श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1211 ग्रिहु तेरा तू ठाकुरु मेरा गुरि हउ खोई प्रभु दीना ॥ कहु नानक मै सहज घरु पाइआ हरि भगति भंडार खजीना ॥२॥१०॥३३॥ पद्अर्थ: ग्रिहु = हृदय घर। ठाकुरु = मालिक। गुरि = गुरु ने। हउ = अहंकार। खोई = दूर कर दी है। सहज घरु = आत्मिक अडोलता वाली जगह। पाइआ = पा लिया है। खजीना = खजाने।2। अर्थ: हे प्रभु! (अब मेरा हृदय) तेरा घर बन गया है, तू (सचमुच) मेरे (इस घर का) मालिक बन गया है। हे भाई! गुरु ने मेरे अहंकार को दूर कर दिया है, मुझे प्रभु से मिला दिया है। हे नानक! कह: (गुरु की कृपा से) मैंने आत्मिक अडोलता का श्रोत पा लिया है। मैंने परमात्मा की भक्ति के भण्डारे खजाने पा लिए हैं।2।10।33। सारग महला ५ ॥ मोहन सभि जीअ तेरे तू तारहि ॥ छुटहि संघार निमख किरपा ते कोटि ब्रहमंड उधारहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहन = हे मोहन! सभि = सारे। जीअ = जीव। तारहि = पार लंघाता है। संघार = मारने वाले, जालिम स्वभाव वाले बंदे। छुटहि = विकारों से अत्याचार से हट जाते हैं। निमख = आँख झपकने जितना समय। ते = से। कोटि = करोड़ों। उधारहि = तू बचखता है।1। रहाउ। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे मोहन प्रभु! (जगत के) सारे जीव तेरे ही (पैदा किए हुए हैं), तू ही (इनको दुखों-कष्टों आदि से) पार लंघाता है। तेरी थोड़ी जितनी मेहर (की निगाह) से बड़क्षे-बड़े निर्दयी लोग भी अत्याचारों से हट जाते हैं।1। रहाउ। करहि अरदासि बहुतु बेनंती निमख निमख साम्हारहि ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन हाथ देइ निसतारहि ॥१॥ पद्अर्थ: करहि = (जीव) करते हैं (बहुवचन)। समारहि = (तुझे हृदय में) याद करते हैं। होहु = जब तू होता हैं दीन दुख भंजन = हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! देइ = दे के। निसतारहि = (दुख-कष्ट से) पार लंघाता है।1। अर्थ: हे मोहन! (तेरे पैदा किए हुए जीव तेरे ही दर पे) अरदास विनती करते हैं, (तुझे ही) पल-पल हृदय में बसाते हैं। हे गरीबों के दुख नाश करने वाले मोहन! तू जब दयावान होता है, तो अपना हाथ दे के (जीवों को दुखों से) पार लंघा लेता है।1। किआ ए भूपति बपुरे कहीअहि कहु ए किस नो मारहि ॥ राखु राखु राखु सुखदाते सभु नानक जगतु तुम्हारहि ॥२॥११॥३४॥ पद्अर्थ: ए भूपति = यह राजे (बहुवचन)। बपुरे = बेचारे। किआ कहीअहि = क्या कही सकते हैं? इनकी क्या बिसात कही जा सकती है? ए = यह (बहुवचन)। मारहि = मार सकते हैं। सुखदाते = हे सुख देने वाले प्रभु! सभ = सारा। तुमारहि = तेरा ही है।2। नोट: ‘किस नो’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे नानक! (कह: हे मोहन!) इन बेचारे राजाओं की कोई बिसात नहीं कि ये किसी को मार सकें (सब तेरा ही खेल-तमाशा है)। हे सुखों के देने वाले! (हम जीवों की) रक्षा कर, रक्षा कर, रक्षा कर। सारा जगत तेरा ही (रचा हुआ) है।2।11।34। सारग महला ५ ॥ अब मोहि धनु पाइओ हरि नामा ॥ भए अचिंत त्रिसन सभ बुझी है इहु लिखिओ लेखु मथामा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मैंने। पाइओ = पा लिया है। अचिंत = चिन्ता रहित, बेफिक्र। मथामा = माथे पर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) अब मैंने परमात्मा का धन पा लिया है। (इस धन की इनायत से) मैं बेफिक्र हो गया हूँ, (मेरे अंदर से) सारी (माया की) तृष्णा मिट गई है (धुर-दरगाह से ही) यह (प्राप्ति का) लेख माथे पर लिखा हुआ था।1। रहाउ। खोजत खोजत भइओ बैरागी फिरि आइओ देह गिरामा ॥ गुरि क्रिपालि सउदा इहु जोरिओ हथि चरिओ लालु अगामा ॥१॥ पद्अर्थ: खोजत = ढूँढते हुए। भइओ = हो गया। फिरि = फिर फिर के। देह गिरामा = शरीर पिंड में। गुरि = गुरु ने। क्रिपालि = कृपालु ने। जोरिओ = जोड़ दिया, कर दिया। हथि = हाथ में। हथि चरिआ = मिल गया। अगामा = अगम्य (पहुँच से परे), अमूल्य।1। अर्थ: हे भाई! तलाश करता-करता मैं तो वैरागी ही हो गया था, आखिर भटक-भटक के (गुरु की कृपा से) मैं शरीर-पिंड में आ पहुँचा। कृपालु गुरु ने ये वणज बना दिया कि (शरीर के अंदर से ही) मुझे परमात्मा का नाम अमूल्य लाल मिल गया।1। आन बापार बनज जो करीअहि तेते दूख सहामा ॥ गोबिद भजन के निरभै वापारी हरि रासि नानक राम नामा ॥२॥१२॥३५॥ पद्अर्थ: आन = अन्य, और। करीअहि = किए जाते हैं। तेते = वह सारे। रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।2। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम के बिना) और जो-जो भी वणज व्यापार किए जाते हैं, वे सभी दुख सहने (का सबब बन जाते हैं)। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के भजन के व्यापारी लोग (दुनिया के) डरों से बचे रहते हैं, उनके पास परमात्मा के नाम की संपत्ति टिकी रहती है।2।12।35। सारग महला ५ ॥ मेरै मनि मिसट लगे प्रिअ बोला ॥ गुरि बाह पकरि प्रभ सेवा लाए सद दइआलु हरि ढोला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। मिसट = मीठे। प्रिअ बोला = प्यारे प्रभु की महिमा के वचन। गुरि = गुरु ने। पकरि = पकड़ के। सद = सदा। ढोला = प्यारा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब से गुरु ने (मेरी) बाँह पकड़ के (मुझे) प्रभु की सेवा-भक्ति में लगाया है, तब से मेरे मन में प्यारे-प्रभु की महिमा के वचन मीठे लगने लगे हैं। (अब मुझे ये बात समझ में आ गई है कि) प्यारा हरि सदा ही (मेरे पर) दयावान है।1। रहाउ। प्रभ तू ठाकुरु सरब प्रतिपालकु मोहि कलत्र सहित सभि गोला ॥ माणु ताणु सभु तूहै तूहै इकु नामु तेरा मै ओल्हा ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ठाकुरु = मालिक। प्रतिपालकु = पालने वाला। मोहि = मैं। कलत्र = स्त्री। सहित = समेत। सभि = सारे। गोला = गुलाम, सेवक। ताणु = आसरा, ताकत। ओला = परदा, आसरा।1। अर्थ: हे प्रभु! (जब से गुरु ने मुझे तेरी सेवा में लगाया है, मुझे यकीन हो गया है कि) तू (हमारा) मालिक है, तू सब जीवों का पालनहार है। मैं (अपनी) स्त्री (परिवार) समेत - हम सभी तेरे गुलाम हैं। हे प्रभु! तू ही मेरा माण है, तू ही मेरा ताण है। तेरा नाम ही मेरा सहारा है।1। जे तखति बैसालहि तउ दास तुम्हारे घासु बढावहि केतक बोला ॥ जन नानक के प्रभ पुरख बिधाते मेरे ठाकुर अगह अतोला ॥२॥१३॥३६॥ पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। बैसालहि = तू (मुझे) बैठाए। तउ = तब, तो भी। घासु = घास। बढावहि = तू कटवाए। केतक बोला = कितने बोल (बोल सकता हूँ)? मुझे कोई ऐतराज नहीं। बिधाते = हे रचनहार! ठाकुर = हे मालिक! अगह = हे अथाह!।2। अर्थ: हे दास नानक के प्रभु! हे अकाल पुरख! हे रचनहार! हे मेरे अथाह और अतोल ठाकुर! हे प्रभु! अगर तू मुझे तख्त पर बैठा दे, तो भी मैं तेरा दास हूँ, अगर तू (मुझे घसियारा बना के मुझसे) घास कटवाए, तो भी मुझे कोई ऐतराज नहीं।2।13।36। सारग महला ५ ॥ रसना राम कहत गुण सोहं ॥ एक निमख ओपाइ समावै देखि चरित मन मोहं ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ। राम कहत गुण = राम के गुण कहते हुए। सोहं = सुंदर लगती है। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ओपाइ = पैदा करके। समावै = लीन कर लेता है। देखि = देख के। चरित = करिश्मे तमाशे। मोहे = माहा जाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण उचारते हुए जीभ सुंदर लगती है। वह प्रभु आँख झपकने जितने समय में पैदा कर के (दोबारा अपने में जगत को) लीन कर सकता है। उसके चोज-तमाशे देख के मन मोहा जाता है।1। रहाउ। जिसु सुणिऐ मनि होइ रहसु अति रिदै मान दुख जोहं ॥ सुखु पाइओ दुखु दूरि पराइओ बणि आई प्रभ तोहं ॥१॥ पद्अर्थ: जिसु सुणिऐ = जिसका (नाम) सुन के। मनि = मन में। रहसु = खुशी। अति = बहुत। रिदै मान = (जिसको) हृदय में मानने से। जोहं = ताड़ना। दुख जोहं = दुखों को ताड़ना, दुखों का नाश। दूरि पराइओ = दूर हो जाता है। प्रभ = हे प्रभु! बणि आई तोहं = तेरे साथ (प्रीत) बन जाती है।1। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य की प्रीति तेरे साथ बन जाती है, उसका सारा दुख दूर हो जाता है, वह सदा सुख भोगता है। (हे प्रभु! तू ऐसा है) जिसका नाम सुनने से मन में बहुत खुशी पैदा होती है, जिसको हृदय में बसाने से सारे दुखों का नाश हो जाता है।1। किलविख गए मन निरमल होई है गुरि काढे माइआ द्रोहं ॥ कहु नानक मै सो प्रभु पाइआ करण कारण समरथोहं ॥२॥१४॥३७॥ पद्अर्थ: किलविख = पाप। निरमल = पवित्र। गुरि = गुरु ने। द्रोहं = द्रोह, ठगी, छल। करण = जगत। करण कारण = जगत का मूल। समरथोहं = सारी ताकतों का मालिक।2। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने जीभ से राम-गुण गाए, उसके अंदर से) गुरु ने माया के छल निकाल दिए, उसके सारे पाप दूर हो गए, उसका मन पवित्र हो गया। हे नानक! कह: (हे भाई! गुरु की कृपा से) मैंने वह परमात्मा पा लिया है, जो जगत का मूल है जो सारी ताकतों का मालिक है।2।14।37। सारग महला ५ ॥ नैनहु देखिओ चलतु तमासा ॥ सभ हू दूरि सभ हू ते नेरै अगम अगम घट वासा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नैनहु = आँखों से। सभ हू दूरि = सबसे दूर (निर्लिप)। ते = से। नेरै = नजदीक। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। घट वासा = सब शरीरों में निवास।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (मैंने अपनी) आँखों से (परमातमा का अजब) करिश्मा देखा है (अजब) तमाशा देखा है। वह परमात्मा (निर्लिप होने के कारण) सब जीवों से दूर (अलग) है, (सर्व-व्यापक होने के कारण वह) सब जीवों के नजदीक, वह अगम है अगम्य (पहुँच से परे) है, पर वैसे सब शरीरों में उसका निवास है।1। रहाउ। अभूलु न भूलै लिखिओ न चलावै मता न करै पचासा ॥ खिन महि साजि सवारि बिनाहै भगति वछल गुणतासा ॥१॥ पद्अर्थ: अभुलु = भूलों से रहित। लिखिओ = लिखा हुआ (हुक्म)। मता = सलाहें। पचासा = पचास, कई। साजि = पैक्दा कर के। सवारि = सुंदर बना के। बिनाहै = नाश कर देता है। भगति वछल = भक्ति को प्यार करने वाला। गुण तासा = गुणों का खजाना।1। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा भूलों से रहित है, वह कभी कोई गलती नहीं करता, ना वह कोई लिखा हुआ हुक्म चलाता है, ना वह बहुत सलाहें ही करता है। वह तरे एक छिन में पैदा करके सुंदर बना के (एक छिन में ही) नाश कर देता है। वह परमात्मा भक्ति से प्यार करने वाला है, और (बेअंत) गुणों का खजाना है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |