श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1006 अटल अखइओ देवा मोहन अलख अपारा ॥ दानु पावउ संता संगु नानक रेनु दासारा ॥४॥६॥२२॥ पद्अर्थ: अखइओ = हे नाश रहित! देवा = हे प्रकाश रूप! पावउ = मैं पाऊँ। संगु = साथ। रेनु = चरण धूल। रेनु दासारा = तेरे दासों की चरण धूल।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सदा कायम रहने वाले! हे अविनाशी! हे प्रकाश रूप! हे सुंदर स्वरूप वाले! हे अलख! हे बेअंत! तेरे संतों की संगति और दासों की चरण-धूल - (मेहर कर) मैं ये ख़ैर प्राप्त कर सकूँ।4।6।22। मारू महला ५ ॥ त्रिपति आघाए संता ॥ गुर जाने जिन मंता ॥ ता की किछु कहनु न जाई ॥ जा कउ नाम बडाई ॥१॥ पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति। अघाए = तृप्त हो गए। त्रिपति अघाए = पूरी तौर पर संतुष्ट हो जाते हैं, अघा जाते हैं। गुर...मंता = जिन्होंने गुरु उपदेश के साथ पूरी सांझ डाल ली। ता की = उन (मनुष्यों) की। नाम बडाई = नाम जपने की इज्जत (मिली)।1। अर्थ: हे भाई! जिस संत जनों ने गुरु के उपदेश के साथ गहरी सांझ डाल ली, वे (अमूल्य नाम रूपी लाल रत्न का सौदा करके माया की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो गए। जिनको परमात्मा का नाम जपने की बड़ाई प्राप्त हो जाती है उनकी (आत्मिक अवस्था इतनी ऊँची बन जाती है कि) बयान नहीं की जा सकती।1। लालु अमोला लालो ॥ अगह अतोला नामो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अमोला = जो किसी भी कीमत पर ना मिल सके। अगह = (अ+गह) जो पकड़ में ना आ सके। अतोला = जिसके बराबर की और कोई चीज़ नहीं। नामो = नाम।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम एक ऐसा लाल है जो किसी (दुनियावी) कीमति से नहीं मिलता, जो (आसानी से) पकड़ा नहीं जा सकता, जिसके बराबर की और कोई चीज़ नहीं।1। रहाउ। अविगत सिउ मानिआ मानो ॥ गुरमुखि ततु गिआनो ॥ पेखत सगल धिआनो ॥ तजिओ मन ते अभिमानो ॥२॥ पद्अर्थ: अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। सिउ = साथ। मानो = मन। गुरमुखि = गुरु से। ततु = अस्लियत। गिआनो = आत्मिक जीवन की सूझ। पेखत सगल = सबको देखते हुए, सबके साथ मेल मिलाप रखते हुए। ते = से।2। अर्थ: हे भाई! (जिनको नाम रूपी लाल प्राप्त हो गया) अदृष्ट परमात्मा के साथ उनका मन पतीज गया, गुरु की शरण पड़ कर उनको असल आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त हो गई। सारे जगत से मेल-मिलाप रखते हुए उनकी तवज्जो प्रभु-चरणों में रहती है, वे अपने मन से अहंकार दूर कर लेते हैं।2। निहचलु तिन का ठाणा ॥ गुर ते महलु पछाणा ॥ अनदिनु गुर मिलि जागे ॥ हरि की सेवा लागे ॥३॥ पद्अर्थ: ठाणा = जगह, आत्मिक ठिकाना। निहचलु = ना हिलने वाला। महलु = परमात्मा की हजूरी। पछाणा = सांझ डाल ली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गुरि मिलि = गुरु को मिल के। जागे = माया के मोह की नींद से सचेत हो गए।3। अर्थ: हे भाई! (जिन्हें नाम-लाल मिल गया) उनका आत्मिक ठिकाना अटल हो जाता है (उनका मन माया से डोलने से हट जाता है), वे मनुष्य गुरु से (शिक्षा ले के) प्रभु-चरणों से गहरी सांझ डाल लेते हैं। गुरु को मिल के (गुरु की शरण पड़ कर) वे हर वक्त (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं, सदा परमात्मा की सेवा-भक्ति में लगे रहते हैं।3। पूरन त्रिपति अघाए ॥ सहज समाधि सुभाए ॥ हरि भंडारु हाथि आइआ ॥ नानक गुर ते पाइआ ॥४॥७॥२३॥ पद्अर्थ: स्हज = आत्मिक अडोलता। सुभाए = प्रेम में (टिके हुए)। हाथि = हाथ में।4। अर्थ: हे भाई! (जिनको नाम-लाल मिल जाता है) वे माया की तृष्णा से पूरी तरह से तृप्त रहते हैं, वे प्रभु के प्यार में टिके रहते हैं, उनकी आत्मिक अडोलता वाली समाधि बनी रहती है, (क्योंकि) परमात्मा का नाम-खजाना उनके हाथ आ जाता है। पर, हे नानक! (ये खजाना) गुरु से ही मिलता है।4।7।23। मारू महला ५ घरु ६ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ छोडि सगल सिआणपा मिलि साध तिआगि गुमानु ॥ अवरु सभु किछु मिथिआ रसना राम राम वखानु ॥१॥ पद्अर्थ: सगल = सारी। मिलि साध = गुरु को मिल के। गुमानु = अहंकार। मिथिआ = नाशवान। रसना = जीभ से। वखानु = उच्चारण कर।1। अर्थ: हे भाई! सारी (फोकी) चतुराईयाँ छोड़ दे, गुरु को मिल के (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर। अपनी जीभ से परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (नाम के बिना) और सब कुछ नाशवान है।1। मेरे मन करन सुणि हरि नामु ॥ मिटहि अघ तेरे जनम जनम के कवनु बपुरो जामु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! करन = कानों से। मिटहि = मिट जाएंगे। अघ = पाप (बहुवचन)। जामु = जम। बपुरा = बेचारा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! कानों से परमात्मा का नाम सुना कर। (नाम की इनायत से) तेरे अनेक जन्मों के (किए हुए) पाप मिट जाएंगे। बेचारा जम भी कौन है (जो तुझे डरा सके)?।1। रहाउ। दूख दीन न भउ बिआपै मिलै सुख बिस्रामु ॥ गुर प्रसादि नानकु बखानै हरि भजनु ततु गिआनु ॥२॥१॥२४॥ पद्अर्थ: दीन = दीनता, अधीनता। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता। मिलै = मिल जाता है। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। नानकु बखानै = नानक कहता है। ततु गिआनु = असल आत्मिक जीवन की सूझ।2। अर्थ: हे भाई! नानक कहता है (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है उस पर दुनिया के) दुख, मुथाजगी, (हरेक किस्म का) डर - (इनमें से कोई भी) अपना जोर नहीं डाल सकते। परमात्मा का भजन करना ही असल आत्मिक जीवन की सूझ है (पर ये नाम) गुरु की कृपा से (ही मिलता है)।2।1।24। मारू महला ५ ॥ जिनी नामु विसारिआ से होत देखे खेह ॥ पुत्र मित्र बिलास बनिता तूटते ए नेह ॥१॥ पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। होत देखे खेह = राख होते देखे जाते हैं, विकारों के आग के समुंदर में जल के राख होते देखे जाते हैं। बिलास = रंग रलियाँ। बनिता = स्त्री। ए नेह = ये सारे प्यार।1। अर्थ: (हे मेरे मन!) जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम भुला दिया, वह (विकारों की आग के समुंदर में जल के) राख होते देखे जाते हैं। पुत्र, मित्र, स्त्री (आदि संबंधी जिनसे मनुष्य दुनियां की) रंग-रलियाँ (करता है) - ये सारे प्यार (आखिर) टूट जाते हैं।1। मेरे मन नामु नित नित लेह ॥ जलत नाही अगनि सागर सूखु मनि तनि देह ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! नित नित = सदा ही। जलत नाही = जलता नहीं। अगनि सागर = तृष्णा की आग का समुंदर। मनि = मन में। तनि = तन में। देह = शरीर।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा ही परमात्मा का नाम जपा कर। (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है वह तृष्णा की) आग के समुंद्रों में जलता नहीं, उसके मन में तन में देही में सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ। बिरख छाइआ जैसे बिनसत पवन झूलत मेह ॥ हरि भगति द्रिड़ु मिलु साध नानक तेरै कामि आवत एह ॥२॥२॥२५॥ पद्अर्थ: बिरख = वृक्ष। छाइआ = छाया। पवन = हवा। मेह = मेघ, बादल। झूलत = उड़ा के ले जाती है। द्रिढ़ु = दृढ़, हृदय में पक्की कर। मिलु साध = गुरु को मिल। तेरै कामि = तेरे काम में। एह = ये भक्ति ही।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जैसे वृक्ष की छाया नाश हो जाती है, (जल्दी ही बदलती जाती है) वैसे ही हवा भी बादलों को उड़ा के ले जाती है (और उनकी छाया समाप्त हो जाती है इसी तरह दुनियावी विलास नाशवान हैं)। हे भाई! गुरु को मिल और अपने हृदय में परमात्मा की भक्ति पक्की कर। यही तेरे काम आने वाली है।2।2।25। मारू महला ५ ॥ पुरखु पूरन सुखह दाता संगि बसतो नीत ॥ मरै न आवै न जाइ बिनसै बिआपत उसन न सीत ॥१॥ पद्अर्थ: पुरखु पूरन = सर्व व्यापक परमात्मा। सुखह दाता = सारे सुखों को देने वाला। संगि = (हरेक के) साथ। नीत = सदा। आवै न जाइ = ना पैदा होता है ना मरता है। उसन = गर्मी, शोक। सीत = ठण्डक, खुशी, हर्ष। न बिआपत = जोर नहीं डाल सकती।1। अर्थ: हे मेरे मन! वह सर्व-व्यापक परमात्मा सारे सुख देने वाला है, और सदा ही (हरेक के) साथ बसता है। वह ना पैदा होता है ना मरता है, वह नाश-रहित है। ना खुशी ना ग़मी - कोई भी उसके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। मेरे मन नाम सिउ करि प्रीति ॥ चेति मन महि हरि हरि निधाना एह निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! सिउ = साथ। मन महि = मन में। चेति = चेते कर, याद कर। निधाना = (सारे गुणों का) खजाना। रीति = जीवन मर्यादा, जिंदगी गुजारने का तरीका। निरमल = पवित्र।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम से प्यार डाले रख। हे भाई! जो प्रभु सारे गुणों का खजाना है उसको अपने मन में याद किया कर। जिंदगी को पवित्र रखने का यही तरीका है।1। रहाउ। क्रिपाल दइआल गोपाल गोबिद जो जपै तिसु सीधि ॥ नवल नवतन चतुर सुंदर मनु नानक तिसु संगि बीधि ॥२॥३॥२६॥ पद्अर्थ: गोपाल = सृष्टि को पालने वाला। सीधि = सिद्धि, सफलता। नवल = नया। नवतन = नया। चतुर = समझदार। नानक = हे नानक! बीधि = बेध ले, परोए रख।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा कृपा का घर है दया का श्रोत है, सृष्टि को पालने वाला गोबिंद है। जो मनुष्य (उसका नाम) जपता है उसको जिंदगी में कामयाबी प्राप्त हो जाती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा हर वक्त नया है (परमात्मा का प्यार हर वक्त नया है), परमात्मा समझदार है सुंदर है। उससे (उसके चरणों में) अपना मन परोए रख।2।3।26। मारू महला ५ ॥ चलत बैसत सोवत जागत गुर मंत्रु रिदै चितारि ॥ चरण सरण भजु संगि साधू भव सागर उतरहि पारि ॥१॥ पद्अर्थ: चलत = चलते, विचरते हुए। गुर मंत्रु = गुरु का उपदेश। रिदै = हृदय में। भजु = भाग जा। संगि साधू = गुरु की संगति में। भव सागर = संसार समुंदर।1। अर्थ: हे भाई! चलते फिरते, बैठते, सोए हुए, जागते हुए - हर वक्त गुरु का उपदेश हृदय में याद रख। गुरु की संगति में रह के (परमात्मा के) चरणों का आसरा ले, (इस तरह) तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |