श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1303 अटकिओ सुत बनिता संग माइआ देवनहारु दातारु बिसेरो ॥ कहु नानक एकै भारोसउ बंधन काटनहारु गुरु मेरो ॥२॥६॥२५॥ पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। देवनहारु = सब कुछ देने की सामर्थ्य वाला। बिसेरो = भुला दिया है। एकै भारोसउ = एक का भरोसा। काटनहारु = काटने की सामर्थ्य वाला।2। अर्थ: हे भाई! तू पुत्र-स्त्री और माया के मोह में (आत्मिक जीवन के पथ पर से) रुका हुआ है, सब कुछ दे सकने वाले दातार-प्रभु को भुला रहा है। हे नानक! कह: हे भाई! सिर्फ एक (गुरु परमेश्वर का) भरोसा (रख)। प्यारा गुरु (माया के सारे) बंधन काटने की समर्थता रखने वाला है (उसी की शरण पड़ा रह)।2।6।25। कानड़ा महला ५ ॥ बिखै दलु संतनि तुम्हरै गाहिओ ॥ तुमरी टेक भरोसा ठाकुर सरनि तुम्हारी आहिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिखै दलु = विषियों का दल। संतनि तुम्रै = तेरे संत जनों द्वारा। गाहिओ = गाह लिया है, वश में कर लिया है। ठाकुर = हे ठाकुर! आहिओ = चाहता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) ठाकुर! मुझे तेरी टेक है, मुझे तेरा (ही) भरोसा है, मैं (सदा) तेरी ही शरण चाहता हूँ। तेरे संत जनों की संगति से मैंने (सारे) विषौ (-विकारों) के दल को वश में कर लिया है।1। रहाउ। जनम जनम के महा पराछत दरसनु भेटि मिटाहिओ ॥ भइओ प्रगासु अनद उजीआरा सहजि समाधि समाहिओ ॥१॥ पद्अर्थ: पराछत = पाप। भेटि = भेट के, भेट कर के। मिटाहिओ = मिटा लेते हैं। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। उजीआरा = उजाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाहिओ = लीन रहते हैं।1। अर्थ: हे (मेरे) ठाकुर! (जो भी भाग्यशाली तेरी शरण पड़ते हैं, वे) तेरे दर्शन करके जन्म-जन्मांतरों के पाप मिटा लेते हैं, (उनके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ की) रोशनी हो जाती है, आत्मिक आनंद का प्रकाश हो जाता है, वह सदा आत्मिक अडोलता की समाधि में लीन रहते हैं।1। कउनु कहै तुम ते कछु नाही तुम समरथ अथाहिओ ॥ क्रिपा निधान रंग रूप रस नामु नानक लै लाहिओ ॥२॥७॥२६॥ पद्अर्थ: तुम ते = तुझसे। समरथ = सारी ताकतों का मालिक। अथाहिओ = अथाह, बेअंत गहरा। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! लाहिओ = लाहा, लाभ।2। अर्थ: हे मेरे ठाकुर! कौन कहता है कि तुझसे कुछ भी हासिल नहीं होता? तू सारी ताकतों का मालिक प्रभु (सुखों का) अथाह (समुंदर) है। हे नानक! (कह:) हे कृपा के खजाने! (जो मनुष्य तेरी शरण पड़ता है, वह तेरे दर से तेरा) नाम-लाभ हासिल करता है (यह नाम ही उसके वास्ते दुनिया के) रंग-रूप-रस हैं।2।7।26। कानड़ा महला ५ ॥ बूडत प्रानी हरि जपि धीरै ॥ बिनसै मोहु भरमु दुखु पीरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बूडत प्रानी = (विकारों में) डूब रहा मनुष्य। जपि = जप के। धीरै = (पार लांघ सकने के लिए) हौसला हासिल कर लेता है। बिनसै = नाश हो जाता है। भरमु = भटकना। पीरै = पीड़ा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (संसार-समुंदर में) डूब रहा मनुष्य (गुरु के माध्यम से) परमात्मा का नाम जप के (पार लांघ सकने के लिए) हौसला प्राप्त कर लेता है, (उसके अंदर से) माया का मोह मिट जाता है, भटकना दूर हो जाती है, दुख-दर्द नाश हो जाता है।1। रहाउ। सिमरउ दिनु रैनि गुर के चरना ॥ जत कत पेखउ तुमरी सरना ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। रैनि = रात। जत कत = जिधर किधर। पेखउ = मैं देखता हूँ।1। अर्थ: हे भाई! मैं (भी) दिन-रात गुरु के चरणों का ध्यान धरता हूँ। हे प्रभु! मैं जिधर-किधर देखता हूँ (गुरु की कृपा से) मुझे तेरा ही सहारा दिख रहा है।1। संत प्रसादि हरि के गुन गाइआ ॥ गुर भेटत नानक सुखु पाइआ ॥२॥८॥२७॥ पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। गुर भेटत = गुरु को मिलते हुए।2। अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (जो मनुष्य) परमात्मा के गुण गाने लग पड़ा, गुरु को मिल के उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया।2।8।27। कानड़ा महला ५ ॥ सिमरत नामु मनहि सुखु पाईऐ ॥ साध जना मिलि हरि जसु गाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। मनहि = मन में। पाईऐ = प्राप्त कर लेते हैं। मिलि = मिल के। जसु = महिमा। गाईऐ = गाना चाहिए।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! संत-जनों की संगति में मिल के परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहना चाहिए (क्योंकि) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए मन में आनंद प्राप्त किया जा सकता है।1। रहाउ। करि किरपा प्रभ रिदै बसेरो ॥ चरन संतन कै माथा मेरो ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! रिदै = हृदय में। बसेरो = ठिकाना। चरन संतन कै = संत जनों के चरणों में।1। अर्थ: हे प्रभु! मेहर करके (मेरे) हृदय में (अपना) ठिकाना बनाए रख। हे प्रभु! मेरा माथा (तेरे) संतजनों के चरणों पर टिका रहे।1। पारब्रहम कउ सिमरहु मनां ॥ गुरमुखि नानक हरि जसु सुनां ॥२॥९॥२८॥ पद्अर्थ: कउ = को। मनां = हे मन! गुरमुखि = गुरु की शरण पडत्र कर। सुनां = सुनूँ।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा के गीत सुना कर।2।9।28। कानड़ा महला ५ ॥ मेरे मन प्रीति चरन प्रभ परसन ॥ रसना हरि हरि भोजनि त्रिपतानी अखीअन कउ संतोखु प्रभ दरसन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! परसन = छूना। रसना = जीभ। भोजनि = भोजन से। त्रिपतानी = तृप्त रहती है। अखीअन कउ = आँखों को। संतोख = शांति।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (जिस मनुष्यों के अंदर)! प्रभु के चरण-छूने के लिए तड़प होती है, उनकी जीभ परमात्मा के नाम की (आत्मिक) खुराक से तृप्त रहती है, उनकी आँखों को प्रभु-दीदार की ठंड मिली रहती है।1। रहाउ। करननि पूरि रहिओ जसु प्रीतम कलमल दोख सगल मल हरसन ॥ पावन धावन सुआमी सुख पंथा अंग संग काइआ संत सरसन ॥१॥ पद्अर्थ: करननि = कानों में। पूरि रहिओ = भरा रहता है, टिका रहता है। कलमल = पाप। मल = मैल। हरसन = दूर कर सकने वाला। पावन धावन = पैरों से दौड़ भाग। पंथा = रास्ता। सुख पंथा = सुख देने वाला रास्ता। काइआ = काया, शरीर। सरसन = स+रसन, रस सहित, हुल्लारे वाले।1। अर्थ: हे मेरे मन! (जिस मनुष्यों के अंदर प्रभु के चरण छूने की चाहत होती है, उनके) कानों में प्रीतम-प्रभु की महिमा टिकी रहती है जो सारे पाप सारे ऐबों की मैल दूर करने के समर्थ है, उनके पैरों की दौड़-भाग मालिक-प्रभु (के मिलाप) के सुखद रास्तेपर बनी रहती है, उनके शारीरिकअंग संत जनों (के चरणों) के साथ (छू के) उल्लास में बने रहते हैं।1। सरनि गही पूरन अबिनासी आन उपाव थकित नही करसन ॥ करु गहि लीए नानक जन अपने अंध घोर सागर नही मरसन ॥२॥१०॥२९॥ पद्अर्थ: गही = पकड़ी। उपाव = उपाय। आन = अन्य, और। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लीए = पकड़ लिए। अंध घोर = घोर अंधेरा। सागर = समुंदर। मरसन = (आत्मिक) मौत।2। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे मेरे मन जिस मनुष्यों ने सर्व-व्यापक नाश-रहित परमात्मा की शरण पकड़ ली, वह (इस शरण को छोड़ के उसके मिलाप के लिए) और-और उपाय करके थकते नहीं फिरते। हे नानक! (कह:) प्रभु ने जिस अपने सेवकों का हाथ पकड़ लिया होता है, वह सेवक (माया के मोह के) घोर-अंधकार भरे संसार-समुंदर में आत्मिक मौत नहीं सहते।2।10।29। कानड़ा महला ५ ॥ कुहकत कपट खपट खल गरजत मरजत मीचु अनिक बरीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कुहकत = कुहकते हैं (मोरों की तरह)। खपट = नाश करने वाले, आत्मिक जीवन को तबाह करने वाले। कपट = खोट। खल = दुष्ट (कामादिक)। गरजत = गरजते हैं। मीचु = मौत, आत्मिक मौत। मरजत = मारती है। बरीआ = बारी।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का) नाश करने वाले खोट भड़के रहते हैं, (जिनके अंदर कामादिक) दुष्ट गरजते रहते हैं, (उनको) मौत अनेक बार मारती रहती है।1। रहाउ। अहं मत अन रत कुमित हित प्रीतम पेखत भ्रमत लाख गरीआ ॥१॥ पद्अर्थ: अहं = अहंकार। मत = मस्त हुए। अन = अन्य, और-और (रस)। रत = रति हुए, रंगे हुए। कुमित = खोटे मित्र। हित = प्यार। पेखत = देखते। भ्रमत = भटकते। गरी = गली। लाख गरीआ = (कामादिक विकारों की) लाखों गलियां।1। अर्थ: हे भाई! (ऐसे मनुष्य) अहंकार में मस्त हुए (प्रभु को भुला के) अन्य (रसों) में रति (रंगे) रहते हैं, (ऐसे मनुष्य) खोटे मित्रों से प्यार डालते हैं, खोटों को अपना मित्र बनाते हैं, (ऐसे मनुष्य कामादिक विकारों की) लाखों गलियों को झाकते भटकते फिरते हैं।1। अनित बिउहार अचार बिधि हीनत मम मद मात कोप जरीआ ॥ करुण क्रिपाल गुोपाल दीन बंधु नानक उधरु सरनि परीआ ॥२॥११॥३०॥ पद्अर्थ: अनित बिउहार = ना नित्य रहने वाले पदार्थों का कार्य व्यवहार। अचार = आचरण। बिधि हीनत = मर्यादा से वंचित। मम = ममता। मद = नशा। मात = मस्त हुए। कोप = क्रोध। जरीआ = जलते। करुण = (करुणा = तरस) हे तरस रूप! क्रिपाल = हे दया के घर! गुोपालु = हे गुपाल! दीन बंधु = गरीबों का हितैषी। उधरु = (विकारों से) बचाए रख।2। नोट: ‘गुोपालु’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है। अर्थ: हे भाई! (ऐसे मनुष्य) नाशवान पदार्थों के कार्य-व्यवहार में ही व्यस्त रहते हैं, उनका आचरण अच्छी मर्यादा से वंचित रहता है, वे (माया की) ममता के नशे में मस्त रहते हैं, और क्रोध की आग में जलते रहते हैं। हे नानक! (कह:) हे तरस-रूप प्रभु! हे दया के घर प्रभु! हे सृष्टि के मालिक! तू गरीबों का प्यारा है, (मैं तेरी) श्रण आ पड़ा हूँ, (मुझे इन कामादिक दुष्टों से) बचाए रख।2।11।30। कानड़ा महला ५ ॥ जीअ प्रान मान दाता ॥ हरि बिसरते ही हानि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीअ दाता = जिंद देने वाला। प्रान दाता = प्राण देने वाला। मान दाता = इज्जत देने वाला। बिसरते = भूलते हुए। हानि = हानि, घाटा, आत्मिक घाटा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा (तुझे) जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, इज्जत देने वाला है। (ऐसे) परमात्मा को विसारते ही (आत्मिक जीवन) में घाटा ही घाटा पड़ता है।1। रहाउ। गोबिंद तिआगि आन लागहि अम्रितो डारि भूमि पागहि ॥ बिखै रस सिउ आसकत मूड़े काहे सुख मानि ॥१॥ पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के, भुला के। आन = अन्य, और-और (पदार्थों में)। लागहि = तू लग रहा है। अंम्रितो = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। डारि = डोल के, उड़ेल के, गिरा के। भूमि पागहि = धरती पर फेंक रहा है। बिखै रस सिउ = विषौ विकारों के स्वादों से। आसकत = लंपट, चिपका हुआ। मूढ़े = हे मूर्ख! काहे = कैसे? मानि = मान कर सकता है।1। अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा (की याद) छोड़ के तू और-और (पदार्थों) में लगा रहता है, तू आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल उड़ेल के धरती पर फेंक रहा है, विषौ-विकारों के स्वाद से चिपका हुआ तू कैसे सुख हासिल कर सकता है?।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |