श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1298 तेरे जन धिआवहि इक मनि इक चिति ते साधू सुख पावहि जपि हरि हरि नामु निधान ॥ उसतति करहि प्रभ तेरीआ मिलि साधू साध जना गुर सतिगुरू भगवान ॥१॥ पद्अर्थ: धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। इक मनि = एक मन से। इक चिति = एक चिक्त से। ते साधू = वह भले मनुष्य। जपि = जप के। निधान = (सुखों का) खजाना। करहि = करते हैं (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभु! मिलि = मिल के। भगवान = हे भगवान!।1। अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक एक-मन एक चिक्त हो के तेरा ध्यान करते हैं, सुखों का खजाना तेरा नाम जप-जप के वे गुरमुख मनुष्य आत्मिक आनंद लेते हैं। हे प्रभु! हे भगवान! तेरे संत जन गुरु सतिगुरु को मिल के तेरी सिफतसालह करते रहते हैं।1। जिन कै हिरदै तू सुआमी ते सुख फल पावहि ते तरे भव सिंधु ते भगत हरि जान ॥ तिन सेवा हम लाइ हरे हम लाइ हरे जन नानक के हरि तू तू तू तू तू भगवान ॥२॥६॥१२॥ पद्अर्थ: कै हिरदै = के दिल में। सुआमी = हे स्वामी! ते = वे (बहुवचन)। भव सिंधु = संसार समुंदर। जान = जानो। हम = हमें, मुझे।2। अर्थ: हे मालिक! जिनके हृदय में तू बस जाता है, वे आत्मिक आनंद का फल हासिल करते है, वे संसार-समुंदर को पार कर जाते हैं। हे भाई! उनको भी हरि के भक्त जानो। हे हरि! हे दास नानक के भगवान! मुझे (अपने) उन संत-जनों की सेवा में लगाए रख, सेवा में लगाए रख।2।6।12 कानड़ा महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गाईऐ गुण गोपाल क्रिपा निधि ॥ दुख बिदारन सुखदाते सतिगुर जा कउ भेटत होइ सगल सिधि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गाईऐ = आओ मिल के गायन करें। क्रिपानिधि गुण = दया के खजाने, प्रभु के गुण। दुख बिदारन = दुखों का नाश करने वाला। जा कउ = जिस (गुरु) को। भेटत = मिलने से। होइ = होती है (एकवचन)। सिधि = कामयाबी, सफलता। सगल = सारी।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस गुरु को मिलके (जिंदगी) सारी सफल हो जाती है, उस दुखों के नाश करने वाले और सुखों के देने वाले गुरु को मिल के, आओ, मिल के माया के खजाने गोपाल के गुण गाया करें।1। रहाउ। सिमरत नामु मनहि साधारै ॥ कोटि पराधी खिन महि तारै ॥१॥ पद्अर्थ: मनहि = मन को। साधारै = (विकारों के मुकाबले में) सहारा देता है। कोटि = करोड़ों। पराधी = अपराधी, पापी। तारै = (नाम) पार लंघा लेता है।1। अर्थ: हे भाई! नाम स्मरण करने से नाम (मनुष्य के) मन को (विकारों के मुकाबले में) सहारा देता है। हरि-नाम करोड़ों पापियों को एक छिन में (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।1। जा कउ चीति आवै गुरु अपना ॥ ता कउ दूखु नही तिलु सुपना ॥२॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। चीति = चिक्त में। तिलु = रती भर भी।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को अपना सतिगुरु चेते रहता है (वह मनुष्य सदा हरि-नाम जपता है, जिसकी इनायत से) उसको सपने में भी रक्ती भर भी कोई दुख पोह नहीं सकता।2। जा कउ सतिगुरु अपना राखै ॥ सो जनु हरि रसु रसना चाखै ॥३॥ पद्अर्थ: राखै = रक्षा करता है। रसना = जीभ से। चाखै = चखता है।3। अर्थ: हे भाई! प्यारा गुरु जिस मनुष्य की रक्षा करता है, वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम-रस चखता रहता है।3। कहु नानक गुरि कीनी मइआ ॥ हलति पलति मुख ऊजल भइआ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: कहु = कह। गुरि = गुरु ने। मइआ = दया। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक मे। मुख = मुँह। ऊजल = बेदाग़।4। अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्यों पर) गुरु ने मेहर की, उनके मुँह इस लोक में और परलोक में उज्जवल हो गए।4।1। कानड़ा महला ५ ॥ आराधउ तुझहि सुआमी अपने ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सासि सासि सासि हरि जपने ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आराधउ = मैं आराधता हूँ, याद करता रहता हूँ। तुझहि = तुझे ही। सुआमी = हे स्वामी! सासि सासि = हरेक सांस के साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) अपने मालिक! मैं (सदा) तुझे ही याद करता रहता हूं। हे हरि! उठते, बैठते, सोते, जागते, हरेक सांस के साथ मैं तेरा ही नाम जपता हूँ।1। रहाउ। ता कै हिरदै बसिओ नामु ॥ जा कउ सुआमी कीनो दानु ॥१॥ पद्अर्थ: ता कै हिरदै = उस (मनुष्य) के दिल में। जा कउ = जिस (मनुष्य) को।1। अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शता है, उसके हृदय में (उस मालिक का) नाम टिक जाता है।1। ता कै हिरदै आई सांति ॥ ठाकुर भेटे गुर बचनांति ॥२॥ पद्अर्थ: ठाकुर भेटे = मालिक प्रभु को मिलता है। गुर बचनांति = गुरु के वचन से।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के उपदेश पर चल कर मालिक-प्रभु को मिल जाता है, उसके दिल में (विकारों की अग्नि) ठंडी पड़ जाती है।2। सरब कला सोई परबीन ॥ नाम मंत्रु जा कउ गुरि दीन ॥३॥ पद्अर्थ: कला = आत्मिक ताकत। परबीन = प्रवीण, समझदार। मंत्रु = उपदेश। गुरि = गुरु ने।3। अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) को गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र दे दिया, वही है सारी आत्मिक ताकतों में प्रवीण।3। कहु नानक ता कै बलि जाउ ॥ कलिजुग महि पाइआ जिनि नाउ ॥४॥२॥ पद्अर्थ: बलि जाउ = मैं सदके जाता हू। कलिजुग महि = झगड़ों भरे जगत में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।4। (नोट: यहाँ किसी युग की बात नहीं है)। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने इस बखेड़ों भरे जगत में परमात्मा का नाम-खजाना पा लिया, मैं उस (मनुष्य) से बलिहार जाता हूँ।4।7। कानड़ा महला ५ ॥ कीरति प्रभ की गाउ मेरी रसनां ॥ अनिक बार करि बंदन संतन ऊहां चरन गोबिंद जी के बसना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कीरति = कीर्ति, महिमा। गाउ = गाया कर। रसनां = हे जीभ! करि = किया कर। बंदन = नमस्कार। ऊहां = वहाँ, संत जनों के हृदय में। बसना = बसते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरी जीभ! परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। हे भाई! संत-जनों के चरणों पे अनेक बार नमस्कार किया कर, संत-जनों के दिल में सदा परमात्मा के चरण बसते हैं।1। रहाउ। अनिक भांति करि दुआरु न पावउ ॥ होइ क्रिपालु त हरि हरि धिआवउ ॥१॥ पद्अर्थ: अनिक भांति करि = अनेक ढंग बरत के। न पावउ = मैं नहीं पा सकता। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ।1। अर्थ: हे भाई! अनेक ढंग इस्तेमाल करके भी मैं परमात्मा का दर नहीं ढूँढ सकता। अगर परमात्मा स्वयं ही दयावान होए तो मैं उसका ध्यान धर सकता हूँ।1। कोटि करम करि देह न सोधा ॥ साधसंगति महि मनु परबोधा ॥२॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। करम = निहित हुए धार्मिक कर्म। करि = कर के। देह = शरीर। न सोधा = पवित्र नहीं होता, शुद्ध नहीं होता। परबोधा = (माया के मोह की नींद में से) जाग जाता है।2। अर्थ: हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदिक) करोड़ों ही (निहित हुए धार्मिक) कर्म करके (मनुष्य का) शरीर पवित्र नहीं हो सकता। मनुष्य का मन साधु-संगत में ही (माया के मोह की नींद में से) जागता है।2। त्रिसन न बूझी बहु रंग माइआ ॥ नामु लैत सरब सुख पाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: त्रिसन = प्यास, लालच। लैत = लेते हुए, स्मरण करते। सरब = सारे।3। अर्थ: हे भाई! (करोड़ों कर्म करके भी इस) बहु-रंगी माया की तृष्णा नहीं मिटती। पर परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारे सुख मिल जाते हैं।3। पारब्रहम जब भए दइआल ॥ कहु नानक तउ छूटे जंजाल ॥४॥३॥ पद्अर्थ: दइआल = दयावान। कहु = कह। जंजाल = माया के मोह के फंदे।4। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जब (किसी प्राणी पर) प्रभु जी दयावान होते हैं, तब (परमात्मा का नाम स्मरण करके उस मनुष्य की) माया के मोह के (सारे) फंदे टूट जाते हैं।4।3। कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी मांगु गोबिद ते ॥ टहल संतन की संगु साधू का हरि नामां जपि परम गते ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ऐसी = इस तरह की (दाति)। ते = से। संगु साधू का = गुरु का साथ। जपि = जप के। परम गते = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से ऐसी (दाति) माँग (कि मुझे) संत जनों की टहल (करने का मौका मिलता रहे, मुझे) गुरु का साथ (मिला रहे, और) हरि-नाम जप के (मैं) सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था (प्राप्त कर सकूँ)।1। रहाउ। पूजा चरना ठाकुर सरना ॥ सोई कुसलु जु प्रभ जीउ करना ॥१॥ पद्अर्थ: पूजा = भक्ति, प्यार। कुसलु = सुख। जु = जो।1। अर्थ: (हे भाई! ये माँग प्रभु से मांग कि मैं) प्रभु-चरणों की भक्ति करता रहूँ, प्रभु की शरण पड़ा रहूँ (यह माँग कि) जो कुछ प्रभु जी करते हैं, उसको मैं सुख समझूँ।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |