श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिसम बिसम बिसम ही भई है लाल गुलाल रंगारै ॥ कहु नानक संतन रसु आई है जिउ चाखि गूंगा मुसकारै ॥२॥१॥२०॥

पद्अर्थ: बिसम = हैरान। भई है = हुआ जाता है। लाल गुलाल रंगारै = सुंदर प्रभु और सुंदर प्रभु के रंगों से। कहु = कह। नानक = हे नानक! रसु = (आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का) स्वाद। आई है = आता है। चाखि = चख के। मुसकारै = मुस्करा देता है।2।

अर्थ: हे भाई! सोहाने प्रभु और सुंदर प्रभु के (आश्चर्यजनक) करिश्मों (को देख के) हैरान हो जाया जाता है। हे नानक! कह: संत जनों को (आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का) स्वाद आता है (पर, इस स्वाद को वे बयान नहीं कर सकते) जैसे (कोई) गूँगा मनुष्य (कोई स्वादिष्ट पदार्थ) चख के (सिर्फ) मुस्करा ही देता है (पर स्वाद को बयान नहीं कर सकता)।2।1।20।

कानड़ा महला ५ ॥ न जानी संतन प्रभ बिनु आन ॥ ऊच नीच सभ पेखि समानो मुखि बकनो मनि मान ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आन = अन्य। पेखि = देख के। समानो = समान, एक जैसा (बसता)। मुखि = मुँह से। बकनो = उचारना। मनि = मन में। मान = मानना, बयान करना।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! संतजनों ने प्रभु के बिना किसी और को (कहीं बसता) नहीं जाना। संतजन ऊँचे-नीचे सब जीवों में (सिर्फ परमात्मा को) एक समान (बसता) देख के मुँह से (परमात्मा का नाम) उचारते हैं और (अपने) मन में उसका ध्यान धरते हैं।1। रहाउ।

घटि घटि पूरि रहे सुख सागर भै भंजन मेरे प्रान ॥ मनहि प्रगासु भइओ भ्रमु नासिओ मंत्रु दीओ गुर कान ॥१॥

पद्अर्थ: घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। पूरि रहे = व्यापक हैं। सुख सागर = सुखों के समुंदर (प्रभु जी)। भै भंजन = सारे डर दूर करने वाले प्रभु जी। मेरे प्रान = मेरे प्राणों से प्यारे प्रभु जी। मनहि = मन में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ की) रौशनी। मंत्रु गुर = गुरु का मंत्र, उपदेश। दीओ कान = कान में दिया, (हृदय में) दृढ़ किया।1।

अर्थ: हे भाई! मेरे प्राणों से प्यारे प्रभु जी, सारे डर दूर करने वाले प्रभु जी, सारे सुखों के समुंदर प्रभु जी हरेक शरीर में मौजूद हैं।

जिसके अंदर परमात्मा गुरु का शब्द पक्का कर देता है, उनके मन में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश पैदा हो जाता है (उनके अंदर से) भटकना दूर हो जाती है।1।

करत रहे क्रतग्य करुणा मै अंतरजामी ग्यिान॥ आठ पहर नानक जसु गावै मांगन कउ हरि दान ॥२॥२॥२१॥

पद्अर्थ: करत रहे = करते हैं। क्रतग्य = कृतज्ञ, (कृत = प्रभु के किए हुए उपकार। ज्ञ = जानना)।, प्रभु के किए हुए उपकारों को जानने वाले। करुणामै = (करुणा = तरस) तरस भरपूर। अंतरजामी = सबके दिलों की जानने वाला। ग्यिआन = ज्ञान, जान पहचान। गावै = गाता है (एकवचन)। मांगन कउ = माँगने के लिए।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के किए को जानने वाले (संत जन) अंतरजामी करुणामय परमात्मा के गुणों की बातें करते रहते हैं। नानक (भी) परमात्मा (के नाम) का दान माँगने के लिए आठों पहर उसकी महिमा का गीत गाता रहता है।2।2।

कानड़ा महला ५ ॥ कहन कहावन कउ कई केतै ॥ ऐसो जनु बिरलो है सेवकु जो तत जोग कउ बेतै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कई = अनेक लोग। केतै = कितने ही लोग। जो = (जो) सेवक। तत जोग कउ = तत्व के जोग को, जगत के मूल प्रभु के मिलाप को। बेतै = जानता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! ऐसा कोई विरला संत जन है, कोई विरला सेवक है, जो जगत-के-मूल-परमात्मा के मिलाप का आनंद लेता है। ज़बानी कहने कहलवाने को तो अनेक ही हैं।1। रहाउ।

दुखु नाही सभु सुखु ही है रे एकै एकी नेतै ॥ बुरा नही सभु भला ही है रे हार नही सभ जेतै ॥१॥

पद्अर्थ: रे = हे भाई! एकै एकी = सिर्फ एक परमात्मा को। नेत्रै = आँखों में (बसाता है), आँखों से (देखता है)। जेतै = (विकारों के मुकाबले में) जीत।1।

अर्थ: हे भाई! (जो कोई विरला संत जन प्रभु-मिलाप का आनंद पाता है, उसे) कोई दुख छू नहीं सकता, (उसके अंदर सदा) आनंद ही आनंद है, वह एक परमात्मा को ही (हर जगह) आँखों से देखता है। हे भाई! उसे कोई मनुष्य बुरा नहीं लगता, हरेक भला ही दिखता है, (दुनिया के विकारों के मुकाबले उसको) कभी हार नहीं होती, सदा जीत ही होती है।1।

सोगु नाही सदा हरखी है रे छोडि नाही किछु लेतै ॥ कहु नानक जनु हरि हरि हरि है कत आवै कत रमतै ॥२॥३॥२२॥

पद्अर्थ: सोगु = चिन्ता, गम। हरखी = हर्ष ही, खुशी ही। छोडि = (उस हर्ष को) छोड़ के। कत आवै = कहाँ आता है? (बार बार) पैदा नहीं होता। कत रमते = कहाँ जाता है? बार बार नहीं मरता।2।

अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य ही प्रभु-मिलाप का सुख पाता है, (उसको कभी) चिन्ता नहीं व्यापती, (उसके अंदर सदा) खुशी ही रहती है। (इस आत्मिक आनंद को) छोड़ के वह कुछ और ग्रहण नहीं करता। हे नानक! कह: परमात्मा जो इस प्रकार का सेवक बनता है वह बार-बार जन्म मरण के चक्करों में नहीं पड़ता।2।3।22।

कानड़ा महला ५ ॥ हीए को प्रीतमु बिसरि न जाइ ॥ तन मन गलत भए तिह संगे मोहनी मोहि रही मोरी माइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। हीए को = हृदय का। गलत = गलतान, मस्त, गर्क। तिह संगे = उस (मोहनी के) साथ ही। मोहनी = मन को मोह लेने वाली माया। मेरी माइ = हे मेरी माँ!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी माँ! (मैं तो सदा यही अरदास करता हूँ कि मेरे) दिल का जानी प्रभु (मुझे कभी भी) ना भूले। (उसको भुलाने से) मन को मोहने वाली माया अपने मोह में फसाने लग जाती है, शरीर और मन (दोनों ही) उस (मोहनी) के साथ ही मस्त रहते हैं।1। रहाउ।

जै जै पहि कहउ ब्रिथा हउ अपुनी तेऊ तेऊ गहे रहे अटकाइ ॥ अनिक भांति की एकै जाली ता की गंठि नही छोराइ ॥१॥

पद्अर्थ: जै जै पहि = जिस जिस (मनुष्यों) के पास। कहउ = मैं कहता हूँ। ब्रिथा = तकलीफ़, मुश्किल। हउ = मैं। गहे = पकड़े हुए। रहे अटकाइ = जीवन-राह में रुके हुए हें। जाली = फंदा। गंठि = गाँठ। नही छोराइ = कोई छुड़ा नहीं सकता।1।

अर्थ: हे माँ! जिस-जिस के पास मैं अपनी ये मुश्किल बताता हूँ, वे भी सभी (इस मोहनी के पँजे में) फंसे हुए हैं और (जीवन-राह में) रुके हुए हैं। (ये मोहनी) अनेक ही रूपों का एक ही फंदा है, इसके द्वारा (डाली हुई) गाँठ को कोई नहीं खोल सकता।1।

फिरत फिरत नानक दासु आइओ संतन ही सरनाइ ॥ काटे अगिआन भरम मोह माइआ लीओ कंठि लगाइ ॥२॥४॥२३॥

पद्अर्थ: अगिआन = (आत्मिक जीवन से) बेसमझी। भरम = भटकना। कंठि = गले से।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! अनेक जूनियों में) भटकता-भटकता जो (मनुष्य संत जनों का) दास (बन के) संत जनों की शरण आता है, (उसके अंदर से) आत्मिक जीवन से बेसमझी, भटकना, और माया के मोह (की गाँठें) काटी जाती हैं, (प्रभु जी) उसको अपने गले से लगा लेते हैं।2।4।23।

कानड़ा महला ५ ॥ आनद रंग बिनोद हमारै ॥ नामो गावनु नामु धिआवनु नामु हमारे प्रान अधारै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रंग = खुशियां। बिनोद = खुशी, आनंद। हमारै = हमारे अंदर, मेरे हृदय में। नामो = हरि नाम ही। प्रान अधारे = जिंदगी का सहारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (गुरु के चरणों के साथ) मेरे हृदय में सदा आत्मिक आनंद का चाव बना रहता है (क्योंकि परमात्मा का) नाम मेरी जिंदगी का सहारा बन गया है, हरि-नाम ही (मेरा हर-वक्त) का गीत है, हरि-नाम ही मेरी तवज्जो का निशाना (बन चुका) है।1। रहाउ।

नामो गिआनु नामु इसनाना हरि नामु हमारे कारज सवारै ॥ हरि नामो सोभा नामु बडाई भउजलु बिखमु नामु हरि तारै ॥१॥

पद्अर्थ: सवारै = सफल करता है, सिरे चढ़ाता है। भउजलु = संसार समुंदर। बिखमु = कठिन, मुश्किल। तारै = पार लंघाता है।1।

अर्थ: हे भाई! (गुरु के चरणों का सदका अब परमात्मा का) नाम ही (मेरे वास्ते शास्त्रों का) ज्ञान है, नाम (मेरे वास्ते) तीर्थों का सनान है हरि-नाम मेरे सारे काम सिरे चढ़ाता है। हे भाई! परमात्मा का नाम (मेरे) लिए (दुनिया की) शोभा-बड़ाई है। हे भाई! परमात्मा का नाम (ही) इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लंघाता है।1।

अगम पदारथ लाल अमोला भइओ परापति गुर चरनारै ॥ कहु नानक प्रभ भए क्रिपाला मगन भए हीअरै दरसारै ॥२॥५॥२४॥

पद्अर्थ: अगम = अ+गम, जिस तक पहुँच ना हो सके, अगम्य (पहुँच से परे)। अमोला = जो किसी कीमत से ना मिल सके। गुर चरनारै = गुरु के चरणों की इनायत से। कहु = कह। मगन = मस्त। हीअरै = हृदय में।2।

अर्थ: हे भाई! यह हरि-नाम एक ऐसा कीमती पदार्थ है जिस तक (अपने उद्यम से) पहुँच नहीं हो सकती, यह एक ऐसा लाल है जो किसी भी मोल में नहीं मिलता (अनमोल है)। पर यह गुरु के चरणों में टिके रह के मिल जाता है। हे नानक! कह: (गुरु के चरणों की इनायत से जिस मनुष्य पर) प्रभु जी दयावान होते हैं, वह अपने हृदय में ही प्रभु के दर्शन में मस्त रहता है।2।5।24।

कानड़ा महला ५ ॥ साजन मीत सुआमी नेरो ॥ पेखत सुनत सभन कै संगे थोरै काज बुरो कह फेरो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नेरो = (हरेक जीव के) नजदीक। पेखत = देखता है। कै संगे = के साथ ही। थोरै काज = थोड़ी सी जिंदगी के मनोरथों की खातिर। बुरो फेरो = बुरे काम। काह = क्यों?।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (सबका) सज्जन-मित्र मालिक प्रभु (हर वक्त तेरे) नजदीक (बस रहा है)। वह सब जीवों के साथ बसता है (सबके कर्म) देखता है (सबकी) सुनता है थोड़ी से जिंदगी के मनोरथों की खातिर बुरे काम क्यों किए जाएं?।1। रहाउ।

नाम बिना जेतो लपटाइओ कछू नही नाही कछु तेरो ॥ आगै द्रिसटि आवत सभ परगट ईहा मोहिओ भरम अंधेरो ॥१॥

पद्अर्थ: जेतो = जितना भी। लपटानिओ = तू चिपक रहा है। द्रिसटि आवत = दिखाई पड़ता है। आगै = परलोक में। प्रगट = प्रत्यक्ष तौर पर। ईहा = इस लोक में। मोहिओ = माया के मोह में फसा हुआ है।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना और जितने भी पदार्थों के साथ तू चिपक रहा है उनमें से तेरा (आखिर) कुछ भी नहीं बनना। यहाँ तू माया के मोह में फंस रहा है, भ्रमों के अंधकार में (ठोकरें खा रहा है) पर परलोक में (यहाँ का किया हुआ) सब कुछ प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई दे जाता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh