श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1300 कानड़ा महला ५ ॥ साध सरनि चरन चितु लाइआ ॥ सुपन की बात सुनी पेखी सुपना नाम मंत्रु सतिगुरू द्रिड़ाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साध = गुरु। पेखी = देख ली। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर दिया।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के चरणों में चिक्त जोड़ा है, (जब से) गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र (मेरे दिल में) दृढ़ कर के टिकाया है (तब से उस जगत को) सपना ही (आँखों से) देख लिया जिसके सपने की बात सुनी हुई थी।1। रहाउ। नह त्रिपतानो राज जोबनि धनि बहुरि बहुरि फिरि धाइआ ॥ सुखु पाइआ त्रिसना सभ बुझी है सांति पाई गुन गाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: त्रिपतानो = अघाता। जोबनि = जवानी से। धनि = धन से। बहुरि = दोबारा। धाइआ = भटकता है। बुझी है = समाप्त हो गई है।1। अर्थ: हे भाई! (ये मन) राज-जोबन-धन से नहीं तृप्त होता, बार-बार (इन पदार्थों के पीछे) भटकता फिरता है। पर, जब मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, और माया की सारी तृष्णा बुझ जाती है, आत्मिक आनंद मिल जाता है, शांति प्राप्त हो जाती है।1। बिनु बूझे पसू की निआई भ्रमि मोहि बिआपिओ माइआ ॥ साधसंगि जम जेवरी काटी नानक सहजि समाइआ ॥२॥१०॥ पद्अर्थ: की निआई = जैसा। भ्रमि = भटक के। मोहि = मोह में। बिआपिओ = फसा हुआ। साध संगि = साधु-संगत में। जेवरी = रस्सी, फंदा। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन की) सूझ के बिना मनुष्य पशू-समान ही रहता है, माया की भटकना में माया के मोह में फंसा रहता है। पर, हे नानक! साधु-संगत में बसने से जमों वाला फंदा कट जाता है, मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन हो जाता है।2।10। कानड़ा महला ५ ॥ हरि के चरन हिरदै गाइ ॥ सीतला सुख सांति मूरति सिमरि सिमरि नित धिआइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। गाइ = गाया कर, महिमा करा कर। सीतला मूरति = उस प्रभु को जिसका स्वरूप ठंडा ठार है। सुख मूरति = सुख स्वरूप प्रभु। सांति मूरति = शांति स्वरूप प्रभु को। धिआइ = ध्याया कर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण हृदय में (टिका के; उसके गुण) गाया कर। उस प्रभु का सदा ध्यान धरा कर, उस प्रभु का सदा स्मरण किया कर जो शांति-स्वरूप है जो सुख-स्वरूप है जो शीतल-स्वरूप है।1। रहाउ। सगल आस होत पूरन कोटि जनम दुखु जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सगल = सारी। कोटि जनम दुखु = करोड़ों जन्मों का दुख।1। अर्थ: हे भाई! (नाम-जपने की इनायत से मनुष्य की) सारी आशाएं पूरी हो जाती हैं, करोड़ों जन्मों के दुख दूर हो जाते हैं।1। पुंन दान अनेक किरिआ साधू संगि समाइ ॥ ताप संताप मिटे नानक बाहुड़ि कालु न खाइ ॥२॥११॥ पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। समाइ = लीन हुआ रह। कालु = मौत, आत्मिक मौत।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की संगति में टिका रह- यही है अनेक किस्म के पुण्य-दान आदि कर्म। (संगति की इनायत से सारे) दुख-कष्ट मिट जाते हें, आत्मिक मौत (आत्मिक जीवन को) फिर नहीं खा सकती।2।11। कानड़ा महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कथीऐ संतसंगि प्रभ गिआनु ॥ पूरन परम जोति परमेसुर सिमरत पाईऐ मानु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कथीऐ = कथना चाहिए, बात चलानी चाहिए। प्रभ गिआनु कथीऐ = प्रभु का ज्ञान कथन करना चाहिए, प्रभु के गुणों की बात चलानी चाहिए। संत संगि = संत जनों की संगति में। पूरन = सर्व व्यापक। परम जोति = सबसे ऊँची ज्योति। सिमरत = स्मरण करते हुए। पाईऐ = पाया जाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! संतजनों की संगति में (टिक के) परमात्मा के गुणों की बात चलानी चाहिए। हे भाई! सर्व-व्यापक सबसे ऊँचे नूर परमेश्वर का (नाम) स्मरण करते हुए (लोक-परलोक में) इज्जत हासिल की जाती है।1। रहाउ। आवत जात रहे स्रम नासे सिमरत साधू संगि ॥ पतित पुनीत होहि खिन भीतरि पारब्रहम कै रंगि ॥१॥ पद्अर्थ: रहै = खत्म हो जाते हैं। आवत जात = आते जाते, पैदा होते मरते, जनम मरण के चक्कर। स्रम = श्रम, थकावट। साधू = गुरु। पतित = विकारों में गिरे हुए। होहि = हो जाते हैं (बहुवचन)। कै रंगि = के प्रेम रंग में।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में (हरि-नाम) स्मरण करते हुए जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं (भटकनों की) थकावट का नाश हो जाता है। परमात्मा के प्रेम-रंग की इनायत से विकारी मनुष्य भी एक छिन में स्वच्छ जीवन वाले हो जाते हैं।1। जो जो कथै सुनै हरि कीरतनु ता की दुरमति नास ॥ सगल मनोरथ पावै नानक पूरन होवै आस ॥२॥१॥१२॥ पद्अर्थ: जो जो = जो जो मनुष्य। कथै = बयान करता है। दुरमति = खोटी मति। सगल = सारे। पावै = हासिल कर लेता है (एकवचन)।2। अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा की महिमा उचारता है सुनता है, उसकी खोटी-मति का नाश हो जाता है। हे नानक! वह मनुष्य सारी मनो-कामनाएं हासिल कर लेता है, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है।2।1।12। कानड़ा महला ५ ॥ साधसंगति निधि हरि को नाम ॥ संगि सहाई जीअ कै काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निधि = खजाना। को = का। संगि = (हर वक्त) साथ। सहाई = साथी। कै काम = के काम (आता है)।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में (रहने से) परमात्मा का नाम-खजाना (मिल जाता है, जो जीव के) साथ (सदा) साथी बना रहता है जो जिंद के (सदा) काम आता है।1। रहाउ। संत रेनु निति मजनु करै ॥ जनम जनम के किलबिख हरै ॥१॥ पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। निति = नित्य। मजनु = स्नान। किलबिख = पाप। हरै = दूर कर लेता है।1। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य संत-जनों की चरण-धूल में सदा स्नान करता है, वह अपने अनेक जन्मों के पाप दूर कर लेता है।1। संत जना की ऊची बानी ॥ सिमरि सिमरि तरे नानक प्रानी ॥२॥२॥१३॥ पद्अर्थ: ऊची बानी = ऊँचा जीवन बनाने वाली वाणी। सिमरि = स्मरण करके। तारे = पार लांघ गए।2। अर्थ: हे नानक! संत जनों की (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा करने वाली वाणी को स्मरण कर-कर के अनेक ही प्राणी संसार-समुंदर से पार लांघते आ रहे हैं।2।2।13। कानड़ा महला ५ ॥ साधू हरि हरे गुन गाइ ॥ मान तनु धनु प्रान प्रभ के सिमरत दुखु जाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साधू = गुरु (के द्वारा)। रहाउ। अर्थ: हे भाई! ये मन, ये तन, ये धन, ये जिंद, (जिस) प्रभु के (दिए हुए हैं, उसका नाम) स्मरण करने से (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (तू) गुरु (की शरण पड़ कर) उस प्रभु के गुण गाया कर।1। रहाउं ईत ऊत कहा लुोभावहि एक सिउ मनु लाइ ॥१॥ पद्अर्थ: कहा = कहाँ? लुोभावहि = तू लोभ में फस रहा है। सिउ = साथ।1। नोट: ‘लुोभावहि’ में से अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘लोभावहि’, यहां ‘लुभावहि’ पढ़ना है। अर्थ: हे भाई! तू इधर-उधर क्यों लोभ में फंस रहा है? एक परमात्मा के साथ अपना मन जोड़।1। महा पवित्र संत आसनु मिलि संगि गोबिदु धिआइ ॥२॥ पद्अर्थ: संत आसनु = गुरु का ठिकाना। मिलि संगि = (गुरु) के साथ मिल के।2। अर्थ: हे भाई! गुरु का ठिकाना (जीवन को) बहुत सुच्चा बनाने वाला है। गुरु को मिल के गोबिंद को (अपने मन में) ध्याया कर।2। सगल तिआगि सरनि आइओ नानक लेहु मिलाइ ॥३॥३॥१४॥ पद्अर्थ: तिआगि = छोड़ के।3। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) सारे (आसरे) छोड़ के मैं भी तेरी शरण आया हूँ मुझे अपने चरणों में जोड़े रख।3।3।14। कानड़ा महला ५ ॥ पेखि पेखि बिगसाउ साजन प्रभु आपना इकांत ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पेखि पेखि = (हर जगह बसता) देख देख के। बिगसाउ = मैं खिल उठता हूँ। इकांत = (सर्व व्यापक होता हुआ भी) अलग, निर्लिप, एकांत।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं अपने सज्जन प्रभु को (हर जगह बसता) देख-देख के खुश हो जाता हूँ, (वह सर्व-व्यापक होते हुए भी माया के प्रभाव से) अलग रहता है।1। रहाउ। आनदा सुख सहज मूरति तिसु आन नाही भांति ॥१॥ पद्अर्थ: तिसु आन नाहि भांति = तिसु भांति आन नाही, उस जैसा और कोई नहीं। मूरति = स्वरूप।1। अर्थ: हे भाई! वह सज्जन प्रभु आनंद-रूप है, सुख-स्वरूप है, आत्मिक अडोलता का स्वरूप है। उस जैसा और कोई नहीं है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |