श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1103 बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥ राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥ पद्अर्थ: गुनु = लाभ। खर = गधा। जस = जैसे। भारा = भार, बोझ। गति = हालत, अवस्था। नाम की गति = नाम जपने की अवस्था, नाम जपने से जो आत्मिक अवस्था बनती है।1। अर्थ: (हे पांडे!) तू (संसार-समुंदर से) कैसे पार होगा? तुझे इस बात की तो समझ ही नहीं पड़ी कि परमात्मा का नाम स्मरण करने से कैसी आत्मिक अवस्था बनती है। (तू माण करता है कि तूने वेद आदिक धर्म-पुस्तकें पढ़ी हुई हैं, पर) वेद-पुराण पढ़ने का कोई लाभ नहीं (अगर नाम से सूना रहा, ये तो दिमाग़ पर भार ही लाद लिया), जैसे किसी गधे पर चंदन लाद लिया।1। जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥ पद्अर्थ: बधहु = बध करते हो, मारते हो (यज्ञों के समय)। थापहु = मिथ लेते हो। अधरमु = पाप। भाई = हे भाई! मुनिवर = श्रेष्ठ मुनि। का कउ = किस को? कसाई = जो मनुष्य बकरे आदि मार के उनका मांस बेच के गुजारा करते हैं।2। अर्थ: (हे पांडे! एक तरफ तुम मांस खाने की निंदा करते हो; पर यज्ञ के वक्त तुम भी) जीव मारते हो (बलि देने के लिए, और) इस को धर्म का काम समझते हो। फिर, हे भाई! बताओ, पाप कौन सा है? (यज्ञ करने के वक्त तुम स्वयं भी जीव हिंसा करते हो, पर) अपने आप को तुम श्रेष्ठ ऋषि मानते हो। (अगर जीव मारने वाले लोग ऋषि हो सकते हैं,) तो तुम कसाई किसे कहते हो? (तुम) उन लोगों को कसाई क्यों कहते हो जो मांस बेचते है?।2। मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥ माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥ पद्अर्थ: काहि = और किस को? बुझावहु = समझाते हो। अबिरथा = व्यर्थ।3। अर्थ: हे अज्ञानी पांडे! तुम्हें अपने आप को (जीवन के सही रास्ते की) समझ नहीं आई, हे भाई! और किस को समझा रहे हो? (इस पढ़ी हुई विद्या से तुम स्वयं ही कोई लाभ नहीं उठा रहे, इस) विद्या को सिर्फ माया की खातिर बेच ही रहे हो, इस तरह तुम्हारी जिंदगी व्यर्थ गुजर रही है।3। नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥ कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥ पद्अर्थ: नारद बिआस, सुक = पुरातन हिन्दू विद्वान ऋषियों के नाम हैं। (नोट: कबीर जी किसी पंडित को उसके भुलेखे के बारे में समझा रहे हैं, इसलिए उनके ही ऋषियों का ही हवाला देते हैं)। जाइ = जा के। रमि = स्मरण करके। बूडे = डूबे समझो।4। अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! (दुनिया के बंधनो से) प्रभु का नाम स्मरण करके ही मुक्त हो सकते हो, नहीं तो अपने आप को डूबा हुआ समझो। (अगर मेरी इस बात पर यकीन नहीं आता, तो अपने ही पुरातन ऋषियों के वचन पढ़-सुन के देख लो) नारद ऋषि के यही वचन हैं, व्यास यही बात कहते हैं, सुकदेव को भी जा के पूछ लो (भाव, सुकदेव के वचन पढ़ के भी देख लो, वह भी यही कहता है कि नाम स्मरण करने से पार उतारा होता है)।4।1। शब्द का भाव: धार्मिक पुस्तको के निरे पाठ का कोई लाभ नहीं, अगर जीवन नहीं बदला। बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥ जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥ पद्अर्थ: बनहि = बन में, जंगल में। जउ लउ = जब तक। मनहु = मन से। न तजहि = तू नहीं त्यागता। जिह = जिन्होंने। समसरि = बराबर, एक समान। पूरे = पूरन मनुष्य।1। अर्थ: जब तक, (हे भाई!) तू अपने मन में से विकार नहीं छोड़ता, जंगल में जा बसने से परमात्मा कैसे मिल सकता है? जगत में संपूर्ण पुरख वही हैं जिन्होंने घर और जंगल को एक जैसा जान लिया है (भाव, गृहस्थ में रहते हुए भी त्यागी हैं)।1। सार सुखु पाईऐ रामा ॥ रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सार = श्रेष्ठ। रामा = प्रभु का नाम स्मरण करने से, प्रभु से। रंगि = प्रेम से। आतमै = आत्मा में, अपने अंदर। रवहु = स्मरण करो।1। रहाउ। अर्थ: असल श्रेष्ठ सुख प्रभु का नाम स्मरण करने से ही मिलता है; (इस वास्ते हे भाई!) अपने हृदय में ही प्रेम से राम का नाम स्मरण करो।1। रहाउ। जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥ मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥ पद्अर्थ: कीह = क्या हुआ? कोई लाभ नहीं। बिखिआ ते = माया से।2। अर्थ: अगर तुम जटा (धार के उन पर) राख लगा ली, या किसी गुफा में जा कर डेरा लगा लिया, तो भी क्या हुआ? (माया का मोह इस तरह नहीं छोड़ता)। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया है उन्होंने (मानो) सारे जगत को जीत लिया, क्योंकि मन जीतने से ही माया से उपराम हुआ जाता है।2। अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥ गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥ पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। देइ = देता है, पाता है। टुकु = थोड़ा सा, रक्ती भर। चाहन = चाहत, भावना, नीयत। बिडानु = भेद, फर्क। जिह = जिन्होंने। लोइन = आँखें।3। अर्थ: हर कोई (आँख में) सुरमा डाल लेता है, पर (सुरमा डालने वाले की) नीयत में फर्क हुआ करता है (कोई सुरमा डालता है विकारों के लिए, और कोई आँखों की नजर अच्छी रखने के लिए। वैसे ही, माया के बंधनो से निकलने के लिए उद्यम करने की आवश्यक्ता है, पर उद्यम उद्यम में फर्क है) वहीं आँखें (प्रभु की नज़र में) स्वीकार हैं जिन्होंने (गुरु के) ज्ञान का सुरमा डाला है।3। कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥ अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अंतरगति = अंदर हृदय में बैठा हुआ। भेटिआ = मिला। कतहू = और किस तरफ।4। अर्थ: कबीर कहता है: मुझे मेरे गुरु ने (जीवन के सही रास्ते का) ज्ञान बख्श दिया है। मुझे अब समझ आ गई है। (गुरु की कृपा से) मेरे अंदर बैठा हुआ परमात्मा मुझे मिल गया है, मेरा मन (जंगल गुफा आदि) किसी और तरफ नहीं जाता।4।2। शब्द का भाव: गृहस्थ को त्यागने से असल सुख की प्राप्ति नहीं होती। विकार तो अंदर ही टिके रहते हैं। गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का स्मरण करो, इस तरह गृहस्थ में रहते हुए ही त्यागी रहोगे। रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥ तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस मनुष्य को। रिधि सिधि फुरी = रिद्धियां सिद्धियां जाग उठती हैं, सोचने से ही रिद्धियां सिद्धियां हो जाती हैं। काहू सिउ = किसी और से। काज = काम, अधीनता। कहने की = (सिर्फ मुँह से कही) बातों की। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? लाज = शर्म।1। अर्थ: (हे जोगी! तू कहता है, ‘मुझे रिद्धियां-सिद्धियां आ गई हैं’, पर) तेरे निरी (ये बात) कहने की हालत मैं क्या बताऊँ? मुझे तो बात करते हुए शर्म आती है। (भला, हे जोगी!) जिस मनुष्य के सिर्फ सोचने से ही रिद्धियां-सिद्धियां हो जाएं, उसको किसी और की अधीनता कहाँ रह जाती है? (और तू अभी भी मुथाज हो के लोगों के दर पर भटकता फिरता है)।1। रामु जिह पाइआ राम ॥ ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिह = जिस मनुष्यों ने। ते = वह लोग। बारै बार = दर-दर पर।1। रहाउ। अर्थ: (हे जोगी!) जिस लोगों को सचमुच परमात्मा मिल जाता है, वह (भिक्षा माँगने के लिए) दर-दर पर नहीं भटकते।1। रहाउ। झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥ राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥ पद्अर्थ: डहकै = भटकता है। घना = बहुत। दिन दुइ = दो दिनों के लिए। उदकु = जल, अमृत। तिहि = उनको। बहुरि = दोबारा।2। अर्थ: दो-चार दिन (माया) बरतने की आस में ही यह झूठा जगत कितना भटकता फिरता है। (हे जोगी!) जिस लोगों ने प्रभु का नाम-अमृत पीया है, उनको फिर माया की प्यास नहीं लगती।2। गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥ सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥ पद्अर्थ: जिह = जिस मनुष्य ने। निरासु = आशा रहित। सभु = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। उदासु = उपराम।3। अर्थ: गुरु की कृपा से जिस ने (सही जीवन) समझ लिया है, वह आशाएं त्याग के आशाओं से ऊँचा हो जाता है, क्योंकि जब मनुष्य अंदर से माया से उपराम हो जाए तो उसको हर जगह प्रभु दिखाई देता है (माया की तरफ उसकी निगाह नहीं पड़ती)।3। राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥ कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥ पद्अर्थ: हर तारि = हर तालि, हरेक ताल में, हरेक करिश्मे में। कंचनु = सोना। भ्रमु = भुलेखा, भटकना।4। अर्थ: हे कबीर! कह: जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का स्वाद चख लिया है, उसको हरेक करिश्में में प्रभु का नाम ही दिखता और सुनता है, वह शुद्ध सोना बन जाता है, उसकी भटकना समुंदर के पार चली जाती है (सदा के लिए मिट जाती है)।4।3। शब्द का भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा मिल जाता है, वह मंगतों की तरह दर-व-दर भटकता नहीं फिरता। वह शुद्ध सोना बन जाता है। उसको हर जगह परमात्मा ही दिखता है। उसको किसी की अधीनता नहीं रहती। उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥ सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥ पद्अर्थ: उदक = पानी। सलल = पानी। साखिआ = (की) तरह। तरंग = लहरें। समावहिगे = हम समा गए हैं, मैं लीन हो गया हूँ। सुंनहि = शून्य में, अफुर प्रभु में। सुंनु = अफुर हुई आत्मा। मिलिआ = मिल गया है। सम = समान, बराबर। पवन रूप = हवा की तरह। पवन रूप होइ जावहिगे = हम हवा की तरह हो गए हैं, जैसे हवा हवा में मिल जाती है वैसे ही मैं भी।1। अर्थ: जैसे पानी समुंदर के पानी में मिल के एक-रूप हो जाता है, जैसे नदी के पानी की लहरें नदी के पानी में लीन हो जाती हैं, जैसे हवा हवा में मिल जाती है, वैसे ही वासना-रहित हुआ मेरा मन अफुर-प्रभु में मिल गया है, और अब मुझे हर जगह प्रभु ही दिखाई दे रहा है।1। बहुरि हम काहे आवहिगे ॥ आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बहुरि = दोबारा, फिर। हम = मैं। बुझि = समझ के।1। रहाउ। अर्थ: मैं फिर कभी (जनम मरण के चक्कर में) नहीं आऊँगा। ये जनम-मरण का चक्कर प्रभु की रज़ा (के अनुसार) ही है, मैं उस रज़ा को समझ के (रज़ा में) लीन हो गया हूँ।1। रहाउ। जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥ दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥ पद्अर्थ: जब = अब जब। चूकै = समाप्त हो गई है। पंच धातु की रचना = पाँच तत्वी शरीर की खेल, पांच तत्वी शरीर का मोह, देह अभ्यास, शरीर के दुख सुख की सोच। ऐसे = इस तरह। चुकावहिगे = मैंने खत्म कर दिए हैं। दरसनु = भेखु, किसी भेस की उच्चता का ख्याल। धिआवहिगे = मैं स्मरण करता हूँ।2। अर्थ: अब जब (प्रभु में लीन होने के कारण) मेरा पाँच-तत्वी शरीर का मोह समाप्त हो गया है, मैंने अपना भुलेखा भी ऐसें समाप्त कर लिया है कि किसी खास भेस (की महत्वता का विचार) छोड़ के मुझे सबमें ही परमात्मा दिखता है, मैं एक प्रभु का नाम ही स्मरण कर रहा हूँ।2। जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥ हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥ पद्अर्थ: जितु = जिस तरफ। हम = हमें, मुझे। लागे = मैं लगा हुआ हूँ। कमावहिगे = मैं कमा रहा हूँ। समावहिगे = मैं समा रहा हूँ।3। अर्थ: (पर, ये प्रभु की अपनी ही मेहर है) जिस तरफ उसने मुझे लगाया है मैं उधर ही लग पड़ा हूँ (जिस प्रकार के काम वह मुझसे करवाता है) वैसे ही काम मैं कर रहा हूँ। जब भी (जिस पर) प्रभु जी अपनी मेहर करते हैं, वह गुरु के शब्द में लीन हो जाते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |