा हो रहा है: जीव दही के भुलेखे में पानी मथ रहा है, भाव, व्यर्थ के उलट काम कर रहा है जिसमें से कोई लाभ नहीं होना। लाभ वाला काम तो ये है जैसे सिख रोज अरदास करता है ‘मन नीवां मति ऊँची, मति का राखा वाहिगुरू’, भाव, वाहिगुरू के स्मरण में जुड़ी रहे बुद्धि, और ऐसी बुद्धि के अधीन रहे मन। पर कबीर जी कहते हैं कि जगत में उलटी खेल हो रही है, बुद्धि विचारी मन के पीछे लगी फिरती है। लोगों को इस तमाशे की समझ ही नहीं आ रही। कबीर जी ने ये तमाश समझ लिया है। गुरु अरजन साहिब का हिस्सा: पर, कबीर जी ने ये जिक्र नहीं किया कि इस तमाशे की समझ उन्हें कैसे आई, व अन्य लोगों को कैसे आ सकती है। इस घुंडी को खोलने के लिए गुरु अरजन साहिब ने आखिरी बंद नं: 4 अपनी ओर से लिख के मिला दिया। ज्यादा अंक क्यूँ? अंक 4 आगे अंक 1 भी इस शब्द का ये अनोखापन बताने के लिए ही है। कबीर जी के ये सारे 35 शब्द हैं। हरेक की आखिरी गिनती ध्यान से देखें। इन 35 शबदों में यही शब्द है जिसमें ये ज्यादा अंक आया है। मिला के लिखने की जरूरत: हमने देखा कि गउड़ी राग वाले कबीर जी के शब्द में कोई भी शब्द मिटा हुआ नहीं था, जो गुरु अरजन साहिब को अपनी ओर से मिलाने की जरूरत पड़ी। यहाँ तो एक विशेष विचार को स्पष्ट करना था जो कबीर जी ने नहीं किया था। मिलाई हुई तुक में भी कबीर जी: सतिगुरु जी ने अपने द्वारा मिलाई हुई तुक में भी शब्द ‘कबीर’ ही बरता है क्योंकि वे कबीर जी के प्रथाय लिख रहे हैं। यही कसौटी बरतें: अब दलील की यही कसौटी बरतें उस शब्द के बारे में जिसका जिक्र इस लेख में चल रहा है और जिसकी पहली तुक है ‘गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि’। इस शब्द में वह कौन सा विचार है जो धंना जी ने गुप्त रहने दिया था, खोल के नहीं समझाया और गुरु अरजन देव जी ने समझा दिया? कबीर वाले शब्द में हम देख आए हैं कि सतिगुरु अरजन देव जी की मिलाई हुई तुक कबीर जी के शब्द के आखिर में है। कुदरती तौर पर भी आखिर में ही लिख सकते हैं। अब बताएं कि धंने जी के शब्द की कौन सी आखिरी तुक सतिगुरु जी की है और किस गुप्त रखे गए विचार की व्याख्या में है। जिस 15 शलोकों का हवाला हमने इस लेख में दिया है, उनमें भी बताएं, कौन सी आखिरी तुक गुरु अरजन साहिब की है, और भक्त जी के किस रह गए ख्याल की व्याख्या में है। उसका कोई उत्तर नहीं है। इसलिए ये विचार गलत है कि धंने जी के इस शब्द में गुरु अरजन देव जी अपनी ओर से कोई तुकें डाली हैं। शीर्षक का भाव साफ है उनका शीर्षक ‘महला ५’ स्पष्ट और सीधा है। जिसका भाव भी साफ है कि ये शब्द गुरु अरजन देव जी का अपना है। क्यों लिखा? धंना जी के पहले लिखे शब्द की आखिरी तुक की व्याख्या में कि: धंनै धनु पाइआ धरणी धरु मिलि जन संत समानिआ॥ राग भैरउ वाला शब्द: अब हम गुरु अरजन साहिब का वह शब्द लेते हैं जो उन्होंने राग भैरव में लिखा है और अपने ही शब्द के संग्रह में दर्ज किया है। पर उसके आखिर में शब्द ‘नानक’ की जगह ‘कबीर’ बरता है। भैरउ महला ५॥ वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥ एकु गुसाई अलह मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥ हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ एको सेवी अवरु न दूजा॥२॥ पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥ ना हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंडु परान॥४॥ कहु कबीर इहु कीआ वखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ अनोखी बात: 1430 पृष्ठों वाली ‘बीड़’ के पेज नं: 1136 से ले के पेज 1153 तक कुल 57 शब्द हैं, जिनमें से हरेक के आरम्भ में शीर्षक ‘भैरउ महला ५’ है। जिस उपरोक्त शब्द पर हम विचार करने लगे हैं ये इस संग्रह का तीसरा शब्द है। अन्य सभी शबदों के आखिर में कर्ते का नाम ‘नानक’ लिखा है, पर इस तीसरे शब्द में नाम ‘कबीर’ है। बात भुलेखे वाली नहीं: चुँकि बाकी के 56 शबदों की तरह इस तीसरे शब्द का शीर्षक भी ‘भैरउ महला ५’ है, इस का सीधा सा भाव यही है कि यह शब्द गुरु अरजन देव जी का अपना ही है। अगर इस शीर्षक का भाव ये मान लें कि इसका असल भाव है ‘साथ मिला के लिखा महला ५’, तो सवाल उठता है कि वह कौन सी तुकें हैं जो गुरु अरजन साहिब ने कबीर केशबद के साथ मिला के लिखी हैं। फिर, अगर ये भक्त कबीर जी का ही शब्द है और गुरु अरजन देव साहिब की इस में कोई एक-दो तुकें ही थीं, तो यह शब्द भक्त-वाणी में आता और इसका शीर्षक भी स्पष्ट होता जिससे किसी भुलेखे की संभावना ना बनती। कबीर जी के गउड़ी राग वाले शब्द नं: 14 में हम देख आए हैं कि सिर्फ आखिरी बंद नं: 4 ही गुरु अरजन साहिब जी का है। हम ये भी समझ चुके हैं कि यह बंद सतिगुरु ने क्यों अपनी ओर से लिख के जोड़ा। पर भैरव राग के मौजूदा तीसरे शब्द के संबंध में ऐसा कोई निर्णय करना संभव नहीं है। हम कोई और सीमा नहीं बांध सकते, जहाँ ये कह सकें कि यहाँ तक शब्द कबीर जी का है और इससे आगे सतिगुरु जी का। आखिर में शब्द ‘कबीर’ क्यों? पर फिर इसके आखिर में ‘कबीर’ क्यों है? इसका उत्तर बिल्कुल स्पष्ट और सीधा है कि गुरु अरजन साहिब ने यह शब्द कबीर जी के किसी शब्द के प्रसंग में लिखा है, कबीर जी के किसी छुपे रह गए ख्याल की व्याख्या की है। किस शब्द के प्रसंग में? पर फिर कबीर जी का वह कौन सा शब्द है? और उस शब्द के साथ इस शब्द को क्यों दर्ज नहीं किया गया? इसी ही भैरव राग में कबीर जी की वाणी पढ़ के देखें, शब्द नं: 7: उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी॥ सुंन सहज महि बुनत हमारी॥१॥ हमरा झगरा रहा न कोऊ॥ पंडित मुलां छाडे दोऊ॥१॥ रहाउ॥ बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ॥ जह नही आपु तहा होइ गावउ॥२॥ पंडित मुलां जो लिखि दीआ॥ छाडि चले हम कछू न लीआ॥३॥ रिदै इखलासु निरख ले मीरा॥ आपु खोजि खोजि मिले कबीरा॥४॥७॥ इस शब्द की व्याख्या में: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक पढ़ने पर पाठकों को पहलें तो ऐसा लगता है ‘पंडित मुलां’ छोड़ने का भाव अच्छी तरह स्पष्ट नहीं हुआ। बंद नं: 1 और बंद नं: 2 भी पहले बहुत सहायता नहीं करते। पर बंद नं: 3 में जा कर ये पहेली कुछ हल हो सी जाती है कि पंडितों के बताए कर्मकांड और मौलवियों की बताई शरह का कबीर जी जिक्र कर रहे हैं। वैसे कोई इतनी उलझन की बात भी यहाँ नहीं, जिसे समझने में कोई भुलेखा पड़े या कोई उलट-पुलट बात समझी जाए। सो, इस की व्याख्या के लिए गुरु अरजन साहिब ने यहीं पर इस शब्द के साथ ही कोई अपना शब्द दर्ज करना जरूरी नहीं समझा। पर, इस शब्द की खुली व्याख्या सतिगुरु जी ने अवश्य कर दी है। और वह शब्द भैरव राग में ही अपने शबदों के संग्रह में नंबर 3 पर दर्ज कर दिया है: ‘वरत न रहउ न मह रमदाना’। चुँकि वह शब्द केवल कबीर जी के शब्द की व्याख्या के वास्ते है, इसलिए उसमें आखिर पर कबीर जी का ही नाम उन्होंने दिया है। पाठक सज्जन इन दोनों शबदों को मिला के पढ़ देखें। भैरव में ही एक और शब्द: इसी ही राग भरव में कबीर जी के शबदों के संग्रह नं: 12 पर जो शब्द गुरु अरजन देव जी ने अपनी ओर से दर्ज किया है, वह तो हमारे विचार को साफ तौर पर पक्का कर देता है। इस शब्द को हू-ब-हू उसी तरीके से दर्ज किया गया है, जैसे आसा राग में ‘गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि’ है। यह शब्द यूं है; जो पाथर को कहते देव॥ ता की बिरथा होवै सेव॥ जो पाथर की पांई पाइ॥ तिस की घाल आजांई जाइ॥१॥ ठाकुरु हमरा सद बोलंता॥ सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता॥१॥ रहाउ॥ कहत कबीर अब कहउ पुकारि॥ समझि देखु साकत गावार॥ दूजै भाइ बहुतु घर गाले॥ राम भगत हे सदासुखाले॥४॥४॥१२॥ यहाँ भी शीर्षक ‘महला ५’ बताता है कि ये शब्द गुरु अरजन देव जी का केवल अपना ही उचारा हुआ है। इस शब्द की यहां क्या जरूरत पड़ी: ये बात समझने के लिए इससे पहले कबीर जी का शब्द नं: 11 ध्यान से पढ़ के देखें। आप लिखते हैं: सो मुलां जो मन सिउ लरै॥ गुर उपदेसि काल सिउ जुरै॥ काल पुरख का मरदै मानु॥ तिसु मुला कउ सदा सलामु॥१॥ है हजूरि कत दूरि बतावहु॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु॥१॥ रहाउ॥ काजी सो जु काइआ बीचारै॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै॥ सुपनै बिंद न देई झरना॥ तिसु काजी कउ जरा न मरना॥२॥ सो सुरतानु जु दुइ सर तानै॥ बाहरि जाता भीतरि आनै॥ गगन मंडल महि लसकरु करै॥ सो सुरतानु छत्र सिरि धरै॥ जोगी गोरखु गोरखु करै॥ हिंदू राम नामु उचरै॥ मुसलमान का एकु खदाइ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ॥४॥३॥११॥ भुलेखे की गुँजायश दूर करने के लिए: इस सारे शब्द में मुल्ला-काजी आदि का जिक्र है। जैसे असल में मुल्ला और काजी होने चाहिए; उसका ध्यान अपने ख्याल से कर रहे हैं। आखिरी बंद नं: 4 में हिन्दू का इशारे मात्र वर्णन है, लिखा है ‘हिन्दू राम नामु उचरै’। ख्याल को अच्छी तरह खोला नहीं है। चाहे कबीर जी ने आखिरी तुक में अपना आशय प्रगट कर दिया है ‘कबीर का सुआमी, रहिआ समाइ’, पर अंजान पाठक को भुलेखा पड़ सकता है। इस भुलेखे की गुँजाइश को दूर करने के लिए सतिगुरु अरजन देव जी ने अपने अगले शब्द में साफ तौर पर लिख दिया है कि उस तुक में ‘हिंदू राम नामु उचरै’ में कबीर जी का भाव ‘राम चंद्र की मूर्ति से है, और किसी एक मूर्ति में रब को बैठा हुआ समझ लेना बहुत बड़ी भूल है। गुरु अरजन साहिब जी ने भी अपने शब्द के आखिरी बंद में शब्द ‘राम’ ही बरता है ‘राम भक्त है सदा सुखाले’। कबीर जी ने भी ‘हिंदू राम नामु उचरै’ में शब्द राम ही बरता है। पर सतिगुरु जी ने ‘कबीर का सुआमी रहिआ समाइ’ में इशारे मात्र बताई बात को अपने शब्द नं: 12 में विस्तार से समझा दिया है। कबीर जी के शब्द नं.11 के आखिरी बंद का अर्थ है: जोगी (प्रभु को भुला के) गोरख-गोरख कहता है। हिन्दू (श्री राम चंद्र जी की मूर्ति में निहित) राम का नाम उचारता है। मुसलमान ने (सातवें आसमान में बैठा हुआ) सिर्फ अपना (मुसलमानों का ही) रब मान लिया है। पर मेरा कबीर का प्रभु वह है जो सभ में व्यापक है (और सबका सांझा है)। अब गुरु अरजन साहिब के शब्द को कबीर जी के शब्द नं: 11 के सामने रख के देखें। सतिगुरु जी ने अपने शब्द में ‘कबीर’ बरता है, क्योंकि ये शब्द कबीर जी के शब्द नं: 11 के प्रसंग में है। शब्द ‘नानक’ की जगह ‘धंना’ इस तरह आसा राग का शब्द ‘गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि’ सतिगुरु अरजन देव जी का ही है। चुँकि ये धंना भक्त जी के पहले शब्द के प्रसंग में है, ‘धंनै धनु पाइआ धरणीधरु मिलि जन संत समानिआ’ की व्याख्या में है, इसलिए सतिगुरु जी अपने शब्द में शब्द ‘नानक’ की जगह शब्द ‘धंना’ लगाते हैं। ____________________0000_______________________ |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |