श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कामि क्रोधि लोभि बिआपिओ जनम ही की खानि ॥ पतित पावन सरनि आइओ उधरु नानक जानि ॥२॥१२॥३१॥

पद्अर्थ: कामि = काम (-वासना) में। बिआपिओ = फसा हुआ। खानि = खान में, श्रोत। जनम ही की खानि = जन्मों के ही चक्करों का श्रोत। पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! उधरु = बचा ले। जानि = (अपने) जान के।2।

अर्थ: हे मूर्ख! तू (सदा) काम में, क्रोध में, लोभ में फंसा रहता है। (ये काम, क्रोध, लोभ आदि तो) जन्मों के चक्करों का ही साधन हैं।

हे नानक! (कह:) हे विकारियों को पवित्र करने वाले प्रभु! (मैं तेरी) शरण आया हूँ, (मुझे अपने दर पर गिरा) समझ के (इन विकारें से बचाए रख)।2।12।31।

कानड़ा महला ५ ॥ अविलोकउ राम को मुखारबिंद ॥ खोजत खोजत रतनु पाइओ बिसरी सभ चिंद ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अविलोकउ = मैं देखता हूँ। को = का। मुखारबिंद = (मुख+अरविंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल के फूल जैसा सुंदर मुख। खोजत = खोजते हुए। चिंद = चिन्ता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (गुरु के द्वारा) तलाश करते-करते (मैंने परमात्मा का नाम-) रतन पा लिया है (जिसकी इनायत से मेरे अंदर से) सारी चिन्ता दूर हो गई है। (अब मेरी यही तमन्ना रहती है कि) मैं प्रभु का सुंदर मुखड़ा (सदा) देखता रहूँ।1। रहाउ।

चरन कमल रिदै धारि ॥ उतरिआ दुखु मंद ॥१॥

पद्अर्थ: रिदै = दिल में। धारि = धार के, टिका के। मंद = बुरा, चंदरा।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु के सुंदर चरण हृदय में बसा के (मेरे अंदर से) बुरा (सारा) दुख दूर हो गया है।1।

राज धनु परवारु मेरै सरबसो गोबिंद ॥ साधसंगमि लाभु पाइओ नानक फिरि न मरंद ॥२॥१३॥३२॥

पद्अर्थ: मेरै = मेरे वास्ते। सरबसो = (सर्वस्व = सारा धन) सब कुछ। साध संगमि = गुरु की संगति में। मरंद = आत्मिक मौत आती।2।

अर्थ: हे भाई! (अब) मेरे वास्ते परमात्मा (का नाम ही) सब कुछ है, (नाम ही मेरे वास्ते) राज (है, नाम ही मेरे वास्ते) धन (है, नाम ही मेरा) परिवार है। हे नानक! (जिस मनुष्यों ने) गुरु की संगति में (टिक के परमात्मा के नाम का) लाभ कमा लिया, उनको फिर आत्मिक मौत नहीं आती।2।13।32।

कानड़ा महला ५ घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

प्रभ पूजहो नामु अराधि ॥ गुर सतिगुर चरनी लागि ॥ हरि पावहु मनु अगाधि ॥ जगु जीतो हो हो गुर किरपाधि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पुजहो = पूजहु, पूजा भक्ति करो। आराधि = आराध के, स्मरण करके। लागि = लग के। पावहु = पा लोगे, मिलाप हासिल कर लोगे। अगाधि = अथाह। जीतो = जीता जा सकेगा। हो = हे भाई! गुर किरपाधि = गुरु की कृपा से।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु सतिगुरु की चरणी लग के प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के प्रभु की पूजा-भक्ति किया करो, (इस तरह उस) अथाह मन (के मालिक) प्रभु का मिलाप हासिल कर लोगे। हे भाई! गुरु की कृपा से (प्रभु का स्मरण करने से) जगत (का मोह) जीता जाता है।1। रहाउ।

अनिक पूजा मै बहु बिधि खोजी सा पूजा जि हरि भावासि ॥ माटी की इह पुतरी जोरी किआ एह करम कमासि ॥ प्रभ बाह पकरि जिसु मारगि पावहु सो तुधु जंत मिलासि ॥१॥

पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरह। सा = वही। जि = जो। हरि भावासि = हरि को अच्छी लगती है। पुतरी = पुतली। जोरी = जोड़ी, बनाई। एह = ये पुतली। किआ करम = कौन से कर्म? कमासि = कर सकती हैं। प्रभ = हे प्रभु! पकरि = पकड़ के। मारगि = रास्ते पर। तुधु = तुझे। मिलासि = मिल जाता है।1।

अर्थ: हे भाई! (जगत में) अनेक पूजाएं (हो रही हैं) मैंने (इनकी) कई तरह से खोज-तलाश की है, (पर) वही पूजा (श्रेष्ठ) है जो परमात्मा को अच्छी लगती है (जिससे परमात्मा प्रसन्न होता है)। (पर, ऐसी पूजा भी प्रभु स्वयं ही करवाता है)। हे भाई! (परमात्मा ने मनुष्य की यह) मिट्टी की पुतली बना दी (पुतलियों का मालिक पुतलियों को खुद ही नचाता है), ये जीव-पुतली (पुतलियां घड़ने वाले प्रभु की प्रेरणा के बिना) कोई काम नहीं कर सकती। हे प्रभु! जिस जीव को (उसकी) बाँह पकड़ के तू (जीवन के सही) रास्ते पर चलाता है, वह जीव तुझे मिल जाता है।1।

अवर ओट मै कोइ न सूझै इक हरि की ओट मै आस ॥ किआ दीनु करे अरदासि ॥ जउ सभ घटि प्रभू निवास ॥ प्रभ चरनन की मनि पिआस ॥ जन नानक दासु कहीअतु है तुम्हरा हउ बलि बलि सद बलि जास ॥२॥१॥३३॥

पद्अर्थ: मैं = मुझे। दीनु = निमाणा, गरीब। जउ = जब। घटि = घट में, शरीर में। मनि = मन में। कहीअतु है = कहलवाता है, कहा जाता है। हउ = मैं। बलि बलि = सदके। सद = सदा। जास = जाता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु के बिना) मुझे कोई और आसरा नहीं सूझता, मुझे सिर्फ प्रभु की ओट है प्रभु की (सहायता की) आस है। हे भाई! जब हरेक शरीर में प्रभु का ही निवास है (तो उसकी प्रेरणा के बिना) बेचारा जीव कोई अरदास भी नहीं कर सकता। हे भाई! (उसकी मेहर से ही मेरे) मन में प्रभु के चरणों (के मिलाप) की तमन्ना है।

हे प्रभु! दास नानक तेरा दास कहलवाता है (इसकी इज्जत रख, इसको अपने चरणों में जोड़े रख)। हे प्रभु! मैं तुझसे सदा सदके जाता हूँ कुर्बान जाता हूँ।2।1।33।

कानड़ा महला ५ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जगत उधारन नाम प्रिअ तेरै ॥ नव निधि नामु निधानु हरि केरै ॥ हरि रंग रंग रंग अनूपेरै ॥ काहे रे मन मोहि मगनेरै ॥ नैनहु देखु साध दरसेरै ॥ सो पावै जिसु लिखतु लिलेरै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रिअ = हे प्यारे प्रभु! जगत उधारन = जगत (के जीवों) को (विकारों से) बचा सकने वाला। तेरै = तेरे (हाथ) में। नवनिधि = (धरती के) नौ (ही) खजाने। निधानु = खजाना। हरि केरै = हरि के। रंग रंग रंग = अनेक ही रंग। हरि अनूपेरै = सुंदर हरि। अनूप = (अन+ऊप) जिस जैसा सुंदर कोई और नहीं, बहुत सुंदर। मोहि = मोह में। मगनेरै = मगन, मस्त। नैनहु = आँखों से। साध दरसेरै = गुरु का दर्शन। जिसु लिलेरै = जिस के माथे पर (लिलार = लिलाट, माथा)।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जगत (के जीवों को विकारों से) बचाने वाला तेरा नाम तेरे (ही हाथ) में है। हे भाई! परमात्मा का नाम-खजाना (मानो, धरती के) नौ खजाने हैं। हे मन! सुंदर हरि के (इस जगत में) अनेक ही रंग-तमाशे हैं, तू (इन रंगों के) मोह में क्यों मस्त हो रहा है? हे भाई! (अपनी) आँखों से गुरु के दर्शन किया कर, (पर जीव के भी क्या वश? गुरु का दर्शन) वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसके माथे पर (इस दर्शन का) लेख लिखा होता है।1। रहाउ।

सेवउ साध संत चरनेरै ॥ बांछउ धूरि पवित्र करेरै ॥ अठसठि मजनु मैलु कटेरै ॥ सासि सासि धिआवहु मुखु नही मोरै ॥ किछु संगि न चालै लाख करोरै ॥ प्रभ जी को नामु अंति पुकरोरै ॥१॥

पद्अर्थ: सेवउ = मैं सेवा करता हूँ। बांछउ = मैं चाहता हूँ। करेरै = करती है। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान। कटेरै = काटती है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। नही मोरै = नहीं मोड़ता। संगि = साथ। करोरै = करोड़ों। को = का। अंति = आखिर को, अंत के समय (जब अन्य हरेक पदार्थ का साथ समाप्त हो जाता है)। पुकरोरै = पुकरता है, मदद करता है, साथ निभाता है।1।

अर्थ: हे भाई! मैं (तो) संत जनों के चरणों की ओट लेता हूँ। मैं (संतजनों के चरणों की) धूल माँगता हूँ (ये चरण-धूल मनुष्य का जीवन) पवित्र कर देती है। (ये चरण-धूल ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है (संत जनों की चरण-धूर का स्नान जीवों के मन की) मैल दूर करता है। हे भाई! (अपने) हरेक सांस के साथ परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है, उसकी ओर से परतात्मा अपना) मुँह नहीं मोड़ता। हे भाई! (जमा किए हुए) लाखों-करोड़ों रुपयो में से कुछ भी (आखिरी वक्त मनुष्य के) साथ नहीं जाता। आखिरी समय में (जब हरेक पदार्थ का साथ खत्म हो जाता है) परमात्मा का नाम ही साथ निभाता है।1।

मनसा मानि एक निरंकेरै ॥ सगल तिआगहु भाउ दूजेरै ॥ कवन कहां हउ गुन प्रिअ तेरै ॥ बरनि न साकउ एक टुलेरै ॥ दरसन पिआस बहुतु मनि मेरै ॥ मिलु नानक देव जगत गुर केरै ॥२॥१॥३४॥

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, मन का फुरना। मानि = शांति कर। निरंकेरै = निरंकार में। भाउ = प्यार। दूजेरै = दूसरे पदार्थ में। कहां = मैं कहूँ। प्रिआ = हे प्यारे प्रभु! साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। टुलेरै = टोल, (दिया हुआ) पदार्थ, किया हुआ उपकार। मनि मेरै = मेरे मन में। मिलु नानक = नानक को मिल। देव जगत गुर केरै = हे जगत के गुरदेव!।2।

अर्थ: हे भाई! (अपने) मन के फुरने को सिर्फ निरंकार (की याद) में शांत कर ले। (प्रभु के बिना) और-और पदार्थ में (डाला हुआ) प्यार सारा ही छोड़ दे।

हे प्यारे प्रभु! तेरे अंदर (अनेक ही) गुण (हैं), मैं (तेरे) कौन-कौन से गुण बता सकता हूँ? मैं तो तेरे एक उपकार को भी बयान नहीं कर सकता। हे जगत के गुरदेव! मेरे मन में तेरे दर्शनों की बहुत तमन्ना है, (मुझे) नानक को मिल।2।1।34।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh