श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1299 सफल होत इह दुरलभ देही ॥ जा कउ सतिगुरु मइआ करेही ॥२॥ पद्अर्थ: सफल = कामयाब। दुरलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाली। देही = काया, मानव शरीर। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। मइआ = दया, मेहर। करेही = करते हैं।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु जी कृपा करते हैं (वह मनुष्य परमात्मा से साधु-संगत का मिलाप और हरि-नाम का स्मरण माँगता है, इस तरह) उसका ये दुर्लभ मनुष्य-जनम सफल हो जाता है।2। अगिआन भरमु बिनसै दुख डेरा ॥ जा कै ह्रिदै बसहि गुर पैरा ॥३॥ पद्अर्थ: अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। भरमु = भटकना। दुख डेरा = दुखों का डेरा। जा कै ह्रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। बसहि = बसते हैं।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरु के चरण बसते हैं, उसके अंदर आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी दूर हो जाती है; सारे दुखों का डेरा ही उठ जाता है।3। साधसंगि रंगि प्रभु धिआइआ ॥ कहु नानक तिनि पूरा पाइआ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: रंगि = प्यार से। तिनि = उस (मनुष्य) ने। पूरा = पूरा प्रभु।4। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस (मनुष्य) ने गुरु की संगति में (टिक के) प्यार से परमात्मा का स्मरण किया है, उसने उस पूरन परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है।4।4। कानड़ा महला ५ ॥ भगति भगतन हूं बनि आई ॥ तन मन गलत भए ठाकुर सिउ आपन लीए मिलाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भगतन हूँ = भगतों को ही। बनि आई = फबती है। गलत = गलतान, मस्त। सिउ = से। आपन = अपने साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की) भक्ति भक्त-जनों से ही हो सकती है। उनके तन उनके मन परमात्मा की याद में मस्त रहते हैं। उनको प्रभु अपने साथ मिलाए रखता है।1। रहाउ। गावनहारी गावै गीत ॥ ते उधरे बसे जिह चीत ॥१॥ पद्अर्थ: गावनहारी = रिवाजी तौर पर गाने वाली दुनिया। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। जिह चीत = जिनके चिक्त में।1। अर्थ: हे भाई! दुनिया रिवाजी तौर पर ही (महिमा के) गीत गाती है। पर संसार-समुंदर से पार वही लांघते हैं, जिनके हृदय में बसते हैं।1। पेखे बिंजन परोसनहारै ॥ जिह भोजनु कीनो ते त्रिपतारै ॥२॥ पद्अर्थ: बिंजन = स्वादिष्ट खाने। परोसनहारै = परोसने वाले ने, और के आगे धरने वाले ने। त्रिपतारै = अघा जाता है, तृप्त हो जाता है।2। अर्थ: हे भाई! औरों के आगे (खाना) परोसने वाले ने (तो सदा) स्वादिष्ट खाने देखे हैं, पर तृप्त वही हैं जिन्होंने वह खाए।2। अनिक स्वांग काछे भेखधारी ॥ जैसो सा तैसो द्रिसटारी ॥३॥ पद्अर्थ: काछै = (कांछित) मन बांछित। भेखधारी = स्वांग रचने वाला। सा = था। तैसो = वैसा ही। द्रिसटारी = दिखता है।3। अर्थ: हे भाई! भेस धारी (स्वांग रचने वाला) मनुष्य (माया की खातिर) अनेक मन-इच्छित स्वांग बनाता है, पर जैसा वह (असल में) है, वैसा ही (उनको) दिखता है (जो उसको जानते हैं)।3। कहन कहावन सगल जंजार ॥ नानक दास सचु करणी सार ॥४॥५॥ पद्अर्थ: कहन कहावन = और-और बातें कहनी कहलवानी। जंजार = जंजाल, माया के मोह के फंदों (के कारण)। सचु = सदा स्थिर हरि नाम स्मरण। सार = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य।4। अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम स्मरण के बिना) और-और बातें कहनी-कहलवानी- ये सारे प्रयास माया के मोह के फंदों के मूल हैं। हे दास नानक! परमात्मा का नाम स्मरणा ही सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है।4।5। कानड़ा महला ५ ॥ तेरो जनु हरि जसु सुनत उमाहिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जनु = दास, सेवक। जसु = महिमा। सुनत = सुनते हुए। उमाहिओ = उमाह में आ जाता है, प्रसन्न-चिक्त हो जाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तेरा सेवक तेरी महिमा सुनते हुए उमाह में आ जाता है।1। रहाउ। मनहि प्रगासु पेखि प्रभ की सोभा जत कत पेखउ आहिओ ॥१॥ पद्अर्थ: मनहि = मन में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की) रौशनी। पेखि = देख के। सोभा = बड़ाई। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूं। आहिओ = मौजूद।1। अर्थ: हे भाई! प्रभु की महिमा देख के (मेरे) मन में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। मैं जिधर-किधर भी देखता हूँ, (मुझे वह हर तरफ) मौजूद (दिखाई देता) है।1। सभ ते परै परै ते ऊचा गहिर ग्मभीर अथाहिओ ॥२॥ पद्अर्थ: ते = से। ते ऊचा = (सबसे) ऊँचा। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों से बड़ा और सब जीवों से ऊँचा है; गहरा (समुंदर) है, बड़े जिगरे वाला है, उसकी थाह नहीं लगाई जा सकती।2। ओति पोति मिलिओ भगतन कउ जन सिउ परदा लाहिओ ॥३॥ पद्अर्थ: ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। परदा = पर्दा, दूरी। लाहिओ = दूर कर दिया।3। अर्थ: हे भाई! (जैसे) ताने में पेटे में (धागा मिला हुआ होता है, वैसे) परमात्मा अपने भगतों को मिला हुआ होता है, हे भाई! अपने सेवकों से उसने ओहला (पर्दा) दूर किया होता है।3। गुर प्रसादि गावै गुण नानक सहज समाधि समाहिओ ॥४॥६॥ पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। सहल = आत्मिक अडोलता। समाहिओ = लीन रहता है।4। अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (जो मनुष्य परमात्मा के) गुण गाता रहता है वह आत्मिक अडोलता की समाधि में लीन रहता है।4।6। कानड़ा महला ५ ॥ संतन पहि आपि उधारन आइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पहि = पास, के हृदय में। उधारन = (जीवों को संसार समुंदर से) पार लंघाने के लिए।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जगत के जीवों को) विकारों से बचाने के लिए (परमात्मा) स्वयं संत-जनों के हृदय में बसता है।1। रहाउ। दरसन भेटत होत पुनीता हरि हरि मंत्रु द्रिड़ाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: दरसन भेटत = (संत जनों का, गुरु का) दर्शन करते हुए। पुनीता = पवित्र, अच्छे जीवन वाला। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का करता है।1। अर्थ: हे भाई! (जीव गुरु का) दर्शन करते हुए पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, (गुरु उनके हृदय में) परमात्मा का नाम दृढ़ कर देता है।1। काटे रोग भए मन निरमल हरि हरि अउखधु खाइओ ॥२॥ पद्अर्थ: निरमल = साफ। अउखधु = दवाई।2। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु से) हरि-नाम की दवाई (ले के) खाते हैं (उनके) सारे रोग काटे जाते हैं; (उनके) मन पवित्र हो जाते हैं।2। असथित भए बसे सुख थाना बहुरि न कतहू धाइओ ॥३॥ पद्अर्थ: असथित = अडोल चिक्त। सुख थाना = आत्मिक अडोलता में। बहुरि = दोबार, फिर। कतहू = कहीं भी। धाइओ = भटकता, दौड़ता।3। अर्थ: हे भाई! (गुरु से दवाई ले के खाने वाले मनुष्य) अडोल-चिक्त हो जाते हैं, आत्मिक आनंद में टिके रहते हैं, (इस आनंद को छोड़ के वे) दोबारा किसी और तरफ़ नहीं भटकते।3। संत प्रसादि तरे कुल लोगा नानक लिपत न माइओ ॥४॥७॥ पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। कुल लोगा = (उसकी) कुल के सारे लोग। लिपत न माइओ = माया में लिप्त नहीं होता, माया का प्रभाव नहीं पड़ता।4। अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (नाम-दवाई खा के वे सिर्फ खुद ही नहीं तैरते, उनकी) कुल के लोग भी (संसार-समुंदर से पार) लांघ जाते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता।4।7। कानड़ा महला ५ ॥ बिसरि गई सभ ताति पराई ॥ जब ते साधसंगति मोहि पाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिसरि गई = भूल गई है। सभु = सारी। ताति = ईष्या, जलन। ताति पराई = दूसरों का सुख देख के अंदर अंदर से जलने की आदत। ते = से। जब ते = जब से। मोहि = मैं।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब से मैंने गुरु की संगति प्राप्त की है, (तब से) दूसरों का सुख देख के अंदर-अंदर से जलने की आदत भूल गई है।1। रहाउ। ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई ॥१॥ पद्अर्थ: को = कोई (मनुष्य)। सगल संगि = सबके साथ। हम कउ बनि आई = मेरा प्यार बना हुआ है।1। अर्थ: हे भाई! (अब) मुझे कोई वैरी नहीं दिखता, कोई पराया नहीं दिखता; सबके साथ मेरा प्यार बना हुआ है।1। जो प्रभ कीनो सो भल मानिओ एह सुमति साधू ते पाई ॥२॥ पद्अर्थ: भल = भला, अच्छा। सुमति = अच्छी अकल। साधू ते = गुरु से।2। अर्थ: हे भाई! (अब) जो कुछ परमात्मा करता है, मैं उसको (सब जीवों के लिए) भला मानता हूँ। ये सुमति मैंने (अपने) गुरु से सीखी है।2। सभ महि रवि रहिआ प्रभु एकै पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥३॥८॥ पद्अर्थ: रवि रहिआ = मौजूद है। पेखि = देख के। बिगसाई = मैं खुश होता हूँ।3। अर्थ: हे नानक! (कह: जब से साधु-संगत मिली है, मुझे ऐसा दिखता है कि) एक परमात्मा ही सब जीवों में मौजूद है (तभी सबको) देख-देख के खुश होता हूँ।3।8। कानड़ा महला ५ ॥ ठाकुर जीउ तुहारो परना ॥ मानु महतु तुम्हारै ऊपरि तुम्हरी ओट तुम्हारी सरना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठाकुर जीउ = हे प्रभु जी! परना = आसरा। महतु = महत्व, बड़ाई।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! (मुझे) तेरा ही आसरा है। मुझे तेरे ऊपर ही माण है; फखर है, मुझे तेरी ही ओट है, मैं तेरी ही शरण आ पड़ा हूँ।1। रहाउ। तुम्हरी आस भरोसा तुम्हरा तुमरा नामु रिदै लै धरना ॥ तुमरो बलु तुम संगि सुहेले जो जो कहहु सोई सोई करना ॥१॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। संगि = साथ। सुहेले = सुखी। कहहु = तुम कहते हो।1। अर्थ: हे प्रभु जी! मुझे तेरी ही आस है, तेरे ऊपर ही भरोसा है, मैंने तेरा ही नाम (अपने) हृदय में टिकाया हुआ है। मुझे तेरा ही ताण है, तेरे चरणों में मैं सुखी रहता हूँ। जो कुछ तू कहता है, मैं वही कुछ कर सकता हूँ।1। तुमरी दइआ मइआ सुखु पावउ होहु क्रिपाल त भउजलु तरना ॥ अभै दानु नामु हरि पाइओ सिरु डारिओ नानक संत चरना ॥२॥९॥ पद्अर्थ: मइआ = कृपा, दया। पावउ = मैं पाता हूं। क्रिपाल = कृपालु, दयावान। त = तो। भउजलु = संसार समुंदर। अभै दान = निर्भयता देने वाला। डारिओ = रख दिया है।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से, तेरी कृपा से ही मैं सुख पाता हूँ। अगर तू दयावान हो, तो मैं इस संसार-समुंदर को पार लांघ सकता हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) निर्भयता का दान देने वाला, हरि-नाम मैंने (गुरु से) हासिल कर लिया है (इसलिए) मैंने अपना सिर गुरु के चरणों पर रखा हुआ है।2।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |