श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1210 गुण निधान मनमोहन लालन सुखदाई सरबांगै ॥ गुरि नानक प्रभ पाहि पठाइओ मिलहु सखा गलि लागै ॥२॥५॥२८॥ पद्अर्थ: गुण निधान = हे गुणों के खजाने! लालन = हे सुंदर लाल! सरबांगै = हे सब जीवों में व्यापक! गुरि = गुरु ने। नानक = हे नानक! (कह)। पाहि = पास। पठाइओ = भेजा है। सखा = हे मित्र! गलि लागै = गले से लग के।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गुणों के खजाने! हे मन को मोहने वाले! हे सोहणे लाल! ळे सारे सुख देने वाले! हे सब जीवों में व्यापक! हे प्रभु! हे मित्र प्रभु! मुझे गुरु ने (तेरे) पास भेजा है, मुझे गले लग के मिल।2।5।28। सारग महला ५ ॥ अब मोरो ठाकुर सिउ मनु मानां ॥ साध क्रिपाल दइआल भए है इहु छेदिओ दुसटु बिगाना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोरो मनु = मेरा मन। सिउ = साथ। मानां = रीझ गया है। छेदिओ = काट दिया है। दुसटु = बुरा। बिगाना = बेगानापन।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब संतजन मेरे पर प्रसन्न हुए, दयावान हुए, (तब मैंने अपने अंदर से परमात्मा से) यह दुष्ट बेगानगी को काट डाला। अब मेरा मन मालिक-प्रभु के साथ (सदा) रीझा रहता है।1। रहाउ। तुम ही सुंदर तुमहि सिआने तुम ही सुघर सुजाना ॥ सगल जोग अरु गिआन धिआन इक निमख न कीमति जानां ॥१॥ पद्अर्थ: सुघर = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। सुजाना = समझदार। सगल = सारे। अरु = और। निमख = आँख झपकने जितना समय। कीमति = मूल्य, सार, कद्र।1। अर्थ: अब, हे प्रभु! तू ही मुझे सुंदर लगता है, तू ही समझदार प्रतीत होता है, तू ही सुंदर आत्मिक घाड़त वाला और सुजान दिखता है। जोग-साधन, ज्ञान-चर्चा करने वाले और समाधियाँ लगाने वाले- इन सभी ने, हे प्रभु! आँख झपकने जितने समय के लिए भी तेरी कद्र नहीं समझी।1। तुम ही नाइक तुम्हहि छत्रपति तुम पूरि रहे भगवाना ॥ पावउ दानु संत सेवा हरि नानक सद कुरबानां ॥२॥६॥२९॥ पद्अर्थ: नाइक = नायक, मालिक। छत्रपति = राजा। पूरि रहे = सब जगह मौजूद है। पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। दान = ख़ैर। सद = सदा।2। अर्थ: हे भगवान! तू ही (सब जीवों का) मालिक है, तू ही (सब राजाओं का) राजा है, तू सारी सृष्टि में व्यापक है। हे नानक! (कह:) हे हरि! (मेहर कर, तेरे दर से) मैं संत जनों की सेवा की ख़ैर हासिल करूँ, मैं संत जनों से सदा सदके जाऊँ।2।6।29। सारग महला ५ ॥ मेरै मनि चीति आए प्रिअ रंगा ॥ बिसरिओ धंधु बंधु माइआ को रजनि सबाई जंगा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। मेरै चिति = मेरे चिक्त में प्रिअ रंगा = प्यारे के करिश्मे। माइआ को धंधु = माया का धंधा। माइआ को बंधु = माया (के मोह) का बंधन। रजनि = (उम्र की) रात। सबाई = सारी। जंगा = (कामादिकों से) युद्ध (करते हुए)।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जब सें साधु-संगत की इनायत से) प्यारे प्रभे करिश्मे मेरे मन में मेरे चिक्त में आ बसे हैं, मुझे माया वाली भटकना भूल गई है, माया के मोह की फाँसी समाप्त हो गई है, मेरी सारी उम्र-रात (विकारों से) जंग करती हुई बीत रही है।1। रहाउ। हरि सेवउ हरि रिदै बसावउ हरि पाइआ सतसंगा ॥ ऐसो मिलिओ मनोहरु प्रीतमु सुख पाए मुख मंगा ॥१॥ पद्अर्थ: सेवउ = मैं स्मरण करता हूँ। रिदै = हृदय में। बसावउ = मैं बसाता हूँ। मनोहर = मन को मोहने वाला। सुख मुख मंगा = मुँह मांगे सुख।1। अर्थ: हे भाई! जब से मैंने प्रभु की साधु-संगत प्राप्त की है, मैं परमात्मा का स्मरण करता रहता हूँ, मैं परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता हूँ। मन को मोहने वाला प्रीतम-प्रभु इस तरह मुझे मिल गया है कि मैंने मुँह-माँगे सुख हासिल कर लिए हैं।1। प्रिउ अपना गुरि बसि करि दीना भोगउ भोग निसंगा ॥ निरभउ भए नानक भउ मिटिआ हरि पाइओ पाठंगा ॥२॥७॥३०॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। बसि = वश में। भोगउ = मैं भोगता हूँ। भोग = प्रभु मिलाप का आनंद। निसंगा = (कामादिको की) रुकावट के बिना। पाठंगा = आसरा।2। अर्थ: हे भाई! गुरु ने प्यारा प्रभु मेरे (प्यार के) वश में कर दिया है, अब (कामादिकों की) रुकावट के बिना मैं उसके मिलाप का आत्मिक आनंद लेता रहता हूँ। हे नानक! (कह:) मैंने (जीवन का) आसरा प्रभु पा लिया है, मेरा हरेक डर मिट गया है, मैं (कामादिकों के हमलों के खतरे से) निडर हो गया हूँ।2।7।30। सारग महला ५ ॥ हरि जीउ के दरसन कउ कुरबानी ॥ बचन नाद मेरे स्रवनहु पूरे देहा प्रिअ अंकि समानी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। कुरबानी = सदके। बचन नाद = महिमा की वाणी की आवाजें। स्रवनह = कानों में। पूरे = भरे रहते हैं। देहा = (मेरा) शरीर। प्रिअ अंकि = प्यारे की गोद में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं प्रभु जी के दर्शनों से सदके हूँ। उसकी महिमा के गीत मेरे कानों में भरे रहते हैं, मेरा शरीर उसकी गोद में लीन रहता है (यह सारी गुरु की ही कृपा है)।1। रहाउ। छूटरि ते गुरि कीई सुोहागनि हरि पाइओ सुघड़ सुजानी ॥ जिह घर महि बैसनु नही पावत सो थानु मिलिओ बासानी ॥१॥ पद्अर्थ: छूटरि = त्यागी हुई। ते = से। गुरि = गुरु ने। सुोहागनि = सुहाग वाली, पति वाली। सुघड़ = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। जिह घरि महि = जिस घर में, जिस प्रभु चरणों में। बैसनु = बैठना। बासानी = बसने के लिए।1। नोट: 'सुोहागनि' अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘सोहागनि’ है यहाँ ‘सुहागनि’ पढ़ना है। अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे त्याग हुई से सोगनि बना दिया है, मैंने सुंदर आत्मिक घाड़त वाले सुजान प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया है। (मेरे मन को) वह (हरि-चरण-) स्थल बसने के लिए मिल गया है, जिस जगह पर (पहले कभी यह) टिकता ही नहीं था।1। उन्ह कै बसि आइओ भगति बछलु जिनि राखी आन संतानी ॥ कहु नानक हरि संगि मनु मानिआ सभ चूकी काणि लुोकानी ॥२॥८॥३१॥ पद्अर्थ: उन्ह कै बसि = उन (संत जनों) के वश में। भगति बछलु = भक्ति से प्यार करने वाला प्रभु। जिनि = जिस (प्रभु) ने। आन = इज्जत, सत्कार। संतानी = संता की। संगि = साथ। मानिआ = रीझ गया है। चूकी = समाप्त हो गई है। काणि = अधीनता। लुोकानी = लोगों की (असल शब्द ‘लाकानी’ है यहाँ ‘लुकानी’ पढ़ना है)।2। अर्थ: हे भाई! भक्ति से प्यार करने वाला परमात्मा जिसने (सदा अपने) संतों की इज्जत रखी है उन संत-जनों के प्यार के वश में आया रहता है। हे नानक! कह: (संत-जनों की कृपा से) मेरा मन परमात्मा के साथ रीझ गया है, (मेरे अंदर से) लोगों की अधीनता समाप्त हो गई है।2।8।31। सारग महला ५ ॥ अब मेरो पंचा ते संगु तूटा ॥ दरसनु देखि भए मनि आनद गुर किरपा ते छूटा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरो संगु = मेरा साथ। पंचा ते = कामादिक पाँचों से। देखि = देख के। मनि = मन में। किरपा ते = कृपा से। छूटा = स्वतंत्र हो गया हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की मेहर से मैं (कामादिक की मार से) बच गया हूँ। अब (कामादिक) पाँचों से मेरा साथ समाप्त हो गया है (मेरे अंद रनाम-खजाना छुपा पड़ा था, गुरु के माध्यम से उसके) दर्शन करके मेरे मन में खुशियाँ ही खुशियाँ बन गई हैं।1। रहाउ। बिखम थान बहुत बहु धरीआ अनिक राख सूरूटा ॥ बिखम गार्ह करु पहुचै नाही संत सानथ भए लूटा ॥१॥ पद्अर्थ: बिखम थान = वह जगह जहाँ पहुँचना बहुत मुश्किल है। धरीआ = (नाम खजाना) रखा हुआ है। राख = रखवाले, कामादिक रखवाले। सूरूटा = सूरमे। गार् = गार्ह, गड्ढा, खाई। करु = हाथ। सानथ = साथी।1। अर्थ: हे भाई! जिस जगह नाम-खजाने रखे हुए थे, वहाँ पहुँचना बहुत ही मुश्किल था (क्योंकि कामादिक) अनेक सूरमे (राह में) रखवाले बने हुए थे (पहरेदार बन के खड़े थे)। (उसके चारों तरफ माया के मोह की) बड़ी गहरी खाई बनी हुई थी, (उस खजाने तक) हाथ नहीं था पहुँचता। जब संत-जन मेरे साथी बन गए, (वह ठिकाना) लूट लिया।1। बहुतु खजाने मेरै पालै परिआ अमोल लाल आखूटा ॥ जन नानक प्रभि किरपा धारी तउ मन महि हरि रसु घूटा ॥२॥९॥३२॥ पद्अर्थ: मेरै पालै = मेरे पल्ले, मेरे काबू। अखूटा = अनन्त। प्रभि = प्रभु ने। घूटा = घूट घूट करके पीता।2। अर्थ: (संत जनों की किरपा से) हरि-नाम के अमूल्य लालों के बहुत सारे खजाने मुझे मिल गए। हे दास नानक! (कह:) जब प्रभु ने मेरे ऊपर मेहर की, तब मैं अपने मन में हरि-नाम का रस पीने लग गया।2।9।32। सारग महला ५ ॥ अब मेरो ठाकुर सिउ मनु लीना ॥ प्रान दानु गुरि पूरै दीआ उरझाइओ जिउ जल मीना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठाकुर सिउ = मालिक प्रभु से। लीना = लीन हो गया, एक मेक हो गया। प्रान दानु = आत्मिक जीवन की खैर। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। उरझाइओ = (गुरु ने ठासकुर से) अच्छी तरह जोड़ दिया है। मीना = मछली।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है, मुझे ठाकुर प्रभु के साथ यूँ जोड़ दिया है जैसे मछली पानी के साथ। अब मेरा मन ठाकुर-प्रभु के साथ ऐक-मेक हुआ रहता है।1। रहाउ। काम क्रोध लोभ मद मतसर इह अरपि सगल दानु कीना ॥ मंत्र द्रिड़ाइ हरि अउखधु गुरि दीओ तउ मिलिओ सगल प्रबीना ॥१॥ पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। अरपि = अरप के। अरपि दानु कीना = अरप के दान कर दिए हैं, सदा के लिए छोड़ दिए हैं। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाइ = (हृदय में) पक्का कर के। अउखधु = दवा दारू। गुरि = गुरु ने। तउ = तब। सगल प्रबीना = सारे गुरु में प्रवीण प्रभु।1। अर्थ: हे भाई! जब से गुरु ने (अपना) उपदेश मेरे हृदय में पक्का कर के मुझे हरि-नाम की दवाई दी है, तब से मुझे सारे गुणों में प्रवीण गुरु मिल गया है, और, मैंने (अपने अंदर से) काम क्रोध लोभ अहंकार ईष्या (आदि सारे विकार) सदा के लिए निकाल दिए हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |